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हिमांशुपञ्चशती हिन्दीभावार्थसहिता

 

हिमांशुपञ्चशती

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Himanshu-Panchashati

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प्रणेताऽनुवादकश्च – हिमांशुर्गौडः

Author and Translator: Himanshu Gaur

 

ISBN -

सर्वाधिकारः प्रकाशकाधीनः

All rights reserved

 

प्रथम-संस्करणम्

२०२२

 

First Edition

2022

 

१००० प्रतयः

 

1000 Copes

 

॥श्रीगणेश-सूर्य-बाबागुरु-यज्ञसम्राट्-समर्थश्रीशतकानां हिन्दीसमन्वितानां सङ्ग्रहः॥

 

प्रकाशकः

हिमांशुजीचिन्तनधाराकेन्द्रम्

हरिद्वारः, उत्तराखण्डम्

 

Publisher:

Himanshuji-Chintandhara-Centere

Haridwar, Uttarakhand

विषयसूचिः –

 

१. श्रीगणेशशतकम् -

२. सूर्यशतकम् -

३. बाबागुरुशतकम् -

४. यज्ञसम्राट्शतकम् -

५. समर्थश्रीशतकम् -

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

॥श्रीगणेशशतकम्॥

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दिव्याश्च यस्य विभवाश्च समुद्भवन्ति

चन्द्राभरक्तवसनस्य पुराणसक्ते

तं श्रीविशेषगणनायकसर्वसम्भृल्-

लोकाशभासभरणं शरणं प्रपद्ये ॥१॥

 

जो सभी देवताओं में विशिष्ट हैंगणों के स्वामी हैंसभी का भरण-पोषण करते हैं। संसार में आशा रूपी प्रकाश भरने वाले हैंचन्द्रमा के समान आभा वाले हैंऔर जो लाल वस्त्र पहनते हैंऐसे श्रीगणेश जीपुराणादि कथाओं के द्वारा जो भक्त उनकी अर्चना करते हैंऐसे लोगों के लिए दिव्य सम्पत्ति प्रदान करते हैं मैं भी आज उन गणेशजी की ही शरण में आया हूं ॥१॥

 

श्रीदो यः परिपालयेत्त्रिभुवनं लोकैकहेतुर्विभुः

सर्वेषां हृदयेषु संवसति यस्सौख्याश्रयश्चात्मसु

नित्यस्सर्वगुणाब्धिरच्युतपदो विघ्नादिनाशङ्करः

दुःखामग्ननृणां शुभङ्करवपुश्श्रीहस्तिनाथो जयेत् ॥२॥

 

जो सभी मनुष्यों के लिए लक्ष्मी प्रदान करने वाले हैंइन तीनो लोकों का पालन पोषण करते हैंइस ब्रह्माण्ड के निर्माण का जो एकमात्र कारण हैऔर स्वयं प्रभु हैं। सभी के हृदय में वास करते हैंआत्माओं (आत्मवत्सु वा भक्तों के शरीरों में) में सुख का आश्रय हैं , वे गणेश भगवान् नित्य हैंसभी गुणों के समुद्र हैं। वे अच्युत हैं (गणेश के पद का कभी विनाश नहीं होता)और वह भगवान् विघ्नादि का विनाश करते हैंदुखों में डूबे हुए लोगों को वही सुख प्रदान करते हैंशुभदायक उनका स्वरूप हैऐसे हस्तिनाथ भगवान् की जय हो ॥२॥

 

यो वै सर्वजगत्तमांसि हरति ब्रह्माण्डभासोंऽशुमान्

रात्रौ यश्च नृणां मनांसि हरति श्रीमद्धिमांशुर्द्विजः

तौ द्वौ यस्य कृपास्यलास्यकरुणत्त्वेनैव सम्भासितौ

सोऽस्माकं गणनाथविघ्नहरणस्सम्पत्तिकारी भवेत् ॥३॥

 

जो समस्त लोकों के अंधेरों को हर लेते हैंइस ब्रह्माण्ड के भासमान स्वरूप हैं , ऐसे अंशुमान् भगवान् सूर्य, तथा जो रात्रि में अपनी सुन्दर छटा से लोगों का मन हर लेते हैंऐसे भगवान् चन्द्र। जिन भगवान् गणेश के कृपामय मुख की सुन्दरता और करुणा से ही यह दोनों सूर्य और चन्द्रमा चमक रहे हैं (प्रकाशमान हैं) ऐसे गणनाथविघ्नों का नाश करने वाले भगवान् गणेश हमें भी सम्पत्ति प्रदान करेंहम उनको नमस्कार करते हैं ॥३॥

 

संसारः कथमेव तिष्ठति कथं जीवन्ति जीवा इह

नानाचित्रविचित्रदृश्यलसितं चेदं जगद्वर्तते

का माया कथमेव सम्भ्रममतिर्दुःखं च सौख्यं कुतस्-

सर्वेषामिदमेकमुत्तरमहो श्रीमद्गणेशेच्छया ॥४॥

 

यह संसार कैसे टिका हुआ है कैसे इसमें ये सारे प्राणी जीवित हैं कैसे यह सारा संसार अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे दृश्यों से सजा हुआ है संसार में ये क्या माया फैली हुई है  मनुष्य कैसे विभ्रान्त होकर घूम रहा है दुख और सुख यह सब क्या है कहां से प्राप्त होता है तो इसका एक ही उत्तर है - श्री गणेश भगवान् की (इच्छा) से ही यह सब कुछ है ॥४॥

 

मृत्युं वा लभते कथं हि मनुजो जायेत कस्याज्ञया

सौख्यापत्तिसमन्वितं च निखिलं जीवेज्जनो जीवनम्

मोक्षो बन्ध उताऽस्य केन भवति श्रीदश्च कोऽस्त्यस्य वै

सर्वेषामिदमेकमुत्तरमहो श्रीमद्गणेशेच्छया ॥५॥

 

मनुष्य की मृत्यु कैसे होती है वह जन्म कैसे लेता है किस की आज्ञा से लेता है मनुष्य सम्पत्ति और विपत्ति संयुक्त सारे जीवन को कैसे जीता है प्राणी का बन्धन और मोक्ष किसके द्वारा सम्भव है प्राणियों को शोभा और सम्पत्ति कौन देने वाला है तो इन सारी बातों का एक ही उत्तर है - श्रीगणेशजी की इच्छा से ही ये सब कुछ होता है ॥५॥

 

केनेमे ह्यसुरास्सुराः प्रतिदिनं वा युध्यमाना मिथः

पृथ्व्यां वाऽपि परस्परं नृपतयस्सामान्यजानाश्च वा

मूर्खत्त्वेन समस्तसृष्टिजनता कस्याज्ञया भ्राम्यति

सर्वेषामिदमेकमुत्तरमहो श्रीमद्गणेशाज्ञया ॥६॥

 

किससे प्रेरित देवता और राक्षस क्यों आपस में लड़ते रहते हैं[1] इस धरती पर आपस में राजाओं काऔर सामान्य लोगों का आपस में क्यों युद्ध होता रहता है यह संसार की सारी जनतावास्तविक बुद्धिमानी को छोड़ मूर्खतापूर्ण होकर किस की आज्ञा से भ्रमण करती है[2]  तो इन सब बातों का एक ही उत्तर है - श्रीमद् गणेशजी की आज्ञा (इच्छा) से ॥६॥

 

को वै सर्वसुखं ददाति सुरराट् को वै जगद्रक्षकः

कश्चादिः प्रथमश्च पूज्यभगवान् कः पाति सर्वाः क्रियाः

विघ्नध्वंसकरश्शुभप्रदवपुः को वै भवात्तारयेत्

सर्वेषामिदमेकमुत्तरमहो श्रीमद्गणेशस्स वै ॥७॥

 

देवताओं में ऐसा कौन हैजो जगत् की रक्षा करता है सभी देवताओं में प्रथम पूज्य भगवान् कौनसे हैं वह कौन हैजो प्राणियों की यज्ञादि सभी क्रियाओं की रक्षा करते हैं ऐसे कौन हैंजो महाविघ्नों को भी अपने शुभता-सम्पन्न दर्शनों से नष्ट कर देते हैं ऐसे कौन हैंजो इस संसार-सागर से पार उतारते हैं इन सब बातों का एक ही उत्तर है - वे श्रीगणेशजी हैं ॥७॥

 

यस्मिंश्चाऽपि निपत्य भीभृति जनो बद्धो भवेत्सर्वथा

वैराग्यादिसमस्तबोधजनितां चर्यां त्यजेच्चेत्पुमान्

भोगं मोक्षमुभौ ददाति मतिराड् यो दन्तिराजो विभुः

श्रद्धाभक्तिसमन्वितो भव जन श्रीमद्गणेशे सदा ॥८॥

 

यह संसार तो इतना भयानक हैकि इसमें गिरकर अच्छे-अच्छे मानव भी बंधन में बंध जाते हैं। वैराग्य आदि शास्त्र का समस्त बोध और उससे उत्पन्न अपने आचरण को भी मनुष्य त्याग देता है। इसलिए संभल जाओ!  और जो भोग और मोक्ष दोनों को देते हैंऐसे महान् बुद्धिमान् और दन्तिराजसर्वव्यापी गणेशजी में सदा श्रद्धा और भक्ति धारण करो ॥।८॥

 

हे विघ्नेश! दयार्णव! श्रुतिसृतां लभ्योऽस्यहो योगिनां

मादृक्पुण्यविहीनशास्त्ररहितानां नास्ति काचिद्गतिः

त्वं सर्वेशगुणेशसौख्यनिलयश्श्रीदो जगद्धारको

बालं त्वच्चरणागतं शरणद श्रीदन्तिराट् पालय ॥९॥

 

हे विघ्नेश आप दया के सागर हैंवैदिक और योगियों द्वारा  भी आप प्राप्त किए जाते हैंकिन्तु मेरे जैसे पुण्यहीन तथा शास्त्रहीन मनुष्यों की कोई गति नहींपर तुम सभी के स्वामीगुणों के देवता और सुख-स्वरूप होश्रीप्रद होऔर जगत् को धारण करने वाले होइसलिए हे दन्तिराजअपने चरणों की शरण में आए हुए भक्तों का पालन करो ॥९॥

 

कीर्तिर्वा धनमस्तु सौख्यसरणीर्नित्यं तनुध्वं नराः

गेहे भक्तिभरं नियोजनमपि श्रीविष्णुसङ्कीर्तनम्

सर्वं चिन्तितसन्मनोरथगणान्नूनं लभध्वं यदि

विघ्नध्वंसगणेशदेवदयया दृष्टाश्च चेत्पुण्यगाः[3] ॥१०॥

 

कीर्तिधनसुख-सुविधाएंखूब प्राप्त करो! अपने घर में भजन सङ्कीर्तन का आयोजन रखो! अपने सोचे हुए सभी मनोरथों को निश्चित ही प्राप्त करो! यदि विघ्नों का ध्वंस करने वाले गणेश भगवान् की दया-दृष्टि से तुम पुण्यशाली किए जाते हो तो ॥१०॥

 

यश्श्रीणां सुनिधिर्विधिश्च जगतां स्वस्येच्छया चालयेत्

विद्युद्दामचमत्कृतं क्षणभवं सन्दर्शयेन्मादृशे

रूपं यत्परमैकनिष्ठमनसा ध्यायन्ति योगाश्रिताः

लोकात्पश्यति सौख्यदुःखनिभृतं यो मादृशां जीवनम् ॥११॥

 

वे गणेश भगवान् तो सम्पत्तियों की एकमात्र निधि हैंइस संसार की विधियों को अपनी इच्छा से वही चलाते हैं! और कभी-कभी मुझ जैसे लोगों को विद्युत् के समान अपना चमत्कारी रूप क्षण-भर के लिए दिखाते हैं! जिस रूप का बहुत ही निष्ठापूर्ण मन से योगी-जन ध्यान करते हैंऔर वे गणेश भगवान ही अपने गणेश लोक से इस सारे संसारियों के तथा मुझ जैसे लोगों के सुख-दुख से भरे हुए जीवन को देखते रहते हैं ॥११॥

 

यो वै धूम्रजटाधरस्य तनयो गौरीसुतो यः प्रभुः

विघ्नध्वंसकरश्च यश्च भगवान् आपद्गतान् रक्षति

दारिद्र्यं दहति क्षणात् स्तुतिकृतां श्रद्धाभृतां वै नृणां

तं श्रौतप्रियलक्षितादिपुरुषं  शम्भुप्रियं भावये[4] ॥१२॥

 

जिनकी धुंएँ जैसे रंग की जटाएँ हैंऐसे भगवान् शिवके जो पुत्र हैं! गौरी माता के प्रिय जो भगवान हैंविघ्नों का नाश करने वाले. आपत्तियों से रक्षा करने वाले. अपने श्रद्धा-भक्ति पूर्वक स्तुति करने वाले लोगों की दरिद्रता को एक क्षण में जला देने वाले, वे भगवान्वेदपुरुषों द्वारा भी आदिपुरुष के रूप में लक्षित किए गए हैंऔर वही शिव के प्यारे हैंमैं उनका ही आज चिन्तन कर रहा हूं ॥१२॥

 

यो वै श्रीवरुणप्रियो गजमुखो गौरीप्रियश्चेष्टदो

यो लक्ष्मीप्रियवेदपाठिपुरुषप्रेमार्द्रहार्दान्वितः

प्राप्याप्राप्यविवेचनापरजनैर्लक्ष्ये च यः प्राप्यते

तं गीर्वाणगिरार्चितं गणगुरुं गुण्यं गणेशं भजे ॥१३॥

 

वे ही वरुण देवता के प्रिय हैं! हाथी जैसे मुख वाले वे ही पार्वती के प्रिय हैं! और इष्ट वस्तुओं को प्रदान करते हैं! वे ही लक्ष्मी माता के भी प्रिय हैं! और वेदपाठी लोग तो उनसे हार्दिक प्रेम मानते हैं! और जीवन में क्या प्राप्त करने योग्य हैक्या नहीं -  ऐसी विवेचना करते-करते जब विद्वान् लोग निष्कर्ष निकालते हैंतो उन्हें पता चलता है कि देवताओं की वाणी से अर्चितभक्तों के गुरुगुणों के प्रतिष्ठानगणेश ही अन्तिम लक्ष्य हैंऐसे भगवान् गणेश का मैं आज भजन कर रहा हूं ॥१३॥

 

मोक्षाशाश्रितमोक्षदायिपुरुषं तं शोकमोकं भजे

लोकाशाधृतलोकदायिफलदं तं देवलोकं भजे

शास्त्राशाश्रितशास्त्रबोधजनकं तं शास्त्रतत्त्वं भजे

सद्भावान्वितहार्दिकैकपरिलभ्यं लभ्यतत्त्वं भजे ॥ १४॥

 

मोक्ष चाहने वालों को मोक्ष प्रदान करने वाले पुरुष (भगवान्)! दुखों का नाश करने वाले! सांसारिक इच्छाओं वालों को संसार का ही फल प्रदान करने वाले! वह देवताओं की दृष्टि (कृपामय दृष्टि वाले) हैं। शास्त्र की आशाओं पर आश्रित होकर जो लोग गणेश का चिंतन करते हैं उनको शास्त्र का ज्ञान देते हैं! इसलिए गणेश शास्त्रों का तत्त्व भी हैं! और सद्भाव-पूर्वक हार्दिक-भावनाओं से जो लक्ष्य प्राप्त होता हैजो प्राप्त करने योग्य तत्त्व हैवही श्रीगणेश हैं! मैं उनका भजन करता हूं ॥१४॥

 

पुण्यास्थाश्रितचित्तचिन्तितवपुश्चैकान्तशान्तस्थितो

दिव्यास्थास्थितशैवशोभितशिवश्श्रीवारिवाहश्च यस्-

सौख्याशान्वितवित्तकाङ्क्षिपुरुषार्चामोदभोगादिदश्-

श्रद्धादर्शितरूपरक्तवसनं श्रीविघ्ननाशं भजे ॥१५॥

 

पुण्य में आस्था का आश्रय ले लिया है चित्त में जिनके, (पुण्यकर्मतत्पर) ऐसे लोगों द्वारा चिन्तित! एकान्त और शान्त स्थान में रहने वाले गणेश हैं! दिव्य-आस्था में जो स्थित हैंऐसे शैव-पुरुषों  से शोभितवे श्रीगणेशकल्याणरूप हैंऔर (भक्तों के लिए) धनरूपी-जल के बादलों से बरसते हैं! सुख-हेतु धनेच्छुक मनुष्यों की पूजा-अर्चना से प्रसन्न होकरउनको वे प्रसन्नता-भोगादि प्रदान करते हैं! और श्रद्धा के वशीभूत दिखाते हैं जो रूप अपनाऐसे लाल रंग के वस्त्र पहनने वालेगणेशजी का मैं भजन करता हूं ॥१५॥

 

भोश्शम्भोस्सुत! पश्य ते भगवतो लोको हि कुत्रैष्यति

धर्माधर्मविचारशून्यगतिको गर्ते प्रयाति ध्रुवं

गोहत्याद्विजदुःखदायिगतयस्संवर्धिताश्चाधुना

दुष्टानङ्कुशघाततो गणपते! धर्माय सङ्कर्तय ॥१६॥

 

हे शिव के पुत्र! तुम तो स्वयं भगवान् हो! तुम देखो तुम्हारा यह संसार कहां जा रहा है! धर्म और अधर्म के विचार से शून्य गति वाला होकर निश्चित ही विनाश-रूपी गड्ढे में जा रहा हैगौहत्याब्राह्मणों का उत्पीड़नऐसी दुखदायक गतिविधियां आजकल बहुत बढ़ गई हैं! हे गणपति! धर्म की रक्षा के लिएऐसे दुष्टों को आप अपने अंकुश के प्रहार से काट डालो ॥१६॥

 

भक्तो दुःखनिमग्नचित्तवशतो धर्मात्पृथग्भ्राम्यति

सौख्यानां हि परम्परा तु भगवन् म्लेच्छादिदेशे गता

हिन्दूनां च मनोभ्रमं द्रुतमहो यद्धार्मिके प्रोदभूत्

तत् त्वं खण्डय नागवक्त्र! कलिहा! दोषान्नृणाम्भञ्जय ॥१७॥

 

गणेशजी! आज तो आपका भक्त भी दुखों में डूबा हुआ मन होने के कारणधर्म से अलग होकर घूम रहा है! भगवन्! आजकल सुखों की परम्परा तो म्लेच्छ (अंग्रेज आदि) के देशों में ही चली गई है! और भगवन्! अपने ही धर्म के प्रति हिंदुओं के मन में जो भ्रम उत्पन्न हुआ है , उसे आप जल्दी ही खण्ड-खण्ड कर दो (तोड़ डालो)हे कलिमल का नाश करने वाले! हाथी जैसे मुख वालेगणेशजी! आप लोगों के दोषों का भी भञ्जन करो ॥१७॥

 

यद्यप्यर्चनमत्र तत्र भगवँस्ते मन्दिरेष्वाचरन्

लोके भक्तजनो न धर्मविरतः कुर्वन्प्रणामस्त्वयि

स्वर्गं चात्र सुखं शमं गणपते तेऽक्ष्णां कृपाभाजनो

भूत्त्वैश्वर्यपतिस्सदा नरमणिस्त्वत्कीर्तने संरतः ॥१८॥

 

भगवन्! यद्यपि जहां-तहां मन्दिरों में भक्त लोग आपकी पूजा-अर्चना करते हैं! आपको प्रणाम करते हैं! धर्म से (विरत) अलग नहीं होतेऔर स्वर्ग और सुख-शान्ति प्राप्त करते हैं। आपकी नेत्रों के दृष्टि से कृपा-भागी बनकरवे ऐश्वर्यों के भी स्वामी बनते हैंमनुष्यों में श्रेष्ठ हो जाते हैं तथा आपका ही कीर्तन करने में रम जाते हैं ॥१८॥

 

राज्ञां स्वार्थरतिस्तथा च जनता नित्यं हि कष्टे गता

कोऽप्यद्येह परं न पश्यति जनं यद्वा महाराक्षसाः

शिश्नायोदरपूर्तयेऽपि भगवन्! सर्वं जगद्धावति

त्वं कृत्वा सकलञ्च सुस्थमथ भो भक्तान्समुद्धारय ॥१९॥

 

आजकल तो राजाओं की केवल स्वार्थ में ही प्रीति है। जनता दिन-प्रतिदिन कष्ट में चली गई है। आज कोई भी दूसरे के दुख को नहीं देख रहा है। लोग महाराक्षस जैसा बर्ताव कर रहे हैं। हे भगवन्शिश्नोदर की पूर्त्ति के लिए ही सारा जगत् दौड़ रहा है। आप ही इस सब को ठीक करके अपने भक्तों का उद्धार कर सकते हैं। आपकी जय हो ॥१९॥

 

त्वं तु ख्यापितलोकशोकहरणस्त्वञ्चास्य नित्या गतिः

त्वं दुःखेषु सुखम्बिभर्षि भवमुट्! त्वं हर्षकारी नृणाम्

चेद्भाग्यं विपरीतताम्प्रति गतं सर्वं च नष्टम्भवेत्

भक्तिस्ते हृदयेन चिन्तनमपि श्रीदं समुद्धारकम् ॥२०॥

 

भगवन्! आप तो संसार के शोक का हरण करने वाले हैं!  ऐसी आपकी प्रसिद्धि है। आप सब की नित्य गति हैं! आप दुखों में भी सुख भर देते हैं! आप प्राणियों के भव-भय को चुराकर उन्हें हर्षित करते हैं! अगर भाग्य भी विपरीत हो जाएऔर सब कुछ भी नष्ट हो जाएकिन्तु आपकी भक्ति हृदय में रहेआपका चिन्तन मन में रहेतो पुनः सारी सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जाती हैंऔर आपका चिन्तन ही उद्धार भी कर देता है ॥२०॥

 

को वा त्वत्सरणीम्प्रयाति मतिराट्! को वा भवेत्त्वादृशः

को वाऽऽखौ परिरोहति द्विजजनान् पात्यत्र कस्त्वद्विना

कश्चाऽत्रेभमुखा!ऽङ्कुशेन सततं दुष्टान् निहन्ति,श्रियां

वारीणि श्रितचिन्तनेभ्य इह कः प्रावाहयेच्छ्रीप्रदः[5] ॥२१॥

 

हे बुद्धि के राजा! कौन आपकी होड़ कर सकता हैकौन तुम जैसा हो सकता हैतुम्हारे अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो चूहे पर चढ़ता होतुम्हारे अतिरिक्त ऐसा कौन हैजो ब्राह्मणों की रक्षा करता होअरे हाथी के जैसे मुख वाले! और दूसरा कौन हैजो निरन्तर दुष्टों को मारता होऔर अपने चिन्तन की शरण में आए हुए लोगों के लिए शोभा और सम्पत्तिरूपी  जलधारा बहा देता हो ॥२१॥

 

भक्तिभ्राजितलोकशोकहरणस्संलोक्य मज्जीवनम्

दन्तिन्! ब्राह्मणबालकस्य तनुतां भूयो महामङ्गलम्

सद्यो विघ्नगणान् विनश्य गणराट्! सम्राड्जनं मां कुरु

यस्माद्यौवनपुष्पसौरभमनास्स्यां त्वत्समर्चाकरः॥२२॥

 

भक्ति से शोभित लोगों का शोक आप ही हरण करते हैंदन्तिन्! आप (मुझ) ब्राह्मण-बालक के जीवन पर दृष्टिपात करके मेरा महान् मङ्गल करो। हे गणराज! बहुत जल्दी ही मेरे सभी विघ्नों को नष्ट करके मुझे सम्राट् बनाओ! जिससे मैं यौवन के पुष्पों की सुगन्धि से सुगन्धित मन वाला होकर आपकी ही पूजा-अर्चना करने में लग जाऊं ॥२२॥

 

मखोद्भूतधूमैस्सदा तुष्टिमन्तं

सुमन्त्रैस्तथा श्रद्धया हृष्टिमन्तं

मधून्यापिबन्तं घृतैरिष्टवन्तं

गणेशं हि होमप्रियं भावयाम: ॥२३॥

 

यज्ञ से उठते हुए धुँएं की सुगन्ध से सदा ही सन्तुष्ट होते हैंब्राह्मणों के श्रद्धा-युक्त उच्चारित वेद-मन्त्रों को सुनकर जो बहुत ही हर्षित होते हैं! जब घी और शहद से उनके नाम की आहुति हवन-कुण्ड में पड़ती हैतो वे घी और शहद को पीते हुए बहुत ही खुश होते हैंऔर आशीर्वाद देते हैं। ऐसे गणेशजी को हवन बहुत ही प्रिय है। मैं उनकी भावना अपने मन में करता हूं ॥२३॥

 

सुगन्धिप्रियं रक्तगन्धानुलिप्तं

समृद्धौ च सिद्धौ हृदा सक्तिमन्तं

सहस्रैस्सदाख्यैर्जलैश्चाभिषिक्तं

विविक्तं विवृद्धिप्रदं पूजयाम:॥२४॥

 

भगवान् गणेश को पुष्पों तथा इत्रों की सुगन्धि बहुत ही प्रिय है। उनका शरीर लाल चन्दन से चर्चित है। ऋद्धि और सिद्धि में अपनी हार्दिक भावनाओं से आसक्त हैं। सहस्र नामों से ब्राह्मण लोग उनका अभिषेक करते हैं। वे गणेशजीअधिकतर एकान्त में रहते हैं। और वही मनुष्य की प्रसन्नता में वृद्धि करते हैं। सम्पत्ति बढ़ाते हैं। आज हम सब उनका ही पूजन कर रहे हैं ॥२४॥

 

क्वचिद्रामरूपै: क्वचित्कृष्णरूपै:

क्वचिद्रुद्ररूपैः क्वचिद्भीमरूपै:

क्वचिद्धस्तिरूपैर्धरायां चरन्तं

क्षणेनैव लोकङ्करं भावयाम: ॥२५॥

 

कहीं-कहीं राम-रूप मेंकहीं-कहीं कृष्ण-रूप मेंकहीं रुद्र बनकरकहीं-कहीं हाथी का रूप धारण करकेइस धरती पर वे गणेशजी विचरण करते हैंऔर एक क्षण में ही संसार का निर्माण कर देते हैं! गणेशजी की मैं अपने हृदय में भावना करता हूं ॥२५॥

 

यदा नृत्यकाले क्वचिद्ब्रह्मभाण्डे

स्वशुण्डं परिभ्रामयेद्वक्रतुण्ड:

तदा तारकाश्चन्द्रनक्षत्ररूपा:

क्षिपन्ति द्रुतं तत्प्रहारेण दूरम् ॥२६॥

 

जब कभी इस ब्रह्मांड में नाचते-नाचते वे वक्रतुण्डअपनी सूण्ड को इधर-उधर घुमाते हैंतब ये तारेये चन्द्रमा और ये नक्षत्रउस सूण्ड के प्रहार से खण्ड-खण्ड होकर दूर-दूर जा गिरते हैं ॥२६॥

 

क्वचिन्मेघरूपैर्महावृष्टिरूपः

क्वचित्सूर्यरूपैर्महातापयुक्त:

क्वचिद्वा हिमांशूयते शीतरश्मि:

क्वचित्पुष्पराशौ सुगन्धायतेऽसौ ॥२७॥

 

बादलों के रूप में वे ही कभी इस संसार में महावृष्टि करते हैं! कभी सूर्य के रूप में वे ही महान् ताप से युक्त रहते हैं,और कभी चंद्रमा बनकरवे ही शीतल किरण बरसाते हैंतथा कभी फूलों में सुगन्धि बनकर वे ही महकते हैं ॥२७॥

 

क्वचिद्वा समष्टीयते लोकरूप:

क्वचिद्व्यष्टिरूपैश्चरेद्ब्रह्मरूप:

श्रुतिस्मार्तशास्त्राक्षरैर्लक्ष्यते वा

पुराणादिलेखङ्करं तं नमाम: ॥२८॥

 

कहीं इस संसार के समष्टि-रूप में वे ही हैंकहीं व्यष्टि-रूप में विराजमान हैं। कहीं ब्रह्मरूप होकर वे गणेशजी ही घूमते हैं। वेदशास्त्रस्मृतियां और पुराण - इनके अक्षरों में वे गणेशजी ही लक्षित होते हैं। पुराणों लिखने वाले उन गणेश जी को हम नमस्कार करते हैं ॥२८॥

 

त्रिनेत्रस्य पुत्रं त्रिनेत्रं त्रिशूलि-

प्रियं च त्रिदु:खापहं त्र्यम्बकार्च्यं

त्रिवेदं त्रियादं[6] त्रिमुन्यर्चितं[7] तं

त्रिलोकैकनाथं भजे वक्रतुण्डम् ॥२९॥

(त्रिलोकं स्वलोकाच्च पश्यन्तमीडे)

 

तीन नेत्र वाले शिव के जो पुत्र हैंउनके स्वयं भी तीन नेत्र हैंऔर त्रिशूल धारण करने वाले शिव भगवान् उन्हें बहुत ही प्रिय हैंवे (आधिदैविकआधिभौतिकअध्यात्मिक) तीनों दुखों को नष्ट कर देते हैं। भगवान् शिव उनके पूजनीय हैं। तीन वेदों (ऋग्-यजुस्-साम) में वही बसते हैं। मनुष्य को स्त्री भी वे ही प्रदान करते हैं। पाणिनिकात्यायनपतञ्जलि ये तीनों मुनिउन्हीं की तो पूजा करते हैं। ऐसे तीनों लोकों के स्वामी वक्रतुण्ड भगवान् कीमैं वन्दना करता हूं। भजन करता हूं। (तीनों लोकों पर गणेशलोक से ही निगरानी रखे हुए श्रीगणेश-भगवान् की मैं स्तुति करता हूं।) ॥२९॥

 

चतुर्वेदमूलं चतुर्मार्गसुस्थं

चतुर्भिश्च विप्रैर्मुदार्च्यं सुसिद्ध्यै

चतुष्कामदं चातुरीचित्रकारं[8]

चमत्कारिलोकं[9] भजे सर्वकारम् ॥३०॥

 

चारों वेदों का मूल गणेशजी हैं। चौराहे पर देवता के रूप में गणेशजी ही स्थित रहते हैं। चार ब्राह्मण मिलकर उनका ही आनंदपूर्वक सिद्धि प्राप्त करने के लिए अर्चन-वन्दन करते हैं। धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थों को गणेशजी ही प्रदान करते हैं। वही इस जगत् के चतुर-चित्रकार हैं। उनका स्वरूप बड़ा ही चमत्कारी हैऔर वे सब कुछ करने में समर्थ हैं। मैं उनका भजन करता हूं ॥३०॥

 

भुजङ्गासनैर्वा प्लवङ्गासनैर्वा

कुरङ्गासनै: रङ्गमञ्चासनैर्वा

तरङ्गासनैर्वा तुरङ्गासनैर्वा

मतं पूजितं हर्षितं हर्षयाम: ॥३१॥

 

भुजङ्ग (साँप) है आसन जिनका (विष्णुसर्पासना देवी इत्यादि बहुत से देवताओं का भुजङ्ग ही आसन है)प्लवङ्ग (मेंढक आदि उछलकर चलने वाले जीव) है सवारी जिनकीहिरन है सवारी जिनकीतथा रंगमंच पर जो बैठने वाले लोग हैं (नटादि) , या फिर नदीसमुद्र की लहरों पर स्थित (वरुणादि) जो हैंघोड़े पर बैठने वाले जो (राजादि) व्यक्ति हैं, - उन सभी के द्वारा आप ही पूजित हैंसम्मानित हैंहर्षित हैं। हम भी आपको इसी तरह हर्षित करते हैं ॥३१॥

