Saturday, 18 January 2025

संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक

 ए.आई. की दस्तक

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(विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्रुतस्फूर्त विचार है, इस विषय पर अन्य प्रकारों से भी विचार संभव है। )

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पिछले दशकों में किसी विद्वान् के लिखे साहित्य पर पीएचडी करते थे तब प्रथम अध्याय में उस रचयिता के बारे में जानने के लिए, और विषय को जानने के लिए उसके पास जाया करते थे, यह शोध-यात्रा कभी-कभी शहर-दर-शहर हुआ करती थी! लेकिन आजकल सब कुछ गूगल पर उपलब्ध है, आप बेशक कह सकते हैं कि इससे समय और पैसे की बचत हुई।

लेकिन इस बारे में मेरा नजरिया दूसरा भी है, उस विद्वान् से मिलने जाना, उसका पूरा साक्षात्कार लेना, वह पूरी यात्रा- एक अलग ही अनुभव है।

और अब ए.आई. का जमाना आ गया! अब तो 70% पीएचडी में किसी की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।

बेशक नयी तकनीक हमें सुविधा देती है, लेकिन कुछ बेशकीमती छीनती भी है।

आप समझ रहे हैं ना कि कोई व्यक्ति आपके ही लिखे साहित्य पर पीएचडी कर रहा है और आपकी उसको लेश मात्र भी जरूरत नहीं!

क्योंकि सब कुछ आपने अपना रचित गूगल पर डाल रखा है।

या फिर व्याकरण शास्त्र पढ़ने के लिए वैयाकरण गुरु जन की जरूरत नहीं। या फिर किसी श्लोक की सुंदर व्याख्या हेतु किसी साहित्यिक विद्वान् की जरूरत नहीं। किसी पाण्डुलिपि के टेक्स्ट को पहचानने के लिए किसी संस्कृत विद्वान् की जरूरत नहीं!

सोच कर देखिए! आपने इतनी मुश्किल से यह शास्त्र ज्ञान हासिल किया, और एक मशीन ने आकर आपके बहुत सारे रोजगार के स्रोतों को छीन कर आपको घर बैठने को मजबूर कर दिया!

 यहां तक की संस्कृत का अनुवाद भी ए.आई. कर देगा! व्याख्या भी काफी हद तक कर देगा! इंसान की आवश्यकता यह मशीन खत्म कर रही है, अर्थात् इंसान को ही खत्म कर रही है!

यह किसी के लिए सुविधा है, तो किसी के लिए नुकसान भी है।

आज हजारों कर्मचारियों को एक मशीन आने पर कंपनी से बाहर निकाल दिया जाता है। 

ए.आई. के अपने कुछ फायदे निश्चित हैं, तो कुछ भयभीत करने वाले नुकसान भी हैं।

संस्कृत का समग्र ज्ञान गूगल पर उपस्थित हो जाने पर कोई धूर्तमति अनधिकृत पुरुष भी दो-चार श्लोक याद कर स्वयं को विद्वान् बताता है, उसको न शास्त्र के गौरव का पता है, ना ही मर्यादा का! वह दो श्लोक कालिदास के भी सुना सकता है, और दो श्लोक बाणभट्ट, और अभिराज राजेंद्र मिश्र के !! 

सुनने वाले को आधुनिक धनिक जन को लगेगा कि शायद साहित्य का विद्वान् यही है!

AI के अच्छे वर्जन से सामान्य संस्कृत का अनुवाद अब संभव है (कादंबरी आदि का तो मुश्किल है)। सुविधा की दृष्टि से यह बेशक अच्छी बात हो सकती है, लेकिन एक दूसरे नजरिए से खराब बात भी है, कि जो हिंदी से संस्कृत अनुवाद का काम करते हैं, उनके रोजगार पर असर पड़ेगा। 

दूसरा अनुवाद की एप्लीकेशन उपलब्ध होने पर कोई व्यक्ति संस्कृत सीखने में इतना उत्सुक नहीं होगा। 


जैसे आज अमुक शब्द में कौनसा प्रत्यय है ऐसा सर्च करने पर इसका जवाब गूगल पर आ जाता है, तब ऐसे दो-चार प्रश्नों का ज्ञान रखने वाला भी खुद को व्याकरण का विद्वान् समझ सकता है, इससे विद्वन्मन्य आधा अधूरा ज्ञान रखने वालों की संख्या में भारी बढ़ोतरी होगी।

अल्पज्ञ या आसानी से शास्त्र को हासिल करने वाला शास्त्र के गौरव की रक्षा नहीं कर सकता।

 जिसको सरस्वती की गरिमा का भान नहीं, वह ज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने का भी अधिकारी नहीं है।

एक मेरे परिचित (जो संस्कृत क्षेत्र के नहीं थे) ने मेरे सामने ही एआई से वेदमन्त्र का अनुवाद किया, तथा उसमें अपनी तर्क शील बुद्धि लगाकर अर्थ का अनर्थ करने लगे, तब मैंने समझा कि वेदों का विचार करना भी सबके बस की नहीं।

असल में किसी भी मंजिल पर पहुंचने के लिए एक विशेष तरन्नुम में रहना होता है, एक अलग रंग में रंगना होता है, सब तरफ चलने वाला आदमी कहीं नहीं पहुंच पाता यह सुसिद्ध है।

 इसी प्रकार यह नया तकनीक युग विचारकों को सोचने पर मजबूर कर रहा है! विद्वान् पुरुषों को चाहिए कि वे अभी आगे के युग की सम्यक् कल्पना करके, अपने साहित्यादिक क्षेत्र में कदम बढ़ाएं!

क्योंकि अभी तक संस्कृत क्षेत्र ऐसा था कि इसमें तकनीकी लोगों का बस नहीं चलता था, झक मारकर विद्वान् पुरुषों के पास आना ही पड़ता था! लेकिन आजकल स्थिति काफी बदल चुकी है, विचाणीयमेतत्! 

