।। गुरु-पूर्णिमा (गुरु कैसा हो)।।
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वही तो है जो तप में तपता , विप्रवंश का अभिमानी
वही शंभु की माला जपता, दिव्यतांश का सम्मानी
वही बना जाता कैसे हैं , तुमको आज बताता हूं
नये-नये,शास्त्रों के करतब, तुमको आज सिखाता हूं ।।१।।
उससे पहले मुझे बताओ मेरे शिष्य बनोगे क्या?
अपने भीतर तेज-पुंज का दिव्याकाश जनोगे क्या?
अगर तुम्हें मंज़ूर निमंत्रण शास्त्रों के उपदेष्टा का !
आमंत्रण मंजूर अगर हो शैव-मार्ग-प्रवेष्टा का!!२!!
अगर जगत् के सर के ऊपर अपना नाम लिखाना है
ताकत का यदि इस दुनिया को उज्ज्वल धाम दिखाना है,
तो आओ फिर मेरी दीक्षा, अपने दिल में धारो तुम
शास्त्र वचन सुनने से पहले, मन भोगों से मारो तुम।।३।।
तो आओ फिर तुमको लेकर चलता हूं मैं उस पारे
जहां देवता ओंकार की ध्वनि को कंठों में धारे
बैठे जहां त्रिपुण्ड्र लगाए शिवशंकर वे त्रिपुरारी
गरुड़ध्वज है जहां बिराजे भक्तों के अभयंकारी।।४।।
चिंतन के ही मार्ग पकड़ कर क्षण में जाते भक्त जहां,
मंथन करके बुद्धि का जाते तत्वों में सक्त जहां,
और कहो तो उससे भी, आगे जो लोक प्रतिष्ठित हैं ,
ब्रह्मलोक की आभा में ही , आत्मतत्व परिनिष्ठित हैं।।५।।
ले जा सकता तुम्हें वहां मैं, मेघलोक के पार तुरत!
ध्वन्यात्मा हो शब्दात्मा हो , चंद्रलोक के पार तुरत!
लेकिन ये सारी चीजें मैं , अपनों को ही देता हूं
जीते से लगते मुझको , उन सपनों को ही देता हूं!!६!!
मानव का विश्वास नहीं है , क्षण में आंख बदलता है,
जहां दीखता धन है इसको ,इसका हृदय पिघलता है,
इसीलिए मैं सब पर भी, विश्वास नहीं कर सकता हूं
स्वार्थ-मात्र-उत्सुक लोगों से आस नहीं कर सकता हूं।।७।।
पात्रापात्र विवेक सदा शास्त्रों में बड़ा बताया है
गुरु-शिष्य के लिए सदा ही नियम कड़ा बतलाया है
गुरु-वाक्यों में सदियों की तपशक्ति परिलक्षित होती,
गुरु में ही तो हरिहर की भी आभा सल्लक्षित होती।।८।।
शिष्य नहीं बनाते हैं जो , यूं ही ऐरों-गैरों को
धनी देख, नहीं दीक्षा देते , यूं ही नत्थूखैरों को,
करते रहते सदा-सदा , दुर्गा,शिव का ही पाठ अमर,
ऐसे गुरु की दीक्षा जो , मिल जाए शिष्य को कहीं अगर।।९।।
त्याग तपस्या की आभा से, सदा चमकता है माथा ,
गाते रहते हैं प्रतिदिन ही , राम नाम की जो गाथा ,
छूते नहीं जरा भी धन को , कपट नहीं जिनको आता ,
ऐसो को ही गुरु बनाओ, जो हों भवसागर त्राता।।१०।।
जिन की कोठी बड़ी-बड़ी हैं , महल बड़े हैं खड़े हुए,
छोड़ तपस्या भोग-भोगने में ही जो हैं अड़े हुए ,
वे तुमको क्या मुक्ति देंगे , वे तो खुद बंधन में है,
छोड़ो ऐसे गुरुओं को, सुख केवल रघुनंदन में है।।११।।
रघुनंदन ही गुरु तुम्हारा वो ही एक सहारा है !
महा-भयंकर भवसागर से उसने पार उतारा है !
योग्य मिले नहीं गुरु अगर तो , गुरु करो शिवशंकर को!
भक्तों के करुणा-स्वरूप, दुष्टों के लिए भयंकर को!!१२!!
सर्दी-गर्मी-बारिश से भी रुकती नहीं तपस्या है,
तन पर चाहे बनें घोंसले, होती नहीं समस्या है,
जिन लोगों ने भूख प्यास को, मोह,क्रोध को त्याग दिया,
जिन लोगों ने मंत्रों की दुनिया में केवल भाग लिया!!१३!!
मंत्रों की शक्ति से जो कुछ कर-धर-हर भी सकते हैं,
तंत्रों की शक्ति से जो नर, मर कर भी जी सकते हैं ,
यंत्रों की शक्ति से जो इक दुनियां नई सजाते हैं ,
ऐसे भी गुरु , लोगों को कुछ चमत्कार दिखलाते हैं।।१४।।
प्रेम करें जो लौकिक-भोगों से वे उनके प्रेमी है,
किंतु मोक्ष मार्ग के गामी राम-नाम के प्रेमी है,
जिसकी जैसी श्रद्धा होती वह उसको फल जाता है ,
कभी-कभी जैसे को तैसा लंपट-गुरु मिल जाता है।।१५।।
राम नाम ही जीवन जिनका राम नाम ही मरना है ,
राम नाम ही ध्यान है जिनका, राम सुखों का झरना है ,
राम नाम की रक्षा हेतु जो हंसकर मर सकते हैं ,
सच मानो वे इस दुनिया में सब कुछ भी कर सकते हैं।।१६।।
कुछ ऐसे भी गुरु यहां जो राम-नाम की शक्ति से
दीर्घकाल तक वन में जाकर करी हुई शिव भक्ति से
भोग-मोक्ष की सुविधा भी उपदेश मात्र से देते हैं ,
ऐसे लोगों को ही हम गुरु की श्रेणी में लेते हैं।।१७।।
खुद की भी श्रद्धा फलती है , गुरु चाहे भी जैसा हो ,
कामी, क्रोधी हो , या मन में सदा नाचता पैसा हो ,
है कोई यदि महाभक्त वह क्यों दोषों को देखेगा?
यदि मान लिया किसी एक गुरु को,क्यों दूजों को देखेगा??१८??
दीक्षा देते फिरते हैं जो जहां-तहां कहीं पर भी ,
शिक्षा देते फिरते हैं जो यहां-वहां कहीं पर भी ,
शिक्षा-दीक्षा ऐसे लोगों की भी क्या फलती होगी ?
संयोग बिना,बस काष्ठ-मात्र से क्या अग्नि जलती होगी??१९??
लंबी है यह कथा बहुत, महाकाव्य बन सकता है !
सुधियों हेतु हृदयाकर्षक महाश्राव्य बन सकता है !
लेकिन थोड़े में जो समझे,समझाएं वह श्रेष्ठ कवि!
जैसे अल्पाक्षर स्वाहा से स्वर्गलोक में जाए हवि !!२०!!
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© डॉ.हिमांशु गौड़
०३:४३ अपराह्न,०४/०७/२०२०, गाजियाबाद।