 

यं च नक्रासना यं च काकासना

यं शवैकासना श्रीशिवैकासना

यं तथोल्लूकरूढा च हंसासना

मूषकारूढदेवं स्मरेद्विघ्नहम् ॥३२॥

 

मगरमच्छ पर बैठने वाली गङ्गा-माँकौवे पर बैठने वाली धूमावती-माँमुर्दे पर बैठने वाली काली-माँऔर शिव के ऊपर बैठने वाली काली-माँउल्लू पर चढ़ने वाली लक्ष्मी-माँहंस पर चढ़ने वाली सरस्वती-माँजिन मूषकवाहनगणेशभगवान् का स्मरणध्यान करते हैंहम भी अपने विघ्नों के नाश के लिएउनका ही स्मरण कर रहे हैं ॥३२॥

 

वज्रपाणिश्च वा पाशपाणिश्च वा

दण्डपाणिश्च वा पद्मपाणिश्च वा

शूलपाणिश्च वीणैकपाणिश्च वा

मोदते वीक्ष्य यं तं गणेशं नुम: ॥३३॥

 

वज्र है हाथ में जिनके ऐसे इन्द्रपाश है हाथ में जिनके ऐसे वरुणदण्ड है हाथ में जिनके ऐसे यमराजकमल है हाथ में जिनके ऐसे नारायणत्रिशूल है हाथ में जिनके ऐसे शिववीणा है हाथ में जिनके ऐसी सरस्वती - ये सब गणेशजी के दर्शन करने से बहुत खुश होते हैं। हम भी उनकी वन्दना करते हैं ॥३३॥

 

शुद्धबुद्धप्रवृद्धैर्नुतं संस्तुतं

युद्धवृद्धैस्समृद्धैस्सदा वन्दितं

शास्त्रगृद्धैर्मुहुस्तं जयायार्चितं

श्राद्धरूपं सुरूपं गणेशं नुम: ॥३४॥

 

जो व्यक्ति बहुत ही शुद्धबुद्ध और प्रवृद्ध (सम्पन्न) हैंवे सब गणेश जी की स्तुति करते हैं। महावीरयुद्धों के जानकारऔर बहुत धनवान् व्यक्ति भी सदा गणेशजी की वन्दना करते हैं। शास्त्रार्थ करते समयजो स्वमत से प्रतिपक्षी विद्वान् पर गिद्ध की तरह झपट्टा मारते हैंऐसे विद्वान् भी अपनी जीत के लिए बार-बार गणेशजी की अर्चना करते हैं। वे गणेशजी साक्षात् श्रद्धा के स्वरूप हैं। बहुत ही सुन्दर हैं। हम उनको नमस्कार करते हैं ॥३४॥

 

नागलोकङ्गतं वारुणे संस्थितं

प्रेतलोकस्थितं पैतृगान्धर्वगं

वैष्णवे शाङ्करे यक्षलोके गतं

स्वेच्छया तं हि सर्वत्र यान्तं नुम: ॥३५॥

 

नागलोक में गए हुएवरुण-लोकप्रेत-लोक में भी जो स्थित रहते हैं,  पितृलोकगन्धर्वलोक में स्थितविष्णुलोकशिवलोकयक्षलोक में भी जो सदा स्थित हैं। और प्रत्येक स्थान पर अपनी इच्छा से ही घूमते रहते हैंऐसे गणेशजी को हम नमस्कार करते हैं ॥३५॥

 

डाकिनीशाकिनीशं श्मशानेशयं

यामिनीकामिनीशं च नाकेशयं

भ्रामरीशं[10] भ्रमध्वान्तहं केशयं[11]

रागिनीशं[12] रजन्यां भ्रमन्तं भजे ॥३६॥

 

वे डाकिनी-शाकिनियों के स्वामीश्मशान में सोते हैं। इन रातों के और कामिनियों के वही ईश्वर हैं। वे कभी-कभी स्वर्ग में भी जाकर सो जाते हैं (या स्वर्ग की समृद्धि को बढ़ाते हैं)। वे जल (समुद्र,नदीसरोवर आदि) में भी शयन करते हैं। भ्रामरी नामक विद्या के स्वामी हैं। भ्रान्तिरूपी अन्धकार को नष्ट कर देते हैं। सङ्गीत-शास्त्र की रागनियों (या रागिनी स्त्रियों) के वे ही स्वामी हैं (अर्थात् सङ्गीतविद्या के लिए भी गणेश जी की उपासना करनी चाहिए)। और जो गणेशजी रात्रिकाल में भ्रमण करते हैं,उनका मैं भजन करता हूं ॥३६॥

 

कार्तिकेयाग्रजं शम्भुपुत्रं शिवं[13]

श्रीशिवाराधकं मूषके राजितं

पीतवस्त्रं सशस्त्रं गजास्यं गुरुं

गुण्यपुण्यं गिरामेकलभ्यं नुम:[14] ॥३७॥

 

वे गणेशजीकार्तिकेय के बड़े भाई हैं। शिव के पुत्र हैंया स्वयं ही शिव (कल्याणकारी) हैं। और शिव की ही पूजा करने वाले हैं। चूहे पर विराजमान हैं। पीले रंग के कपड़े पहनने वालेचारों हाथों में शस्त्र-धारण करने वालेहाथी के मुख वालेसब के गुरु हैंगुणों से युक्त हैं! पुण्य-दर्शन हैं! सभी वाणियों का एकमात्र प्राप्य हैं! हम उनको नमस्कार करते हैं ॥३७॥

 

कश्चिद्दन्ती चरति भुवने मङ्गलैर्मण्डितस्सन्

हस्त्यास्योऽसौ हरति जगतामापदस्सर्वदैव

ब्राह्मीधारां धरति गणपः पूज्यते मूर्त्तरूपस्-

सोऽस्मत्तापान्दहतु दहनस्सूर्यकोटिप्रभावान् ॥३८॥

 

कोई एकदन्तइस संसार में माङ्गलिक-शृङ्गार वाले घूमतें है। वे हस्तिमुखइस संसार की सारी आपत्तियों को सदा ही हरते हैं। ब्रह्म-तत्त्व की जो धारा हैउसको धारण करने वालेवे गणपालकमूर्ति रूप में पूजे जाते हैं। वे ही हमारे सभी तरह के तापों को जला दें! क्योंकि वे करोड़ों सूर्य की प्रभा वाले हैं ॥३८॥

 

आख्वारूढस्सुरनरमुनीन् पाति पापप्रणाशी

नित्यं गूढं प्रकटयति वपुर्भक्तियुक्ताय युक्तो

दोषामूढान् जलनवधियोल्लासयेद्भासरूपो

व्यूढोरस्कान् रणगतजनान् यो जयैर्योजयेद्वा ॥३९॥

 

मूषक पर चढ़करदेवतामनुष्यऋषिमुनि, इन सबकी रक्षा करते हैं! उनका स्वभाव पापों को नष्ट करने वाला है! जो उनकी भक्ति से युक्त हो जाते हैंऔर गणेशजी से ही जुड़े रहते हैंऐसे लोगों के लिए अपने उस रूप को प्रकट करते हैंजो सदा ही बहुत गूढ़ है। दोषों के कारणजो लोग मूढ़ता को प्राप्त नहीं हुए हैंउनके लिए जल की तरह नयी बुद्धि[15] प्रदान करकेउनका उल्लास बढ़ाते हैं और स्वयं प्रकाश-स्वरूप हैंऔर चौड़े वक्षस्थल वालेयुद्ध में गए हुए वीरों को वे ही विजयी बनाते हैं ॥३९॥

 

दिव्याकाशे भ्रमति शिवराड्लीलयोल्लासहासो

ब्रह्माकाशे परिणतगुरुर्गीष्पतीनां गिराभिर्-

भक्त्याकाशे यजनहृदयैर्दृश्यते हृत्प्रदेशे

मुक्ताकाशो मतियुतमतो मूलतत्त्वप्रवेशे ॥४०॥

 

दिव्य स्वर्ग के आकाश में वे शिवराज[16]अपनी लीला के उल्लास से हंसते हुए भ्रमण करते हैं। वे गणेशबृहस्पति समान देवताओं की वाणियों द्वाराब्रह्मरूपी आकाश में परिणत हुए गुरु ही हैं (अर्थात् गणेश ब्रह्माकाश-स्वरूप हैं)। यज्ञ,स्तुति आदि में लगा रहता है मन जिनकावे श्रद्धालुअपने हृदय में भक्ति के आकाश की तरह गणेशजी को देखतें हैं। और मूल-तत्त्व जो ब्रह्म हैउसमें प्रवेश करते समय बुद्धिमान लोगों द्वारा गणेशजी ही मुक्ताकाश (बन्धनरहित) माने गए हैं ॥४०॥

 

विघ्नोद्धर्ता विगमगतिको दन्तिराट् राट्सु सम्राट्

दुष्टोद्धन्ता विजयबलदो देवराट् सैन्यविभ्राट्

सौख्यङ्कारी धनमतिकरो धन्यधन्यश्शिवोऽन्यो

नान्यो मान्यो नतिपरजनैरुच्यते यो ह्यनन्य: ॥४१॥

 

विघ्नों से उद्धार करने वालेजिनकी कोई गति नहीं,उनकी एकमात्र गतिवे दन्तिराज हैंजो राजाओं के भी राजा हैं! दुष्टों संहार करते हैं। व्यक्ति को विजय होने के लिए बल प्रदान करते हैं! वे ही देवताओं के राजा हैं! और सैन्य में शोभित होते हैं! वे ही मन के दुख को हटाकर सुख पैदा करते हैं! धनप्रद बुद्धि उत्पन्न करते हैं! धन्यों के धन्य हैं! और वे ही दूसरे शिव हैं! उनके अतिरिक्त किसी को भी मत मानों! नमस्कार करते हुए लोगों के द्वारा वही अनन्य कहे जाते हैं ॥४१॥

 

शौर्यं तेजो नृपतिगुणतां सूर्यवान् वक्रतुण्डस्-

सौम्यं शान्तिं दिशति जगते चन्द्रगुण्यो गणेशो

वीर्यं वै साहसमपि च यो मङ्गलाढ्यो ग्रहार्च्यो

बुद्धिं हारित्यमथ कुरुते श्रीबुधोल्लासितस्सन् ॥४२॥

 

वक्रतुण्ड ही सूर्य बनकरशूरवीरतातेज तथा राजाओं के गुण प्रदान करते हैं। और वे ही गणेश चन्द्रमा बनकर संसार में सौम्य और और शान्ति देते हैं।

जब गणेशजीमङ्गल-गुणों से युक्त होते हैंतो वे पराक्रम और साहस प्राणियों को प्रदान करते हैं। जब गणपतिबुध के गुणों से उल्लसित होते हैंतो वे ही संसार को हरा-भरा और बुद्धि संपन्न कर देते हैं ॥४२॥

 

बार्हस्पत्योऽर्चितगुरुगुणो गौरवं ज्ञानलोकं

सौन्दर्यं वा शुभकर-सुरश्शुक्ररूपेण भोगं

न्यायं नानोन्नतिपथधनं सौरिरूपो रणाग्रो

राह्वाह्वानैर्गणपतिरसौ गुप्तवित्तं ददाति ॥४३॥

 

बृहस्पति स्वरूप वे गणेशजीगुरू के रूप में पूजे जाते हैंवे ज्ञान का प्रकाश और गौरव प्रदान करते हैंवे ही शुभ-कार्यों को करने वाले देवजब शुक्र का रूप धारण करते हैंतो मनुष्य को भोग और सौंदर्य प्रदान करते हैं! जब वे गणेशजीशनैश्चर का रूप धारण करते हैं , तो मनुष्य के लिए न्याय करने की शक्तिअनेक तरह की उन्नति प्रदान करने वाला रास्ताऔर तत्सम्बन्धी धनएवं युद्ध में निपुणता प्रदान करते हैं! और राहु के रूप में आवाहित गणेशजी हीअपने भक्तों को गुप्त धन देते हैं ॥४३॥

 

यः केत्वाख्यो विकसति गुणान्मानसाध्यात्मिकाँश्च

इत्त्थं देवो ग्रहपतिरसौ भाग्यलेखी जनानां

सूक्ष्मे स्थूले परिणतवपुर्भाति भास्वान् प्रशास्ता

विघ्नध्वंसो जयतु दयतान्मादृशे स्तोत्ररक्ते ॥४४॥

 

जिन्हें हम केतु कहते हैंवे भी गणपति ही हैं। वह मनुष्य के मानसिक और आध्यात्मिक गुणों का विकास करते हैं। इस प्रकार गणेशजीस्वयं ग्रहों के स्वरूप हैंएवं पृथक् रूप से ग्रहों के स्वामी भी हैं। वे मनुष्यों के भाग्यों का लेखा-जोखा रखने वाले हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ में और स्थूल से स्थूल पदार्थ में वही गणेश जी परिवर्तित हो जाते हैं। वे ही तेजस्वी और बहुत ही उच्च स्तर के शासक हैं। ऐसे विघ्नध्वंसक गणेशजी की जय होवे मेरे जैसे स्तुति करने वाले भक्तों पर दया करें ॥४४॥

 

हेमं हेरम्बगजवदनो यच्छति स्वर्णरूपस्-

तद्वद्दद्याद्रजतमपि यो राजतैः राजितस्सन्

ताम्रस्थोऽयं विविधफलदः कामदो नम्रताढ्यो

लौहस्थोऽपि श्रयति बलता-दानमर्चिस्स्वरूप:[17] ॥४५॥

 

स्वर्णदेह वे गजवदनपार्वती के पुत्र ही इस संसार के लोगों को स्वर्ण-आभूषण प्रदान करते हैं। इसी प्रकार चांदी जैसे रंग वाले भगवान् गणेशजीइस दुनियाँ में चांदी की बरसात करते हैं। तांबे की मूर्ति में स्थित गणेशजी सभी तरह के फल प्रदान करते हैं। वे मनुष्यों को अभीष्ट काम प्रदान करते हैं और विनम्रता की मूर्ति हैं। इसी प्रकार वे ज्योतिष्मान् स्वरूप वाले गजाननलोहे की मूर्ति में विराजमान होकरपूजा करने वालों को बलवान् बनाते हैं ॥४५॥

 

निम्बस्थोऽयं हरति च रुजः काष्ठरूपो रसाढ्यो

धान्यं यच्छेदतुलधनतां निम्बमूर्त्याश्रितोऽहो

चाश्वत्थस्थो हरिपदसुरक्तिं ददातीव कोऽसौ

वृक्षोज्जीवी रहसि वसति श्रीवनस्थो गणेश: ॥४६॥

 

नीम के पेड़ में स्थितकाष्ठ-रूप गणेशजी स्वयं रसवान् हैं। और सेवन करने वालों के रोगों को हर लेते हैं। यदि उन्हीं की नीम की लकड़ी की मूर्ति बनाकर पूजा की जाएतो वे अतुल धन-धान्य प्रदान करते हैं। पीपल के पेड़ में विराजमान गणेशजीविष्णु भगवान् में प्रेम उत्पन्न करवाते हैं। सभी वृक्षों में स्थित और सभी वृक्षों के जीवन स्वरूप वे गणेशजीएकान्तशोभायमान वन में निवास करते हैं ॥४६॥

 

चणकचूर्णविनिर्मितलड्डुकं

गणप! ते प्रददामि मधुश्रितं

न न न मेऽल्पतरं त्विह वस्तुकं

सकलभोज्यपदार्थकरो भवान् ॥४७॥

 

हे गणेश जी! मैं तुमको शहद से बने हुएबेसन के लड्डू चढ़ाऊँगा! किन्तुये तो बहुत छोटी-छोटी वस्तुएं हैं! भगवन्! आप सभी तरह के भोज्य-पदार्थ देने वाले हो। मैं आपको क्या दे सकता हूं (कुछ नहीं) ॥४७॥

 

गणप! चेक्षुरसं प्रददामि ते

पिब भवे: मम शीतलमानस:

भवसुता!ऽद्य विलोक्य तवाननं

सफलजातमिवास्मि त्वदर्चनै:॥४८॥

 

हे गणेश जी! मैं तुम्हें गन्ने का रस दे रहा हूंइसे पियो और मेरे लिए अपने मन को शीतल कर लो। हे शिव के पुत्र! आपका मुख देखकर और आपकी पूजा-अर्चना करने से आज मेरा जन्म सफल हो गया ॥४८॥

 

शिवसुत! प्रतनोमि भवत्कृते

विविधगन्धसमन्वितपुष्पिका:

पदमयीरिव वर्णमयी: शुभा:

दयतु देव! दयामय! दन्तिराट् ॥४९॥

 

हे शिव के पुत्र! मैं तुम्हारे लिए अनेक सुगन्धों से युक्तशब्दमयी और रंगीलीमङ्गलदायक पुष्पिका प्रदान करता हूं। हे दन्तिराज! आप बहुत दयालु हो! मुझ पर दया करो। ॥४९॥

 

कमल-चम्पक-जाति-सुमल्लिका-

बकुल-सेवति-कुन्दज-पाटलान्

तगर-यूथि-कदम्बक-केशरान्

गणप! ते प्रददामि च किंशुकान् ॥५०॥

 

कमलचम्पाजातिसुन्दर मल्लिकाबकुलसेवतीकुन्दगुलाबतगरजूहीकदम्बकेसरकिंशुक। हे गणेशजी! इन सब पुष्पों को मैं आपको समर्पित करता हूं ॥५०॥

 

किमथ किं विचिनोमि त्वकां विना

मम मनो दिशतीव न सद्दिशां

वरद! शारदचन्द्रमुख! श्रयेः

शिवमयं सकलंशमनं द्विषाम् ॥५१॥

 

आपको छोड़कर किस-किस संसार की वस्तु का चिन्तन करता फिरूंगा! (अर्थात् जो आपको नहीं चुनतावह विनाशशील वस्तुओं में ही लगा रहता है)। गणेशजी! मेरा मन मुझे सही दिशा नहीं सुझा पा रहा है! इसलिए हे शरद् पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख वाले! आप ही मुझे सही बताओ। और मेरे जीवन को कल्याणमय और शान्तिमय बना दोऔर मेरे से द्वेष करने वाले शत्रुओं का नाश कर दो ॥५१॥

 

किमहमथ ददानीश! त्वदर्थे जगत्यां

सकलमपि पदार्थाद्यं तवैवास्ति सृष्टं,

तदपि नृमनसो वै सम्परीक्षां विधातुं

त्वमिह च कुरुषेऽहो स्वीयपूजाविधानम् ॥५२॥

 

गणेशजी! इस संसार मेंमैं आपको क्या चीज दूं! क्योंकि सारे ही पदार्थ आदि तुमने ही बनाए हैं! फिर भी मनुष्य के मन की परीक्षा करने के लिए आप ही विविध प्रकार की पूजा का विधान शास्त्रों के द्वारा करते हो।[18] (ताकि जाना जा सके कि मनुष्य कितना उदार है या कितना लोभी) ॥५२॥

 

विनायकोऽधिनायकोऽपि पावकोऽतिदाहको

विधायको ह गायकोऽथ सर्वलोकवाहको

सुसायकस्त्रिशूलधारकोऽरिमारको विभु:

प्रभुर्मदीयचेतनात्मनीव वासतां व्रजेत्॥५३॥

 

आप ही विनायक हैं! आप ही अधिनायक हैं! आप ही दग्ध करने वाली अग्नि हैं! आप ही विधायक हैं! आप ही गायक हैं! आप ही समस्त लोक को वहन करते हैं! आप बाणस्वरूप भी हैं (या अच्छे,तीखे बाणों वाले हैं)! आप ही त्रिशूल को धारण करते हैं! और दुष्टों नाश करते हैं! आप विभु हैं! हे प्रभु! आप मेरी चेतना स्वरूप आत्मा में निवास करें ॥५३॥

 

विधीश-धीश-देवतेश-सिद्धिदेश-दिव्यराट्

विशोकदूषकोऽथ मूषकप्ररूढसौख्यराट्

श्मशानवासिडाकिनीपिशाचिनी-प्रपूज्यराट्

विराडशेषलोकराड् बिभर्त्तु मत्सुमङ्गलम् ॥५४॥

 

विधि-विधान के स्वामी आप हैं! बुद्धि के स्वामी आप हैं! आप ही देवताओं के राजा हैं! सिद्धि के एक मात्र स्थान आप हैं! दिव्य लोक के राजा आप हैं! मनुष्यों के विशिष्ट शोक को नाश करने वाले आप ही हैं! आप ही मूषक पर चढ़ने वाले और सुखों  से विभ्राजित हैं! आप श्मशान में रहने वाली डाकिनीपिशाचिनी आदि के पूजनीय राजा हो! आप विराट् स्वरूप वाले हैं। और समस्त चौदह लोकों के स्वामी हो! आप ही मुझे सुन्दर मङ्गलों को प्रदान करो ॥५४॥

 

रमेश-पार्वतीश-रुक्मिणीश-देव-मोददश्-

शचीश-पावकेश-नीरजेश-शेष-सौख्यदो

धरेश-मानुषेश-नाग-नाग-वृन्द-वन्दितस्-

सुचन्दनाञ्चितो गणेश! हेमवन्! प्रपाहि माम्॥५५॥

 

रमेशपार्वती-पतिरुक्मिणी के स्वामी कृष्णआदि जो देवता हैं , उनको आप खूब प्रसन्नता प्रदान करते हो! शची के पति इन्द्रअग्निदेवकमलपति (सूर्य)एवं शेषनाग - इनको भी आप ही सुख प्रदान करते हो! धरती के राजामनुष्यों के राजाहाथी तथा नागों के समूह भी सदा आपकी ही वन्दना करते हैं! आप बहुत सुन्दर चन्दन से चर्चित शरीर वाले हैं! हे गणेश! आप स्वर्णकान्ति हैं! आप मेरी रक्षा करो ॥५५॥

 

कथा-कवीश-कव्यभुक्-कलेन्द्र-कामनायक:

खगेश-खेचरेश-खस्वरूप-खान्त-नायको

गिरेश-गायकेश-गामि-गुण्य-गो-गणाग्रगो

घनेश! विघ्नहा निघण्टुबोधदो घटान्तक:॥५६॥

 

कथा-लेखक जो कविश्रेष्ठकव्य (पिण्डादि) का भोजन करने वाले जो पितरकलाओं के स्वामीऔर जो कामदेव हैंवे  भी आपकी ही वन्दना करते हैं! पक्षीराज गरुड़आकाश में विचरण करने वाले जीव जन्तुओं के जो स्वामी हैं वेआपको ध्याते हैं! आप स्वयं आकाश जैसे स्वरूप वाले हैं! इस आकाश का अंत भी आप ही हैं , ऐसे आप नायक हैं! आप वाणी के स्वामी हैं! सङ्गीत कला से युक्त मनुष्यों के स्वामी भी आप ही हैं! (गामी) आप कहीं भी जाने में निपुण हैं! गुरु स्वरूप हैंगौ-स्वरूप हैं (अर्थात् गाय में भी वास करते हैं)!  और गण में अग्रगण्य हैं! इन बादलों के राजा भी आप ही हो! निघण्टु नामक शास्त्र का ज्ञान देने वाले आप हो! आप विघ्नों का नाश कर देते हो! और (विपत्ति की) घटाओं का अन्त करने वाले भी आप ही हो ॥५६॥

 

गमी गवीश-गीष्पति-श्रुतीश-गोपतिर्भवान्

दिवा-दिवेश-यामिनीश-दैन्यदारकेश-राट्

दिशा-निशा-दिनादि-चक्रवर्त्तक: प्रवर्त्तको

जयेद् गणेश! वक्रतुण्ड! पण्डितत्त्वनर्तक:॥५७॥

 

भ्रमणशीलगायों के स्वामी भगवान कृष्ण,वाणी के स्वामी बृहस्पतिश्रुति के स्वामी नारायणऔर इन्द्रियों के स्वामी भी आप ही हैं। दिन भी आप हो! सूर्य भी आप होराकेश भी आप हो! दरिद्रता आदि दीनता को दूर करने वाले भी आप हो! आप राजा होदिशानिशाप्रभात आदि के चक्र को आप ही चलाते हो! आप इस संसार के ही महान् प्रवर्त्तक हो। हे वक्रतुण्ड! गणेश! आप ही पण्डितत्त्व का नाच नचाने वाले हो! आपकी जय हो ॥५७॥

 

उमामहेश्वरप्रसन्नताप्रवर्धको भवान्

शचीपुरन्दरप्रसन्नताप्रदो भवान् गुरो!

रमारमेश्वरास्यहास्यदायको भवाञ्जयेद्

गिरा-गिरेश्वराशुमोदकारिरूपवान् भवान् ॥५८॥

 

उमा-महेश्वर की प्रसन्नता में आप ही वृद्धि करने वाले होशची और पुरन्दर को आप ही प्रसन्नता प्रदान करते हो! गुरुरमा-रमेश्वर के मुख पर आप ही हंसी रूपी प्रसन्नता देते हो! आपका रूप सरस्वती और विद्वानों को तत्काल सुख प्रदान करने का है! आपकी जय हो ॥५८॥

 

फलव्रतैर्जलव्रतै: घृतव्रतैर्मधुव्रतै:

पयोव्रतैस्समर्च्यते शुभङ्करो महेश्वरस्-

तथैव वायुमात्रपायिभिश्चतुर्थ्यभोजनै:

प्रजप्यते मनश्श्रितं गणेशमन्त्रमर्थदम्॥५९॥

 

हे महेश्वर! फलाहारीजलाहारीघी-आहारीशहद आहारीदूधाहारी होकर लोग,  शुभ फल प्राप्ति के लिए आपकी अर्चना करते हैं। इसी प्रकार चतुर्थी के दिन भूखे-प्यासे रहकर सिर्फ वायु मात्र को पीने वाले लोगअपने मन ही मन में महान् तत्त्व स्वरूप और धन सम्पत्ति प्रदान करने वाले गणेश जी के मंत्र का खूब जाप करते हैं ॥५९॥

 

अनेकजन्मपुण्यसञ्चयैस्त्वयीव मानवा:

दधत्यहो सदैकचित्तभक्तिभावनां मुदा

तदा तरन्ति दुस्तराद्भवाद्द्रुतं विनिश्चितं

जयोऽस्तु ते जयोऽस्तु ते गणेश्वर! त्वमाश्रय: ॥६०॥

 

जब अनेक जन्मों के पुण्य सञ्चित हो जाते हैं , तब जाकर मनुष्य की ऐसी बुद्धि बनती हैकि वह सब कुछ छोड़-छाड़ केवल अपने हृदय में भक्ति-भाव को धारण करता हैऔर फिर बिना प्रयास के ही आनन्दपूर्वक इस दुस्तर भवसागर से निश्चित ही तुरन्त पार उतर जाता है। हे गणेश्वर! आप ही मेरे आश्रय हो! आपकी जय हो! आपकी जय हो ॥६०॥

 

लज्जित: कामदेवश्च रूपाभया

चन्द्रमाश्चाननस्याभया येन वै

तेजसा कोटिसूर्याः परास्तास्तथा

तं भजामीशमज्ञानहं सौख्यदम् ॥६१॥

 

आपकी सुन्दरता की आभा देखकर कामदेव भी लज्जित हो जाता है। आपके मुख की छटा देख कर चन्द्रमा भी फीका पड़ जाता है। आपके तेज से करोड़ो सूर्य भी परास्त हो जाते हैं! हे भगवन्! आप मेरे अज्ञान को हर लोऔर मुझे सुखी करो। मैं आपको भज रहा हूं ॥६१॥

 

यद्विधानं विधेस्तत्तु सत्यं ध्रुवं

तद्दुनोति क्वचिन्मादृशं हा जनं

किन्तु भक्तस्य कल्याणकाम: प्रभु:

नश्यतीव क्षणात्तं द्रुतं लोकनात् ॥६२॥

 

जो विधि का विधान हैवह अटल एवं सत्य होता है। और वह कभी-कभी मुझ जैसे मनुष्य को भी बहुत दुखी करता है। किन्तु हे प्रभु! आप भक्तों के कल्याण करने वाले हैं। यदि आप एक बार दृष्टिपात भी कर देंतो वह दुर्भाग्य भी एक क्षण में ही तुरन्त नष्ट हो जाता हैऐसी आप की महिमा है ॥६२॥

 

किन्न गौरीसुतेनेह संसाध्यते

किङ्गजास्येन नैवेह निर्मीयते

किञ्च गुप्तं गणेशस्य दृष्ट्याऽस्ति वा

नैव किञ्चिन्न किञ्चिन्न किञ्चित्प्रभो ॥६३॥

 

ऐसा क्या हैजो पार्वती के पुत्र गणेश जी सिद्ध नहीं कर सकतेऐसी कौनसी वस्तु हैजिसको गणेश जी निर्माण नहीं करतेअरे! उन गणेश की दृष्टि से क्या छुपा हुआ हैकुछ नहीं! कुछ नहीं! कुछ भी नहीं ॥६३॥

 

किन्न दद्यात्स लम्बोदरो मोदित:

किन्न पुष्णाति कामान् जनैरर्चितो

वृद्धया श्रद्धया यो भजेद्विघ्नहं

मृत्युराजोऽपि तं नैव दृष्टुं क्षम:॥६४॥

 

वे लम्बोदर यदि प्रसन्न होंतो क्या क्या नहीं दे सकतेकिस इच्छा को पूरी नहीं कर सकतेअगर उनकी विधि-विधान से पूजा की जाए और खूब बढ़ी हुई श्रद्धा से जो मनुष्य विघ्नों के हरने वाले भगवान का भजन करते हैंमृत्यु के राजा यमराज भी उनकी तरफ आंख उठाकर नहीं देख सकते। (उनकी तरफ दृष्टि नहीं डाल सकते।) ॥६४॥

 

हे हिमाढ्ये प्रदेशे क्वचित्त्वं वसे:!

श्रीसुधास्राविलोके क्वचित्त्वं वसे:!

यत्र सर्वं विनिश्चीयते प्राणिनां!

त्वं तु तस्मादपीशोत्तरे[19] संवसेः ॥६५॥

 

भगवन्! आप कहीं बर्फीले प्रदेशों में रहते हैं! आप जिस लोक में रहते हैंवहां अमृत बरसता रहता है! और जहां प्राणियों के बारे में सब कुछ सब कुछ निश्चित किया जाता हैभगवन्! आप तो उससे भी ऊपर के लोक में निवास करते हैं ॥६५॥

 

स्वर्णमूर्त्तौ क्वचिद्राजते संवसे:

ताम्रकांस्यादिषु त्वं वसे: सीसके

काष्ठपाषाणमृद्-गोमयेष्वायसे[20]

नैव पश्यामि तद्यत्र न त्वं वसे: ॥६६॥

 

कहीं आप सोने की मूर्ति में स्थित रहते हो! कहीं चांदी की कहीं तांबेकांस्य और शीशे, कहीं लोहे की मूर्ति में भी आप की प्राण प्रतिष्ठा होती है। कहीं लकड़ी की मूर्ति में आपको आवाहित किया जाता हैऔर पत्थर कीमिट्टी कीगोबर की मूर्ति में भी भक्त लोग आप की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। लेकिन मैं तो ऐसी कोई जगह ही नहीं देखता जहाँ आप न रहते हों ॥६६॥

 

खाग्निवाय्वब्धराकालदिग्-राजित!