हर हर महादेव।

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हिमांशु गौड़ 

११:५४ दोपहर 

१९/०१/२०२५

Tuesday, 28 November 2023

गुरु कैसा हो, कविता

 ।। गुरु-पूर्णिमा (गुरु कैसा हो)।।

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वही तो है जो तप में तपता , विप्रवंश का अभिमानी

वही शंभु की माला जपता, दिव्यतांश का सम्मानी

वही बना जाता कैसे हैं , तुमको आज बताता हूं

नये-नये,शास्त्रों के करतब, तुमको आज सिखाता हूं ।।१।।


उससे पहले मुझे बताओ मेरे शिष्य बनोगे क्या?

अपने भीतर तेज-पुंज का दिव्याकाश जनोगे क्या?

अगर तुम्हें मंज़ूर निमंत्रण शास्त्रों के उपदेष्टा का !

आमंत्रण मंजूर अगर हो शैव-मार्ग-प्रवेष्टा का!!२!!


अगर जगत् के सर के ऊपर अपना नाम लिखाना है

ताकत का यदि इस दुनिया को उज्ज्वल धाम दिखाना है,

तो आओ फिर मेरी दीक्षा, अपने दिल में धारो तुम 

शास्त्र वचन सुनने से पहले, मन भोगों से मारो तुम।।३।।


तो आओ फिर तुमको लेकर चलता हूं मैं उस पारे

जहां देवता ओंकार की ध्वनि को कंठों में धारे

बैठे जहां त्रिपुण्ड्र लगाए शिवशंकर वे त्रिपुरारी

गरुड़ध्वज है जहां बिराजे भक्तों के अभयंकारी।।४।।


चिंतन के ही मार्ग पकड़ कर क्षण में जाते भक्त जहां,

मंथन करके बुद्धि का जाते तत्वों में सक्त जहां,

और कहो तो उससे भी, आगे जो लोक प्रतिष्ठित हैं ,

ब्रह्मलोक की आभा में ही , आत्मतत्व परिनिष्ठित हैं।।५।।


ले जा सकता तुम्हें वहां मैं, मेघलोक के पार तुरत!

ध्वन्यात्मा हो शब्दात्मा हो , चंद्रलोक के पार तुरत!

लेकिन ये सारी चीजें मैं , अपनों को ही देता हूं 

जीते से लगते मुझको , उन सपनों को ही देता हूं!!६!!


मानव का विश्वास नहीं है , क्षण में आंख बदलता है,

जहां दीखता धन है इसको ,इसका हृदय पिघलता है,

इसीलिए मैं सब पर भी, विश्वास नहीं कर सकता हूं 

स्वार्थ-मात्र-उत्सुक लोगों से आस नहीं कर सकता हूं।।७।।


पात्रापात्र विवेक सदा शास्त्रों में बड़ा बताया है 

गुरु-शिष्य के लिए सदा ही नियम कड़ा बतलाया है 

गुरु-वाक्यों में सदियों की तपशक्ति परिलक्षित होती,

गुरु में ही तो हरिहर की भी आभा सल्लक्षित होती।।८।।


शिष्य नहीं बनाते हैं जो , यूं ही ऐरों-गैरों को

धनी देख, नहीं दीक्षा देते , यूं ही नत्थूखैरों को,

करते रहते सदा-सदा , दुर्गा,शिव का ही पाठ अमर,

ऐसे गुरु की दीक्षा जो , मिल जाए शिष्य को कहीं अगर।।९।।


त्याग तपस्या की आभा से, सदा चमकता है माथा ,

गाते रहते हैं प्रतिदिन ही , राम नाम की जो गाथा ,

छूते नहीं जरा भी धन को , कपट नहीं जिनको आता ,

ऐसो को ही गुरु बनाओ, जो हों भवसागर त्राता।।१०।।


जिन की कोठी बड़ी-बड़ी हैं , महल बड़े हैं खड़े हुए,

छोड़ तपस्या भोग-भोगने में ही जो हैं अड़े हुए ,

वे तुमको क्या मुक्ति देंगे , वे तो खुद बंधन में है,

छोड़ो ऐसे गुरुओं को, सुख केवल रघुनंदन में है।।११।।


रघुनंदन ही गुरु तुम्हारा वो ही एक सहारा है !

महा-भयंकर भवसागर से उसने पार उतारा है !

योग्य मिले नहीं गुरु अगर तो , गुरु करो शिवशंकर को!

भक्तों के करुणा-स्वरूप, दुष्टों के लिए भयंकर को!!१२!!


सर्दी-गर्मी-बारिश से भी रुकती नहीं तपस्या है,

तन पर चाहे बनें घोंसले, होती नहीं समस्या है,

जिन लोगों ने भूख प्यास को, मोह,क्रोध को त्याग दिया,

जिन लोगों ने मंत्रों की दुनिया में केवल भाग लिया!!१३!!


मंत्रों की शक्ति से जो कुछ कर-धर-हर भी सकते हैं,

तंत्रों की शक्ति से जो नर, मर कर भी जी सकते हैं ,

यंत्रों की शक्ति से जो इक दुनियां नई सजाते हैं ,

ऐसे भी गुरु , लोगों को कुछ चमत्कार दिखलाते हैं।।१४।।


प्रेम करें जो लौकिक-भोगों से वे उनके प्रेमी है,

किंतु मोक्ष मार्ग के गामी राम-नाम के प्रेमी है,

जिसकी जैसी श्रद्धा होती वह उसको फल जाता है ,

कभी-कभी जैसे को तैसा लंपट-गुरु मिल जाता है।।१५।।


राम नाम ही जीवन जिनका राम नाम ही मरना है ,

राम नाम ही ध्यान है जिनका, राम सुखों का झरना है ,

राम नाम की रक्षा हेतु जो हंसकर मर सकते हैं ,

सच मानो वे इस दुनिया में सब कुछ भी कर सकते हैं।।१६।।


कुछ ऐसे भी गुरु यहां जो राम-नाम की शक्ति से

दीर्घकाल तक वन में जाकर करी हुई शिव भक्ति से

भोग-मोक्ष की सुविधा भी उपदेश मात्र से देते हैं ,

ऐसे लोगों को ही हम गुरु की श्रेणी में लेते हैं।।१७।।


खुद की भी श्रद्धा फलती है , गुरु चाहे भी जैसा हो ,

कामी, क्रोधी हो , या मन में सदा नाचता पैसा हो ,

है कोई यदि महाभक्त वह क्यों दोषों को देखेगा?