त्वं मनश्चेतनास्वात्मनि भ्राजित:

हार्दिकोद्गार! सत्यस्त्रिकालेष्वसि

क्वासि न त्वं,गणेशा!ऽखिलात्मन्! प्रिय! ॥६७॥

 

आकाश अग्नि वायु जल धरतीकालदिशा -  इन सातों पदार्थों में आप ही विराजमान हैं।  मन की विभिन्न चेतनाओं में और स्वयं आत्मा में भी आप ही विराजते हैं। अरेआप तो वास्तव में हृदय के सच्चे उद्गार हैं! और तीनों कालों में सत्य हैं! आप कहां नहीं हैं ? हे प्रिय गणेश! आप तो अखिलात्मा हैं ॥६७॥

 

चन्द्रभालोऽहिमालो मया कल्पितो

वक्रतुण्डस्त्रिपुण्ड्रेण संशोभितो

व्याघ्रचर्माम्बरो रुद्रमालाधरश्-

शम्भुरूपस्त्रिशूलं धरन् नम्यते॥६८॥

 

त्रिपुण्ड्र लगाए हुएमस्तक पर चन्द्रमा धारण किए हुएसाँपों की माला पहने हुएबाघ का चर्म लपेटे हुएरुद्राक्ष की माला धरे हुएऔर त्रिशूल हाथ में लिए हुएसाक्षात् शिव के ही स्वरूप को धारण करते हुए , भगवान् वक्रतुण्ड की मैंने कल्पना की है।  मैं उन्हें नमस्कार करता हूं ॥६८॥

 

शेषनागे शयानश्च पीताम्बरो

नीलदेहोऽम्बुधौ ऋद्धिसिद्ध्यन्वितश्-

चक्रपाणि: गदापद्महस्तोऽभयं

यच्छतीवेति विष्णुर्गणेशो मम ॥६९॥

 

पीताम्बर धारण किए हुएआकाश के जैसे नीले शरीर की कान्ति वालेऋद्धि-सिद्धि के साथ क्षीर-सागर में शेषनाग पर सोते हुएहाथ में चक्रगदाकमल और अभय-मुद्रा को धारण करने वाले वे गणेशजीविष्णु के रूप में मैंने देखे! वे हमें अभय प्रदान करें ॥६९॥

 

सर्वदेवात्मकोऽहो गणेशो गुरुर्-

भाव्यते श्रद्धया हार्दनीलाम्बरे

तेन सर्वत्र यश्चैकदन्तं विभुं

पश्यतिप्राप्नुते तेन किन्नात्र वै ॥७०॥

 

भगवान् गणेश तो सभी देवताओं में समाहित हैं! सभी देवता गणेश के ही स्वरुप हैं! वही गुरु हैं! वरिष्ठ हैं! अपने हृदय रूपी नीले आकाश मेंमैं श्रद्धा पूर्वक उनको ही देखता हूं। इसी प्रकार सब जगह जो एकदन्तविभुसर्वव्यापीपरमात्मा को देखता हैभगवान् गणेश उसे क्या नहीं दे सकतेअर्थात् सब कुछ दे सकते हैं ॥७०॥

 

पार्श्वेऽसीव ममैवासि चात्मन्येव सदा वसन्।

त्वं तनोषि शिवं सद्यस्त्वं दुनोषि रिपून् मम ॥७१॥

 

आप मेरे पास ही हैं , आप मेरे ही हैंमेरी आत्मा में ही वास करते हैं करते हुए कल्याण प्रदान करते हैं! और हे भगवन्! मेरे शत्रुओं को पीड़ा दो (समाप्त करो।) ॥७१॥

 

म्लेच्छान्धूर्तान्मदान्धाँश्च श्रीगणेश! मम द्विष:!

जहि स्वभक्तकष्टाँश्च कोऽस्ति मेऽन्यस्त्वया विना ॥७२॥

 

म्लेच्छधूर्तअभिमान में अंधेजो मेरे से द्वेष करने वाले शत्रु हैउनको आप मार डालो!  हे गणेश जी! वे आपके भक्तों को कष्ट पहुंचाने वाले हैं। आपके सिवा दूसरा मेरा कौन हैकोई नहीं ॥७२॥

 

अहम्मूर्खोऽपि दुष्टोऽपि त्वद्भक्त्या रहितोऽस्म्यपि।

किन्तु तेऽस्मीति भावेन मामुद्धारय विघ्नराट् ॥७३॥

 

मैं यद्यपि मूर्ख हूंदुष्ट हूंऔर आपकी भक्ति से रहित हूं! किन्तु फिर भी आपका हूं - ऐसा सोचकरहे विघ्नराज! मेरा उद्धार करो ॥७३॥

 

हे गणेश! त्वया सृष्टं त्वया सम्पालितं हृतम्।

जगदेतत् त्वदर्चाभिर्भवेन्नूनं सुरक्षितम् ॥७४॥

 

हे गणेशजीआपने ही इस संसार की रचना की है, आप ही इसका पालन पोषण करते हो, और आप ही इसका विनाश करते हो (अर्थात्  ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी आप ही हैं।)। आपकी पूजा-अर्चना करने से यह संसार निश्चित रूप से सुरक्षित होता है ॥७४॥

 

शाकेष्वन्नेषु पेयेषु गेये ध्येये प्रमेयके।

शाखापत्रेषु वृक्षेषु कोऽन्यो वर्त्तेस्त्वया विना ॥७५॥

 

शाकों मेंअन्नों मेंपेय-पदार्थों मेंगेय-गीतों मेंध्येय तत्त्व मेंप्रमेय वस्तु मेंहरेक शाखा मेंपत्ते-पत्ते मेंआपको छोड़ कौन दूसरा हैजो रहता होअर्थात् आप ही इन सब में निवास करते हैं ॥७५॥

 

शय्यास्थ: पुस्तकस्थस्त्वं नारस्थो वा नरस्थित:!

हरिस्थस्त्वं हरस्थस्त्वं विधिस्थ: कस्त्वया विना ॥७६॥

 

शैय्यापुस्तकजलमनुष्यविष्णुशिव , ब्रह्मा,  इन सब में भी अन्दरूनी रूप (अथवा सर्वात्मकत्त्वात्) से आप ही विद्यमान हैं , कोई दूसरा नहीं ॥७६॥

 

अहं किञ्चिन्नास्मि श्रुतिवर! तवासक्तिरहितो

पुनः किं जीवानि प्रतिदिनमहो जप्यरहितो

म्रियै नूनं जीवन्तव विमलदृष्ट्या विरहितो

ह्यतो हे देवाग्रार्चन! भव दयालुर्मम कृते ॥७७॥

 

हे वेदों के श्रेष्ठ देव! आपकी भक्ति से रहितमैं कुछ भी‌ नहीं! आपका नाम-मंत्र-जप किए बिनामैं प्रतिदिन क्यों जी रहा हूं? (अर्थात् आपके मन्त्र-जप के बिना जीवन ही व्यर्थ है)! आपकी विमल-दृष्टि से जो नहीं निहारा गयावह जीता हुआ भी मृतक है। इसलिए देवताओं में प्रथम पूज्य! आप मुझ पर भी कृपा करें ॥७७॥

 

पुण्यैश्च कैश्चित् सुरराडहं वा

समालभै मानवजन्म भूम्यां

पुनः पतेयं न जगद्भयेऽस्मिन्

स्मराम्यतस्त्वां भवनाशमूलम् ॥७८॥

 

हे भगवन्किन्हीं पुण्यों से मैंने यह मानव-जन्म इस धरती पर प्राप्त किया है। लेकिन दोबारा इस भयङ्कर संसार में न गिर जाऊंइसलिए आपका मैं स्मरण कर रहा हूंक्योंकि भव-बन्धन को नाश करने वाले मूल स्वरूप आप ही हैं ॥७८॥

 

बन्ध: क्षुधा पीडनमारणानि

हा यातना छेदनकर्तनानि

क्लेशो महान् पाशवजन्मवत्सु

पाहि प्रभो मां भवबन्धनेभ्य:॥७९॥

 

बन्धनभूखप्यासपीड़ा , यातना ,काटनापीटना और अन्त में मार देनाहाकितना महाकष्ट हैपशु योनि में जन्म लेने वालों कोहे प्रभु! मुझे इस जन्म-रूपी बन्धन से छुड़ाइए! आपके लिए नमस्कार है ॥७९॥

 

न वा कुरङ्गे नहि वा मतङ्गे

न मे गतिस्स्यादथवा पतङ्गे

न मानवाङ्गे न हि जीवताङ्गे[21]

गजाननाङ्गे मतिरस्तु दन्तिन् ॥८०॥

 

हिरणहाथीकीट-पतङ्गामनुष्यजीव-स्वरूपइनमें मैं कोई गति नहीं चाहता। न इन में ध्यान लगाना चाहता। लेकिन हे गजानन! आपके ही स्वरूप में अपनी बुद्धि को लगाना चाहता हूं! दन्ती महाराज! आपकी जय हो ॥८०॥

 

का वार्ताऽन्यसुरस्य चेद्भवति ते श्रद्धाऽथ सिद्धीश्वरे

का गाथाऽन्यगुणस्य चेद्भवति ते निष्ठा शुभर्द्धीश्वरे

का विद्याऽन्यतमा भवेदथ च ते बुद्धिर्हि बुद्धीश्वरे

का शक्तिस्त्वितरा भवेद्यदि गुरौ भक्तिश्च शक्तीश्वरे ॥८१॥

 

और दूसरे देवताओं की बात ही क्या करनाजब स्वयं सिद्धीश्वर में आपकी श्रद्धा है! दूसरे देवताओं के गुणों को गाना ही क्याजब शुभकारी-ऋद्धीश्वर की गाथा गाने में आपकी निष्ठा है! दूसरी किसी विद्या में अपनी बुद्धि को लगाना ही क्याजब बुद्धीश्वर में ही अपनी बुद्धि को लगा दिया होऔर दूसरी शक्तियों को एकत्रित करना ही क्याजब शक्तीश्वर गुरु में ही आपकी भक्ति जागृत हो गई हो ॥८१॥

 

गिरीशे वा गिरीशे वा गीरीशे वा गवीश्वरे।

गोत्रेशे वा गुणेशे वा गणेशो दृश्यते मया[22] ॥८२॥

 

हिमालय मेंहिमालय पर सोने वाले शङ्कर भगवान मेंवाणी के स्वामी बृहस्पति मेंगायों के स्वामी कृष्ण मेंगोत्रों के ऋषियों में, (सत्त्वादि) गुणप्रधान देवताओं मेंहर जगह मैंने गणेश को ही देखा ॥८२॥

 

सूरेशे वा सुरेशे वा शूरेशे सारिकेश्वरे।

राशीशे वा सुरर्षौ वा सर्वेशश्श्रीयते मया ॥८३॥

 

विद्वानों के स्वामी मेंदेवताओं के स्वामी मेंवीरश्रेष्ठ मेंसारिकारूपी स्त्रियों के स्वामी मेंराशियों के स्वामी मेंदेवर्षि नारद मेंसब के स्वामीभगवान् गणेश को ही मैंने श्रयण (सेवन) किया ॥८३॥

 

श्रीश्वरे धीश्वरे विष्णौ जिष्णौ कृष्णे कृपाकरे।

ऋद्धिसिद्धीश्वरो दृष्टो गरुडे वरुणेऽरुणे ॥८४॥

 

लक्ष्मी और शोभा के  ईश्वर विष्णु मेंबुद्धि के ईश्वर में,  इन्द्र मेंकृपानिधान कृष्ण में,  पक्षिराज गरुड़ में , जल के देवता वरुण मेंऔर अरुण मेंमैंने ऋद्धि-सिद्धि के ईश्वरगणेश जी को ही देखा ॥८४॥

 

वेदान्ते चापि साङ्ख्ये वा न्याये वैशेषिकेऽपि वा।

यत्परं तत्त्वमुद्दिष्टं गणेशो मन्यते मया ॥८५॥

 

वेदान्तसाङ्ख्यन्याय और वैशेषिक जो शास्त्र हैंउनमें जिस परम् तत्व को उद्दिष्ट किया गया है (परम् तत्त्व कहा है)उस परम् तत्त्व कोमैं गणेश ही मानता हूं ॥८५॥

 

गणयेन्न गुणान् पुंसां दोषाँश्चैव कदाचन।

स्वभक्तिसक्तिचित्तानां गणेशो गीर्यते मया ॥८६॥

 

जिन मनुष्यों के मनभगवान् गणेश की भक्ति में ही आसक्त रहते हैंऐसे भक्तों के गुण-दोषों को देखे बिना हीभगवान् उन्हें मुक्ति प्रदान करते हैं! उन गणेश भगवान् का ही मैं भजन-कीर्तन करता हूं ॥८६॥

 

क्व विघ्नाः क्व भवेद्भीति: क्व रोगा: क्व महापदा:!

सिद्ध्यन्ति सर्वकार्याणि गणेशस्यैव पूजया ॥८७॥

 

कहां विघ्न?  कहां डरकहां रोगकहां आपत्तियां?

ये कोई नहीं पास आता! यह सब नष्ट हो जाते हैं! और सब काम सिद्ध हो जाते हैंसिर्फ गणेश जी की ही पूजा से ॥८७॥

 

महायुद्धे स्मरेत्तं वै गजास्यं त्र्यक्षिकं सदा।

गदाशूलाऽङ्कुशाऽभीतिहस्तंत्रस्तीकरोत्यरीन् ॥८८॥

 

यदि कोईतीन नेत्र वालेहाथ में गदाशूलअङ्कुश और अभय धारण करने वालेगजमुख भगवान् का यदि ध्यान करता है , तो वह महायुद्ध में अपने शत्रुओं को निश्चित रूप से त्रस्त (दुखी) कर देता है ॥८८॥

 

लोकेऽस्मिन् भ्राजितो भक्त्या विघ्नराजस्य यो नर:।

नरा नागा न गन्धर्वा यक्षा विघ्नन्ति तं भयात् ॥८९॥

 

इस संसार में जो कोई भीविघ्नराज की भक्ति से शोभायमान होता है,उसके कार्य में मनुष्यसर्पगन्धर्व,  यक्षभी डर के मारे विघ्न नहीं डालते ॥८९॥

 

वेताला दासतां यान्ति कूष्माण्डैर्न निरुध्यते।

ब्रह्माण्डेऽव्याहतो भूत्त्वा भ्रमेद् दन्तिदयाश्रित:॥९०॥

 

बेताल उसके वश में हो जाते हैंकूष्माण्ड[23] उसको रोक नहीं पाते , इस सारे ब्रह्मांड में वह बिना रोक-टोक के घूमता है , जो मनुष्यदन्तिराज की दया के आश्रित हो जाता है ॥९०॥

 

शूर्पकर्णं चतुर्हस्तं कृष्णदेहं क्वचिच्च तम्।

मूषकेन भ्रमन्तं यो ध्यायेन्मृत्युं पराजयेत् ॥९१॥

 

शूर्प के जैसे उनके कान है! उनके चार हाथ हैं! और काले रंग का शरीर हैऔर चूहे पर चढ़कर घूमते रहते हैंगणेशजी के ऐसे स्वरूप को जो ध्यान करता हैवह मृत्यु को भी पराजित कर देता है ॥९१॥

 

हिमांशुर्गौडविप्रोऽसौ पर्शुहस्तं द्विजप्रियम्।

भावयेद्दुष्टहन्तारं चात्मकल्याणहेतवे ॥९२॥

 

यह ब्राह्मण हिमांशु गौड़फरसा हाथ में लिए हुएब्राह्मणों को प्रेम करने वालेदुष्टों को मारने वालेउन्हीं गणेश भगवान् का अपने कल्याण की कामना से ध्यान करता है ॥९२॥

 

हिमांशुरश्मिशीतलं सुधांशुरूपकाननं

हिमांशुरत्नमस्तकं महास्त्रशस्त्रहस्तकं

हिमांशुगौडसुस्तुतं समस्तदेवतानुतं

महाप्रभांशुकोटितेजसं भजे गजाननम् ॥९३॥

 

चन्द्रमा की किरणों के समान जो शीतल हैं! अमृतमयी किरणों का रूपकजिनका मुखमंडल है! द्वितीया के चन्द्रमा को जो मस्तक पर धारण करते हैं! महान् अस्त्र शस्त्रों को हाथों में धारण करते हैंहिमांशुगौड़ नामक इस ब्राह्मण के भी प्रणम्य हैंसभी देवता जिन्हें प्रणाम करते हैं! करोड़ों सूर्यों के समान तेज वाले हैंउन गजानन भगवान् का मैं भजन करता हूं ॥९३॥

 

हे श्रीगणेश! भवतो हि बहुत्र लोके

श्रद्धादिभावशरणाश्शतशो मनुष्या:

मा विस्मरे: द्विजमिमं शिवभक्तिसक्तं

चास्मिन्महाजनपदे तृणवत्तवाहम् ॥९४॥

 

हे श्रीगणेश! इस संसार में बहुतेरे स्थानों परश्रद्धा आदि भावों से आपकी शरण में सैकड़ों लोग आते हैं। किन्तु मैं शिव (गणेश) की भक्ति में आसक्त हूं!  मुझे आप भूल न जाना! जनता के इस महा-समुदाय मेंमैं तो तिनके के समान तुच्छ हूंफिर भी सिर्फ आपका हूं ॥९४॥

 

शास्त्राचारविचारशून्यगतिकोऽहोऽहं क्व यानि प्रभो!

देवार्चापरिवर्जितोऽस्मि बहुधा चाऽऽलस्यचित्तोऽस्म्यपि

वारम्वारमहस्सु वा कपटतादक्षै: विभो! पीडितस्-

त्वं चेत्पश्यसि नप्रयाणि भगवन्! कुत्रेति नो वेद्म्यहम् ॥९५॥

 

शास्त्रों के आचार विचार से शून्य गति वालामैं आपको छोड़कर कहां जाऊंदेवताओं की पूजा-अर्चना से विहीन मैं अधिकतर आलस्यचित्त वाला ही हूं। हे भगवन्मैं बार-बार कपटी जनों से पीड़ित हुआ हूंछला गया हूंप्रभुयदि आप ही मुझे नहीं देखेंगेतो मैं कहां जाऊंगाये मैं कुछ नहीं जानता ॥९५॥

 

अश्रूणां गिरयैव हेऽङ्कुशकर! त्वं वै दयालुर्द्रुतं

भूत्त्वा नो प्रददाति किं भुवि जनान् नाकेऽथवा देवताः

सर्वे ते प्रणताः हि जीवनधराः कल्याणतां यान्त्यपि

किं वाऽहं कथयानि चाऽधिकमहो माहात्म्येतत् शिव ॥९६॥

 

हे अङ्कुशहस्त! आप केवल आंसुओं की भाषा ही समझते हो! और तुरन्त दयालु होकर इस संसार में मनुष्य कोऔर स्वर्ग में देवताओं को क्या-क्या नहीं प्रदान कर देतेऔर वे सभी जीव आपके प्रति नमस्कार-पूर्वक अञ्जलि बान्धकर कल्याण को प्राप्त करते हैं। हे शिव! मैं अधिक क्या कहूं?  आपका महत्त्व तो बहुत अधिक है ॥९६॥

 

कुटिलैर्नैव लभ्योऽसि न च्छलापन्नमानसैः।

सरलैस्त्वं प्रसन्नस्स्याः दद्यास्सञ्चिन्तितं फलम् ॥९७॥

 

भगवन्! आप कभी भी कुटिल और छल भरे हुए मन वाले लोगों द्वारा प्राप्त नहीं किए जा सकते! और ना ही प्रसन्न हो सकते! आप केवल सीधे-साधेसरल व्यक्तियों से ही प्रसन्न होते होऔर उन्हें मन-इच्छित फल को देते हो ॥९७॥

 

श्रद्धा मे तव गुण्यगौरवकथागानेऽधुना दन्तिराट्

पुण्यैरेव समुद्भवाऽस्ति सुरराट् त्वत्पादुकापूजने

बालोऽहं त्विति संविचिन्त्य सहतां सर्वापराधान् मम

संसाराक्तमिमं न ते सुरभिता मां सन्त्यजेत् कर्हिचित् ॥९८॥

 

हे सुराधिपति! आज जो आपके गुणों के गौरव की कथा गाने मेंऔर आपकी चरणपादुका पूजने मेंमेरी श्रद्धा उत्पन्न हुई है,  मैं मानता हूं कि वह पुण्य से ही हुई है। मैं तो आपका बालक ही हूंऐसा मानकर आप मेरे सभी अपराधों को क्षमा (सहन) करो! और संसार में फंसे हुए मुझको आपके स्वरूप की सुगन्धि कभी भी न त्यागेऐसी कृपा करो ॥९८॥

 

विलोक्य यं गणेश्वरं शताः हृदीव भान्ति मे

दिवप्रदायिशोकहायिशैवलोककल्पनाः

धृतीश्वरं जयेश्वरं मखेश्वरं रणेश्वरं

द्विजेश्वरं शुभेश्वरं भजामि कामिनीश्वरम् ॥९९॥

 

जिन गणेश्वर को देखकरमेरे हृदय में  स्वर्ग देने वालीशोक नष्ट करने वालीशैव (कल्याणमय) लोक की कल्पना उद्भासित होने लगती हैंउन धृति के स्वामीजय के ईश्वरयज्ञों के ईश्वर,  युद्धों के ईश्वरद्विजों के ईश्वर , और शुभ रूपी ऐश्वर्य को धारण करने वालेकामिनीश्वरगणेश का मैं  भजन करता हूं ॥९९॥

 

महाविपद्विनाशनं सुभाग्यभातभावकं

युगान्तवह्निदग्धलोकभक्तमोक्षदायकं

सुरेड्यपीडनान्तकं[24] सदीडितं सदेडितं[25]

मृडेडितं हृदेडितं शतैर्नमामि पद्यकैः ॥१००॥

 

महाविपत्ति का विनाश करने वाले! सौभाग्य की प्रभा का भाव पैदा करने वाले! प्रलय की अग्नि में जलते हुए संसार सेभक्तों को मोक्ष देने वाले! देवताओं को पूजने वाले श्रद्धालुओं की पीड़ा का अंत करने वाले! सज्जनों से वन्दित और सर्वदा पूज्य!  शिव से भी पूजित! और सच्चे हृदय से जो पूजित होते हैंमैं उनको सौ पद्य श्लोकों से प्रणाम करता हूं ॥१००॥

 

टीकारामसुपौत्रेण प्रमोदस्यात्मजेन च।

बाबागुरोश्च शिष्येण श्रीगणेशशती कृता ॥

 

पण्डित टीकारामशास्त्री के पौत्र प्रमोदशर्मा के पुत्र एवं श्रीबाबागुरुजी के शिष्य हिमांशुगौड़ ने यह गणेशशतक लिखा।

श्रीमद्गणनाथो विजयते ॥

 

॥श्री गणनाथ की जय हो ॥

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||सूर्यशतकम्||

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विदितशिवकरो यः खेचरैस्स्तूयमानो

दिनमणिरतितीव्रोद्गामिभिः पूज्यमानः

सकलमनुजकर्मख्यापकश्श्रीपपीस्सः

प्रणतमिममथार्तं पातु मां पातकेभ्यः||||

 

जानी गईं हैं शिवमयी किरणें जिसकी, सभी ग्रह-नक्षत्रों से स्तुत, अतितीव्र गति वाले सभी पदों से पूज्य, दिन के मणि, सभी मनुष्यों के कर्मों का व्याख्यान करने वाले, लोकरक्षक, मुझ प्रणत दुःखी भक्त की पातकों से रक्षा करें।

 

हरितहयरथेन भ्राम्यति ब्रह्मभाण्डे

भ्रमितमतियुतानां विभ्रमध्वंसकारी

दिवसकरगुरुर्यो भ्राजते खे विशाले

घटयतु स ममापि श्रीघनैस्सौख्यवृष्टीः||||

 

जो हरे घोड़ों वाले रथ से इस ब्रह्माण्ड रूपी भाण्ड में घूमता है, भ्रमित बुद्धि वालों के भ्रम का नाश करता है, दिवस को करने वाला गुरु, जो इस विशाल आकाश में शोभायमान है, वह मेरे लिए भी समृद्धि के बादलों से सुख की बारिश करे!

 

मम सकलदुराशान् हे पपे! नाशय त्वं

तपन! बुधनत! त्वं तापयेह्यद्य दुष्टान्

सफलपथमहो मे स्वप्रकाशैतनुष्व

जलमिव धनवृष्टिं जीवने मे कुरुष्व||||

 

हे पपी! मेरी सभी बुरी आशाओं को तुम नष्ट कर दो। तपन! विद्वानों के पूज्य तुम मेरे पास आ जाओ। दुष्टों को सन्ताप दो और अपने प्रकाश से मेरे रास्ते को सफल बना दो। जैसे पानी की बरसात होती है, ऐसे ही धन की बारिश मेरे जीवन में कर दो।

 

अहमिह निखिलस्य त्राणकर्त्र्यास्तटेऽहो

दशकसमनिवासैस्त्वत्समर्चारतश्च

कथमिव न विलोक्य त्वं दशां मे दयार्द्रो

भवति सुखदशीलस्सूर्य! तुभ्यं नमस्ते||||

 

मैं संपूर्ण संसार की रक्षा करने वाली गङ्गा माता के तट पर एक दशक तक निवास करने के द्वारा तुम्हारी अर्चना में लगा रहता था। फिर भी आज मैं वर्चस्व विहीन होकर घूम रहा हूं। तुम मेरी इस दशा को देखकर क्यों दयालु नहीं होते? सुख देने का ही है तुम्हारा शील, सूर्य! इसलिए तुम्हें नमस्कार करता हूं।

 

 

त्वमिह च जगतीत्थं दर्दुरैः पूजितोऽसि

जलधरकरणत्वात् वर्षणस्य प्रियैर्वा

नहि जलसुचर्या त्वद्विना सम्भवास्ति

जलदगुरुमतस्त्वां मानवाश्चार्चयन्ति||||

 

क्योंकि बादल बनाने में आपका ही हाथ है। और मेंढकों को वर्षा ऋतु बहुत प्रिय है। इसलिए मेंढक भी अपनी भाषा में आपकी स्तुति करते हैं। क्योंकि ऋतुओं का क्रमपूर्वक चलना, जल की चर्या आपके बिना संभव नहीं है! इसलिए तुम बादलों के भी गुरु हो। और तुम्हें मनुष्य इसीलिए पूजते हैं।

 

दिनगतिरतस्त्वं शम्भुरूपोऽसि विष्णु-

प्रविदितशुभरूपोऽनेकरूपं बिभर्षि

सुरमुनिमनुजाद्यैस्संस्तुतो लोककारिन्!

भव मम हि सदाऽघौघान्धकारप्रणाशी||||

 

दिन को गति देने वाले! इसीलिए तुम शम्भुरूप हो! विष्णु का जाना गया है शुभ रूप! ऐसे तुम ही हो! अनेक रूप धारण करते लेते हो! देवता, ऋषि, मुनि और मनुष्य सब तुम्हारी प्रस्तुति करते हैं! क्योंकि तुम संसार को बनाते भी हो! और इसीलिए तुम मेरे पापों की बाढ़ का जो अन्धकार है, उसको भी नष्ट करने का स्वभाव धारण कर लो।

 

सुगजबलसहस्रं यच्छसीति प्रमन्ये

विपिननगपुरेषु प्रापयन् स्वप्रकाशम्।

अहिमणिकरणस्त्वं मौक्तिकं हस्तिकेषु[26]

जनयसि निजभासैर्जीवकारिन्नमस्ते||||

 

आप हजारों हाथियों का बल भी प्रदान कर देते हो - ऐसा मैं मानता हूं! जंगल, गांव, शहर सब में अपना प्रकाश फैलाते हो! तुम्हारी किरणों के द्वारा ही हाथियों को ताकत मिलती है! हाथियों के मस्तिष्क में मुक्तामणि का उदय होता है! नाग की मणि भी आपकी किरणों के प्रभाव से बनती है! अपने भास के द्वारा जीवन का निर्माण करने वाले, तेरे लिए नमस्कार है।

 

दिवसमुखकरं त्वां पूर्वदिश्युद्भवन्तं

विहगविविधशब्दैस्स्तूयमानं स्वभावैः

अहिनकुलकुलेषूत्साहमाभावयन्तं

ह्यरुणयुतरथं चाऽऽप्यारुणाभम्भजेऽहम्||||

 

तुम सुबह करते हो। पूर्व दिशा में उदित होते हो। विविध पक्षियों के स्वाभाविक (प्राकृतिक) शब्दों से स्तुति किए जाते हो। सर्प, नेवला - इन सब जातियों में उत्साह की भावना भरते हो। अरुण है सारथी जिसका ऐसे रथ पर बैठते हो और अरुण लालिमा युक्त आभा वाले आप हो। आपका मैं भजन करता हूं

 

भरतु निजसुवीर्यं मय्यथ त्र्यक्षमोदिन्!

लसयतु सुरकान्त्या मस्तकं मत्स्वभावम्

श्रुतिपथमखचारिन्! हव्यनीर्हे हयाढ्यो-

दयतु जयतु देव! स्मार्तकर्मेक्षरक्षिन्||||

 

तीन नेत्रों वाले शिव जी को तुम प्रसन्न करते हो, अपना सुन्दर तेज (पराक्रम) मुझ में भी भर दो। अपनी दिव्य कान्ति से मेरा मस्तक चमका दो। मेरा स्वभाव उन्नत करो। वेदों के रास्ते में बतलाए गए जो यज्ञ हैं, उनमें विचरण करने वाले तुम सूर्य हो। तुम हव्य को देवताओं तक भी पहुंचाते हो। घोड़ों की सम्पत्ति वाले हो। स्मार्त आदि कर्मों के निरीक्षण तथा सुरक्षा करने वाले देव, हम पर दया करो, आपकी जय हो।

 

निशि तमसि यदाऽयं सुप्तिमग्नो हि लोको

भवति च रजनीशश्शीतरश्मिप्रदाता

जडमिव सकलं तद्वीक्ष्य मोहान्धकारे

प्रकटयति निजोद्भासैश्शनैरेष सूर्यः||१०||

 

जब यह सारा संसार सो जाता है और रात का स्वामी चन्द्रमा शीतल किरणें बिखेरता है, तब इस सारे संसार को मोह रूप अन्धकार में जड़ की तरह सोता हुआ देखकर आप धीरे-धीरे प्रकाश के साथ अपना स्वरूप प्रकट करते हो।

 

ज्वलयति  वनानि स्वाग्निना तापनोऽसौ

शमयति जलवृष्ट्या मेघहेतुः क्वचिद्वा।

वमयति मणिभिर्वाऽग्नीन् मयूखैश्च तीव्रैः

दलयति कुमुदानीशो दिनस्यायमर्कः||११||

 

 

हे तापन! कभी-कभी अपनी अग्नि से तुम जंगलों को जला डालते हो! लेकिन तुम चूंकि बादल बनाने के कारण (मेघहेतु) भी हो, अतः आप उसको कभी जल की वृष्टि से शान्त भी करवा देते हो सूर्यकान्त आदि मणियों से आप ही आग उगलवाते हो। और दिन के स्वामी आप ही कुमुद के फूलों की पंखुड़ियों को बंद करते हो!

 

विकसयति च पद्मं नीलमम्भोजमेवं

वनहरिततरून् यो जीवयन् जीवनाथः

शशकहरिणवत्साँश्चञ्चलीकारयन् यो

ह्युदयति नभसीशस्तं प्रणौति द्विजोऽसौ||१२||

 

जिस तरह हजारों पंखुड़ियों के लालकमल को, इसी तरह नीलकमल को भी जो खिलाता है। जंगल के हरे-भरे वृक्षों को जो जीवित रखना है, ऐसा समस्त जीवों का जो नाथ (सूर्य) है। खरगोश, हिरण, बछड़े आदि को चञ्चल बनाने वाला जो इस आकाश में उदित होता है - यह ब्राह्मण उस स्वामी को प्रणाम करता है।

 

अखिलभुवननाथ! ब्रह्मरूपिन्! जगत्यां

भ्रमति खचरवन्द्यो नन्द्यरूपोऽग्निरूपः

तव हि विमलगाथा गीयते ब्राह्मणैर्हे

हिमरुचिरसुहृत्त्वां हैमरूपं नमामि||१३||

 

सारे भुवन के नाथ ब्रह्मरूपिन्! इस संसार में सभी नक्षत्रों से वन्दित! प्रशंसनीय रूप वाले! अग्नि रूप वाले! तुम्हारी विमल गाथा, ज्ञानी ब्राह्मण लोग गाते हैं। ठंडी है रुचि जिसकी ऐसा चन्द्रमा आपका मित्र है, और आपका स्वर्ण के समान रूप है। आपको मैं नमस्कार करता हूं।

 

अरुणफलमिव त्वां मन्यमानो कपीशः

स्वशुभमुखगुहायां स्थापयंश्चैव बाल्ये

निखिलभुवनतमांस्युत्पाटनायेह कोऽपि

न हि सुरजनोऽन्यश्शक्तवान् त्वाम् ऋतेऽर्क||१४||

 

लाल रंग का फल समझकर हनुमान् जी ने अपनी शुभ मुख रूपी गुफा में आपको बचपन में रख लिया था। उस वक्त पूरे संसार में अंधेरा छा गया। कोई भी अन्य देवता उस अंधेरे को आपकी अनुपस्थिति में उखाड़ नहीं पाया (हटा नहीं पाया)।

 

मम मनसि धियीत्थं ज्ञायते नैव कोऽद्य

कवनपटुतरोऽयं मन्मनीषां प्रचोद्य

सुरमुनिमनुजार्च्यस्याऽर्कदेवस्य काव्यं

विरचयति मदिष्टाऽऽश्लिष्टशिष्टं विभाति||१५||

 

मेरे मन और बुद्धि में में न जाने कौन यह कविता करने में अत्यन्त निपुण मेरी बुद्धि को प्रेरित करके देवता, मनुष्य, ऋषि-मुनि के पूजनीय अर्क, सूर्य देव का काव्य रचवा रहा है, यह कुछ ऐसा ही है जैसे मेरे इष्ट देवता से सम्पृक्त हुआ कोई शिष्ट काव्य शोभा देता हो।

 

निपतति दहनाग्नौ जायते तत्सुवर्णं

कनकमिति तु लोके ख्याप्यते तस्य नाम

इति  जनगणाय ज्ञापयंश्शोभसे खे

शिव! निजतनुतापात् स्यात् प्रकाशः परेभ्यः||१६||

 

जब जलती हुई अग्नि में गिरता है, तब वह सोना बनता है और संसार में कनक इस नाम से प्रसिद्ध होता है (इसी तरह मनुष्य भी जब परिश्रम रूपी अग्नि में पड़ता है तो महान् बनता है) - इस प्रेरणा को जनता को आप बता रहे हो , क्योंकि आप खुद जलते हो और दूसरों को प्रकाश देते हो! आप कल्याण हो।

 

तनयसुखमवाप्तुं श्रीवशिष्ठानुशिष्टः

क्रतुरतधृतधन्वा प्राणदानोद्यतोऽभूत्

मृगपतिसमुपेतां नन्दिनीं रक्षितुं यस्-

तव  कुलजराजा चित्रभानो! दिलीपः||१७||

 

पुत्र का सुख प्राप्त करने के लिए श्री वशिष्ठ के आदेश का पालन करते हुए, यज्ञ के कार्य में लगे हुए धनुष धारण करके, मृगराज के पास पहुंची नन्दिनी गाय की रक्षा हेतु (स्वयं को विवश पाकर) अपने प्राण देने के लिए उद्यत हुए जो, हे चित्रभानो (सूर्य)! तुम्हारे ही तो कुल के थे वो राजा दिलीप।

 

रघुरपि सुरराजं चाहवे तुष्टवान् यो

मखहयमथ वाप्तुं धर्मकर्तव्यनिष्ठः

तव कुलजवीर्यश्श्रीदिलीपस्य पुत्रो

मिहिर! तव महिम्ना सोऽव्यथश्चाव्यथस्त्वम्||१८||

 

अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को छुड़ाने के लिए, जिसने देवताओं के राजा इन्द्र को युद्ध में युद्ध में सन्तुष्ट किया, हे मिहिर! धर्म-कर्म में निष्ठ तुम्हारे ही कुल में पैदा हुए पराक्रमशील श्रीदिलीप के पुत्र, महाराज रघु थे। जिस तरह तुम अव्यथ हो, वे भी वैसे ही व्यथित नहीं होते थे - ये सब तुम्हारी ही महिमा से है।

 

हरिरपि तव वंशे रामरूपेण जातो-

ऽसुरदलनसुदक्षः क्षात्रधर्मानुसारी

अतुलबलमहो त्वां को न वेत्ति प्रभाभृद्!

भरतु नवमथौजोऽस्मद्भुवां रक्षकेषु||१९||

 

भगवान् विष्णु भी आपके कुल में राम के रूप में जन्म लिए, जो राक्षसों का वध करने में बहुत दक्ष थे। क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले थे। हे प्रभा धारण करने वाले तुम अतुल्य बल वाले हो, इस बात को कौन नहीं जानता? आप अपना यह तेज हमारी धरती के रक्षकों में भी भर दीजिए!

 

गरुडखगरुरुक्षुर्विष्णुरेवं विभाति

धवलवृषभपृष्ठे रोढुकामोऽथ शूली

हरितहयरथे त्वं हेमभूतेऽम्बुजेश!

ह्यरुणनुतवपुष्को रोहणाय प्रभाते||२०||

 

पक्षिराज गरुड़ पर आरूढ होने की इच्छा वाले भगवान् विष्णु की जो शोभा होती है। सफेद रंग के सांड पर बैठने वाले भगवान् शूली शङ्कर की जो शोभा होती है, इसी तरह हरे घोड़े से जुते हुए रथ पर जो कि सोने का बना हुआ है, अरुण से प्रणाम स्वीकार करते हुए सुबह के समय उस पर चढ़ते हुए, हे कमलों के स्वामी! आपकी भी शोभा होती है!

 

बुधजनगणगोष्ठ्यां प्रायशो यस्य चर्चा

प्रचरति बहुचिन्त्यैश्श्रौतकर्माध्वरस्य

तदपि दिनकर! त्वां नो विना भाव्यते वै

जयतु मखविभाविन्! भास्करार्चानुकूलः||२१||

 

विद्वानों के समूह की गोष्ठियों में जिस श्रौत कर्म के यज्ञ की बहुप्रकारक चिंतनों द्वारा चर्चा का प्रचार होता है, हे दिनकर, आपके बिना उसकी भावना हो नहीं सकती, क्योंकि आप प्रत्येक यज्ञ की भावना वाले हैं, और प्रत्येक यज्ञ, हे भास्कर! आपकी अर्चना के ही (या अर्चना से ही) अनुकूल है।

 

कविगणगणनाग्रो बाणभट्टो बभूव

प्रथयति तव गाथां श्यालकस्तस्य विद्वान्

श्रुतिरतधृतदर्पान् नष्टवान् विज्ञसर्पान्

कवनबलभृता वै चञ्चुना श्रीमयूरः||२२||

 

श्रुति को धारण करने के कारण अभिमानी विद्वान् रूपी सांपों को अपने ज्ञानमय काव्य रूपी बल को धारण करने वाली चोंच से श्री मयूर कवि ने नष्ट का डाला। ऐसे उन कवियों की गणना में अग्रगण्य बाणभट्ट के साले मयूर भट्ट ने आपकी गाथा का प्रचार किया सूर्यशतकम् लिखा।

 

स्फुरति च यदि चित्ते काव्यकल्पाऽप्यनल्पा

प्रभवति हृदये वा हर्षवर्षाप्रकर्षः

अरुणिमनवबालार्कप्रभाते प्रभाते

जनयति जनवृन्दे नूतनाशाप्रकाशः||२३||

 

यदि चित्त में अनल्प काव्यकल्पना, हृदय में यदि हर्ष की वर्षा का प्रकर्ष उत्पन्न होता है (तो वह सूर्य के द्वारा की सुबह से)। (क्योंकि) लाल-लाल उगते प्रभासमान सूर्य के सुबह के समय लोगों के समुदाय में नूतन आशा का प्रकाश जन्म लेता है।


प्रसरति दिशि सुगन्धं मल्लिकापाटलानां

बकुलतगरपद्मायूथिकाचम्पकानाम्।

दिवसकरकरैस्तत्पुष्पजात्युद्भवानां

सुरभिकरमहस्कृद्देवमर्च्यं नमामि||२४||

 

सूर्य की किरणों से दिशाओं में मोगरा, गुलाब, बकुल, तगर, कमल, जूही, चम्पा इत्यादि पुष्प की जातियों में पैदा हुए फूलों की सुगन्ध फैल रही है। ऐसे सुरभि के हेतु, दिन को निर्माणकर्ता देवता, जो अर्चनीय हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ।

 

गणयति मनुजः कस्त्वां समासेव्यमानो

जगति विविधभोगान् नष्टतापान्तरात्मा

यदिह तव शरण्यो येन कामेन लोकस्-

तदपि मनसि चिन्त्यं प्राप्नुते सूर्यदेवात्||२५||

 

नष्ट हो गए हैं ताप जिसके ऐसी अन्तरात्मा वाला व्यक्ति जब आपकी सेवा में लग जाता है, तब वह इस संसार के विभिन्न प्रकार के भोगों को भी नहीं गिनता,। और जो व्यक्ति आपकी शरण में आ जाता है। जिस जिस भावना से आपकी शरण में जाता है उस-उस मन के चिन्तित काम को, हे सूर्यदेव! आपसे प्राप्त कर लेता है।

 

दधिमधुघृतदुग्धैरर्घ्यमाकल्पयन्तस्-

सजपकुसुमहस्तास्त्वन्नमस्कारकृत्ये

श्रुतिगतबहुसूक्तैश्श्रद्धया तोषयन्तो

दिनकर! कमभीष्टं नाप्नुवन्ति प्रसन्न! ||२६||

 

दही, शहद, घी, दूध इन सब से आपके लिए अर्क देते हुए, गेंदे के फूल हाथ में उठाए हुए तुमको नमस्कार करते हैं। वेदों के बहुत से सूक्तों से श्रद्धापूर्वक आपको संतुष्ट करते हैं। हे दिनकर हर एक चिंतित काम को, अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं करते? अर्थात् प्रत्येक अभीष्ट को तुम्हारे प्रसन्न होने पर प्राप्त कर लेते हैं।

 

हरि-हर-विधि-कृष्ण-क्रव्यवाड्-ढव्यवाहान्

क्रतुपति-यम-वायु-श्राद्ध-मन्त्रेश-चन्द्रान्

जलद-धनपतीन्द्रा-नङ्ग-हस्त्यास्य-राम-

हनुमदखिलदेवाँस्त्वय्यहं वीक्ष्य हृष्टः||२७||

 

ब्रह्मा, विष्णु महेश, कृष्ण, क्रव्यवाट् (स्वधा), हव्यवाट् (स्वाहा,अग्नि), क्रतुपति (यज्ञ के देवता), यम, वायु, श्राद्ध के देवता, मन्त्रों के अधिपति देवता, चन्द्र, जल देने वाले देवता वरुणादि, धनपति कुबेर, इन्द्र, कामदेव, गणेश, राम, हनुमान् – इन सब देवताओं को हे सूर्य! मैं आपके स्वरूप में ही देखकर प्रसन्न हुआ।

 

मठयति घटतोये स्वीयबिम्बं यथार्को

घटयति घटनानीत्थं घटीभिः क्षणैश्च

शठमठपठनानि ध्वंसयेद्ध्वान्तहर्ता

हटयतु हटनो[27] हे दुष्टघट्टातिपट्टम्[28]||२८||

 

घड़े के पानी में जिस प्रकार सूर्य अपना मठ अर्थात् घर बनाता है, अपना बिम्ब बनाता है। हर एक क्षण, हर एक घटी के द्वारा इस संसार की समस्त घटनाओं को जो घटाते हैं। वे ध्वान्त के हर्ता (अंधकार के हर्ता) शठों के, धूर्तों के मठों में चलने वाले पठनों को विध्वंस करें। दुष्टों की अनधिकार को नष्ट करें।

विगलितहिमराशिस्ते प्रचण्डातपेन

सुमधुरजलरूपैस्तर्पयत्यत्र लोकम्

त्वमिव निखिलसृष्टेः पोषकश्शोषकश्च

नहि भवति सुरान्यो यो बिभर्तीह साक्षात्||२९||

 

हे सूर्य! आपकी प्रचण्ड धूप से ये बर्फ की चट्टानें गल गई हैं और वह नदी के रूप में सुमधुर जल बह रहा है, जो इस सारे संसार को तृप्त करता है। तुम ही सारी सृष्टि के पोषक हो, और शोषक भी हो। ऐसा कोई दूसरा देवता नहीं है जो आपकी तरह साक्षात् भरण-पोषण करता हो।

 

फणिकृतपदभाष्ये मन्मतिं सन्तनुष्व

शिवभजनरतोऽहं स्यां यथा व्रध्र! मित्र!

तपन! सकलकल्याणं प्रदेहि प्रभांशो!

मिहिर! तव समर्चासंरतोऽयं हिमांशुः||३०||

 

पतञ्जलि द्वारा विरचित व्याकरण महाभाष्य में मेरी बुद्धि का विस्तार करिए। हे व्रध्र! मेरी बुद्धि को ऐसा बनाओ, जिससे मैं शिव के भजन में रमा रहूँ। हे तपन! सम्पूर्ण कल्याण मुझे ,दो क्योंकि तुम प्रभांशु हो, हे मिहिर! तुम्हारी ही अर्चना में लगा रहता है ये हिमांशु।

 

धवलयति स लोकान् नष्टतामिस्ररूपो

विभवयति मनुष्यानर्घ्यदाने रताँश्च

निकरयति गतान् यो दूरदेशेऽपि बन्धून्

विकिरयति बुधानां हृत्प्रदेशे नवाभाः||३१||

 

सारे लोकों को धवल कर डालता है। रात्रि को मिटा दिया है जिसने ऐसा। अर्घ्य देने वाले सभी मनुष्यों को वैभव देता है। दूर देश में गए हुए बांधों को भी वापस बुला लेता है, स्नेही लोगों से मिलाता है। बुद्धिमान् लोगों के हृदय में नई चमक (नवीन प्रकाश) जगाता है, बिखेरता है।

 

शमयति बहुदुःखं रोगदारिद्र्यरूपं

प्रथयति यशसां यो राशिमाशासु शासी

सुखयति धनदानैरिष्टदेवो नवार्चि-

स्त्विति च तव पुराणेष्वाप्तवान् सूर्य! शस्तिम्||३२||

 

रोग तथा दारिद्र्य रूपी जो बहुत सा दुख है, आप उसका शमन करते हो। सभी दिशाओं में मेरी यश-राशि को फैला दो।  क्योंकि आप शासक हो। नई-नई ज्वालाओं वाले हे सूर्य! आप धन-दान देकर इष्ट देवता के रूप में मनुष्यों को सुख पहुंचाते हो, तुम्हारी पुराणों में मैंने यह प्रशंसा सुनी है।

 

इन! दिनखमणे! हे सप्तसप्ते!  गभस्ते!

अग! भग! खग! मोदिन्! पद्मबन्धो! तमोनुत्!

प्लवग! पतग! पीत-अद्रेऽम्बरीशांऽशुहस्त!

विविधरुचिरभावैस्त्वं जनैरर्चितोऽर्क! ||३३||

 

हे सम्राट्! हे दिन में आकाश के मणि! हे सात घोड़े वाले! हे किरण वाले! कमल के बंधु! अन्धकार के शत्रु! उछलकर गति करने वाले! गिरते हुए गति करने वाले! पीले रंग वाले! पर्वत के समान! आकाश के स्वामी! प्रकाशमय किरणों वाले! अनेक रुचिकर भावों से तुम जनसमुदाय द्वारा पूजित हो।

 

बुधतनयजनिं मे सद्गृहे देहि सूर्य!

रतिचतुरसुभार्याः अर्यमन्! गोपते हे

मयि च रमणशक्तिं वीर्यरूपां भर त्वं

शतनतिपरकोऽहं पद्मिनीकान्त! तुभ्यम्||३४||

 

मेरे घर में बुद्धिमान पुत्र को जन्म दो हे अर्यमन्! रति करने में चतुर नारियाँ मुझे दो। हे गोपते! वीर्यरूप रमणशक्ति मेरे अन्दर भर दो। हे पद्मिनीकान्त! मैं आपको सौ बार प्रणाम करता हूँ।

 

वरद! भव कृपालुर्मादृशेभ्यो जनेभ्यस्-

तव चरणसुपूजासंरतेभ्यो द्विजेभ्यः

नवरसकृतहासं जीवने देहि देव

श्लथयितभवबन्धं मां कुरुष्वोष्णरश्मे! ||३५||

 

हे वर देने वाले! मेरे जैसे मनुष्यों के लिए कृपालु हो जाओ। तुम्हारे चरणों की सेवा में लगे रहने वाले ब्राह्मणों के लिए भी कृपालु हो जाओ। नए-नए रसों से उत्पन्न होने वाला हास्य मेरे जीवन में भर दो। ढ़ीले पड़ गए हैं भव के बंधन जिसके ऐसा मुझे, हे गर्म किरणों वाले! तुम बना दो।

 

नरवरसुरनद्याश्शुद्धतीराश्रितोऽहं

गुरुकुलकृतवासो वृद्धिकेशीशिवस्य

सुकृतशरणतीर्थे सज्जनैर्मण्डितेऽपि

प्रसृतदिनशुभश्रीभास्कराऽऽसीन्ममार्च्यः||३६||

 

नरवर की सुरनदी गङ्गा के शुद्ध किनारे का आश्रय लेकर, वृद्धिकेशि शिव के गुरुकुल में वास करके  सुकृत पुण्य की शरण में जो तीर्थ, जो सज्जनों से शृङ्गारापन्न है। ऐसे प्रसारित, फैलते हुए दिन की शुभ मङ्गलमय श्री/ शोभा में भास्कर ही मेरे पूज्य थे।

 

तपन! तव हि तत्त्वात् कन्यका या च कुन्ती

जनयति निजगर्भात् दानवीरं तु कर्णम्

कनककवचयुक्तो कुण्डली जन्मना यो

महदपि सुविचित्रं तेऽर्क! तेजोऽस्ति मन्ये||३७||

 

सूर्य, तुम्हारे तत्त्व से कुन्ती ने कुंवारी अवस्था में ही दानवीर कर्ण को अपने गर्भ से जन्म दिया। सोने के कवच और कुण्डल से वह जन्म से ही युक्त था। इस प्रकार का आपका महान् और अत्यन्त विचित्र तेज है - ऐसा मैं मानता हूं।

 

क्व दिनकर! तवाशीर्भिः फलन्तो वयं वा

क्व कलयितकलांशोस्त्वं हिमांशोश्च मित्र

उदितनवलकान्तिं यच्छसि श्रौतसारिन्!

ज्वलितकलुष! च श्रीवारिवर्षिन्! प्रधर्षिन्! ||३८||

 

दिनकर! कहां तो तुम्हारे आशीर्वाद से फलते-फूलते हुए हम लोग, और कहां आप इतने महान्! अनेक ग्रहण की गई है किरणात्मक कलाएं जिसके द्वारा, ऐसे चंद्रमा के मित्र! उदित होती हुई नई कान्ति को तुम देते हो।  श्रौतकर्म का सरण करने वाले(फ़ैलाने वाले/ श्रौतकर्मप्रसारक)!  तुमने पापों को जला दिया है और सम्पत्ति की धारा को बरसाया है। दुष्टों को धर्षित किया है।

 

सुरवचनममोघं शास्त्रसूक्तिस्सदैषा

फलति जगति सूर्यो भक्तिदत्तैर्जलार्घ्यैः।

कविहृदयसुधाभिस्तृप्तिमान्! चारुण! श्री-

वदनकवनमाङ्गल्यप्रसादाम्बरीषः||३९||

 

देवताओं का वचन अमोघ होता है - ये सदैव शास्त्रों का वचन फल देता है। भक्तिपूर्वक दिए गए जल के अर्घ्यदान से सूर्य देवता फलदायक सिद्ध होते हैं। कवि के हृदय की भावामृत की धारा से तृप्ति को प्राप्त होने वाले अरुण! हे अम्बरीष! आप, श्री है मुख में जिनके ऐसी कविताओं वाले मङ्गल से प्रसाद को धारण करने वाले हो।

 

झटिति घटयसि त्वं भावुकेभ्यो जनेभ्यस्-

तपन! तपितहेमोद्भासितां तच्छ्रियं वै

प्रियमपि भवनाढ्यं सङ्कुरुष्वाश्वकाढ्य

भजति विविधकामैर्यो जनो योजनैस्त्वाम्||४०||

 

तपन! तुम तपते हुए सोने की तरह उद्भासित श्री, लक्ष्मी को भक्ति से भावपूर्ण लोगों के लिए सम्पन्न करते हो (दिलवाते हो)। अपने प्रिय भक्तों को भवन दो, भवन से आढ्य करो! आप घोड़े वाले हो! जो भी आप को हजारों योजन दूर से भक्त पुकारता है, भजन करता है, उसको श्री दो।

 

तव तपन! कृपाभिर्मेघमालाधुनाहो

तड़-तड़-तड़-शब्दैर्गर्जिता वर्षणाय

क्वचिदिह वनिताभिः पुण्यभाजो रमन्ते

विरहितमदनेभ्यः प्रापयाशुश्च योषाः||४१||

 

आपकी कृपा से बादलों की माला बन गई। तड़-तड़-तड़ शब्द करती ये मेघमाला बरसने के लिए गरज रही है। कहीं ऐसी बरसातों में खुशकिस्मत लोग खूबसूरत औरतों के साथ रमते हैं, और कुछ मदन कृपा से विरहित होते हैं, उनको आप उपयुक्त साथी प्रदान करो।

 

शतजनसमवाये मारुते सम्प्रविष्टे

नृतिपरनटवृन्दैर्धूलिखेले कदाचित्

हिमलरमणकाले देवदारुश्रिते वा

नगविपिनगतेभ्यो नव्यरामाः प्रयच्छ||४२||

 

सैकड़ों लोगों के समुदाय में जब हवा का तूफान प्रवेश कर जाए, नाचते उछलते कलामंडी खाते आनंदित नट जहां धूल से खेल रहे हैं (उन सबको रमणीसौख्य दो)। या देवदारु वृक्ष के नीचे बर्फ लाने वाले मौसम में रमणोपयुक्त समय में, पहाड़ी जंगल में स्थित कामुकों को भी नई रमणियां दो।

 

तपतु तपतु देव! स्वर्णभा! भास्करश्रीः

वपतु विविधशक्तीः जीवदेहेषु योगिन्

अलसगतजगत्यां सम्भरोल्लासहर्षं

फणिनकुलकुलेषु श्रीसुखोत्कर्षदायिन्||४३||

 

हे स्वर्ण की आभा वाले सूर्य! तपो तपो! प्रकाशित करना ही आपका मङ्गल है(भास्करश्री)! योगिन्! जीवों के देह में विभिन्न शक्तियों को बोओ! आलसी संसार में उल्लास व हर्ष भर दो। आप प्राकृतिक शत्रु सर्प व नेवला इन दोनों के कुल (खानदान) में भी स्फूर्ति शक्ति रूपी हर्ष भरते हो। (आप समानरूप से सब में कृपाविस्तार करते हो यह भाव है)।

 

यदि च भुवनमध्ये शम्भुमादृक्ष्यसीति

स्मरति वद भवन्तं कोऽपि लोके हिमांशुः।

स्मरहरगुरवे चेच्छा मदीया निवेद्या

भयदभवमहाब्धेः तारयेन्मां कदा सः||४४||

 

यदि संसार का चक्कर लगाते वक्त रास्ते में कहीं भगवान् शिव आपको दिखाई दें, तो उनसे कहना कि कोई हिमांशु आपको याद करता है पृथ्वी पर है। काम नष्ट करने वाले गुरु से मेरी यह इच्छा जाहिर करना कि वे मुझे कब इस भवसागर से पार उतारेंगे?

 

अनपगतमनस्कं ग्राम्यसौहार्दयुक्तं

घनघटितविचित्रप्रावृडुन्मादिमल्लम्।

मदनशरहतं वाऽरण्यकुञ्जङ्गतं वा

नवरतिचतुराभिः पूर्णकामं करोतु||४५||

 

दूर नहीं है मन जिसका/ उदास नहीं है/स्वस्थ है मन (मिटा नहीं मन जिसका) जिसका ऐसे ग्राम्य सौहार्द (असली प्रेम-भाव) वाले व्यक्ति को। घन बादलों के द्वारा घटित विचित्र बरसात के समय जो उन्माद से भर जाते हैं ऐसे कुश्तीबाज़, पहलवान। कामदेव के बाण से मारे गए, जंगलों में, कुंज में गये हुए - इन सबको नव्य रति में चतुर स्त्रियां देकर सुखी करो।

 

सुखकररतिकाले योषिताकूजितेन

बहुविधनवरङ्गोल्लासितापीडनेन

रणवदभिमुखीनां यत्कुचामर्दनेन

सुखमतिशयमर्क! श्रीद! मह्यं प्रदेहि||४६||

 

सुखकर रतिकाल में जब योषिताएं कूजती हैं, बहुत तरह के नवरंगों से उल्लासित जब प्रणयकालिक आपीडन होता है, काम में युद्ध के समान अभिमुख हुई स्त्रियों का जब कुचामर्दन होता है - यह सब अतिशय सुख , हे श्री प्रदान करने वाले! तुम मुझे दो।


द्युतिकर! मम देहे दिव्यरश्मीन् भरस्व

सुर! निखिलजीव्यं दीप्तियुक्तं कुरुष्व

बहुविधविपरीताबद्धचर्यां मदीयां

नवलसुखकरैस्स्वैः नाशयाशुः प्रबोधिन्||४७||

 

हे द्युतिशालिन्! मेरे शरीर में अपनी दिव्य रश्मिओं को भर दो। हे देव! मेरा सार जीवन दीप्तियुक्त कर दो। बहुत तरह से विपरीतता में बंधी है जो मेरी चर्या, उसे आप अपनी ताजगी देने वाली किरणों से नाश करके, सुष्ठु चर्या से मेरा प्रबोध करो, आप प्रबोधी हो।

 

प्रकटनववपुष्के पूर्वदिश्यम्बरेऽहो

निखिलजनविनिद्राध्वंसके हासपूर्णे

उदयति सुरवरोऽयं खोदरे रक्तसक्तस्-

सकलजगति जीवाः कर्मलग्नाः भवन्ति||४८||

 

प्रकट होने वाले नया शरीर पूर्व दिशा के आकाश में होने पर, सभी जनों की विशेष (मोहादि) निद्रा का ध्वंस करने वाला हास (प्रसन्नता) भरने वाला, यह श्रेष्ठ देव आकाश के पेट में उदय होता है, जो कि रक्त की सक्ति वाला है (लाल रंग में आसक्त है) उस प्रकार के उस दृश्य में सारे संसार में सभी जीव अपने अपने कर्म में लग जाते हैं।

 

गणपतिमुदथाऽहो मोदकैर्जायते वै

पशुपतिरपि तुष्टो वारिधाराभिषेकात्

हरिरपि तुलसीनां मञ्जरीभिः प्रसन्नस्-

त्वमपि च हरिदश्वोऽसि प्रणामप्रियश्च||४९||

 

गणपति का आनन्द होता है लड्डुओं से। पशुपति शिव, जल की धारा से सन्तुष्ट  होते हैं। श्रीहरि तुलसी की मञ्जरियों से प्रसन्न होते है। इसी प्रकार, हे हरिदश्व! तुम्हें प्रणाम प्रिय है।

 

दह दह दहन! त्वं गोद्विजघ्नान् गुरूघ्नान्

हर हर हरिदश्व! श्वप्रवृत्तिं च पुंसाम्

तप तप तपनाहो लोककल्याणकारिन्!