यदि मान लिया किसी एक गुरु को,क्यों दूजों को देखेगा??१८??


दीक्षा देते फिरते हैं जो जहां-तहां कहीं पर भी ,

शिक्षा देते फिरते हैं जो यहां-वहां कहीं पर भी ,

शिक्षा-दीक्षा ऐसे लोगों की भी क्या फलती होगी ?

संयोग बिना,बस काष्ठ-मात्र से क्या अग्नि जलती होगी??१९??


लंबी है यह कथा बहुत, महाकाव्य बन सकता है !

सुधियों हेतु हृदयाकर्षक महाश्राव्य बन सकता है !

लेकिन थोड़े में जो समझे,समझाएं वह श्रेष्ठ कवि!

जैसे अल्पाक्षर स्वाहा से स्वर्गलोक में जाए हवि !!२०!!


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© डॉ.हिमांशु गौड़

०३:४३ अपराह्न,०४/०७/२०२०, गाजियाबाद।

Sunday, 1 October 2023

शान्तविलास, पण्डितराज जगन्नाथ विरचित

 विशालविषयाटवीवलयलग्नदावानल-

प्रसृत्वरशिखावलीविकलितं मदीयं मनः।

अमन्दमिलदिन्दिरे निखिलमाधुरीमन्दिरे

मुकुन्दमुखचन्दिरे चिरमिदं चकोरायताम्‌॥१॥


अये जलधिनन्दिनीनयननीरजालम्बन

ज्वलज्ज्वलनजित्वरज्वरभरत्वराभङ्गुरम्‌।

प्रभातजलजोन्नमद्गरिमगर्वसर्वङ्कषै-

र्जगत्त्रितयरोचनैः शिशिरयाशु मां लोचनैः॥२॥


स्मृतापि तरुणातपं करुणया हरन्ती नृणा-

मभङ्गुरतनुत्विषां वलयिता शतैर्विद्युताम्‌।

कलिन्दगिरिनन्दिनीतटसुरद्रुमालम्बिनी

मदीयमतिचुम्बिनी भवतु कापि कादम्बिनी॥३॥


कलिन्दगिरिनन्दिनीतटवनान्तरं भावयन्‌

सदा पथि गतागतक्लमभरं हान्‌ प्राणिनाम्‌।

लतावलिशतावृतो मधुरया रुचा संभृतो

ममाशु हरतु श्रमानतितरां तमालद्रुमः॥४॥


वाचा निर्मलया सुधामधुरया यां नात्ग शिक्षामदा-

स्तां स्वप्नेऽपिन संस्मराम्यहमहंभावावृतो निस्त्रपः।

इत्यागः शतशालिनं पुनरपि स्वीयेषु मां बिभ्रत-

स्त्वत्तो नास्ति दयानिधिर्यदुपते मत्तो न मत्तोऽपरः॥५॥


पातालं व्रज याहि वा सुरपुरीमारोह मेरोः शिरः

पारावारपरम्पराहत यदि क्षेमं निजं वाञ्छसि

श्रीकृष्णेति रसायनं रसय रे शून्यैः किमन्यः श्रमैः॥६॥


मृद्वीका रसिता सिता समशिता स्फीतं निपीतं पयः

स्वर्यातेन सुधाप्यधायिकतिधा रम्भाधरः खण्डितः।

सत्यं ब्रूहि मदीय जीव भवता भूयो भवे भ्राम्यता

कृष्णेत्यक्षरयोरधं मधुरिमोद्गारः क्वचिल्लक्षितः॥७॥


वज्रं पापमहीभृतां भगवदोद्रेकस्य सिद्धौषधं

मिथ्याज्ञाननिशाविशालतमस्तिग्मांशुबिम्बोदयः।

क्रूरक्लेशमहीरुहामुरुभरज्वालाजटालः शिखी

द्वारं निर्वुतिद्मनौ विजयते कृष्णेति वर्णद्वयम्‌॥८॥


रे चेतः कथयामि ते हितमिदं वृन्दावने चारयन्‌

वृन्दं कोऽपि गवां नवाम्बुदनिभो बन्धुर्न कार्यस्त्वया।

सौन्दर्यामृतमुद्गिरद्भिरभितः संमोह्य मन्दस्मितै-

रेष त्वां तव वल्लभांश्च विषयानाशु क्षयं नेष्यति॥९॥


अव्याख्येयां वितरति परां प्रीतिमन्तर्निमग्ना

कण्ठे लज्जा हरति नितरां याऽऽन्तरध्वान्तजालम्‌।

तां द्राक्षाद्यैरपि बहुमतां माधुरीमुद्गिरन्तीं

कृष्णेत्याख्यां कथय रसने यद्यपि त्वं रसज्ञा॥१०॥


सन्त्येवास्मिञ्जगति बहवः पक्षिणो रम्यरुपा-

स्तेषां मध्ये मम तु महती वासना चातकेषु।

यैरध्यक्षैरथ निजसखं नीरदं स्मारयद्भि-

श्चित्तरुढं भवति किमपि ब्रह्म कृष्नाभिधानम्‌॥११॥


विष्वद्रीच्या भुवनमभितो भासते यस्य भासा

सर्वासामप्यहमिति विदां प्रत्ययालम्बनं यः।

तं पृच्छन्ति स्वहृदयतलावेदिनो विष्णुमन्या-

नन्यायोऽयं शिव शिव नृणां केन वा वर्णनीयः॥१२॥


सेवाया< यदि साभिलाषमसि रे लक्ष्मीपतिः सेव्यतां

चिन्तायामसि सस्पृहं यदिद तदा चक्रायुधश्चिन्त्यताम्‌।

आलापं यदि काङ्क्षसि स्मररिपोर्गाथा तदाऽऽलप्यतां