जप जप जपयोगिन्! जापकान् पाहि नित्यम्||५०||

 

दहन! तुम गो, ब्राह्मण तथा गुरु के हत्यारों का दहन करो, दहन करो। पुरुष की श्ववृत्ति को हर लो, हर लो। लोक का कल्याण करने की आदत है तुम्हारी, खूब तपो, खूब तपो (जिससे प्रकृति-चक्र चलता रहे) जप के योग वाले! तुम ओंकार का जप करो, जप करो। और जाप करने वालों की सुरक्षा भी करो।

 

क्व च मरणभयाढ्याः जीवमानाः मनुष्याः

क्व च सुरवरेण्यस्तेजसामग्रगण्यः

दिविजमनुजयोर्यो भावरज्जुर्निबद्धो

जगति शुभसुखाशास्तेन नूनं फलन्ति||५१||

 

कहाँ मौत के भय से जीते हुए मनुष्य, और कहाँ आप सुरों में वरणीय तेजों में अग्रगण्य आप। देवताओं और मनुष्यों में जो भाव की डोर बंधी है, जगत् में शुभता को देने वाली सुख की आशाएँ उससे निश्चित ही फलतीं हैं।

 

जयति जगति धर्मस्सूर्यवंशानुकूलो

निखिलजनसुरक्षापोषणो राजरूपः

दृढवचनसुयुक्ता तेजसा दीप्तजातिर्-

भुवनतपन! ते तद्धि प्रतापाच्च नूनम्||५२||

 

सभी जनता की सुरक्षा और पोषण करने वाला, राजा के रूप वाला, जगत् में सूर्यवंश के अनुकूल धर्म जीतता है। दृढ वचन से युक्त तेज से दीप्त यह क्षात्त्र जाति, भुवन के तपन, तुम्हारे ही प्रताप से यह ऐसी प्रतापशील है।

 

अदितिरिति च माता कश्यपस्ते पिताऽस्ति

कुशल! विमलजन्माऽहो मृतण्डात्तवास्ति

मखफलहरणानां राक्षसानां निहन्ता

जनगणसुखकारी देवतानाम्प्रियश्च||५३||

 

तुम्हारी माता अदिति व पिता कश्यप हैं। हे कुशल! मृताण्ड से तुम्हारा विमल जन्म है। यज्ञ का फल चुराने वाले राक्षसों के आप निहन्ता हो। लोगों के समूह को सुख करने वाले, देवताओं के प्रिय हो।

 

असुरसुरकुलानां यन्मिथोऽभूच्च युद्धं

सकलभुवनशस्त्रास्त्रैस्सुदीप्तं च घोरम्

अहह दितिजगणास्ते भास्करेणेक्षमाणाः

द्रुतमपि बत नष्टास्तेजसा दह्यमानाः||५४||

 

देवों और दैत्यों के मध्य परस्पर जो युद्ध हुआ , सारे ब्रह्माण्ड के शस्त्रास्त्रों से दीप्तिमान घोर युद्ध वह था। वे सारे दैत्य भास्कर के द्वारा देखे जाने पर, तत्काल उनके तेज से जलते हुए नष्ट हो गए।

 

अथ निजतनयां श्रीपद्मिनीवल्लभाय

दिनमणिरवये वै दत्तवाँश्चैव संज्ञाम्

प्रणतिपरतपोभिर्विश्वकर्मा प्रसाद्य

जनयति खमणिश्च त्रीण्यपत्यानि तस्याम्||५५||

 

विश्वकर्मा ने प्रणाम पूर्वक विभिन्न तप किए उनसे सूर्य को प्रसन्न किया, पद्मिनियों के वल्लभ, दिन के मणि रवि को फिर अपनी पुत्री संज्ञा दी, और आकाश के मणि ने उसमें तीन सन्तान पैदा कीं।

 

मनुरिति तनयश्च ख्यातवैवस्वतो यो

यम इति च कनिष्ठश्श्राद्धदेवः प्रजापः

दिनकरतनया या वासुदेवप्रिया सा

क्षपयति यमुना वै प्राणिनां पापपुञ्जम्||५६||

 

विख्यात वैवस्वत जो मनु एक वे, श्राद्ध के देव प्रजापालक यमदेव दूसरे, जो मनु से कनिष्ठ हैं। और एक दिनकर की पुत्री जो कृष्ण (वासुदेव) को प्रिय है, वो है यमुना। जो प्राणियों के पाप-पुञ्ज को नष्ट करतीं हैं।

 

दिनकर तव पत्नीरूपधृच्छाययापि

मनुरभवदथेह ख्यातसावर्णिको यः

रविसुतशनिरेवं मन्दगश्चापरोऽपि

तपन च तपतीति ख्यातकन्याऽपि जाता||५७||

 

दिनकर! तुम्हारी पत्नी का रूप धारण करने वाली छाया से भी विख्यात सावर्णिक मनु हुए। तथा दूसरे हुए रविसुत के रूप में विख्यात, मन्द गति से चलने वाले शनिदेव। और तपन! तुम्हारी एक विख्यात कन्या भी हुई, जिसका नाम है तपती।

 

दिवसकर ममैतान् व्यर्थपीडाप्रदाँश्च

कपटपटपटूँस्त्वं मारयारीन् तपस्विन्

शुभगतिरतजीव्यं दुष्टचित्ताः इमे वै

कुकृतिचरणभावैर्नष्टुकामाः मदीयम्||५८||

 

हे दिवसकर! मुझे इन व्यर्थ पीडा देने वाले (अकारणवैरत्त्वमन्विष्य खलत्वात् पीडाप्रदानम्) कपट करने में पटु शत्रुओं को मारो। हे तपस्विन्, मेरा जीवन शुभगति में रमता है, किन्तु ये दूषितचित्त वाले कुत्सित कृतियों के आचरण से इस शुभगतिजीवता को नष्ट करना चाहते है।

 

प्रकृतिगतविनाशं वीक्ष्य वृक्षानुरागिन्

झटिति धनपिशाचान् तीव्रतापैस्स्वकीयैः

श्रुतिपथपरिनिन्दासंरतान् म्लेच्छभावान्

दह यवनजनाँस्त्वं हिंसकानग्निरूप||५९||

 

हे वृक्षों से अनुराग करने वाले, इस प्रकृति के विनाश को देखकर जल्दी से अपने तीव्र ताप से इन धनपिशाचों को जला दो। श्रुति वेद के रास्ते पर चलने वालों की निन्दा करने वालों को, म्लेच्छ भाव वालों कों, हिंसकों को भी आप अग्निरूप होकर जला दो।

 

अभिनवनवरात्रे शारदे प्रोद्भवे श्र्यु-

ल्लसितविविधरूपेऽप्यम्बिकापूजनानि

चरति सरति लोकश्चोपवासव्रतांश्च

भवभयपरिहन्त्र्या मोदयाऽर्काऽद्य ताँस्त्वम्||६०||

 

नए शरद् ऋतु के नवरात्रे आने पर लक्ष्मी से उल्लसित विविध रूप वाल जस नवरात्र में यह संसार विभिन्न उपवास एवं व्रतों को रखता है तथा अम्बिका का पूजन करता है। उस भव-भय के समूल विनाश करने वाली के भक्तों को , हे अर्क तुम आनन्दित करो।

 

कवनमतिरुदेति श्रीश-वाञ्छाप्रपन्ना

धनदमतिरुदीयाद् यक्षराजप्रभावात्

निखिलरणविजेता स्वाभिमानी नरस्स्यात्

तदिह शिवविभासिंस्तेजसा तेऽर्चनाभिः||६१||

 

कविता में बुद्धि जगती है, श्रीश हरि की इच्छा से प्रपन्न होकर। धन देने वाली बुद्धि उदय होती है, यक्षराज के प्रभाव से। सभी रणों का विजेता स्वाभिमानी व्यक्ति होता है, तो हे शिव के विशिष्ट भास वाले सूर्य, वो तुम्हारे तेज से (जो सूर्योपासना से प्राप्त होता है)।

 

क्वचिदथ च वनेशस्सर्वदा त्वं दिनेशः

कमलकुलसुखेशो वारिधीशस्सुधीशः

कलनफलनकारिन् भासि भास्वान् मनस्विन्

नयनसकलदृश्यश्रौतदर्शिन्नमस्ते||६२||

 

कहीं तुम जंगल के राजा मालूम पड़ते हो। दिनेश तो सर्वदा हो ही। कमल के कुल को सुख देने वाले स्वामी हो। कहीं समुद्र के स्वामी। कहीं विद्वानों के स्वामी। प्रत्येक कलनशीलता (कालादिक दृष्ट से) फल देने वाले भास्वान् तुम मनस्वी हो उद्भासित हो। आँखों के सभी दृश्यों समेत वैदिक तथ्यों को दिखाने वाले तुम्हें नमस्कार है।

 

प्रसरति न गृहेष्वन्तर्भवेषु त्वदीय:

यदि च मधुररश्मिश्रीप्रकाश: क्वचिच्च

तमसि विविधरोगग्रस्तकौटुम्बिकास्ते

मनसि तुदितरूपाश्चर्मनेत्रादिरुग्णा: ||६३||

 

यदि कहीं घरों में (घर के अन्दरूनी हिस्सों में) आपका मधुर रश्मियों वाला शोभायमान प्रकाश नहीं पहुँचता, तो अंधेरे में विविध रोगों से ग्रस्त वे उस घर में रहने वाले परिवारीजन हो जाते हैं। उनके मन भी व्यथित रहते हैं, और चर्म,नेत्र आदि के रोग पैदा होते है। (इसलिए घर ऐसे बनवाए जाएँ, जहाँ सूर्यप्रकाश उचित रूप से प्राप्त हो यह भावार्थ है।)

 

नहि भवति दिनेषु प्रायशो वृष्टिकाले

तव रुचिरसुदृष्टिर्जीविनां जीवनेषु

घनमहितनभांसि प्रीतिभाजो विलोक्य

नवनवरमणीनां कामकेल्युत्सुकास्स्यु: ||६४||

 

प्रायः वृष्टिकाल के दिनों में आपकी रुचिर दृष्टि जीवों के जीवन पर नहीं पड़ती है। घनों से महित आकाशों को देखकर प्रेमी लोग नई-नई रमणियों के साथ कामकेलि के लिए उत्सुक होते हैं।

 

अयि! शतकर! देव! त्वं निरीक्षे: जगत्सु

उदितनवलरत्या नव्यरूपानुसक्तान्

रहसि मदनसक्तास्त्वां जडं मन्यमाना:

तव दिवसपते हे! सुप्रकाशे रमन्ते||६५||

 

हे सौ किरणों वाले सूर्य! हे देव! तुम इन संसारों में उदित होती नई प्रेमधारा से नए रूपों में आसक्त जोड़ों को देखते हो, एकान्त में काम के आसक्त होकर तुम (सूर्य) को जड़ समझते हुए, हे दिवस के पति! तुम्हारे सुन्दर प्रकाश में ही रमण करते हैं।

 

निशि हि रमणलीला सुप्रशस्ता समुक्ता

कलियुग इह दिनेषु प्रार्थयन्तीव भूय:

प्रकृतिहरितलोके त्वद्विभासे विभासिन्!

विपिननदतटानां वृक्षमूले रमन्ते||६६||

 

रात में ही रमण की लीला प्रशस्त कही गई है। कलियुग में लेकिन कामीजन दिन में ही इसकी प्रार्थना करते हैं। प्रकृति की हरितिमा में तुम्हारे विभास में हे विभासिन्, जंगलों में नदियों के किनारे वृक्षमूल में रमण करते हैं।

 

उदितनवबलौजास्त्वां सहैतो जटायु:

सहजविहगराजाऽहो समास्पर्ष्टुकाम:

महति तपसि निष्ठात् त्वज्ज्वलद्देहतस्-तौ

ज्वलितदृढसुपक्षौ पातितौ चाब्धितीरे||६७||

 

उदय हुआ है नए बल का ओज जिसमें ऐसा जटायु अपने सगे भाई के साथ आपको स्पर्श करने की इच्छा से आपकी तरफ उड़े, किन्तु महान् तप में परिनिष्ठित आपके उज्ज्वल शरीर के प्रभाव से आपसे बहुत ही वे दोनों जले हुए दृढ़ पंखों वाले समुद्र किनारे आ गिरे।

 

अजित इह जगत्यां त्वत्प्रभाव: प्रसारी

सुरवर! तव कर्माप्यन्यकर्मप्रकाशं

हतशतरिपुवीर्य! स्वर्णदस्स्वर्णकारिन्!

जय जय यजमान! श्रद्दधानैस्सदिष्ट: ||६८||

 

हे अजेय सुरवर! तुम्हारा प्रभाव प्रसरणशील है, आपका कर्म अन्य के कर्म का प्रकाशन करना है। सैकड़ों शत्रुओं को मारने वाला आपका पराक्रम है।  स्वर्ण देने वाले तथा स्वर्ण बनाने वाले भी आप हो। हे यजमान आपकी जय हो जय हो। श्रद्धालुओं द्वारा आप सज्जनों के इष्ट बताए गए (सदा चाहे गए)।

 

मखविहितसुमन्त्रैरिष्टिकां निर्वपन्ति

श्रुतिगुणमहिताश्च ब्राह्मणास्ते हविर्भुक्!

क्षणखचितनरत्त्वं रूपमादर्शयँस्त्वं

न भवसि दहनोऽहो भक्तिभाग्भ्यो युगेभ्य: ||६९||

 

हे हविष् का भोजन करने वाले! श्रुति के गुणों से महिमाशाली ब्राह्मण लोग तुम्हारीं यज्ञ में विहित सुमन्त्रों से इष्टिका निर्वपन करते हैं।  एक क्षण में ही धारण किया गया नराकार देव रूप दिखलाते हुए, भक्तिमान् पुरुषों के लिए ज्वलनशील नहीं होते हो (यह बात युगों से प्रसिद्ध है)।

 

अहिपतिरथ निष्ठो नागलोकप्रशास्ता

जयतु स विषदन्तो वासुकिर्भोगसम्पत्

शतशतविषकन्यासुन्दरीसंवृतोऽपि

दिनमुख इव तेऽसौ श्रद्धया बद्धपाणि: ||७०||

 

नागों के पति, नागलोक पर शासन करने वाले, विषदन्त, भोगसम्पत्ति युक्त उन वासुकि की जय हो। वे सौ-सौ नाग-सुन्दरियों से घिरे हुए सुखसम्पन्न हैं। और हे सूर्य सुबह के समय आपके लिए श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़े नमस्कार करते हैं।

 

जलरसन! जलानां त्वं शुचिस्राविहेतु:

सुरवसन! वसेस्त्वं सद्रुचिश्राविलोके

ज्वलनहसन! नित्यं भ्राम्यसि ब्रह्मभाण्डे

श्वसन! सकललोकस्य त्वमेवासि वायु: ||७१||

 

जल आपका रस है। जलों के शुद्धतापूर्वक बहने के लिए आप कारण हैं। देवताओं की महक आप हो (या देवतों के वासस्वरूप आप हो)। सत्त्वगुण की रुचि जहाँ बहती है, ऐसे लोक में आप रहते हो। ये जलती हुई ज्वालाएँ ही आपका हास हैं। आप इस ब्रह्माण्ड में नित्य घूमते रहते हो। तुम प्राणियों की श्वास हो। तुम ही समस्त लोक की वायु हो।

 

अरुणवसनधरा: वा श्वेतवासश्श्रिता: ये

गुरुरुचिवसना ये ध्यायमाना दिनादौ

रविहविषि मधूनां सर्पिषामर्पयन्ति

हवनभुजि भजन्ते तेऽपि सूर्यस्य लोकम्||७२||

 

लाल, सफेद या पीला वस्त्र धारण किए हुए जो सूबह के समय आपका ध्यान करते हुए , रविहविष् में शहद और घी का अग्नि में अर्पण करते हैं, वे भी सूर्यलोक को प्राप्त करते हैं।

 

वरुण! रविकराँस्त्वं भूस्समारूढदेहो

विजलवति च देशे याहि तृप्यस्व जन्तून्

जललवमपि वाञ्छन्तीव पीयूषवद्ये

भव रविवरुणाख्यो देवयोरेकरूप: ||७३||

 

हे वरुण! तुम सूर्य की किरणों पर चढ़कर जलहीन प्रदेशों मे जाओ और जन्तुओं को तृप्त करो। वे लोग एक जल की बूंद को भी अमृत की तरह चाहते हैं। इस प्रकार तुम रवि और वरुण नाम वाले दो देवताओं का एक रूप हो जाओगे।

 

मरुति रविकराश्चामिश्रिता ग्रीष्मकाले

व्यथितमिव कदाचिल्लोकमेवं श्रयन्ति

तदपि वहदसह्यं भाति विद्वन्! समस्मै

तपनपवनरूपायास्तु तेजो! नमस्ते||७४||

 

हवा में सूर्य की किरणें ग्रीष्मकाल में मिश्रित हो जातीं हैं। (लू चलती है)। और वे तेज हवा में मिश्रित गर्म सूर्यकिरणें कभी कभी व्यथित लोक का सेवन करतीं हैं (अर्थात् लोक को व्यथित कर देतीं हैं)। हे विद्वन् , सभी के लिए वे बहती हुई असह्य मालूम होतीं हैं। सूर्य और वायु के एक रूप के लिए, हे तेजस् (सूर्य) तुम्हें नमस्कार है।

 

मृतवपुष इवैते प्रेतभूता: पिशाचास्

तव किरणविभासे नात्मनो दर्शयन्ति

हृतभयजगदेवं देव ते सन्निकाशे

श्वसति हसति यात्यामोदते मङ्गलेन||७५||

 

मरे हुए शरीर वाले भूत, प्रेत, पिशाच, तुम्हारे प्रकाश में खुद को दर्शाते नहीं हैं। हर लिया है जगत् का भय जिसने ऐसे, हे देव, आपके सान्निध्य में यह संसार सांस लेता है, हंसता है, गमन करता है, मङ्गल से आनन्दित होता है।

 

अजवदनयजुर्यत्तस्य पाठाच्च पूर्वं

स्मरति हि गुरु-वाणी-शङ्करा-ऽऽदित्यदेवान्

श्रयत इव ततोऽस्य श्रौतवाक्श्रीरवाप्तुं

तव फलदचरित्रं श्रद्धया सञ्जपन्ति||७६||

 

बकरे के मुख वाला जो यजुर्वेद है, उसके पाठ से पूर्व पाठकर्ता बृहस्पति,सरस्वती,शिव और बृहस्पति का स्मरण करता है। तब इसकी वेदवाणी लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए सेवन करती है, फिर वे वेदपाठी लोग आपका फलप्रद सूक्त श्रद्धा से जपते हैं।

 

दशवदनरणे तं जेतुकामो हि रामो

दिनकरहृदयस्तोत्रं पठेच्छ्रद्धयाहो

प्रथमपुरुष! कुलस्य त्वं विलोक्याच्युतं तं

मुदित इव च युद्धे तत्समाहित्य वर्त्ते: ||७७||

 

दस मुखों वाले रावण से युद्ध के समय उसको जीतने की इच्छा से राम ने आदित्यहृदयस्तोत्र का पाठ किया , हे रघुकुल के प्रथमपुरुष, तुम उन विष्णु अवतार राम को देखकर बहुत आनन्दित हुए और युद्ध में उनके भीतर समाहित ही हो गए।

 

मणिमुकुटधरश्श्रीवेदभृल्लोकतुष्टो

रिपुदलनसुदक्षश्शङ्खचक्राब्जपाणिः

अतुलितबलधामश्रौततत्त्वोपदेष्टर्!

विभयकर! नमस्ते देहि मां स्वप्रतापम्||७८||

 

मणि युक्त मुकुट धारण करने वाले, वेदधर्ता, लोक से तुष्ट, शत्रु-दलन में सम्यक्तया दक्ष, शङ्ख-चक्र-कमल को हाथों में लिए हुए, अतुलित बल के धाम, श्रौततत्त्व के उपदेशक, निर्भय करने वाले, तुम्हारे लिए नमस्कार है, तुम मुझे भी अपना प्रताप दो।

 

अयि सुकृतवरीय! त्वत्तपोभिश्च नूनं

सकलभुवनजीवो जीवनाशाप्रहृष्टो

न गणयति मृतिं चाप्यागतां त्वद्दिनेषु

दिनवर! ननु कालक्रान्तिरेषा त्वयैव||७९||

 

हे पुण्यों से वरणीय! तुम्हारी तपस्याओं से ही समस्त संसार के जीव, जीवन की आशा से हर्षित हैं। आपके उत्तरायण होने पर आई हुई मृत्यु को भी नहीं गिनते, दिनवर! यह काल की क्रान्ति तुम्हारे द्वारा ही है।

 

कृषकगण! धरासूत्पादयेस्त्वं तथान्नं

तपति जलदकारी हैष शक्त्यात्मवान् यो

न हि मखरतदेशे चेतयस्सम्भवन्तु

कुरु कुरु किरणैस्स्वैः मङ्गलं सौख्यवृष्टे||८०||

 

अरे किसानों! तुम जमीनों में खूब अन्न उगाओ। यह बादल बनाने वाले सूर्य शक्तिमान् मित्र सूर्य तप रहे हैं। यज्ञ में लगे रहने वाले स्थानों पर ईतियों[29] की सम्भावना नहीं होती। सुख की बारिश कराने वाले सूर्य! अपनी किरणों से तुम मङ्गल करो।

 

अपकुरु जडतानाम्मूढतानां तमांसि

मम कुरु कुरु सौख्यं स्वर्णरश्मे! जगत्प!

वितनुहि धनवल्लीं मल्लिकामालयेव

चिनुहि फलदरूपं भक्तिसक्ताय मह्यम्||८१||

 

जड़ता और मूढ़ता के अंधेरों को दूर करो। जगत् के पालनहार! स्वर्ण की किरणों वाले! मुझे सुखी करो। मल्लिका की माला के समान मेरे धन की बेल को फैलाओ। आप मेरे लिए फलप्रद रूप का चयन करो (फलप्रदाता बन जाओ), क्योंकि मैं आपकी भक्ति में आसक्त हूँ।

 

दमय दमय दुष्टान् , इष्टलोकान् प्रसिञ्च

शमय शमय पापान्यच्युतेशप्रभावात्

गमय गमय सूर्ये तद्वरेण्ये प्रभुत्वे

फलय फलय सौभाग्यानि देव! द्रुतं मे||८२||

 

दुष्टों का दमन करो, दमन करो। इष्टलोकों को सींचो, सींचों। शिव-विष्णु के प्रभाव से  पापों का शमन करो, शमन करो। उस वरेण्य प्रभुत्त्व सूर्य में ले चलो, ले चलो। हे देव! मेरे सौभाग्यों को फलित करो, फलित करो।

 

ज्वलयति निशि चन्द्रो योषितानामभावे

व्यपगमयति सूर्यस्त्वं दिनं कर्महीनं

क्व सुखय खविभासो भक्तमेनं हिमांशुम्

इति मम विकलत्वे चायुरस्तं समेति||८३||

 

योषिताओं के अभाव में रात में यह चन्द्रमा मुझे जलाता है। और हे सूर्य, (अलब्धविशेषवृत्तिकतया) कर्म से हीन दिन को आप मेरे लिए निकाल देते हो। आकाश के विभास, आप अपने इस हिमांशु नामक भक्त को कब सुखी करोगे, इसी विकलता में मेरी आयु निकली जा रही है।

 

फलति सुरसदाशीर्देवताशा न मिथ्या

मिलति सुहृदभीष्ट: कामनानां प्रकल्प:

खिलति हृदयपुष्पं तावकोद्भासदृष्ट्या

सुफलय जनिमेनां सत्कृपापूर्णहृष्ट्या||८४||

 

देवताओं के आशीर्वाद सच्चे होते हैं और फलते हैं। उनसे लगाई गई आस झूठी नहीं होती। सुहृद् प्रेमी मिल जाते हैं, अभीष्ट कामनाओं के प्रकल्प प्राप्त होते हैं। हृदय का पुष्प खिल जाता है। ये सब कुछ आपके ही उद्भास की दृष्टि से है। आप सत्य कृपापूर्ण हर्ष से मेरे इस जन्म को सफल बना दो।

 

जल-नदनवतीनां वृक्षपक्ष्यावृतानां

विविधपशुगतीनां नक्रचक्राकुलानां

तटगतपुरुषैस्त्वं त्वद्दिनादौ दिनेश

अरुणकिरणबिम्बो लोक्यसे नीरमध्ये||८५||

 

जल से शब्द करने वाली नदियों के वृक्ष और पशु-पक्षियों से घिरे हुए, विविध पशुओं की गतिविधियों से एवं मगरमच्छादिक जीवों से आक्रान्त, नदियों के किनारे स्थित लोगो द्वारा, हे दिनेश! तुम लाल किरणों से घिरे बिम्ब के रूप में जल के मध्य देखे जाते हो।

 

घटसलिलमध्ये कूपतोये समुद्रे

शतरजतसुकुम्भाम्भस्सु सूर्य! त्वमेको

हरिदपसि तडागे तत्र चोपाधिभेदात्

युगपदपि बहुत्वैर्भिन्नबिम्बैर्विलोक्य: ||८६||

 

घड़े के पानी में कुए के पानी में, समुद्र में, सौ चांदी के सुन्दर घड़ों के जलों में सूर्य तुम एक ही, हरे पानी के तालाब में भी उपाधि के भेद से एक ही साथ सब जगह बहुत्व रूप में भिन्न बिम्बों के रूप में देखे जाते हो।

 

झरझरझरितानि स्वर्णरूपाणि धत्से

मरमरमृतकान्युज्जीवितानीव धत्से

हरहररवितानि त्वं हिरण्यानि धत्से

हरपरचरितानि त्वाच्युतानीव धत्से[30]||८७||

 

झर-झर करके झरते हुए जल में कभी स्वर्ण का रूप धरते हो। मर-मर कर मरते हुओं को भी जीवित करते हो। हर हर ऐसा शब्द करने वालों के लिए तुम स्वर्ण धारण करते हो, उन्हे सम्पत्ति देते हो। शिवजी के चरित्रों को कभी च्युत न होने वाले तत्त्व/कर्म (विष्णुतत्त्व) की तरह धारण करते हो।

 

कुमुदपतिरहस्यं रात्रिकाले विपश्यन्

कमलपतिजलीलां लोकमानो दिनेषु

क्षरति वय इदम्मे नैव जाने कदाचित्

फलतु कथमिवाद्य त्वत्स्तुतीनाम्प्रताप: ||८८||

 

कुमुदों के स्वामी चन्द्रमा का रहस्य रात में देखते हुए, कमलपति से उत्पन्न लीला को दिनों में देखते हुए, मेरी ये आयु कैसे चली जा रही है, मुझे स्वयं नहीं पता। न जाने तुम्हारे प्रति की हुई मेरी स्तुतियों का प्रताप मेरे लिए कब फलेगा।

 

अयि घटशतकानां भेदनाद्दर्शितस्व:

अयि मठशतकानां स्वामिनां पूज्यभास्वन्

अयि शठपथगन्त्रुद्घातक प्रीतिमोदिन्

मयि हठपरकस्त्वं भूस्समुद्धारदृष्ट्या||८९||

 

सौ घटों को भेदने (फोड़ने) के बाद आपका स्वरूप दिखता है।[31] सैकड़ो मठों के स्वामियों के पूज्य आप भास्वान् हैं। शठों के रास्ते पर गए हुओ के लिए घातक , प्रेम से प्रसन्न होने वाले, मेरे समुद्धार के लिए भी आप हठ धारण कर लो।

 

समसनपदयुक्ता नृत्यताद्वाङ्मयूरी

कवनरसनिपीता हृष्यताद्वाग्वधूटी

सुरभितशतचिद्-वाङ्मल्लिकेयं च मे चेत्

हरितहय! मयीयं ते प्रसादान्निविष्टा||९०||

 

आज जो समास युक्त पदों वाली मेरी वाणी रूपी मोरनी नाच रही है। काव्य के रस को पी लिया है जिसने ऐसी वाणी रूपी दुल्हन जो हर्षित हो रही है। सैंकड़ों चेतनाएँ महक रहीं हैं जिसमें, ऐसी मेरी वाणी रूपी मल्लिका जो मेरी आज है, ये सब कुछ, हे हरे घोड़ो वाले सूर्य! आपके प्रसाद से ही मुझमें प्रवेश किया है।

 

शिव शिव शिव चेत्येवं ब्रुवाणास्त्वदीया

अनुदिनमिह तापिन्! रश्मय: प्रस्फुरन्ति

झटिति झटिति लोकाँस्त्वं परिक्राम्यसीति

गतिमति सुरथे ते भावपुष्पं युनज्मि||९१||

 

हे तापिन्! हर दिन, शिव शिव शिव ऐसा बोलती हुई आपके शरीर से किरणे फूट रहीं हैं। तुम जल्दी-जल्दी इन लोकों की परिक्रमा लगा देते हो।  आपके गतिमान् रथ में, मैं अपने भावों का पुष्प चढ़ाता हूँ।

 

ग्लपयतु जगतां त्वं ग्लानिमाशुस्स्वघर्मै:

क्वथयतु कुमनांसि स्वैर्वपुर्भिश्च तीव्रै:

अकलितकलया यत्कालकीलं विधास्यन्

समयनियमकारिन्नेकचक्षुर्नमस्ते||९२||

 

आप इन संसारों की ग्लानि को तुरन्त अपनी धूप से पिघला दो। कुत्सित मन के विचारों को अपने तीव्र प्रकाशित वपुष् (स्वरूप) से उबाल दो। नष्ट कर दो। लक्षित न हो सकने वाली कला से तुम काल की कील (धुरी) को रखते हुए (शोभायमान हो), समय के नियमकर्ता! जगत् के एकमात्र चक्षुष्! तुम्हें नमस्कार है।

 

मदनदहनभालस्थाद्धिमांशो: प्रभाभिर्

द्विजमणिकुलजातश्श्रीहिमांश्वाख्यगौडो

हरितहयनतीनां यश्शतीं तत्कृतां चेत्

पठति तपननिष्ठस्सुप्रतिष्ठां समेति||९३||

 

कामदेव को जलाने वाले शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा की किरणों से ब्राह्मणों के श्रेष्ठ कुल में श्रीहिमांशु गौड ने जन्म लिया, जिसने हरे घोड़ों वाले सूर्य के लिए सौ श्लोकों की स्तुति की रचना की। जो इसको सूर्य में निष्ठा करके इसे पढ़ेगा, वह प्रतिष्ठा को प्राप्त करेगा।

 

हृदयपरिगतैर्यो भावपुष्पैस्स्वकीयै-

रतिसहजकथाढ्यैर्वन्दनै रश्मिरज्जो:

कलुषहवपुरित्थं स्वर्णदेवं विचिन्त्य

पठति शतकमेतत् तत्समक्षं दिनेश:||९४||

 

स्वर्णवपुष् देव का चिन्तन करके, अपने हृदय के शुद्ध भावपुष्पों से जो अति सहज कथा से सम्पन्न वन्दनों से रश्मिरज्जु के कलुष हरने वाले इस शतक का पाठ करेगा, उसके सामने साक्षात् दिनेश प्रकट हो जाएँगें।

 

जड इव परिलोक्यो यस्तपेत्तापयेच्च

प्रलयसमयमेत्य ज्वालयेद्यो जगन्ति

मम कृतशतकस्य स्तोत्रकस्य प्रभावात्

नर इव धृतरूपस्साक्षितां याति पुंसाम्||९५||

 

जो ये सूर्य जड़ की तरह दिखाई देते हैं, तपते और तपाते हैं। प्रलय के समय ये ही उग्र होकर लोकों को जला डालते हैं। मेरे किए हुए शतक स्तोत्र के प्रभाव से मनुष्य की तरह रूप धारण करके भक्त पुरुषों के सामने सूर्य प्रकट हो जाते हैं।

 

लसितविविधभूषस्सर्वलोकप्रकाशो

क्वचिदथ स सुभाग्याद्दृश्यते निर्जने वै

जपति सकलचिन्तां यश्च सूर्ये नियोज्य

प्रकटितनिजरूपस्तस्य जायेत सूर्य: ||९६||

 

विभिन्न आभूषण पहने हुए, सर्वलोक के प्रकाश, कभी वे निर्जन प्रान्त में सौभाग्यवशात् दिखाई देते हैं। जो समस्त चिन्तन सूर्य में लगाकर इनके मन्त्र का जप करता है, सूर्य अपना स्वरूप उसके लिए प्रकट कर देते हैं।

 

करि-हरि-महिषा-ऽश्वैर्जङ्गले मङ्गलाढ्ये

हरिण-शश-वराहैस्सम्भृते नैकजीवे

स्थल-जल-नद-युक्ते निर्झरे शब्दिते च

मदन-रमण-मोदं वीक्षसे त्वं खमार्गात्||९७||

 

हाथी, शेर, भैंस, घोड़ा, हिरन, खरगोश, सूअर इत्यादि अनेक जीवों से भरे हुए मङ्गलाढ्य जङ्गल में जो कि स्थल, जल झरना इत्यादि से युक्त झरते हुए झरने से शब्दायमान है, उसमें मदन जनित रमण के आनन्द को आप आकाश के रास्ते से देखते हो।

 

कुचकलशपटानां दक्ष उद्घाटनेषु

श्लथयति युवतीनां यस्त्वधोवस्त्रबन्धं

शतशतरमणीर्यो घोटकीकृत्य रात्रौ

रमत इव तुरङ्गस्त्वत्तुरङ्गाप्तवेग: ||९८||

 

जो कामक्रीडा के समय स्तनपटों के उद्घाटन में दक्ष है। योषिताओं के अधोवस्त्र को ढ़ीला कर देता है। (फिर) शतशः रमणियों को अश्वासन पर स्थापित कर वाजिवत् रमण करता है, हे सूर्य! उसने यह वेग आपके रथ के घोड़ों से ही लिया है।

 

स्मररणशतजेता यो भवेद्रात्रियोद्धा

हरिणरमणशीलानां मनश्शीलबोद्धा

रतिकरणसमाप्तौ श्रान्तदेहश्च शेते

दिनवर! दिनतास्ये जागृयात् तं करैस्स्वै: ||९९||

 

सैंकड़ों कामयुद्धों का विजेता जो रात्रियोद्धा है, हिरनी के समान रमणशीलाओं के मन और स्वभाव का जानने वाला है। रति के पश्चात् थके हुए शरीर वाला सोता है। हे दिनवर, तुम सुबह उसे अपनी किरणों से जगाते हो।

 

हरसि विविधपापं पुण्यवल्लीं तनोषि

सुरवर! कृपया ते शुभ्रलक्ष्मीं वृणोति

मदनजनितसौख्यं योषितां त्वं ददासि

कुलकुसुमलतां विस्तारयेः दृश्यदेव ||१००||

 

विविध पापों को हरते हो, पुण्य की बेल का विस्तार करते हो। सुरवर! मनुष्य तुम्हारी कृपा से शुभ्र लक्ष्मी का वरण करता है। मदन से जनित योषिताओं का सौख्य तुम ही देते हो। दिखाई देने वाले देवता! आप मेरे कुल के फूलों की लता को भी विस्तृत करिए।