स्वापम वाञ्छसि चेन्निरर्गलसुखे चेतः सुखं सुप्यताम्‌ ॥१३॥


भवग्रीष्मप्रौढातपनिवहसन्तप्तवपुषो

बलादुन्मूल्य द्राङ्निगडमविवेकव्यतिकरम्‌।

विशुद्धेऽस्मिन्नात्मामृतसरसि नैराश्यशिशिरे

विगाहन्ते दूरीकृतकलुषजालाः सुकृतिनः॥१४॥

नन्तःशान्त्यै मुनिशतमतानल्पचिन्तां भजन्ते।

तीर्थे मज्जन्त्यशुभजलधेः पारमारोढुकामाः

सर्वं परामादिकमिह भवभ्रान्तिभाजां नराणाम्‌॥१५॥


प्रथमं चुम्बितचरणा जङ्घाजानूरुनाभिहृदयानि।

आश्लिष्य भावना मे खेलतु विष्णोर्मुखाब्जशोभायाम्‌॥१६॥


तरणोपायमपश्यन्नपि मामक जीव ताम्यसि कुतस्त्वम्‌।

चेतःसरणावस्यां किं नागन्ता कदापि नन्दसुतः॥१७॥


श्रियो मे मा सन्तु क्षणमपि च माद्यद्गजघटा-

मदभ्राम्यद्भृङ्गावलिमधुरझङ्कारसुभगाः।

निमग्नानां यास्य द्रविणरसपर्याकुलदृशां

सपर्यासौकर्यं हरिचरणयोरस्तमयते॥१८॥


किं निशङ्कं शेषे शेषे वयसः समागतो मृत्युः।

अथवा सुखं शयीथा निकटे जागर्ति जाह्नवी जननी॥१९॥


सन्तापयामि किमहं धावं धावं धरातले हृदयम्‌।

अस्ति मम श्रिअसि सततण नन्ददुमारः प्रभुः परमः॥२०॥


रे रे मनो मम मनोभवशातनस्य

पादाम्बुजद्वयमनारतमानमन्तम्‌।

किं मां निपातयसि सं सृतिगर्तमध्ये

नैतावता तव गमिष्यति पुत्रशोकः॥२१॥


मरकतमणिमेदिनीधरो वा

तरुणतरस्तरुरेष वा तमालः।

रघुपतिमबलोक्य तत्र दूरा-

द्दृषिनिकरैरिति संशयः प्रपेदे॥२२॥


तरणितनया किं स्यादेषा न तोयमयी हि सा

मरकतमणिज्योत्स्ना वा स्यान्न सा मधुरा कुतः।

इति रघुपतेः कायच्छायाविलोकनकौतुकै-

र्वनवसतिभिः कैः कैरादौ न संदिदिहे जनैः॥२३॥


चपला जलदाच्च्युता लता वा

तरुमुख्यादिति संशये निमग्नः।

गुरुनिःश्वसितैः कपिर्मनीषी

निरणैषीदतह तां वियोगिनीति॥२४॥


भूतिर्नीचगृहेषु विप्रसदने दारिद्रयकोलाहलो

नाशो हन्त सतामसत्पथजुषामायुः समानां शतम्‌।

दुर्नीतिं तव वीक्ष्य कोपदहनज्वालाजटालोऽपि सन्‌

किं कुर्वे जगदीश यतऽऽ पुनरहं दीनो भवानीश्वरः॥२५॥


आ मूलाद्रत्नसानोर्मलयवलयितादा च कूलात्‌ पयोधे-

र्यावन्तः सन्ति काव्यप्रणयनपटवस्ते विशङ्कं वदन्तु।

मृद्वीकामध्यनिर्यन्मसृणरसझरीमाधुरीभाग्यभाजां

वाचामाचार्यतायाः पदमनुभवितुं कोऽस्ति धन्यो मदन्यः॥२६॥


गिरां देवी वीणागुणरणनहीनादरकरा

यदीयानां वाचाममृतमयमाचामति रसम्‌।

वचस्तस्याकर्ण्य श्रवणसुभगं पण्डितपते-

रधुन्वन्‌ मूर्धानं नृपशुरथवाऽयं पशुपतिः॥२७॥


मद्वाणि मा कुरु विषादमनादरेण

मात्सर्यमग्नमनसां सहाअ खलानाम्‌।

काव्यारविन्दमकरन्दमधुव्रताना-

मास्येषु धास्यसितमां कति नो विलासान्‌॥२८॥


मधु द्राक्षा साक्षादमृतमथ वामाधरसुधा

कदाचित्‌ केषांचिन्न खलु विदधीरन्नपि मुदम्‌।

ध्रुवं ते जीवन्तोऽप्यहह मृतकामन्दमतयो

न्येषामनन्दं जनयति जगन्नाथभणितिः॥२९॥

काव्यं तर्हि सखे सुखेन कथय त्वं संमुखे मादृशां

नो चेद्दुष्कृतमात्मना कृतमिव स्वान्ताद्बहिर्मा कृथाः॥३०॥


धुर्यैरपि माधुर्यैर्द्राक्षाक्षीरेक्षुमाक्षिकसुधानाम्‌।

वन्द्यैव माधुरीयं पण्डितराजस्य कवितायाः॥३१॥


शास्त्राण्याकलितानि नित्यविधयः सर्वेऽपि संभाविता

दिल्लीवल्लभपाणिपल्लवतले नीतं नवीनं वयः।

संप्रत्युज्झितवासनं मधुपुरीमध्ये हरिः सेव्यते

सर्वं पण्डितराजराजितिलकेनाकारि लोकाधिकम्‌॥३२॥


दुर्वृत्ता जारजन्मानो हरिष्यन्तीतिशङ्कया।

मदीयपद्यरत्नानां मंजूषैषा कृता मया॥३३॥


जगज्जालं ज्योत्स्नामयनवसुधाभिर्जटिलयन्‌

जनानां सन्तापं त्रिविधमपि सद्यः प्रशमयन्‌।

श्रितो वृन्दारण्यं नतनिखिलवृन्दारकवृतो

मम स्वान्तध्वान्तं तिरयतु नवीनो जलधरः॥३४॥


ग्रीष्मचण्डकरमण्डलभीष्मज्वालासंसरणतापितमूर्तेः।

प्रावृष्येण इव वारिधरो मे वेदनां हरतु वृष्णिवरेण्यः॥३५॥


अपारे संसारे विषमविष्यारण्यसरणौ

मम भ्रामं भ्रामं विगलितविरमं जडमतेः।

परिश्रान्तस्यायं तरणितनयातीरनिलयः

समन्तात्‌ संतापं हरिनवतमालस्तिरयतु॥३६॥


आलिङ्गितो जलधिकन्यकया सलीलं

लग्नः प्रियङ्गुलतयेव तरुस्तमालः।

देहावसानसमये हृदये मदीये

देवश्चकास्तु भगवानरविन्दनाभः॥३७॥


नयनानन्दसन्दोहतुन्दिलीकरणक्षमा।

तिरयत्वाशु संतापं कापि कादम्बिनी मम॥३८॥


गणिकाजामिलमुख्यानाव्ता भवता बताहमपि।

सीदन्‌ भवमरुगर्ते करुणामूर्ते न सर्वतोपेक्ष्यः॥३९॥

मलयानिलकालकूटयोः रमणीकुन्तलभोगिभोगयोः।

श्वपचात्मभुवोर्निरन्तरा मम भूयात्‌ परमात्मनि स्थितिः॥४०॥


निखिलं जगदेव नश्वरं पुनरस्मिन्नितरां कलेवरम्‌।

अथ तस्य कृते कियानयं हन्त जनैः परिश्रमः॥४१॥


प्रतिपलमखिलाङ्ल्लोकान्‌ मृत्युमुखं प्रविशतो निरीक्ष्यापि।

हा हन्त किमिति चित्तं विरमति नाद्यापि विषयेभ्यः॥४२॥


सपदि विलयमेतु राज्यलक्ष्मीरुपरि पतन्त्वथवा कृपाणधाराः।

अपहरतुतरां शिरः कृतान्तो मम तु मतिर्न मनागपैतु धर्मात्‌॥४३॥


अपि बहलदहनजालं मूर्ध्नि रिपुर्मे निरन्तरं धमतु।

पातयतु वासिधारामहमणुमात्रं न किञ्चिदपि भाषे॥४४॥


॥इति श्रीमज्जगन्नाथपण्डितविरचितो शान्तविलासः॥

Wednesday, 27 September 2023

संसार है जलती आग सरीखा - हिन्दी काव्य

 संसार है जलती आग सरीखा इसमें कैसा सुख ढूंढे

इसके रस का परिणाम है तीखा इसमें क्या तृप्ति ढूंढे

धन,पद, युवती माया में भरमा जीव जो मरने वाले हैं
चौरासी लाख भंवरों में जो हैं फंसे न तरने वाले हैं

उनमें कैसी है कथा लिखनी, सब व्यर्थ मित्र संबंध यहां
पाप-पुण्य परिणत दुख-सुख के लिखते सभी निबंध यहां

कभी तुम्हीं हो पुण्यवान् स्वर्गों के बनते राजा हो
कभी कभी यौवन सुन्दर खिलते फूलों से ताज़ा हो

कभी पाप आक्रान्त वेश में कष्ट हो पाते नये नये
कभी पुण्य से भ्रष्ट हीन लोकों में भी तुम फिरे गये

कभी तुम्हीं हो चंद्रकांत रजनी में खूब चमकते हो
कभी तपस्या सूर्यकान्त सम्राट् दिवस के बनते हो

कभी कभी गणपति के भावों से होते हो ओत-प्रोत
कभी शैवधारा के गामी, वैष्णवजल के दिव्यस्रोत

कभी तुम्हीं नष्टधामा हो भटक रहे हो लोकों में
कभी स्वर्णभवनों में रमते उतर गये हो शोको से

कभी भीति के सागर की लहरों में बहते रहते हो
कल जानूंगा आत्मतत्व, खुद से ये कहते रहते हो

स्वप्नमात्र यह जगत् समूचा कल्पित है बस माया से
भरमाता है पर मनुष्य निज को, पा ऐहिक काया से

कर्मगति है गहन कठिन कहना किसका उद्धार हुआ
धन्य है केवल वही जिसे आत्मा से अपनी प्यार हुआ

द्वैत सभी अद्वैत मात्र हो जाते हैं ये निश्चित है
शैवादि धाराओं से ही ब्रह्म रूप अभिषिञ्चित है 

काल देश दिक् नाम रूप गुण धर्म प्रपंचित वपुष्! सुनो
इन सबसे विरहित कैवल्यप्रापि नैज को मात्र गुनों!
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हिमांशु गौड़
०८:१४ रात्रि
१२/०६/२०२३

कविताएँ किन विषयों पर लिखीं जाएँ

 || कविताएं अमूल्य हैं, वे विस्तृतार्थपरक घटकों पर लिखीं जाएं तो बेहतर है||

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हिंदी/ संस्कृत में कविताएं लिखता हूं - ऐसा जानकर कोई भी कह देता है - " मेरे विवाह पर मंगल श्लोक रचना करो, जिसमें मेरा, मेरे गांव का, माता-पिता, दुल्हन का भी नाम आ जाए।"

 कोई कहता है - "एक दोस्त का जन्मदिन है - उस पर एक लघुकविता लिखो!"