 

||इति हिमांशुगौडकृतं सूर्यशतकम् सम्पूर्णम्||

 

 

 

 

 

 

 

 

॥श्रीबाबागुरुशतकम्॥

✾ ✾ ✾ ✾✾ ✾ ✾ ✾

प्रत्येकमक्षरं लब्धं शिवशास्त्राम्बुधेर्यतः।

तं श्रीबाबागुरुं नत्त्वा शतकं रच्यते मया॥१॥

 

मैंने प्रत्येक अक्षर, जिन कल्याणप्रद-शास्त्रों के समुद्र स्वरूप श्रीबाबागुरुजी से पढा है, उनको नमस्कार करके मैं (हिमांशुगौड) यह शतक लिख रहा हूँ।

 

गङ्गातटग्रामनिवासिविप्र-

गृहे प्रजातो द्विज एष शैव:

कृष्णप्रियश्श्याम इति प्रसिद्धिं

बाल्ये जनैराप्य प्रवर्धितश्च॥२॥

 

गङ्गा तट पर स्थित (हैदलपुर) गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण के घर में, इन्होंने जन्म लिया। ये शुभ-मार्ग का अनुसरण करने वाले (शैव) एवं कृष्णप्रिय, बाल्य-काल में लोगों द्वारा श्याम इस प्रसिद्धि को प्राप्त, ये धीरे-धीरे बड़े हुए।

 

वैराग्यसन्त्यक्तगृहः किशोरो

विहाय सर्वं शिवभक्तिमाप्य

बिहारघट्टं समुपाश्रयच्च

श्रीविष्णुसाध्वाश्रमवाससौख्य:॥३॥

 

वैराग्य के कारण किशोरावस्था में उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और शिव की भक्ति प्राप्त करके सब कुछ छोड़-छाड़ कर, बिहारघाट नामक स्थान पर आए और श्रीविष्णु आश्रम जी महाराज नाम के साधु के आश्रम में निवास कर के सुख प्राप्त किया।

 

तर्कादिशास्त्रं पठितं च विष्णो-

श्शब्दादिशास्त्रं हृदि सन्निधाय

वेदं विचार्योव्वटवाचमेवं

श्रीकैय्यटोक्तिं ह्यपि माम्मटं च॥४॥

 

इन्होंने श्री विष्णु आश्रम जी महाराज से तर्क आदि शास्त्र पढ़े, और व्याकरण आदि शास्त्रों को हृदय में धारण करके, वेदों का विचार करके, भाष्यकार उव्वट का भाष्य पढ़कर और कैय्यट की वाणी का विचार करके, मम्मट के ग्रन्थ का भी अनुशीलन किया।

 

तत्रैव वा जीवनदत्तसाध्वा-

श्रिते नरौरानगरस्थलेऽहो

श्रीवृद्धिकेशीति शिवालये य-

स्संस्नाप्य शम्भुं, तप आचरेच्च॥५॥

 

वहीं पर श्रीजीवनदत्त-ब्रह्मचारी जी नामक साधु द्वारा शोभित नरौरा नगर में, एक नरवर नाम का स्थल है, वहां वृद्धिकेशी शिव-मन्दिर है, वहाँ पर ये श्री श्यामबाबा जी, भगवान् शिव को नहला कर, स्वयं तपस्या करते हैं।

 

बिहारघट्टादिह नर्वराख्या

स्थली न दूरा विबुधैर्भृता सा

लघ्वीयमुक्ता पुरुषैश्च काशी

सर्वो वसेन्नागपदप्रभाषी[32]॥६॥

 

यह नरवर नामक स्थान, जो कि विद्वानों द्वारा शोभायमान है, यह बिहारघाट से अधिक दूर नहीं है, और लोग इसे छोटीकाशी भी कहते हैं। यहां पर रहने वाले सभी विद्वान्, नागेशभट्ट और पतञ्जलि से सम्बन्धित शास्त्र (व्याकरण) का व्याख्यान करने वाले हैं।

 

श्रीश्यामबाबायुवता व्यतीता

चात्रैव वार्धक्यमहो विभाति

हिमांशुगौडं परिपाठ्य बाबा-

गुरुर्मदीयो लभतां प्रतोषम्॥७॥

 

उन श्याम बाबा का युवत्त्व-काल यहीं व्यतीत हुआ और यहीं इनका बुढ़ापा शोभित हो रहा है। हिमांशुगौड को पढ़ाकर ये बाबागुरुजी सन्तुष्ट होवें।

 

शास्त्रीति कक्षासमये यदाऽसौ

शब्दार्थसिद्धान्तमवोचयच्च

अध्यापयन् विप्रबटून्नवीनान्

दृष्ट्वा निशम्यापि सुपाठ्यशैलीम्॥८॥

 

जब ये श्री श्याम-बाबाजी शास्त्री की कक्षा में थे और शब्द-अर्थ के सिद्धान्त को नई आयु वाले बटुकों को पढ़ा रहे थे, तब इनकी पढ़ाने की शैली को देखकर और व्याख्यान को सुनकर।

 

विष्ण्वाश्रमोऽहो मुदितोऽभवच्च

समुक्तवान् पार्श्वगतेषु चैवं

नूनं हि पीठस्थविवक्तृरूपश्-

श्यामाख्यविप्रो भविता यशस्वी॥९॥

 

वे श्री विष्णु आश्रम जी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए और अपने पास बैठे हुए लोगों से कहा - यह श्याम नाम का जो ब्राह्मण है, वह निश्चित ही पीठस्थ होकर (तख्त पर बैठ कर) शास्त्रों के वक्ता के रूप में यशस्वी होगा।

 

विनिस्सृता विष्णुमुखादकस्मात्

तदा श्रुता शारदया सुवाक्सा

नूनं सतामर्थ इवानुसारी

भवेत्सुवाचामिति चाद्य सिद्ध:॥१०॥

 

और उस समय श्री विष्णु आश्रम जी महाराज के मुख से अचानक निकली हुई वह वाणी मानो साक्षात् सरस्वती ने ही सुन ली, क्योंकि साधुओं की वाणी का अर्थ ही अनुसरण करता है – यह बात आज सिद्ध हो गई।

 

न सोऽस्ति विद्वानथ यो गुरूणां

वाचां समर्थत्त्वमहो विहाय

चरेत्पदं वापि शिवप्रवाचाम्-

अर्थानवैतीह गुरुप्रमोदः॥११॥

 

ऐसा कोई विद्वान् नहीं है, जो गुरुओं की वाणियों की शक्ति के बिना एक पद भी चल पाए, या एक शब्द भी बोल पाए और ये जो (वर्तमान) कवि है, ये कल्याण-पूर्ण वाणियों के अर्थों को जानता है (या फिर शिव-शास्त्रगम्य वाणी के अर्थ को जानने वाला है) और गुरु के लिए आनन्द देने वाला है।

 

तस्मादधीत्यैव कवित्त्वकाङ्क्षि-

शतीं विधातुं मम ‌‌‌‌चैष यत्न:

मनुस्मृतौ तद्धि समुक्तमद्धा

श्रद्धा फलेद्या गुरुषु प्रवृद्धा॥१२॥

 

और उन्हीं बाबागुरूजी से पढ़कर, कवित्त्व की आकाङ्क्षा रखने वाले इस शतक का विधान (रचना) करने का, मेरा यह प्रयास है, क्योंकि मनुस्मृति में भी कहा गया है  कि गुरुओं में बढ़ी हुई  श्रद्धानिश्चित रूप से फलवती होती है।

 

अभिनन्दनरूपकमेव जनै-

रवबोध्यमिदं शतकं रचितं

न समग्रतया गुरुगौरवगं

शिवदत्तधियैव मयाऽऽचरितम्॥१३॥

 

अरे लोगों,  यह शतक जो मैंने लिखा है, इसे आप अभिनन्दन का रूपक ही जानों, और यह शतक समग्र रूप से गुरु का गौरव प्राप्त नहीं करता है। भगवान् शिव के द्वारा दी हुई बुद्धि के द्वारा ही मैंने यह (लेखनरूप) आचरण किया है।

 

क्व गुरोर्गुणता क्व जनोऽल्पमति:

प्रतनोति तथापि मनस्युदितं

दशवर्षनिवासनिदृष्टमुत

परिजीवितमेव लिखामि समम्॥१४॥

 

कहां तो गुरु की गुणवत्ता, और कहां यह अल्पमति मनुष्य, फिर भी अपने मन में उदित हुए भावों को, और जो दस साल तक निवास के द्वारा यहां मैंने जो देखा या जिया, उसको ही यहां लिख रहा हूं।

 

महिमानमहो विदुषोऽपि शिवा-

ऽऽश्रयजीवितरागविहीनविदः

परिवेत्ति क एव परो विफलः

प्रतनोमि तथापि मतिं कथने॥१५॥

 

जो शिव की शरण में ही जीवित हैं और मोह-रागादि से विहीन हैं, ऐसे विद्वान् की महिमा को कौन जान सकता है? (जानने के प्रयत्न में) विफल ही होगा! फिर भी मैं इस काव्यरूपी कथन में अपनी बुद्धि का विस्तार कर रहा हूं।

 

अधिकं बत सत्यमिहोल्लिखितं

ह्यतिशेत इतीह न तर्कयत

अभिधासृतवर्णनभावपरं

कथनं पठनीमननीकुरुत॥१६॥

 

मैंने यहां अधिकतर सत्य ही लिखा है। कवि इस काव्य में अतिशयोक्ति कर रहा है - इस तरह की शङ्का मत करो। यह सारा काव्य प्राय: अभिधा द्वारा अनुसृत वर्णन के भावों वाला है, इसको पढ़ो और मनन करो।

 

मनोरमा प्रिया[33] यस्य क्रिया चैव मनोरमा।

मनोरमाय काव्याय मनोरन्त्रे नमो नमः॥१७॥

 

(नैष्ठिक-ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करने के कारण या सांसारिक–विराग के कारण) मनोरमा अर्थात् स्त्री जिनकी अप्रिय है (दूसरे अर्थ में) मनोरमा नामक ग्रन्थ जिनका प्रिय है,  जिनकी क्रिया भी मनोरम है, उस मनोरम काव्य के लिए, और अपने (शुभतायुक्त) मन में रमण करने वाले के लिए बार-बार नमस्कार है।

 

चलनं यस्य सिद्धान्तो हसनं यस्य शेखरः।

चिन्तनानाञ्च मञ्जूषा मस्तिष्के तर्कसङ्ग्रहः॥१८॥

 

सदा चलते रहो - यही जिनका हमेशा सिद्धान्त है। हँसते रहो (प्रसन्न रहो)  - यही जिनका हमेशा शेखर अर्थात् मूर्धन्य अर्थ है। जो खुद एक चिन्तनों की मञ्जूषा (अर्थात् पेटिका के समान) हैं और जिनके मस्तिष्क में अनेक प्रकार के तर्कों का सङ्ग्रह है।

(दूसरे अर्थ में) जो चलते-चलते ही सिद्धान्तकौमुदी नामक ग्रन्थ पढ़ा देते हैं, जो हँसते-हँसते ही (अर्थात् आनन्दपूर्वक) शेखर नामक ग्रन्थ पढ़ा देते हैं, जिनके चिन्तनों में हमेशा मञ्जूषा नामक ग्रन्थ के भाव स्थित रहते हैं और मस्तिष्क में तर्कसङ्ग्रह नामक ग्रन्थ विद्यमान है। (वे श्रीबाबागुरुजी हैं।)

 

वेदान्तो यस्य वाक्येषु साङ्ख्यं सम्यग्विविच्यते।

कण्ठे मुक्तावली यस्य तं वन्दे श्यामसुन्दरम्॥१९॥

 

जिनके बोले हुए वाक्यों में वेदान्त की झलक मिलती है, जो साङ्ख्य का अच्छी तरह विवेचन करते हैं, मुक्तावली नामक ग्रन्थ जिनके बिल्कुल कण्ठस्थ है, मैं उन श्रीश्यामसुन्दर नामक गुरुजी को नमन करता हूं। (दूसरे अर्थों में यह श्लोक भगवान् श्रीकृष्णपरक भी है।)

 

शैल्यां चैव महाभाष्यं विद्वत्ता यस्य भूषणम्।

धीमतामेकपूज्यो यस्तं वन्दे श्रीमहामणिम्॥२०॥

 

महाभाष्य जिनकी शैली में ही शामिल है[34], विद्वत्ता ही जिनका आभूषण है, बुद्धिमान् लोगों के जो एकमात्र पूज्य हैं, उन महान् मणि-स्वरूप गुरुदेव की मैं वन्दना करता हूं।

 

नैव वित्तं प्रियं नैव कीर्तिः प्रिया

कामिनी न प्रिया नैव किञ्चित्प्रियम्

केवलं सर्वकल्याणकामी द्विजो

गोप्रियश्शम्भुरक्तश्च विप्रप्रियः॥२१॥

 

धन, कीर्ति, कामिनी - जिनको बिल्कुल प्रिय नहीं है। जिनको कुछ भी सांसारिक वस्तु प्रिय नहीं है। जो सिर्फ सबका कल्याण चाहते हैं। जो गायों को प्रेम करते हैं और भगवान् शिव में ही भक्ति धारण करते हैं और ब्राह्मणों के प्रिय हैं, ऐसे श्रीबाबागुरुजी (वन्दनीय) हैं।

 

शास्त्रचिन्तारतः काव्यकल्पारतो

नव्यवार्तारतश्चैव पूजारतः

धर्मशिक्षारतो दिव्यशैलीयुतो

मङ्गलानां दिनानीव बाबागुरुः॥२२॥

 

ये हमेशा ही शास्त्र का चिन्तन करने में लगे रहते हैं, अनेक काव्यों की कल्पनाएं करते हैं, नए-नए प्रकार की (शास्त्रगत) बातें  करते हैं, अधिकतर पूजा में ही लगे रहते हैं, धर्म की शिक्षा देने में सावधान हैं, इनकी शैली बड़ी दिव्य है, बाबागुरूजी को ऐसे ही मानो, जैसे साक्षात् मङ्गल (उत्सव) के दिन आ गए हों।

 

चित्तमस्यास्ति भोज्ये न वस्त्रे स्वके

लौकिके नो पदार्थेऽपि काचिद्रतिः

केवलं शास्त्रचर्चासु शम्भौ तथा

जीवनं पुष्पितं मोदितं शोभितम्॥२३॥

 

भोजन में, अपने वस्त्रों में या किसी भी पदार्थ में इनका कोई मन (ध्यान) नहीं है, ना कोई लगाव है। सिर्फ शास्त्रों की चर्चाओं में और भगवान् शिव में ही इन्होंने अपना जीवन एक फूल की तरह सुगन्धित और आनन्दित व शोभित किया है।

 

रक्तपुष्पैश्च धत्तूरपुष्पैरपि

बिल्वपत्रैश्च दूर्वादिभिश्शङ्करः

सेव्यते सिच्यते गाङ्गनीरेण[35] वै

भक्तिभावेन सद्धर्मतथ्यानुगैः[36]॥२४॥

 

ये भक्तिभावपूर्वक, श्रेष्ठ-सनातन-धर्म के तथ्यों का अनुसरण करते हुए, लाल फूलों से, धतूर के फूलों से, बिल्वपत्रों से और दूर्वा आदि से भगवान् शिव की हमेशा ही सेवा करते हैं, और गङ्गाजल से उनका अभिषेक करते हैं।

तस्य वाक्यस्य शैली पदक्षेपणं

भावसम्भावनं शास्त्रसङ्गाहनम्

वीक्ष्य चाश्चर्यनेत्रैर्द्विजैर्जीवनं

धन्यमर्थप्रदं भूरिशो नन्द्यते॥२५॥

 

उनके वाक्यों की शैली, शब्दों का क्षेपण (शब्दप्रयोग-प्रकार), भावों का सम्यग् उद्भावन(भावाख्यान), मानों, शास्त्रों से स्नान कराने जैसा है। इसको देख कर (ब्राह्मण) लोग बड़ा ही आश्चर्य मानते हैं और श्री बाबागुरुजी के जीवन को धन्य, अर्थप्रद मानकर बहुत आनन्दित होते हैं।

 

भाष्यभावाब्धिमग्नश्च हर्षप्रद-

श्शास्त्रिणां भूषणो नव्यतत्त्वं वदेत्

शब्दसिद्धान्तवेतृप्रियस्सद्गुरुस्-

सर्वनम्यस्तपस्वी स बाबागुरुः॥२६॥

 

ये श्रीबाबागुरुजी, भाष्य के भावों के समुद्र में मग्न हैं, (शास्त्र व्याख्यान द्वारा) हर्ष प्रदान करने वाले और शास्त्रियों के आभूषण हैं, (धर्मादि के) नए तत्त्व को बताते हैं। जो लोग शब्द-सिद्धान्त को जानने वाले हैं, ऐसे लोग बाबागुरुजी से बहुत प्रेम मानते हैं और इस प्रकार सभी के द्वारा प्रणम्य वे तपस्वी श्रीबाबागुरुजी हैं।

 

नाभिमानं न वा गौरवं दर्शयेत्

जीवनं चैव सारल्ययुक्तं वहेत्

यादृशं भावितं तादृशं कथ्यते

नैव कुत्सा दुराशास्ति चित्ते क्वचित्॥२७॥

 

ये कभी भी अभिमान या अपना बड़प्पन नहीं दिखाते। अपने जीवन को सदा ही सरलता से धारण करते हैं।[37] जिस तरह का मन में भाव है, वैसा ही कह देते हैं। कोई भी मन में बुरा भाव या (दुराशा) बुरा करने की इच्छा नहीं रहती।

 

यस्सुधीनाम्प्रियो यः कवीनाम्प्रियो

यो धनीनां प्रियो यो यतीनां प्रियो

यो द्विजानां प्रियश्शङ्करस्य प्रियो

यस्समेषां प्रियो भाति बाबागुरुः॥२८॥

 

वे विद्वानों के भी प्रिय हैं, कवियों के भी प्रिय हैं, धनवान् लोगों के भी प्रिय हैं, सन्यासियों के भी प्रिय हैं, ब्राह्मणों के भी प्रिय हैं, भगवान् शङ्कर के भी प्रिय हैं और सभी के प्रिय हैं ऐसे श्रीबाबागुरुजी शोभित हो रहे हैं।

 

यश्च वृद्धत्त्वकालेऽपि यूनामिव

हर्षभृच्छक्तिभृच्छास्त्रहर्षी द्विजः

श्रीमतां धीमतां स प्रणम्यश्शिवे

भक्तिमान् जाह्नवीतीरवासाश्रमः॥२९॥

 

जो बुढ़ापे में भी जवानों की तरह हर्ष से भरे हुए हैं और शक्तिशाली हैं। शास्त्रों का आनन्द प्रदान करने वाले हैं। ब्राह्मण, श्रीमान् और बुद्धिमान लोगों द्वारा सदा ही नमस्कार करने के योग्य भगवान् शिव में भक्ति को धारण करने वाले और गङ्गा जी के किनारे निवासरूपी आश्रम वाले श्रीबाबागुरुजी हैं।

 

वैराग्यशास्त्रलसितोऽपि जनः कदाचित्

साहित्यपाठनविधौ रमते रसेषु

शृङ्गारहास्यकरुणादिषु दक्षताभिः

छात्रस्य हृद्यगुरुतां प्रियतां प्रयाति॥३०॥

 

वे यद्यपि वैराग्य शास्त्र (अर्थात वेदान्त, साङ्ख्य, ब्रह्मसूत्र, पञ्चदशी, इत्यादि वैराग्य प्रदान करने वाले शास्त्र) से विभूषित हैं, फिर भी कभी-कभी जब वह साहित्य पढ़ाने में आनन्दित होते हैं तो अनेक रसों में शृङ्गार, हास्य, करुण आदि रसों में (खूब डूब जाते हैं और अध्यापन रूपी) दक्षताओं के द्वारा छात्रों की हार्दिक गुरुत्त्व की पदवी को और प्रेम को प्राप्त करते हैं।

 

श्रीणां स्वभाव उत मङ्गलता कदाचित्

सा संश्रयेत् सुचरितेषु शुभेषु नूनम्

अध्यात्मचारिपुरुषेषु सुलभ्यतत्त्वं

शास्त्रैः[38] कृतं परिलभन्त इदं मनुष्याः॥३१॥

 

और यह श्री का स्वभाव ही है (या कभी, मङ्गल स्वरूप है) कि वह सन्तों द्वारा आचरण किए हुए शुभ-कार्यों में श्रयण (निवास) करती है और अध्यात्म का आचरण करने वाले पुरुषों में भी यह एक सुलभ्य तत्त्व है, जो कि शास्त्रों द्वारा निर्मित है और मनुष्य इसे शास्त्रों द्वारा ही प्राप्त करते हैं।

 

यस्य कर्माणि वाचां प्रवाहं जनाः

वीक्ष्य हर्षं च धर्मश्रिया शोभिताः

जीवनं पुष्पितं सौरभैर्भृद्वपुः

पुण्यमाशुर्व्रजन्तश्श्रयन्ते सुखम्॥३२॥

 

जिनके (धार्मिक-मार्ग पर आचरण किए जाते हुए) कर्मों को देखकर और (पुण्य-समन्वित) वाणियों के प्रवाह को देखकर लोग हर्षित होते हैं तथा धर्म रूपी लक्ष्मी से शोभित होते हैं। उससे उनका जीवन पुष्प की तरह हो जाता है और उनका तन-मन सुगन्धि से भर जाता है, वे लोग तत्काल पुण्य को प्राप्त करते हुए सुखी हो जाते हैं।

 

यत्र धर्मस्य शीलस्य सम्पालनं

यत्र शास्त्रस्य हर्षश्च संलभ्यते

वेदपाठैर्मरुच्च श्रवौ प्राणिनां

धन्यतां शुद्धतां मङ्गलत्त्वं गताः॥३३॥

 

जहां धर्म का और शील (नम्रता,चरित्र) का सम्यक् रूप से पालन होता है और शास्त्रों का आनंद प्राप्त होता है और वेदपाठों के द्वारा जहां की हवा और प्राणियों के कान धन्य, शुद्ध और मंगल को प्राप्त करते हैं, ऐसे श्रीबाबागुरुजी हैं अर्थात् (बाबा गुरु जी का आश्रम इस प्रकार का है)।

 

आगतो विप्रमान्यो द्विजैरुच्यते

शब्दवृष्टिश्च[39] शब्दप्रियैरुच्यते

साङ्ख्यवेदान्ततर्कादिविद्याशुभो

बोद्धृसन्यासिभिर्वन्द्यते श्रद्धया॥३४॥

 

अरे, ये विप्रों के पूज्य आ गए हैं - ऐसा द्विज कहते हैं। ये मानों शब्दशास्त्र की बारिश की तरह हैं - ऐसा शब्दप्रिय लोग कहते हैं। ये साङ्ख्य, वेदान्त, तर्क आदि विद्याओं से (युक्त होने से) बहुत ही शुभता-सम्पन्न हैं - ऐसा विद्वान् सन्त, संन्यासी लोग श्रद्धा से कहते हुए इनकी वन्दना करते हैं।

 

काष्ठनिर्भेदनैः पुष्पसंसेचनै-

र्वृक्षसंरोपणैर्नव्यकार्याश्रयैः

पुस्तकालोकनैः काव्यसङ्गुम्फनैस्-

तद्दिनानि व्यतीतानि मोदैस्सदा॥३५॥

 

कभी-कभी लकड़ियां काटते हुए, कभी फूलों की बगिया सींचते हुए, कभी वृक्षारोपण करते हुए, कभी नए-नए कार्यों का आश्रय लेने से, कभी ग्रन्थों का ही अवलोकन करने से, कभी काव्य-गुम्फन करने से, उनके दिन सदैव आनन्दपूर्वक व्यतीत होते हैं।

 

पाकशालाविधौ धेनुशालाविधौ

पाठशालाविधौ देवशालाविधौ

पुष्पशालाविधौ कार्यशालाविधौ दर्शितैस्स्वीयदाक्ष्यैर्गतस्सोऽर्च्यताम्॥३६॥

 

उन्होंने न सिर्फ पाठशाला में, अपितु रसोई संबंधी विधि में, गौशाला (सम्बन्धी कार्यों की) विधि में, मन्दिर (सम्बन्धी कार्यों की) विधि में, पुष्पशाला सम्बन्धी विधियों में और कार्यशाला की विधियों में अपनी दक्षता को दिखाया है, इसलिए वे लोगों द्वारा सम्मानित हैं।

 

नैव रक्ताम्बरो नैव पीताम्बरो

नैव चाशाम्बरो नैव नीलाम्बरो

ब्राह्मणानां यदुक्तं महन्मङ्गलं

शोभते श्रीगुरुश्चात्र शुक्लाम्बरः॥३७॥

 

ये न तो लाल कपड़े पहनते हैं, न पीले कपड़े, न ही दिगम्बर रहते हैं और नीले कपड़े तो पहनते ही नहीं हैं (ब्राह्मण के लिए नीले वस्त्र पहनना शास्त्रनिषिद्ध है।)। ब्राह्मणों का जो महान् मङ्गल-स्वरूप बताया गया है, केवल ऐसे श्वेत-वस्त्र ही श्रीगुरुजी पहनते हैं।

 

नोर्ध्ववस्त्रं शरीरे ह्यधोवस्त्रकं

धारयेन्नैव चाङ्ग्लीयवस्त्रं क्वचित्

केवलं शास्त्रमर्यादयाऽऽमोदितं

सभ्यवस्त्रं  सुशुक्लं विरक्तप्रधीः॥३८॥

 

ये विरक्त बुद्धि वाले बाबाजी, ना तो अपने शरीर पर ऊर्ध्ववस्त्र (ऊपर से पहना जाने वाला) पहनते हैं ना ही अधोवस्त्र (नीचे से पहना जाने वाला) पहनते हैं और अङ्ग्रेजी पद्धति वाले वस्त्रों की तो बात ही छोड़ो, सिर्फ शास्त्रों की मर्यादा के द्वारा ही जो आमोदित (समर्थित) हैं, इस तरह के सभ्य सफेद वस्त्र ही, पहनते हैं।

 

नैव गङ्गावगाहो न शम्भ्वर्चनं

त्यज्यते शास्त्रचर्या बुधेन क्वचित्

शब्दसम्पाठनं धर्मविख्यापनं

मण्डनं श्रीवरस्य श्रियै स्यान्नृणाम्॥३९॥

 

गङ्गाजी में नहाना, भगवान् शिव की पूजा करना और शास्त्रों का आचरण करना- ये तीन काम श्रीबाबागुरुजी द्वारा कभी नहीं त्यागे गए। व्याकरणशास्त्र पढ़ाना और धर्म का प्रचार करना यही इनका शृङ्गार है। ऐसे श्रीवर (शोभायमान पुरुष) का यह शृङ्गार, लोगों के लिए शुभदायक हो (ऐसी हम कामना करते हैं)।

 

यस्य शिष्यास्सदैवोच्चतां सङ्गताः

शब्दशास्त्रप्रसादाज्जनैरर्चिताः

सोऽत्र वैराग्यभाग्विष्णुशास्त्रप्रमुद्

गाङ्गतीरे विभाति द्विजैरावृतः॥४०॥

 

व्याकरण-शास्त्र के प्रसाद से जिनके शिष्य सदा ही उच्च पदवी को प्राप्त हुए और लोगों द्वारा पूजित हुए, वे इस (नरवरस्थ) गङ्गाजी के तट पर ब्राह्मणों से घिरे हुए, विष्णु-शास्त्र-आनंदी (श्रीविष्णु-आश्रमजी-महाराज-प्रदत्त-शास्त्रमोदी या भागवतप्रेमी, उभयार्थक) और वैराग्य धारण करने वाले श्रीबाबागुरुजी शोभित हो रहे हैं।

 

यो निजस्वैस्सदा[40] निर्धनान् पाठयन्

धर्मदृष्ट्या परेषां हिते संरतः

शास्त्रकल्याणसारी प्रधीः प्रत्यहं

स्वार्थहीनश्श्रमी क्वेदृशो दृश्यते॥४१॥

 

जो प्रतिदिन अपने धन से, निर्धनों को विद्या-दान करते हुए, धर्म की दृष्टि से परोपकार एवं दूसरों का हित करने में लगे हुए हैं और शास्त्र के द्वारा कहे हुए कल्याण का अनुसरण करने वाले बुद्धिमान हैं, ऐसे स्वार्थहीन और दूसरों के हित के लिए परिश्रम करने वाले आजकल कहां दिखाई देते हैं?

 

मस्तके जाह्नवीमृच्च पापापहा

यस्य कण्ठे च रुद्राक्षमाला, करे

पुष्पबिल्वादिभृत्पेटिका गाङ्गकं

शोभतेऽर्चां विधातुं व्रजेच्चेद् यदा॥४२॥

 

जब ये गुरुजी (वृद्धिकेशी शिव मंदिर में) पूजा करने के लिए जाते हैं, उस समय इनके मस्तक पर गङ्गाजी की मिट्टी लगी होती है (जो पापों का नाश करने वाली है) और इनके गले में रुद्राक्ष की माला पड़ी रहती है और हाथ में फूल, बिल्वपत्र आदि से भरी हुई टोकरी और गङ्गाजल से भरा हुआ कमण्डल रहता है।

 

वैदिकानां गुरुश्शाब्दिकानां गुरुस्-

तार्किकाणां गुरुस्साङ्ख्यवित्सद्गुरुर्-

ज्योतिषीनां गुरुर्याज्ञिकानां गुरुस्-

सर्वमध्यापयेद्यस्स बाबागुरुः॥४३॥

 

वे श्रीबाबागुरुजी, वैदिकों के गुरु, शाब्दिकों के गुरु, तार्किकों के गुरु, साङ्ख्यशास्त्र को जानने वाले लोगों के सद्गुरु, ज्योतिषियों के गुरु और याज्ञिकों के भी गुरु  हैं, जो सबको पाठ पढ़ाते हैं।

 

संविलोक्यैव शिष्यं विजानात्यपि

तद्वचस्तद्गतीस्तस्य चेष्टादिकान्

कीदृशोऽयं भविष्योऽशुभो वा शुभः[41],

चेदृशी दूरदृष्टिश्च बाबागुरोः॥४४॥

 

ये (आश्रम में आए हुए) शिष्य की वाणी, उसकी गतियां, उसकी चेष्टाएं आदि देखते ही, उसको समझ जाते हैं (पहचान लेते हैं)। इसका कैसा भविष्य है, शुभ या अशुभ? ये बात भी तुरन्त वे  जान लेते हैं। इस तरह की श्रीबाबागुरुजी की दूरदृष्टि है।

 

यस्य वाक्यानि चाकर्ण्य सर्वे द्विजाः

चेद्विचार्यापि संलोकयन्त्यग्रिमे[42]

सत्फलान्यर्थपूर्णानि तान्यस्य वै

सत्यतां यान्ति सर्वे महाविस्मिताः॥४५॥

 

जिनके वाक्यों को सुनकर और विचार करके, अगर लोग देखते हैं, तो आगामी समय में, वे सभी वाक्य, सत्फलयुक्त, अर्थपूर्ण एवं सत्य ही होते हैं - इस तरह के इन गुरुजी की वाणी की सफलता को देखकर, लोग बहुत विस्मित हो जाते हैं।

 

यो जनेभ्यो न गृह्णाति किञ्चिद्धनं

नान्नमेवं जलं नो[43] फलं नो पयः

यत्परिग्राहिणां पुण्यता नश्यति

तथ्यमेतद्विचार्यैव संवर्तते॥४६॥

 

परिग्रह लेने वालों का पुण्य नष्ट होता है - इस तथ्य का विचार करके श्रीबाबागुरुजी  (अधिक श्रद्धालुओं को छोड़कर) किसी भी मनुष्य से, जरा भी पैसा, अनाज, जल, फल, दूध इत्यादि (स्वयं के लिए) नहीं ग्रहण करते।

 

मानुषा यत्र धूर्ताश्च तेऽहर्निशं

वञ्चने तत्पराश्श्रद्धया पूरितान्

तत्र चाऽयं प्रसङ्गं सदा वर्जयेत्

चेद् धनी दातुमिच्छेत् परीक्ष्यैव तम्[44]॥४७॥

 

आजकल जहां धूर्त लोग, रात-दिन (धार्मिकता की आड़ में) दूसरे श्रद्धालु लोगों को ठगने में लगे हुए हैं वहां ये गुरुजी, दान एवं परिग्रह का प्रसंग ही वर्जित कर देते हैं और अगर धनवान् व्यक्ति ज्यादा ही देने की इच्छा करता है, तो उसकी (धार्मिकता, पात्रता आदि दृष्टि से) परीक्षा करके ही आश्रम के लिए (दानादि) स्वीकार कर लेते हैं।

 

लेशमात्रा स्पृहा लौकिकेष्वस्य च

नैव वित्तादिषु श्रीशिवे सत्पथे

शाश्वतं सत्यमेतेन लब्धं यतः

पद्मपत्रस्थितिः के[45] तथायं वसेत्॥४८॥

 

लौकिक (धनादि) पदार्थों में इनकी जरा भी स्पृहा नहीं है, केवल शोभापन्न कल्याणमय सत्पथ में ही इनकी स्पृहा है, क्योंकि इन्होंने शाश्वत सत्य को जान लिया है, इसलिए ये संसार में ऐसे ही रहते हैं, जैसे जल में कमल का पत्ता (निर्लेप) रहता है।

 

शैवलोकादसौ शम्भुना प्रेषितो

भूतले च द्विजाज्ञाननाशाय वै

धर्ममार्गप्रशस्त्यै विपश्चित्सभा-

मण्डनायापि तेजस्विवाक् शास्त्रिणाम्॥४९॥

 

(ऐसा मालूम पड़ता है) जैसे भगवान् शिव ने ही, शिवलोक से ब्राह्मणों के अज्ञान को नष्ट करने के लिए और धर्ममार्ग की प्रशस्ति के लिए तथा विद्वानों की सभा को शोभित करने के लिए इन, शास्त्रियों में तेजस्वी वाणी वाले, श्रीबाबागुरुजी को धरती पर भेजा है।

 

दूरदेशागताः शब्दशास्त्रार्थिनः

प्राप्य यस्य प्रसादाद्भवन्ति ध्रुवम्

अल्पकाले हि शास्त्रप्रवीणाश्च ये

ते गुरोश्च प्रशंसापराश्शोभिताः॥५०॥

 

दूर प्रदेशों से आए हुए व्याकरणशास्त्र के इच्छुक, ज्ञान प्राप्त करके जिनके प्रसाद से, थोड़े ही समय में शास्त्र में प्रवीण हो जाते हैं, वे इन गुरुजी के गुणों की प्रशंसा करते हुए शोभायमान होते हैं।

 

पाठनस्यास्य सूक्ष्मो विधिर्लोक्यतां

शब्दसङ्गुम्फनैर्वा जरीहृष्यताम्

अल्पकाले बहुज्ञानदायिप्रथां

पद्धतिं बोधदां वीक्ष्य मोमुद्यताम्॥५१॥

 

इनके पढ़ाने की सूक्ष्म-विधि को देखो, (या काव्य बनाते समय) जब ये शब्दों का गुम्फन (गूंथना) करते हैं, उससे भूयः हर्षित होओ! थोड़े ही समय में बहुत ज्ञान दे देने वाली प्रथा को देखकर, और बोध प्रदान करने वाली पद्धति को देखकर खूब आनन्द मनाओ!

 

सद्य एवास्य शिष्या हि विद्वद्वरास्-

सम्भवन्त्यल्पकाले यतो यो विधिर्-

युज्यते, पूज्यते  तेन सर्वैर्द्विजैश्-

शब्दशास्त्रप्रदो भाति बाबागुरुः॥५२॥

 

थोड़े से ही समय में इनके शिष्य ही विद्वान् बनते हैं, क्योंकि पढ़ाने की जो विधि, ये गुरुजी प्रयोग करते हैं, उसके द्वारा ही द्विज लोग इनका बहुत सम्मान करते हैं। इस तरह व्याकरण-शास्त्र का ज्ञान प्रदान करने वाले श्री बाबा गुरुजी शोभायमान हैं।

 

यश्च मूढानपि ज्ञानदाने क्षमश्-

चेत्सरेदस्य रीत्यैव नान्यन्मनाः

अश्नुयात्सर्वसौख्यं सदा घोषणां

यः करोति प्रभाभृत्स बाबागुरुः॥५३॥

 

अगर इनके ही तरीके से चला जाए, अन्य (व्यर्थ की) बातों में मन ना लगाया जा जाए, तो ये मूढों को भी ज्ञान देने में सक्षम हैं, और वह (मूढ) ज्ञानी होकर सभी सुख प्राप्त करता है, ऐसी घोषणा वे तेजस्वी बाबागुरुजी, सदा ही करते हैं।

 

नाधिकं हर्षमेतीव नो शोकतां,

मोहतां लोभतां क्रोधतां नैव यः

केवलं शैवरूपे बुधो मज्जति

नूनमेवं विबोध्यस्स बाबागुरुः॥५४॥

 

जो न तो अत्यधिक हर्षित होते हैं, न अत्यधिक दुखी होते हैं, जो न लोभ और क्रोध को धारण करते हैं और केवल कल्याण स्वरूप ब्रह्म में ही निमग्न रहते हैं - वे निश्चित ही बाबागुरुजी हैं, ऐसा जानों।

 

शिष्यकल्याणकामी भवेत्क्रोधितस्-

तस्य दुःखं प्रणष्टुं व्रजेन्मोहताम्

धर्मलब्ध्यै व्रजेल्लोभतां चैव यस्-

तत्त्रिदोषोऽपि मोक्षाय सङ्कल्पते॥५५॥

 

जो केवल शिष्य के कल्याण के लिए क्रोधित होते हैं, उसका दुःख मिटाने के लिए मोह को भी प्राप्त करते हैं और धर्म की प्राप्ति के लिए मानों लोभी हैं - इस तरह से क्रोध, मोह और लोभ - ये तीन दोष भी बाबागुरुजी के लिए गुण बनकर, मोक्ष की सङ्कल्पना प्रस्तुत करते हैं।

 

शम्भुना सुन्दरश्शीतलश्चन्द्रमाः

मस्तके चादरेणैव सन्धार्यते

एवमेषोऽपि बाबा हिमांशुं द्विजं

प्रेमभावैश्च मानैस्समामन्यते॥५६॥

 

जैसे भगवान् शङ्कर ने सुन्दर और शीतल चन्द्रमा को अपने माथे पर आदरपूर्वक धारण किया, इसी प्रकार ये श्रीबाबागुरुजी भी, हिमांशु नामक द्विज को प्रेमभाव से सम्मानित करते हैं।

 

नैव गुण्यैर्गतश्चन्द्रमाः मस्तके

तत्कृपा तद्दया हेतुरन्यो न हि

सुन्दरो यस्स्वयं लोककल्याणकृत्

तस्य किं भूषणैर्यस्स्वयं भूषणः[46]॥५७॥

 

और चन्द्रमा अपने गुणों से भगवान् शिव के मस्तक पर गया हो, ऐसी कोई बात नहीं है। ये तो केवल (भगवान् शिव और बाबागुरुजी) की कृपा और दया ही है, जो उन्होंने चन्द्रमा (हिमांशु) को अपने मस्तक पर धारण कर, उसे सम्मान दिया। जो कल्याणकारी शिव हैं (पक्षान्तर में बाबाजी) वह तो स्वयं सुन्दर है! सत्य ही है - जो स्वयं भूषण हो, उसको आभूषणों का क्या काम?

 

भस्मरागो विरागो यथा शङ्करस्-

तद्वदेषां च भाले शुभा मृत्तिका

तस्य सर्पो गले मस्तके बाहुषु

श्रीगुरुं सर्प आवृत्य सन्तिष्ठते॥५८॥

 

जैसे भगवान् शङ्कर अपने शरीर पर भस्म लपेटते हैं और वैराग्यवान् हैं, उसी तरह से बाबाजी के भी माथे पर शुभ (गङ्गाजी की) मिट्टी लगी रहती है और ये भी वैराग्यवान् हैं। भगवान् शिव के गले में साँप पड़ा रहता है और (कभी-कभी) पूजा में श्रीगुरुजी को साँप घेर कर बैठ जाता है। (जो जिसकी उपासना करता है उसका स्वरूप भी वैसा ही हो जाता है – इस शास्त्र को ख्यापित करता हुआ, यह कवि का वचन है।)

 

योऽप्यधीते सदा श्रद्धया श्रीगुरोः

प्रोद्भवेत्तस्य बुद्धौ द्रुतं स्फूर्तता

बिल्वपत्रादिभिश्शङ्करं पूजयेत्

तस्य विद्यागतिं को निरोद्धुं क्षमः॥५९॥

 

जो भी, श्रीगुरुजी से श्रद्धापूर्वक अध्ययन करता है, उसकी बुद्धि में द्रुतगति से स्फूर्त्ति पैदा होती है, और साथ ही साथ जो बिल्वपत्र आदि से भगवान् शिव की पूजा भी करता रहता है, उसकी विद्या की गति को कौन रोक सकता है?

 

यस्तिङन्तं सुबन्तं तथा तद्धितं

पाठयन् यः कृदन्तं विना पुस्तकैः

छात्रवर्गेण याति प्रशस्तिं स वै

बुध्यते बोद्धृभिस्सोऽत्र बाबागुरुः॥६०॥

 

तिङन्त, सुबन्त, तद्धित और कृदन्त को, जो बिना पुस्तक के ही पढ़ाते हुए पूरे छात्रवर्ग की प्रशंसा को प्राप्त हुए, वे यहाँ विद्वानों द्वारा श्री बाबागुरुजी जाने जाते हैं।

 

शीतो यस्य तिङन्तपाठलसितो ग्रीष्मस्सुबन्तैर्मुदा

वृष्टिस्तद्धितसंयुता भवति वै भाष्यं च वासन्तिकम्

पूर्णे प्रौढमनोरमा पठति वा यस्माद् द्विजानां गणो

विद्वद्भूषण एष एति विबुधश्शास्त्रैस्समं वत्सरम्॥६१॥

 

पूरे जाड़े, जिनके तिङन्त पढ़ाते हुए शोभित होते हैं, जिनकी गर्मियां आनन्दपूर्वक सुबन्त पढ़ाते हुए व्यतीत होती हैं, पूरा वर्षाकाल तद्धित से युक्त रहता है, वसन्त-ऋतु भाष्य पढ़ाते हुए बीतती है, और पूरे साल छात्रों का समूह, जिनसे प्रौढ़मनोरमा पढ़ता है, वे विद्वानों के आभूषण श्रीबाबागुरुजी, सम्पूर्ण वर्ष को इसी तरह (शास्त्रों द्वारा) बिताते हैं।

 

सिद्धान्तश्च मनोरमाऽथ भवताद्भाष्यं च पातञ्जलम्

यद्वा भूषणसार एव विबुधाः! स्याद्वापि मुक्तावली

मञ्जूषा बत तर्कसङ्ग्रह उत व्यासस्य वाऽष्टादशी

सूत्रं ब्रह्मगतं समं हि गुरुणा मोदेन सम्पाठ्यते॥६२॥

 

अरे विद्वानों! चाहे सिद्धान्तकौमुदी हो, चाहे प्रौढ़मनोरमा हो, चाहे पतञ्जलि-विरचित महाभाष्य हो,  चाहे वैयाकरणभूषणसार हो, चाहे मुक्तावली हो, चाहे मञ्जूषा नामक ग्रंथ हो, या फिर तर्कसङ्ग्रह हो, या फिर वेदव्यास मुनि द्वारा विरचित अष्टादश पुराण हों, या फिर ब्रह्मसूत्र हो, सब कुछ बड़े ही आनन्द से (और विद्वत्ता से), श्रीगुरुजी पढ़ाते हैं।

 

पुण्यधामनि यो विप्रो न च बाबामुखात्पठेत्।

अवश्यं स्वर्णपुष्पाणि त्यजतीह स दुर्मतिः॥६३॥

 

इस पुण्य-धाम नरवर में रहकर जो ब्राह्मण, श्रीबाबागुरुजी के मुख से नहीं पढ़ता, वह दुर्बुद्धि, निश्चित रूप से अनायासलभ्य स्वर्ण-पुष्पों को छोड़ता है (अर्थात् प्राप्त नहीं कर पाता)।

 

बाबागुरुसमश्शास्त्रेष्वव्याहतगतिर्बुधः।

काश्यां नैव च कुत्रापि सम्पूर्णे न च भारते॥६४॥

 

श्रीबाबागुरुजी के समान सभी शास्त्रों में अव्याहत-गति वाला विद्वान्, न तो बनारस में ही है, और न ही पूरे भारत में कहीं और कोई विद्वान् है।

 

पदं न्यायं तथा साङ्ख्यं वेदान्तं च चतुश्श्रुतिम्।

सम्यग्भागवतं चैव पाठयेच्छ्रीगुरुस्त्विह॥६५॥

 

व्याकरण, न्याय, साङ्ख्य, वेदान्त, चारों वेद और भागवत, सब कुछ अच्छी तरह से श्रीगुरुजी यहां पढ़ाते हैं।

 

विलोक्यैषां तु सारल्यं जीवनं च तपोयुतम्।

विश्वसन्ति न नव्यास्तु जनाः येऽप्यागता इह॥६६॥

 

इनकी सरलता और तपस्वी जीवन देखकर जो नए लोग यहां आते हैं, वे यह विश्वास नहीं कर पाते, कि ये इतने महान् विद्वत्तायुक्त गुरुजी हैं।

 

अहो पश्यन्तु पश्यन्तु गुप्तं चेमं महामणिम्।

के ते छात्रा मुधा यान्ति काशीं, त्यक्त्वा शुभस्थलम्[47]॥६७॥

 

अरे छात्रों! इन गुप्त महान् मणि की तरह मूल्यवान् बाबाजी को देखो! वे कौन छात्र हैं, जो व्यर्थ  ही इन गुरुजी को और इस शुभ-स्थल नरवर को त्याग कर, काशी आदि नगरों में जाते हैं।

 

सदा रुद्रजपे लग्नो दुर्गापाठे सदा रतः।

गङ्गाभक्तश्च शास्त्राणां वारिधिस्स महागुरुः॥६८॥

 

वे महागुरुजी, रुद्री और दुर्गासप्तशती का सदा पाठ करते हैं, गङ्गाजी के परम भक्त हैं, और सभी शास्त्रों के समुद्र हैं।

 

के न यान्ति मदं लोभं प्राप्य विद्यां धनं तथा।

एक एव मया दृष्टो धन्यो बाबागुरुर्महान्॥६९॥

 

ऐसा कौन है, जो धन और विद्या प्राप्त करके मतवाला और लोभी नहीं हो जाता? तो इसका उत्तर एक ही है, ऐसे जो मैंने देखें हैं, वे धन्यपुरुष श्रीबाबागुरूजी ही हैं।

 

धर्मस्य यन्महत्तत्त्वं जीवने तद्विलोक्यते।

सङ्गीतं जीव्यवायूनां गुञ्जत्यत्र पदे पदे॥७०॥

 

धर्म का जो महान् तत्त्व है, वह इनके जीवन में देखा जाता है और जीवन्तता-रूपी हवाओं का सङ्गीत यहां पग-पग पर गूंज रहा है।

 

अहो धर्मोऽप्यहो शास्त्रं दुष्करं दुर्गमं च यत्।

तेजस्विवाक्यशैलीभिस्सारल्येन प्रबोध्यते॥७१॥

 

ओहो, बड़ा आश्चर्य है, जो शास्त्र और जो धर्म बड़ा ही दुर्गम और दुष्कर है, उसका भी ये गुरूजी अपनी तेजस्वी-वाक्य-शैली द्वारा, सरलता से ज्ञान करा देते हैं।

 

यान्तु यत्रापि तत्रापि कुत्रापि मूढमानसाः।

धर्मत्त्वं चैव शास्त्रत्त्वं तीर्थेऽस्मिन्नेव[48] लभ्यते[49]॥७२॥

 

अरे मूढ़ों! जहां-तहां, कहीं भी जाओ, लेकिन धर्मत्त्व और शास्त्रत्त्व तो (एक विशिष्ट-अनुभूति कराने वाला) नरवर में ही प्राप्त होता है।

 

धर्मं नैव च वेत्त्येव चरत्यपि द्विजाग्रगः।

विचारयति च ब्रह्म शिवं तस्माच्छिवेचरः॥७३॥

 

ये केवल धर्म को जानते ही नहीं हैं, अपितु आचरण में भी लाते हैं, और ब्रह्म-स्वरूप शिव को विचारते हैं, इसलिए ये शिवचारी हैं।

 

दृष्ट्वा यथा दिनकरं कमलानि भान्ति

चन्द्रं विलोक्य कुमुदाश्च मुदा विभान्ति

एवं द्विजाः परिनिशम्य गुरोश्च शास्त्रं,

दृष्ट्वाऽथ शास्त्रवपुषं परिमोदमग्नाः॥७४॥

 

जिस तरह से सूर्य को देखकर कमल खिल जाते हैं, चन्द्रमा को देखकर कुमुद आनन्दपूर्वक विकसित होते हैं, उसी तरह से ब्राह्मण,शिष्य लोग, इन गुरूजी का शास्त्र सुनकर और इनके (शास्त्र-समृद्ध) स्वरूप को देखकर आनन्द-मग्न हो जाते हैं।

 

यद्वा भयङ्करवने पशुपक्षिपूर्णे

नानावितानतरुशष्पभिषग्युते[50]

हस्त्यादयोऽपि विचरन्ति बलाधिराजास्-

सिंहस्तथापि भवति स्वयमेव सम्राट्॥७५॥

 

जैसे अनेक लता, वृक्ष, घास, औषधि आदि से भरे हुए, पशु-पक्षी से पूर्ण, भयङ्कर-वन में हाथी इत्यादि बलवान् पशु विचरण करते हैं, किन्तु शेर फिर भी स्वतः सिद्ध सम्राट् होता है।

 

एवं हि शास्त्रविपिनेऽपि महाबलास्ते

चान्योक्तिखण्डनरता विबुधाश्चरन्ति

दृष्ट्वाऽथ किन्तु वपुषं ह्यपि शास्त्रगर्ज्जं[51]

बाबागुरोस्तु सकलाः मलिनीभवन्ति॥७६॥

 

ऐसे ही शास्त्रों के जङ्गल में विद्यारूपी बल को धारण करने वाले महाबली विद्वान् लोग विचरण करते हैं, जो दूसरों की उक्तियों का खण्डन करने में ही लगे रहते हैं, किन्तु श्रीबाबागुरुजी द्वारा शास्त्रों की गर्जना सुनकर और इनका (शास्त्रीय) व्यक्तित्त्व देखकर सभी (द्वेषी) विद्वान् मलिन हो जाते हैं।

 

यन्नीरसं ह्यपि जनैर्बहुभिस्समुक्तं

शाब्दं च तस्य परिकल्पनमर्थचर्चाः

तच्छ्रीबुधाग्रपरिपूजितपाद एष

बाबागुरुर्हि सकलं सरसीकरोति॥७७॥

 

जो व्याकरण-शास्त्र बहुत से लोगों द्वारा नीरस कहा गया है, उसकी परिकल्पना और अर्थ की चर्चा,  ये (विद्वद्वरों से पूजित चरणों वाले) बाबागुरुजी बहुत ही सरस ढंग से करते हैं।

 

सूर्यं विलोक्य सहसा जगतां तमांसि

पापं विलोक्य परियान्ति नृणां तपांसि

तद्वद्विलोक्य वपुरस्य शिवार्चकस्य

नश्यन्त्यधर्मजडताश्च नृणां मलाश्च[52]॥७८॥

 

सूर्य को देख कर संसार के अन्धेरे नष्ट हो जाते हैं, पाप-कर्म को देख कर (अर्थात् पाप करने से) मनुष्यों की तपस्या नष्ट हो जाती है।

इसी तरह से इन शिवार्चक गुरुजी का व्यक्तित्व और धर्मचर्या देखकर, लोगों की अधर्म रूपी जड़ता और मस्तिष्क के मलों (कचरे) का नाश हो जाता है।

 

बाबागुरोश्श्रुतिपरा विमला हि वाणी

मात्सर्यदोषरहिता समभावयुक्ता

तेजस्विशास्त्रवचनैर्हृदयस्य हर्षं

संवर्धयेदपि नृणां पथबोधकर्त्री॥७९॥

 

वेदसम्मत, विमल, मात्सर्य-दोष से रहित, समानता का भाव रखने वाली, श्रीबाबागुरुजी की सरस्वती, तेजस्वी शास्त्रवचनों से, मनुष्यों के हृदय का हर्ष बढ़ाती है और उन्हें सत्पथ का बोध कराती है।

 

गङ्गामुपास्य सकलेषु बुधेषु मान्यश्-

शम्भुञ्च बिल्वतुलसीकरवीरपुष्पैर्-

नित्यानि शास्त्रकथितानि शुभानि यानि

बाबागुरुर्न हि कदापि च सञ्जहाति॥८०॥

 

बेलपत्र, तुलसी और कनेर के फूलों से भगवान् शिव की पूजा करके और गङ्गा की उपासना करके, सारे विद्वानों में जो सम्माननीय हैं, ऐसे श्रीबाबागुरुजी कभी भी, शास्त्रों में कहे हुए, शुभकार्यों एवं नित्य-कर्मों को छोड़ते नहीं है।

 

सूर्यो भरेन्न च भरेज्जगति प्रभातं

अस्तङ्गमी भवतु वा कमलप्रियार्को

बाबागुरोस्तु सकलं श्रुतिशास्त्रगम्यं

गङ्गारतिं न हि जहाति शिवैकचित्तम्॥८१॥

 

चाहे सूरज इस संसार में प्रभात (प्रकाश को) न भरे, चाहे कमलों को प्रेम करने वाला वह अर्क (सूर्य) अस्त हो या ना हो, किन्तु वेद और शास्त्र का आचरण करने वाला, शिवमात्र से शोभित श्रीबाबागुरुजी का चित्त, कभी भी गङ्गाजी में भक्ति को नहीं छोड़ सकता।

 

यस्तु स्वकीयधनवारिसुवर्षणैश्च

निर्वित्तविप्रभरणैश्श्रुतिबोधदानैः

आर्द्रीकरोति पुरुषोऽर्थविहीनविप्रान्

कं शारदार्चनरतं न सुखीकरोति॥८२॥

 

जो अपने (सर्वकारीय-अध्यापन-प्राप्त) धन की बारिश से, गरीब ब्राह्मणों के भरण-पोषण से, वेद-ज्ञान का दान करने से, शास्त्रीय-अर्थ-विहीन-ब्राह्मणों को आर्द्र करते हैं (भिगोते हैं), इस प्रकार, वे किस सरस्वती की आराधना में लगे रहने वाले मनुष्य को सुखी नहीं करते?

 

काव्येषु यस्य सकलेषु तथार्थवत्सु

तथ्यप्रभैकमिहिरा शुभलोकदा च

बुद्धिः पुराणशरणैककथासु नूनं

धावत्यहो स मनुजैर्वद किं न पूज्यः॥८३॥

 

जिनकी, सभी अर्थवान् काव्यों में और पुराण ही हैं शरण जिसमें, ऐसी कथाओं में, नए तथ्य रूपी प्रभाओं के सूर्य के जैसी और शुभ-लोक को देने वाली बुद्धि दौड़ती है, बताओ वे किन मनुष्यों द्वारा पूज्य नहीं हैं? अर्थात् सभी के द्वारा पूज्य हैं।

 

मुद्रारहस्यकथने शकुनादिशास्त्रे

स्वप्नस्य दुष्फलशुभादिफलार्थकल्पे

योगे नये प्रतिपदं नवतथ्यवक्त्री

बाबागुरोर्विजयते द्रुतगामिबुद्धिः॥८४॥

 

मुद्राओं का रहस्य कहने में, शकुन आदि विचार करने में, स्वप्न का शुभाशुभ विवेचन करने में, योग और नीति-शास्त्र में भी, प्रत्येक पद परनए तथ्य को कहने वाली, श्रीबाबागुरुजी की द्रुतगामी बुद्धि ही विजयी होती है।

 

चेष्टां विलोक्य च गतीर्मुखनेत्रभावान्

नानानुमानकरणाद् गतनिश्चयार्थः

नुर्नैव केवलमहो प्रकृतेर्गुणाँश्च

जानाति तादृशमतित्त्वसरो[53] गुरुर्मे॥८५॥

 

वे हमारे गुरुजी, व्यक्ति के मुख-नेत्रादि के भाव, उसकी चाल-ढ़ाल, चेष्टा आदि को देखकर अनेक अनुमान-आदि के द्वारा निश्चित-अर्थ को प्राप्त करते हैं (मतलब उसके बारे में काफी जान जाते हैं।) और सिर्फ मनुष्य नहीं, अपितु इस प्रकृति के गुणों को देखकर भी वे प्रकृतिविषयक तथ्यों[54] को उजागर करते हैं – ऐसी बुद्धिमत्ता को धारण करने वाले हमारे गुरुजी हैं।

 

श्राद्धादिधर्म्यविधिषूत महाविचारी यज्ञादिदेवविधिषूद्धृतलभ्यतत्त्वः

आचारपालनविधौ भुवि चैकवीरो

बाबागुरुर्जगति नम्यपदं गतोऽहो॥८६॥

 

श्राद्ध आदि धार्मिक विधियों में महान् विचारशील, यज्ञादि देव-विधियों में प्राप्त करने योग्य तत्त्व को प्राप्त करने वाले, आचार-पालन की विधि में धरती के प्रमुख वीर, वे श्रीबाबागुरुजी पूज्य-पद को प्राप्त हुए हैं।

 

सोऽसौ गुरुर्नरवरे धृतिमद्भिरर्च्यो

विप्रैश्च शाब्दिकगणैश्श्रुतिमद्भिरर्च्यो

वेदान्तिभिश्च सकलैर्धनवद्भिरर्च्यो

मा पृच्छ शास्त्रपथिकस्स न कैस्समर्च्यः॥८७॥

 

और ये गुरुजी, नरवर में धृतिमान् लोगों द्वारा अर्चनीय हैं। ब्राह्मणों, शाब्दिकों और श्रुतिमान् लोगों द्वारा पूजनीय हैं। वेदान्तियों और धनवानों के द्वारा भी समर्चनीय हैं।

अरे, वे शास्त्रों के पथिक, किसके द्वारा पूज्य नहीं हैं? अर्थात् सभी के द्वारा पूजनीय हैं।

 

यो नारिकेल इव सञ्चरतीह सम्यक्

छात्रेभ्य आशुफलदश्श्रुतिशास्त्रदानैः

कालं निरीक्ष्य परिसंवृतसंस्थितीश्च

तत्तद्विधेयवचसां कुरुते प्रवाहम्॥८८॥

 

जो नारियल के समान स्वभाव का आचरण करने के द्वारा, श्रुति-शास्त्र प्रदान करने से, छात्रों के लिए तुरन्त फलदायक हैं, ये श्रीबाबागुरुजी समय को देखकर (चारों तरफ की स्थितियों को देख कर) उन-उन विधेय वचनों का प्रवाह करते हैं। (अर्थात् यथाकाल तथावाणी गुण वाले हैं)

 

आयान्ति नाम विदुषोऽस्य निशम्य दूराद्

द्रष्टुं जना नरवरं भृतविस्मयास्ते

बाबागुरुः क इति तेऽपि विलोक्य चैनं

सारल्ययुक्तवपुषं नहि विश्वसन्ति[55] ॥८९॥

 

इन विद्वान् गुरुजी का नाम सुनकर आश्चर्य से भरे हुए लोग, दूर-दूर से नरवर आते हैं और 'बाबा गुरु जी कौन हैं ' ऐसा पूछते हैं, लेकिन इनके सरलतायुक्त (आडम्बरहीन, दिखावे से दूर) व्यक्तित्त्व को देखकर उन्हें सहसा यकीन नहीं होता कि ये ही गुरुजी हैं।

 

यस्यावलोकनविधौ हि समस्तशास्त्र-

व्याख्या विबुद्धमनुजैः परिलक्ष्यतेऽपि

तस्य स्मितस्य कविराट् शतधा विवेकं

कर्तुं समर्थ इति मे गुरुरस्ति दिव्यः॥९०॥

 

जिनके अवलोकन की विधि में प्रबुद्ध लोगों को सभी शास्त्रों की व्याख्याएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी स्मित (मुस्कान) का कविराज, सैकड़ों प्रकार से विवेचन करने में समर्थ है, इस प्रकार के वे हमारे गुरुजी दिव्य पुरुष हैं।

 

यश्चैव शास्त्रनिधिको[56] मुखभावविज्ञो[57]

नानाविधानकलनाकरणे[58] समर्थो

विद्युत्समा मतिरहो क्षणदीप्तभासा[59]

बाबागुरोस्सुवचसां कुरुते शताख्याः॥९१॥

 

और जो शास्त्रों का निधि, मुखादि के भावों को जानने वाला, अनेक प्रकारक-विधानों के लक्ष्यकरण को आकारित करने में समर्थ है (विधि-विधान के लक्ष्यों को आकार देने वाला, सफल करने वाला), जिसकी बुद्धि बिजली के समान, एक क्षण-मात्र में ही बहुत तीव्र-प्रकाश करती है, इस तरह का व्यक्ति, श्री बाबागुरुजी के वाक्यों का सैकड़ों प्रकार से व्याख्यान करता है।

 

शास्त्राणां सुधयाऽभिसिञ्चति यतो निर्वित्तविप्रानसौ

मन्ये दुर्लभ एष वै भुवि तथा स्वर्गेऽपि न प्राप्यते

सर्वस्स्वार्थसमुत्सुको भवति वा लोकेऽथ नाकेऽपरे

नैष्काम्येन समं ददाति पुरुषो धन्योऽस्ति बाबागुरुः॥९२॥

 

क्योंकि ये शास्त्रों के अमृत से निर्धन ब्राह्मणों को सींचते हैं, इसलिए धरती की बात तो छोड़ो, स्वर्ग में भी ऐसे लोग प्राप्त नहीं होते, क्योंकि इस संसार में या स्वर्ग में भी, मनुष्य, देवता इत्यादि सब स्वार्थ-समुत्सुक ही हैं, जो निष्काम-भाव से सब कुछ, (विद्या आदि) दान कर दे, ऐसे धन्य पुरुष तो श्रीबाबाजी ही हैं।

 

सकलं जीवनं यस्य गोब्राह्मणहिताय च।

विद्यायै च तपस्यायै तस्मै  श्रीगुरवे नमः॥९३॥

 

जिनका सारा जीवन, गाय और ब्राह्मणों के हित के लिए है, विद्या के लिए समर्पित और तपस्या करने के लिए है, उन गुरुजी के लिए प्रणाम है।

 

परोपकारैर्लभ्यन्ते पुण्यानि च सुखानि च।

इत्येतज्जीवने यस्य तस्मै श्रीगुरवे नमः॥९४॥

 

परोपकार से ही पुण्य और पुण्य से सुख प्राप्त होता है, इस तथ्य को जीवन में धारण करने वाले श्री गुरुजी के लिए नमस्कार है।