कोई किसी का अभिनंदन-पत्र लिखवाने चला आता है। 

बहुत सी संस्थाएं अपने कुछेक आयोजनों पर गीत लिखवातीं हैं। 

मैंने कोई आज तक इन सबसे भार का अनुभव नहीं किया।

 लेकिन मेरी इस सहज-प्रवृत्ति का लाभ उठाकर अब मेरे कुछ जानने वालों का स्वभाव ऐसा हो गया है, कि उन्हें हर बात पर ही संस्कृत श्लोक चाहिए!

 मतलब पेशाब करने भी जा रहे हैं तो उन्हें संस्कृत श्लोक चाहिए ! यार, हद होती है किसी भी चीज की!

 किसी भी व्यक्ति का फ्री में इस्तेमाल करना कहां तक उचित है?

 मैं यह नहीं कह रहा कि मुझे अपनी विद्या का कुछ लाभ चाहिए, वस्तुतः कविता तो अमूल्य है , लेकिन इसका अर्थ यह भी तो नहीं कि कवि के जीवन को ही बर्बाद कर दो !

हजारों लोग मेरे संपर्क में हैं, इस हिसाब से रोजाना २-३ फोन आ जाते हैं! आज फलाने का जन्मदिन! आज ढिमके का विवाह! इस चक्कर में न जाने कितने हजार श्लोक मैंने लिख डाले!

 बहुत से लोगों ने अपनी प्रेमिका को प्रणय-निवेदन करने के लिए मुझसे कविताएं लिखवाईं, जिनका तत्काल सुफल भी उन्हें प्राप्त हुआ।

कुछ महिलाओं ने भी अपने प्रेमी के लिए गीत लिखवाए!

चाहे स्वागत कार्यक्रम हो या विदाई समारोह चाहे जन्मदिन हुए मरण दिन हर विषय पर बिना किसी लाभ के अपने जीवन के अमूल्य समय को नष्ट करके अवनी दुनिया चिंतन की दुनिया को मोड़ करके जिस कविता का श्रेय भी मुझे नहीं मिलने वाला ऐसी भी कविताएं लिखकर मेरे दिनेश लोगों की कहीं गणना भी होने नहीं वाली

आज मनुष्य अपना जीवन का एक-एक क्षण अपनी भौतिक संपत्ति को एकत्रित करने में देता है!

 घर,गाड़ी,पैसा,मकान,प्रॉपर्टी ! क्योंकि इनके द्वारा ही समाज में सम्मान है! महान् शब्दों की गठरी बांध कर सैकड़ों कविताएं लिख कर भी कौन पूछने वाला है अगर भौतिक संपत्ति नहीं!

 फिर भी मैंने आज तक कोई एतराज ना किया!

 सबके लिए खुले दिल से तैयार रहा!

 जैसे सूर्य की रोशनी अपनी रोशनी बिना भेदभाव के बांटता है, फूल अपनी खुशबू, चांद अपनी चांदनी, और नदियां अपना पानी- सबके लिए बिना किसी भेदभाव के बांटते हैं-  इसी तरह से मैंने भी इस कविता को बिना किसी भेदभाव के सबको बांटा !

किंतु मामला तब बिगड़ जाता है, जब व्यक्ति को हर बात पर ही कविता चाहिए !

मेरे एक मित्र हैं , अनुष्ठान कार्य, पूजा-पाठ करते हैं !

दूसरे आचार्यों की अध्यक्षता में अनुष्ठान करने जाते हैं! अब जिस किसी भी आचार्य की अध्यक्षता में अनुष्ठान करने जाते हैं,  उसी के लिए श्लोक बनवाने लगे जाते हैं!

 उन्होंने मुझसे अब तक ५-६ आचार्यों के विषय में श्लोक बनवा चुके, ऐसी झूठी प्रशंसा करना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगता!

 मैं अपने सभी लोगों को बता देना चाहता हूं, कि कवि होना अलग चीज है, मैं कोई भांड नहीं हूं , जो स्वार्थ/पैसे के लिए हर किसी की प्रशंसा कर दूंगा!

और हालात तब ज्यादा खराब हो जाते हैं जब जिन पर खुद कुछ भी अक्षर ज्ञान नहीं! कविता तो छोड़िए, सामान्य शास्त्र का भी ज्ञान नहीं वह हमारी कविता का यूज़ करके अपना निजी स्वार्थ सिद्ध करते हैं !

अब मेरे एक जानने वाले हैं, उनके कोई पंडित हैं, जो विदेशों में बड़े स्तर का पांडित्य कर्म करते हैं!

 उनको कुछ अपने मनोनुकूल विवाह/ नामकरण इत्यादि के संबंध में संस्कृत छंदों में बंधे हुए श्लोक चाहिएं!

 इसलिए उन्होंने अपने उस साथी से संपर्क किया जो कि भगवान की कृपा से परमानेंट प्रोफेसर भी हैं, लेकिन ज्ञान इतना भी नहीं कि 2 संस्कृत की पंक्तियां भी लिख सकें!

 उन्होंने मुझे फोन किया, मैंने मन में सोचा कि इनका तो कभी फोन आता नहीं आज कैसे?

 २-४ शब्दों में मेरे कुशल-क्षेम की बात करने के बाद (मैं सोच रहा था कि कब अपनी पांइट की बात पर आते हैं) तभी उन्होंने बताया कि ऐसे-ऐसे बात है !

अब उनको सीमित समय में ही १५-२० श्लोक चाहिएं, वो भी अर्थ सहित !

मेरे लिए यह कुछ भी एक बड़ी चीज नहीं,

 लेकिन मुख्य बात यह है कि दूसरा व्यक्ति किसी कार्य में व्यस्त है या नहीं! उसका खुद का भी कुछ काम है या नहीं! - ऐसा सोचे बिना, सिर्फ अपने ही मतलब की बात करना कहां तक उचित है?

जबकि इन कामों में बहुत सोचना भी पड़ता है , और बहुत समय नष्ट होता है! प्रतिभा तो अलग रही! ज्ञान अलग रहा !

लेकिन इसका हमें कोई आर्थिक लाभ नहीं!

 जबकि अर्थ प्रधान युग है!

 मनुष्य को एक कप चाय भी ₹10 खर्च करने के बाद मिलती है !

जहां महाराज भोज के जमाने में १-१ श्लोक पर लाखों रुपए कवियों को मिलते थे , आज लाखों श्लोक लिखने के बाद भी एक रुपया हासिल नहीं है!

 खैर, अगर कोई अच्छे विषय पर कविता लिखने के लिए कहे, तो अच्छी बात है !

अरे भाई , हम मनुष्य हैं! मिट्टी के बने हुए!
 एक क्षण का भरोसा नहीं! आज हैं, कल नहीं!

 मिट्टी के मनुष्य के विषय में इधर मैं श्लोक लिखकर हटा , और उधर वह तुरंत ही मर गया-  तो उसका क्या फायदा ?

इसीलिए मैं अधिकतर देवताओं,शास्त्रों के ही संबंध में कविताएं लिखना पसंद करता हूं !

प्रकृति संबंधी, मनुष्य की चेतना, भावनात्मकता, सामाजिक परिस्थितियां- इत्यादि संबंधों में कविताएं एक बहुत लंबे समय तक चलने वाली हैं!

 एक बात और - तपस्वी और महात्माओं के लिए भी! मैं उनके जीवन को संस्कृत में बांधना अवश्य पसंद करता हूं!

 उसका कारण है , कि उनसे प्रेरित होकर अन्य लोग भी अपने जीवन को इन महान् कार्यों के लिए समर्पित कर सकें ! तपस्या के लिए समर्पित कर सकें।

 अगर मैंने कोई आज तक व्यक्तिपरक काव्य लिखा है, तो वह निश्चित ही कोई अत्यंत विशिष्ट विद्वान्, तपस्वी, महात्मा, देशभक्त, देशभक्त, या वीर रहा होगा!

 धन के लोभ में मैंने आज तक कोई काव्य किसी के लिए नहीं लिखा!

और कभी ऐसा करना भी नहीं चाहता!

 इसलिए जो झूठी प्रशंसा करवाने वाले लोग हैं, वे कृपया दूर ही रहें।

 सब के विषय में मेरे एक से विचार नहीं! जो चीज मुझे पसंद नहीं वह मैं कभी कर नहीं सकता!
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हिमांशु गौड़

मौनं सर्वत्र साधनम्

  सहनं वै तप: प्रोक्तं, मौनं सर्वत्र साधनम्।

जायते स सुखी नूनं पालयेद्यस्तथा व्रतम्
 सहनेन तपस्याग्निर्वर्धते ब्राह्मणस्य तु।
क्रोधेन चैव शापेन सर्वं नश्यति तत्क्षणात्।
 क्षमया भूर्महत्येषा क्षमयेशो महान् हरि:!
क्षमया जीवनं पुंसां क्षमया लोकसंस्थिति:!
 क्रोधेन क्षणभूतेन नश्यन्ति श्रीलसम्पद:!
क्षमयैव महान् भूत्वा मोदते वीर्यवान् भुवि।
 काव्यान्यद्य स्वतन्त्राणि बाल:! भान्तीव मे नहि।
कवयस्स्वार्थसंसिद्ध्यै लिखन्तीह यथा तथा।
शतं यद्घटिकामात्रे लिखन्ति कवयश्च ते,
नाधुना लोकिता: लोके, ये जातास्ते दिवङ्गता:
 केचित्स्वकार्यकुशला केचित्परहितावहा:
लोकेस्मिन्नैककार्येषु चेन्द्रियार्थेषु तत्परा:
 केचिद्धनाय जीवन्ति केचिद्भोगाय केवलं,
जीवेद्यश्चात्मलब्ध्यै तज्जीवनं धन्यतां व्रजेत्
मधुवाक्यप्रदानेन सर्वे तृप्यन्ति मानवा:
तस्मान्मधुरता देया सर्वं मधुमयं भवेत्


कुछ ऐसे भी लोग यहां पर - हिन्दी कविता हिमांशु गौड़

 कुछ ऐसे भी लोग यहां पर

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बाहर से जितने सुलझे हैं,
अंदर से उतने उलझे हैं 
कुछ ऐसे भी लोग यहां पर!

बाहर से तो सरल परन्तु
दिल में भरा गरल है किंतु

कहते रहते हैं दिन भर जो 
तुभ्यं सर्वशुभानि सन्तु
 
इनका बस जो चले करा दें
अन्त्येष्टि की क्रिया यहीं पर,
कहते रहते हैं मुंह पर तो
तुम हो दोस्त, हमारे बंधु!

बाहर से जो गाय से भोले 
भीतर महा विषैले जंतु
छली घात करने वाले हैं
नरपिशाच ये क्रूर घुमंतू

तुड़वाते हैं प्रेम का रिश्ता
बंधवाते नफ़रत का तन्तु

अच्छी बातों में बाधा बन
करते हैं किन्तु व परन्तु

सर्वेभ्योऽपि विषं प्रदद्यात्
मह्यं सुधां प्रदेहि किन्तु!
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हिमांशु गौड़
१०:२३ रात्रि
०७/०१/२०२२

उसे छांव का पता ही क्या, हिन्दी कविता हिमांशु गौड़

 उसे छांव का पता ही क्या, के जो धूप में चला नहीं,

उसे बारिशों की ना कद्र है, के तपन में जो जला नहीं 

है उम्मीद पे ही कायनात टिकी तू क्यों मचल रहा,
है कोई भी ऐसा ग़म नहीं, जो कि वक्त से मिटा नहीं

ये जुनूने आफ़ताब है, इसे क्या कोई मिटाएगा,
सौ काली रातें भले ही हों, सुबहे-उज़ाला झुका नहीं,

जो अंधेरों में रहा नहीं, उसे रोशनी की न कद्र है,
क्या प्यास को जानेगा वो, सहरा में जो जिआ नहीं

बनते हैं सब ही देवता, अमरित पिए जीते हैं जो,
क्या शिव को पहचाना कि जिसने, विष कभी पिआ नहीं!

नहीं लफ्ज़ कोई उस हकीकत को बयां करता जिसे,
कहते सभी जज़्बात हैं, ज़ाहिर कभी हुआ नहीं!

मैं कि हूं ये पुरवाई हवा यादों को जिंदा रखती जो,
आंधी से वक्त की फैलता, ऐसा मैं कोई धुंआ नहीं!
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हिमांशु गौड़ 

|| बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि || संस्कृत कविता हिमांशु गौड़

 || बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि ||

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यत्र स्मृतिर्वेदविदां गुरूणां
श्रीविष्ण्वाश्रमाणां च तपांसि यत्र
सहस्रविद्वद्बटुकैर्वृतं यद्
बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि||१||

यजुष्प्रियाभ्यासरतोदराग्निर्
जाज्वल्यते पाठगतश्रमाच्च
ततस्स खादेच्छतशष्कुलीर्वै
यत्र, त्यजामो न बिहारघट्टम्||२||

यत्रैकतो नारवरी विभाति
श्रीकार्णवासी नगरी प्रतीच्यां
शब्दप्रियाणां श्रुतिसंहितानां
बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि||३||

श्रीश्यामबाबागुरुदर्शनानि
श्रीमत्प्रबोधाश्रमदेशनानि
गाङ्गानि वारीण्यपि संल्लभेरन्
यत्र त्यजामो न बिहारघट्टम्||४||

यत: प्रयामो ह्यपि रामघट्टं
यतो नमामोऽप्यथ वृद्धिकेशीं
भूतेश्वरं चैव यतो व्रजामो
बिहारघट्टं नहि सन्त्यजाम:||५||

यत्रास्ति मेऽवस्थिविनीतवर्यो
गुरुर्वशिष्ठोस्ति दिवाकरश्च
भातीह भङ्गस्य वनस्पतिश्री:
शिवार्पणाय स्वमुखार्पणाय||६||

घण्टास्वनो यत्र च भोजनाय
स्वरोऽत्र गुञ्जेद्द्विज! हर्षणाय
पठेम गङ्गालहरीं प्रभाते 
श्रयेम तस्माच्च बिहारघट्टम्||७||
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हिमांशुर्गौड:
०८:२५ रात्रौ
२८/०२/२०२३

अंबर भी शोक मनाता है! हिन्दी कविता हिमांशु गौड़

 अंबर भी शोक मनाता है!

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लेकिन अंबर में प्राण कहां,
 है भावगंध को घ्राण कहां, 
इस विरह, वियोगी जीवन को,
भावुक मन ना सह पाता है, 
हो भरी भीड़ इस दुनियां में,
पर किसी से न कह पाता है

पत्थर हो जाते हैं वो दिल, 
जीते जी वो मर जाता है, 
जिसका जिससे जो बिछड़ गया,
 फिर कहां वह मिल पाता है। 
मानव, पशु पक्षी भी अपनों 
की याद में रोते रहते हैं,

तारे जब टूटे हैं नभ से, 
ना हमें दीख वह पाता है, 
बारिश कर करके याद उन्हें, 
अंबर भी शोक मनाता है।

 बच्चन जी की इस कविता का
 उद्देश्य अलग है, पर दिल से 
जो उठा भाव का वेग अभी,
वो कौन रोक फिर पाता है,

मैं फिर कहता हूं सच मानो,
हर अपने बिछड़े की खातिर,
मानव की तो है बात ही क्या
अंबर भी शोक मनाता है!
******
हिमांशु गौड़
०५:१३ शाम
१७/०३/२०२३

देव श्रीगणेश

 फिल्म अग्निपथ के गीत "देवा श्रीगणेशा" का संस्कृत अनुवाद

*****
ज्वालास्स्फुरन्तीव अक्ष्णोश्च यस्या-
ऽपि हृदये ते नाम प्रभो!
किं चिन्तनं तस्य आरम्भता का,
तथा कास्तु परिणामता

भूमि-रम्बर-सुतारास्
तं नमन्तीव सर्वे,

भीतिरस्माद् बिभेति
यस्य रक्षां गणेश!
कुर्यादाशीस्तव!

हे देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश ||१||

तव भक्तेर्हि वरदानतां
योऽर्जयेत्, सोऽस्ति धनवान् जन:
तस्य नौका तटं याति नो,
देव! त्वत्तोऽनभिज्ञोऽस्ति यो!

मूषकस्तेऽस्ति रे वाहनं
सर्वलोकस्त्वया रक्ष्यते
पापवात: प्रचण्डो यदि
क्वचिज्ज्योतिर्न ते ह्रीयते

स्वस्य भाग्यस्य सोऽसौ 
धाता स्वयमेव जात:
विस्मृत्याखिलविश्वं 
येन केनापि गीतं 
नाम दिव्यं तव

हे देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश ||२||

त्वद्धूलेस्तिलकमाचरन्
देव! यस्त्वज्जनो जीवतात्
नामृताय स्पृहावान् स यो
भीतिहीनो विषं सम्पिबेत्

विघ्नराट्! ते महिम्नस्तले
कालयानस्य चक्रं चलेत्
प्रतिशोधस्य स्फुल्लिङ्गनै:
रावणस्यापि लङ्का दहेत्

शत्रुसेनासहस्रं
जीयते त्वत्समर्चारतेन
पर्वतीभूयते तत्कणोऽपि, 
श्लोकितं यत्र गीतं त्वदीयं
नाम पुण्यं शुभम्

हे देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश ||३||
***
हिमांशुर्गौड:
१:२० मध्याह्ने
०७/०७/२१

संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक

 ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्र...