 

महत्तां नैव जानाति निन्दतीव पुनः पुनः।

मन्ये पुण्यविघातत्त्वान्निर्ऋतिं याति दुर्मनाः॥९५॥

 

जो कोई दुष्ट व्यक्ति, इन गुरुजी के महत्त्व को न जानकर, बार-बार निन्दा ही करता रहता है, वह पुण्य हानि के कारण नरक को प्राप्त करता है, ऐसा मेरा मानना है।

 

श्रीगुरुः पुष्पवृक्षोऽस्ति सुगन्धिस्सकले वने।

छात्राः जिघ्रन्ति मोदन्ते शास्त्राणां हर्षणं महत्॥९६॥

 

श्रीगुरुजी, फूलों से युक्त एक वृक्ष के समान हैं, जिनसे सारे (नरवर-रूपी) वन में सुगन्धि फैल रही है, और छात्र उस सुगन्धि को सूँघकर उससे आनन्दित हो रहे हैं, वाकई शास्त्रों का हर्ष महान् है।

 

यो वै छात्रः पठेन्नित्यं शास्त्राण्यस्मान्महागुरोः।

भक्त्या वैदुष्यमापन्नश्चाल्पकालेन जायते॥९७॥

 

जो कोई भी छात्र प्रतिदिन, इन महागुरु से शास्त्रों को भक्तिपूर्वक पढ़ता है, वह थोड़े ही समय में निश्चित रूप से विद्वत्ता को प्राप्त कर लेता है।

 

छलैर्मात्सर्यकौटिल्यैर्दुष्टभावैर्वसेच्च चेद्।

आत्मनाशं करोत्येष विद्यां पुण्यं न वाऽऽप्नुते॥९८॥

 

कपट, मत्सरभाव, कुटिलता  और दुष्टभाव से जो बाबागुरुजी के पास रहता है, वह अपना ही नाश करता है, वह न तो विद्या प्राप्त कर पाता है, और न ही कुछ पुण्य प्राप्त कर पाता।

 

कथ्यते बहुधाऽनेन वृद्धा नस्तु सरस्वती।

किन्तु विद्वत्सभाराजा चैतादृङ्नैव कुत्रचित्॥९९॥

 

गुरुजी प्रायः कहते रहते हैं कि हमारी सरस्वती तो वृद्धा (बूढ़ी) है, किन्तु (वह तो उनकी विद्या-विनम्रता को दर्शाता है।) गुरुजी के समान विद्वानों की सभा का राजा, कहीं भी नहीं है।

 

यश्श्यामसुन्दरश्शर्मा श्यामबाबात्त्वमागतः।

बाबागुरुस्ततः ख्यातो ब्रह्मचारी शिवार्चकः॥१००॥

 

वे पहले श्यामसुन्दर शर्मा थे और बाद में श्याम बाबा के नाम से विख्यात हुए, और उसके बाद श्री बाबा गुरुजी के नाम से जाने गए,  ऐसे शिवभक्त वे ब्रह्मचारी हैं।

 

नक्षत्रग्रहमण्डलान्वितसुखे[60] चन्द्रो मुदा राजते[61]

कासारेऽपि च मीनकच्छपयुते पद्मो यथा शोभते

कैलासे च सुरासुरार्चितमहाशम्भुर्यथा भ्राजते

तद्वत्सोऽपि विराजते नरवरे विद्वत्सु बाबागुरुः॥१०१॥

 

जैसे नक्षत्र-ग्रहादि के मण्डल से युक्त रात्रिकालीन आकाश में चन्द्रमा शोभित होता है, जैसे मछली, कछुआ आदि से युक्त तालाब में कमल का फूल शोभायमान होता है, जैसे देवता और राक्षस आदि से पूजित महाशम्भु कैलास-पर्वत पर शोभित होते हैं, वैसे ही नरवर में सभी विद्वानों के मध्य श्रीबाबागुरुजी भी शोभा को प्राप्त करते हैं।

 

शास्त्रार्थविस्मयकरं सकलार्थविज्ञं

बाबागुरुं बुधमणिं धृतसर्वशास्त्रम्

लोकेऽप्यलौकिकगतिं शिवलोकसक्तं

श्रीमत्स्वरूपनुतहर्षभरं[62] नमामि॥१०२॥

 

शास्त्र का अर्थ ज्ञापन करने से जो लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं, सभी प्रकार के श्रुति सम्बन्धी सभी अर्थों को विशिष्टतया जानने वाले हैं, जिन्होंने सभी शास्त्रों को धारण कर लिया है, जो इस संसार में रहते हुए भी अलौकिक गति वाले है, जो शिवलोक में ही आसक्त हैं, और श्रीमत्स्वरूप मनुष्यों द्वारा भी जो प्रणम्य हैं, इस प्रकार के हर्षित स्वरूप वाले बाबागुरुजी को मैं नमस्कार करता हूं।

 

यच्च स्थापितमस्ति वाऽथ हनुमद्धामाऽतिरम्याश्रम:

अश्वत्थस्थविशालदेवभवनं यस्यास्य आस्थायते

वेदेभ्योऽर्पितजीवनास्सुबटुका धर्माश्रयाश्शाब्दिकाः

जीव्योज्जीवनपद्धतिं हि भवतां जानन्ति निर्देशनै:॥१०३॥

 

हे गुरो! आपने जो हनुमद्-धाम नामक अति रमणीय आश्रम स्थापित किया है, उस आश्रम के मुख (मुख्य द्वार) पर स्थित जो विशाल देव-मन्दिर (हनुमान्-मन्दिर) है, वह आस्था की तरह आचरण कर रहा है, अर्थात् सबको श्रद्धा के लिए प्रेरित कर रहा है। यहाँ आपके आश्रम में वेद-शास्त्रों के लिए अर्पित जीवन वाले, धर्म ही है आश्रय जिनका ऐसे अच्छे ब्राह्मण, वैयाकरण, जीवन को उत्कृष्टतया जीने की विधि आपके निर्देशनों से जानते हैं।

 

यन्मङ्गलं नरवरे च विलोक्यतेऽद्य

यच्छास्त्रचर्यमपि विप्रगणैश्च चर्यम्

यत्सौरभं सुमनसामनुभूयते वा

बाबागुरोस्सकलमेव हि तत्प्रभावात्॥१०४॥

 

आज जो कुछ भी नरवर में मङ्गल देखा जा रहा है, और ब्राह्मणों के द्वारा आचरणीय जो शास्त्रचर्या है एवं यहाँ के पुष्पों में (शोभन मन वाले लोगों में) जो सुगन्ध अनुभूत होती है, वह सब श्रीबाबागुरुजी के प्रभाव से है।

 

न च शतैर्विततैरपि संस्तवैश्-

शिवचरित्रमहो गदितुं क्षमश्-

श्रुतिपुराणरसालयसद्गुरोस्-

सुविरमामि रमेऽथ सुखालये॥१०५॥

 

मैं विस्तृत स्तुत्यात्मक सौ श्लोकों के द्वारा भी, उन कल्याणरूपी चरित्र (श्रीबाबागुरुजी) का वर्णन करने में सक्षम नहीं हूंक्योंकि वे सद्गुरु तो, वेद-पुराण-रूपी रसों के आलय-स्वरूप (प्रतिष्ठान) हैं। इसलिए मैं भी (अपने मन-रूपी अथवा बाबाचरित्ररूपी) सुखालय में रमण करता हूं और इस शतक को विराम देता हूं।

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॥ श्रीहरिश्शरणम्॥

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 यज्ञसम्राट्शतकम् 

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गङ्गातीरो मद्गृहंनान्यदस्ति

गङ्गाशब्दो जीवनं नान्यदस्ति

गङ्गामाता मेन चान्या जगत्यां

गङ्गापुत्रश्श्रीगुरुर्मे वरेण्य:॥१॥

 

गङ्गा का किनारा ही मेरा घर है, दूसरा कहीं नहीं। गङ्गाशब्द ही मेरा जीवन है, दूसरा कोई शब्द नहीं। गङ्गा ही मेरी माता है दूसरी नहीं। ऐसे मेरे गङ्गापुत्र[63] गुरुदेव वरणीय हैं।

 

यज्ञे विप्राः क्व क्व सन्तीति पश्यन्

आहुत्या ये देवतास्तोषयन्ति

वेदै ऋग्भिर्याजुषैस्स्वारबद्धैर्

जोजुह्वन्तः प्रीणयन्त: पितॄँश्च॥२॥

 

जो यज्ञ में ऋग्वेद और यजुर्वेद के स्वरबद्ध मन्त्रों की आहुतियों से देवताओं को संतुष्ट करते हैं और तर्पण करते हुए पितरों को सन्तुष्ट करते हैं, वे ब्राह्मण यज्ञस्थल में कहां-कहां हैं- इस प्रकार उनका निरीक्षण करते हुए श्रीप्रबलजीमहाराज शोभित होते हैं।

 

श्राद्धे पक्षे पक्षिभिर्वायसैर्यद्

भोज्यं कव्यं क्षीरमन्नादिजातं

तच्छास्त्रीयैस्सद्विधानैस्सुविप्रा:

निर्देशैश्श्रीप्राबलै: पालयन्ति॥३॥

 

श्राद्ध पक्ष में कौए व अन्य पक्षियों द्वारा जो खीर, पूड़ी आदि भोजन तथा कव्य (कच्चे आटे का पिण्ड) दिया जाता है, वह शास्त्रीय विधान के द्वारा ही सभी ब्राह्मण प्रबलजी महाराज के आदेश से उनके आश्रम में पालन करते हैं।

 

गोग्रासायाद्यं सुपक्वस्य दत्वा

श्वभ्यश्चान्त्यं दीयतामन्नखण्डं

विप्रान्क्षिप्रं दक्षिणाशामुखांश्च

तूष्णीम्भूतान्भोजयेच्छ्राद्धहूतान्॥४॥

 

भोजन बनाकर सबसे पहले शुरुआती पूड़ी या रोटी गोग्रास के लिए निकालनी चाहिए और सबसे आखिरी रोटी कुत्ते को देनी चाहिए। श्राद्ध में बुलाए हुए ब्राह्मणों को मौन होकर दक्षिण की दिशा में बैठाकर भोजन करना चाहिए। ये सब श्राद्ध के नियम प्रबल जी अपने शिष्य ब्राह्मणों को बताते हैं।

 

लोहे नैवंपित्तले वाथ कांस्ये

शक्तिश्चेद्वा राजते हेमपात्रे

श्राद्धं भोज्यं प्राबलैर्भूसुरेभ्य:

वित्ताशक्तौ मृत्तिकापात्रमध्ये[64]॥५॥

 

श्राद्ध के समय पीतल या कांस्य के पात्र में ही भोजन कराना चाहिए, और अगर शक्ति हो तो चांदी या सोने के पात्र में भी ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए। और अगर शक्ति ना हो तो मिट्टी के पात्रों में भी श्राद्ध का भोजन करवाना चाहिए, लेकिन लोहे के पात्र में कभी नहीं।

 

स्मृत्यादीनां धर्मशास्त्रस्य दिष्ट्या

साध्यं सर्वं पैतृकं श्राद्धकार्यं

इत्यादेशैर्योजयेच्छ्रौतमार्ग

सन्मार्गं श्रीप्राबलं तं नमाम:॥६॥

 

स्मृति आदि धर्मशास्त्रों के आदेश से पूरा पैतृक-श्राद्धकार्य सम्पन्न करना चाहिए, इस प्रकार आदेशों से लोगों को श्रौतमार्ग में, सन्मार्ग में श्रीप्रबलजी भेजते थे, उनको हम नमस्कार करते हैं।

 

कर्पूराद्यैश्चैव नीराजनं स्यात्

नीलाब्जैश्श्रीनीलकण्ठार्चनं च

मन्त्रैस्सोऽर्च्यष्षोडशैश्चोपचारै

रित्यादेशं प्राबलं पालयामः॥७॥

 

कपूर आदि से देवताओं की आरती होनी चाहिए। नीलकमल के द्वारा नीलकण्ठ की पूजा होनी चाहिए। भगवान् शिव की और अन्य देवताओं की भी सोलह उपचारों से मन्त्र सहित पूजा करनी चाहिए। ऐसे प्रबल जी महाराज के आदेश का हम पालन करते हैं।

 

काश्यां योऽसौ विश्वनाथो वरेण्य:

सोऽसौ पूज्यो द्वादशस्थानलिङ्गे

गङ्गातीरे न्नरौराख्यदेश

श्रद्धाबद्धैरुच्यते वृद्धिकेशी[65]॥८॥

 

काशी में जो वरेण्य विश्वनाथ भगवान् हैं, और जो शिव बारह स्थानों पर बारह ज्योतिर्लिङ्गों  के रूप में पूजे जाते हैं, वही गङ्गा के किनारे नरवरस्थल पर श्रद्धा से बन्धे हुए मन वाले लोगों के द्वारा वृद्धिकेशी कहे जाते हैं।

 

यद् वै श्रौतीं सत्प्रभां सन्तनोति

यद् यज्ञानां कीर्तिमत् स्थापकञ्च

यद् विज्ञानाम्पोषकं पालकञ्च

तन्निर्दिष्टं प्राबलं पालयाम:॥९॥

 

जो श्रौत की प्रभा फैलाता है, जो यज्ञों के कीर्तिमान को स्थापित करता है, जो विद्वानों का पालन पोषण करता है, उस प्रबल जी महाराज के निर्देश को हम पालन करते हैं।

 

सङ्कल्पानां मूर्तरूपस्स्वभूप

आत्मज्ञानामग्रगामी जनानां

सन्देष्टा यश्शैवलोकस्य सोऽसौ

तं भक्त्या श्रीसद्गुरुं भावयाम:॥१०॥

 

ङ्कल्पों के मूर्त रूप, अपनी आत्मा के स्वामी, आत्मज्ञ पुरुषों में अग्रगामी, शैवलोक के संदेशवाहक जो हैं, भक्तिपूर्वक ऐसे सद्गुरु की हम अपने मन में भावना करते हैं।

 

हास्ये यस्य श्रीर्वसेदानने च

वाक्कण्ठस्था श्रीहरिर्जीवने च

शक्तिश्चित्ते कर्मयोगे च कृष्णश्

शम्भ्वात्मानं सद्गुरुं भावयाम: ॥११॥

 

जिनके हास्य में श्री बसती है। मुख में सरस्वती। जीवन में श्रीहरि। चित्त में शक्ति। कर्मयोग में कृष्ण। ऐसे शम्भु की आत्मा वाले सद्गुरु की हम भावना करते हैं।

 

यस्य श्रुत्वा चेतनापूर्णवाचं

यस्याश्रित्य प्रेमपन्थानमाशु

यस्यामत्य त्रीञ्जयेदात्मशत्रून्

तं दिव्यार्थं प्राबलं भावयाम: ॥१२॥

 

जिनकी चैतन्य वाणी को सुनकर, जिनके प्रेम के मार्ग को अपनाकर, जिनकी शास्त्रसम्मत बात को मानकर, आत्मा के तीनों शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ) को जीता जा सकता है। ऐसे प्रबल दिव्यार्थ की हम भावना करते हैं।

 

उत्कण्ठाभिर्यज्ञमायातलोको

यस्योद्बोधैर्बुध्यते स्मात्मरूपं

सञ्जायेत प्राणशक्तिर्मृतेऽपि

तं वाग्घर्षं प्राबलं प्रार्चयाम:॥१३॥

 

उत्कण्ठापूर्वक यज्ञ में आए हुए सज्जन जिनके द्वारा दिए हुए उद्बोधन से आत्मा का रूप समझते थे। जिनकी वाणी के हर्ष को सुनकर मृत मनुष्य में भी प्राण शक्ति जागृत हो जाती थी। ऐसे प्रबल जी महाराज के वाणी के हर्ष को हम प्रणाम करते हैं।

 

जीवे कार्या रे दया सर्वदैव

चित्ते धार्या मित्रता सज्जनेन

देवार्चायां वित्तशाठ्यं न कुर्याद्

इत्यादेशं प्राबलं पालयाम: ॥१४॥

 

जीवो पर सदा ही दया करनी चाहिए। सज्जन के साथ हमेशा मित्रता रखनी चाहिए। देवताओं की पूजा में कभी भी धन का लोभ नहीं करना चाहिए। ऐसा श्रीप्रबलजी का आदेश हम पालन करते हैं।

 

माता भूमिश्चाहमस्यास्सुतोऽस्मि

अस्या जातस्स्नेहमस्यां दधामि

अन्नं पानं चापि भूम्या: लभेऽहं

तं भूपुत्रं भूसुरं भावयाम: ॥१५॥

 

यह भूमि हमारी माता है, हम इसके पुत्र हैं। इससे ही पैदा हुए हैं, इसमें ही प्रेम धारण करते हैं। अन्न-पान इत्यादि सब कुछ हम अपनी भूमि से ही लेते हैं, ऐसी भावना वाले भूमिपुत्र ब्राह्मण की हम भावना करते हैं।

 

वेदाज्ञा वै सर्वदा पालनीया

सत्कर्तव्यान्नात्मरोधं प्रकुर्याद्

राष्ट्रे यज्ञे प्राणदानं ह्यभीतो

यो वक्ति स्म स्मारणं तस्य कुर्म: ॥१६॥

 

वेदों की आज्ञा सर्वदा पालनीय है। सत्कर्तव्य से स्वयं को नहीं रोकना चाहिए। राष्ट्र के यज्ञ में निर्भीक होकर अपने प्राणों का दान कर देना चाहिए। ऐसा जो बोला करते थे, आज हम उनका स्मरण कर रहे हैं।

 

यमलरमलविद्यावेतृसम्मानभाजं

नवलकमलपूजासक्तसाम्राज्यराजं

हरिकथनसमर्चोद्दीप्तभालं विशालं

प्रबलगुरुवरं तं नौमि शैवाभलाभम् ॥१७॥

 

यमल रमल विद्या के विद्वान् लोगों ने उनका सम्मान किया था। ताजगी भरे कमल से शिव की पूजा में आसक्त रहने के कारण शिव के साम्राज्य में शोभित होते थे। हरि कथा के और पूजा के करण उनका दीप्तिमान् विशाल मस्तक था, ऐसे उन प्रबल गुरुदेव को हम नमस्कार करते हैं, जो शैव-आभा के लाभ से सम्पन्न थे।

 

अविरलसुरनद्या: वारिगाढं विबाधं

सकलजनतया यश्चोच्यते शैव! बाढं

शतशतमखपुण्यैस्स्वर्गलोके धनाढ्यं

प्रबलगुरुवरं तं नौमि भक्त्या शुभाढ्यम्॥१८॥

 

बिना रुकावट वाली जो देवताओं की नदी (गङ्गा) है, बिना बाधा के ही उसके जल में स्नान करते थे। पूरी जनता उनके इस स्वरूप को देखकर कहती थी-  हे शैवपुरुष! बहुत ही सुन्दर। सैकड़ो यज्ञों के पुण्य से स्वर्गलोक में धनाढ्य बन गए थे। ऐसे गुरुवर प्रबल जी को मैं श्रद्धापूर्वक नमन करता हूं। वह शुभतायुक्त आचरण वाले थे।

 

विविधजपतपोभि: कालमायापयन्तं

तमसि गतजनांश्चोद्भासनं प्रापयन्तं

त्यजत जगति मोहं चेति सूद्घोषयन्तं

प्रबलगुरुवरं तं नौमि यज्ञेष्टिमन्तम्॥१९॥

 

अनेक प्रकार के जप और तप से अपने समय को बिताते थे, अन्धेरे में गए हुए लोगों को प्रकाश दिखाते थे। संसार में मोह छोड़ दो - ऐसी घोषणा करते थे। ऐसे प्रबल गुरुवर को हम नमस्कार करते हैं, जो यज्ञ में इष्टि का वपन करते थे।

 

नरवरशुभभूमौ प्रेम सन्दर्शयन्तं

मनुजजनिमहत्वं शास्त्रमार्गैर्वदन्तं

द्विजगतशुभचर्यां यत्नत: पालयन्तं

प्रबलगुरुवरं तं नौमि चित्तं हरन्तम्॥२०॥

 

नरवर की शुभ भूमि में सदा ही प्रेम का प्रदर्शन करते थे। मनुष्य के जन्म का महत्त्व शास्त्र के मार्ग से बताते थे। ब्राह्मण की शुभ दिनचर्या को जो यत्नपूर्वक पालन करते थे, ऐसे प्रबल गुरुवर को हम नमस्कार करते हैं, वे हमारे चित्त का हरण करते थे।

 

यतिनतकरपात्राल्लब्धदीक्षं सुशिक्षं

अधिगतपरमार्थं शम्भुभक्त्यैकभिक्षं

मखहुतिजसुगन्धैर्हृष्टिमद्दिव्यलक्ष्यं

प्रबलगुरुवरं तं नौमि विज्ञैस्समीड्यम्॥२१॥

 

सभी संन्यासी जिन्हें नमस्कार करते थे, ऐसे करपात्री जी महाराज से जिन्होंने दीक्षा ली थी।  वे सुशिक्षित थे। परमार्थ को उन्होंने जान लिया था। शम्भु की भक्ति की एकमात्र भिक्षा मांगते थे। यज्ञ की आहुतियों से उत्पन्न होने वाली सुगन्धि से बहुत ही हर्षित होते थे। उनके जीवन का लक्ष्य बड़ा दिव्य था। विद्वानों द्वारा स्तुति किए जाते थे। ऐसे प्रबल गुरुवर को हम नमस्कार करते हैं।

 

अतिथि-यति-गुरूणां सेवनं विप्रपूजां

श्रुतिवचनसुनिष्ठां शास्त्रवाक्येषु भक्तिं

हरिहरजगदम्बापूजनानीति कुर्याद्

वदति गुरुवरो यश्श्रद्धया तं समीडे॥२२॥

 

अतिथि, संन्यासी, गुरु - इनकी सेवा करनी चाहिए। ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। श्रुति के,  वेदों के वचनों में सम्यक्तया निष्ठा धारण करनी चाहिए। शास्त्र के वाक्यों में भक्ति, हरि-हर और जगदम्बा का पूजन करना चाहिए। ऐसा जो कहते थे। हम आज उनका श्रद्धापूर्वक वन्दन करते हैं।

 

श्रुतिगतमखकार्ये वेदविद्वान् नियोज्य:

प्रतिदिनमपि सन्ध्याशीलविप्रो नियोज्य:

अपसरत दुराशा: केवला: वित्तलुब्धा:

वदति गुरुवरो यश्श्रद्धया तं समीडे॥२३॥

 

श्रुतिगत जो यज्ञ का कार्य है, उसमें अधिकारी वेद के विद्वान् ब्राह्मण को ही नियुक्त करना चाहिए। जो प्रतिदिन सन्ध्यावन्दन करता हो, ऐसे ब्राह्मण को ही नियोजित करना चाहिए। बुरे खान-पान तथा आचरण वाले धन के लोभी व्यक्तियों को यज्ञ से दूर रखना चाहिए। ऐसा जो गुरुवर कहा करते थे, हम श्रद्धापूर्वक उनकी वन्दना करते हैं।

 

सरलसुजनविप्राश्शास्त्रनिष्ठा भवेयुर्

विगतकलुषचित्ताश्चैव शिष्टा भवेयु:

स्मृतिपदसमवेता वेदहृष्टाश्श्रयेयुर्

वदति गुरुवरो यश्श्रद्धया तं समीडे॥२४॥

 

ब्राह्मणों को सरल होना चाहिए, सज्जन होना चाहिए। शास्त्रों में निष्ठा धारण करनी चाहिए। उनके मन में पाप नहीं होना चाहिए। वे शिष्ट होने चाहिएँ। स्मृति और व्याकरण का अध्ययन किए होने चाहिएँ। वेद की ध्वनि से हर्षित होने वाले होने चाहिए। ऐसे ब्राह्मणों का ही सेवन करना चाहिए। ऐसा जो गुरुवर कहा करते थे, आज हम श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करते हैं।

 

सुदृढवपुषमेनं वीक्ष्य को न प्रहृष्टो

बटुरिव सरलास्यं हास्यवार्ताप्रियं च[66]

तृणमणिसमदृष्टिं भेदहीनाक्षिमन्तं

प्रबलगुरुवरं तं श्रद्धया भावयामि॥२५॥

 

इनके बलशाली व्यक्तित्व को देखकर कौन आनन्दित नहीं होता? बटुक ब्राह्मण की तरह सरल चेहरा देखकर, प्रसन्नचित्त एवं हास्यवार्तप्रिय स्वभाव देखकर कौन प्रसन्न नहीं होता?  तिनके और हीरे में एक समान दृष्टि रखने वाले श्रीप्रबल गुरुदेव की हम श्रद्धापूर्वक अपने मन में भावना करते हैं।

 

बहुविधवचसां यत्सारभूतं सुतथ्यं

शिवमिति च सदा तद्गीयते शास्त्रशीलैस्

तदपि निजमनस्युद्भावयज्जीवतीव

प्रबलगुरुवरं तं श्रद्धयाहं प्रणौमि॥२६॥

 

बहुत तरह के वचनों का जो सारभूत सुन्दर तथ्य है, वह शिव ही है - ऐसा शास्त्रशील पुरुष गाते हैं। और वे भी अपने मन में ऐसी उद्भावना करके जीते हैं, उन प्रबल गुरुवर को मैं श्रद्धापूर्वक  प्रणाम करता हूं।

 

श्रीविद्योल्लसितं श्रियामिव सदा धारावदुत्साहिनं

सद्विद्याप्रतिपादकैरहरहस्संसेव्यमानं द्विजं

सिद्ध्या सिद्धिपथप्रदर्शितमखं सख्युस्सुखं दौ:ख्यहं

वन्दे श्रीप्रबलाभिधं गुरुवरं सत्यप्रियं मौढ्यहम्॥२७॥

 

श्रीविद्या के द्वारा उल्लासित, श्री की धारा की तरह उत्साही। सद्विद्या का प्रतिपादन करने वालों के द्वारा रोज-रोज संसेवित। अपनी सिद्धि से सिद्धि को रास्ते को दिखाने वाला यज्ञ करवाने वाले। अपने मित्रों को सुख देने वाले और दुख का हरण करने वाले। श्री प्रबलजी गुरुवर की मैं वन्दना करता हूं। वे सत्य से प्रेम करते थे और मूढ़ता का हरण करते थे।

 

विद्वद्गोष्ठीसमीक्षणेन सततं यो मोदते विज्ञमुद्

यज्ञश्रीपरिराजितत्ववपुषा सन्दृश्यते दर्शकै:

गोशालाशिवमन्दिरश्रुतिगृहाद्युद्घाटकत्राटकं

वन्दे श्रीप्रबलाभिधं गुरुवरं संसारतस्तारकम्॥२८॥

 

विद्वानों की गोष्ठियों का समीक्षण करने से निरन्तर ही वे विद्वानों से आनन्दित होते थे। यज्ञ की शोभा से राजमान व्यक्तित्व वाले वे सदा यज्ञ-दर्शकों द्वारा देखे जाते थे। गौशाला, शिवमन्दिर, वेदगृह आदि के उद्घाटन का त्राटक (सुन्दरकर्म) भी करते थे। ऐसे श्री प्रबल गुरुवर को मैं नमस्कार करता हूं। वे हमें हरि भजन के द्वारा संसार से उतारने वाले थे।

 

शोकक्रोधमदस्मरज्वरवतां हर्येकनामौषधिर्

द्वेषेर्ष्यापरलाभदोषविकृतौ हर्येकचिन्तौषधि:

हिंसामत्सरनिन्दनादिविषयान् हर्तुं हरिं सुस्मरेत्

यो वक्ति स्म सदा विदां प्रबलराड् विष्ण्वेकसंसाधन:॥२९॥

 

शोक, क्रोध, मद, काम इत्यादि का ज्वर चढ़ा है जिनको, उनके लिए हरि नाम ही एक औषधि है। द्वेष, ईर्ष्या, दूसरे के लाभ होने पर मन में विकृति आने पर, एक हरि का ही चिन्तन एक औषधि है। हिंसा, मत्सर, निन्दा आदि विषयों को हरने के लिए हरि का स्मरण करना चाहिए। ऐसा जो हमेशा कहते रहते थे। उन विद्वानों के प्रबलराट् को हम नमस्कार करते हैं। वे विष्णु के द्वारा ही सब कार्य सिद्ध करते थे।

 

द्वैताद्वैतपथैश्च माध्वशरणैश्शैवैश्च शाक्तैस्तथा

साङ्ख्यश्रीपरिराजितैरपि बुधैर्वैशेषिकैश्चान्वहं

योगाचाररतैस्समर्चितवपुर्योऽन्यैश्च मीमांसकैर्

वन्दे श्रीप्रबलाभिधं गुरुवरं नम्यं च नैयायिकै:॥३०॥

 

द्वैत और अद्वैत के रास्ते पर चलने वाले, माध्व दर्शन की शरण करने वाले, शैव, शाक्त,  साङ्ख्य की शोभा से राजमान विद्वान्, वैशेषिक योग का आश्रय करने वाले, मीमांसक, नैयायिक - इन सभी के द्वारा प्रबलजी महाराज का व्यक्तित्व पूजनीय था। वे सब विद्वानों के प्रणम्य थे। उनको मैं प्रणाम करता हूं।

 

यं वीक्ष्यात्मसुखं हि शब्दशरणा: नागेशभट्टश्रियो

मन्येरन् क्रतुमन्त्र ऊहनपरा पातञ्जला वाग्जला:

काव्यं यत्र सुरश्रियामिव विदो गायन्ति तत्तुष्टये

वन्दे श्रीप्रबलाभिधं गुरुवरं विद्वन्नृणामाश्रयम् ॥३१॥

 

उनको देखकर नागेश भट्ट की श्री को धारण करने वाले, वैयाकरण, अपनी आत्मा का सुख मानते थे। पतञ्जलि की वाणी का जल धारण करने वाले, यज्ञ के मन्त्रों में ऊहा करने वाले, उनको देखकर खुश होते थे। देवताओं की लक्ष्मी के समान विद्वान् लोग उनकी सन्तुष्टि के लिए उनको  शास्त्रीय काव्य गाकर सुनाते थे। ऐसे श्री प्रबल जी महाराज गुरुदेव को मैं नमन करता हूं। वे विद्वानों के आश्रय थे।

 

वीक्ष्यास्यं स्मितसंयुतं द्विजवरा यस्य प्रयान्तो मुदं

श्रुत्वा मेघमिव स्वरं क्रतुगतं सद्ब्रह्मचर्योद्भवं

हृष्ट्वा तद्विमलार्थसंयुतवचश्श्रीभिर्नमन्ति प्रियं

वन्दे श्रीप्रबलाभिधं गुरुवरं गोविप्रसंरक्षकम्॥३२॥

 

उनका मुस्कुराता चेहरा देखकर श्रेष्ठ ब्राह्मण बड़े प्रसन्न होते थे। यज्ञ के समय उनके ब्रह्मचर्य से उत्पन्न बादलों के समान स्वर को सुनकर, उनके विमल अर्थ से युक्त वचन को सुनकर हर्षित होकर, शोभायमान स्वरूप के द्वारा अपने प्रिय गुरुवर को नमन करते थे। ऐसे श्री प्रबल जी महाराज गुरुदेव का मैं वन्दन करता हूं, जो गौ और ब्राह्मण के संरक्षक हैं।

 

अस्मद्यज्ञगतस्य दुःखमथ नोज्जायेत कस्याप्यरे

विप्रेभ्यो नर! कम्बलानि कुरुताच्छीतापनोदाय च

मिष्ठान्नं फलमस्तु भोजनमहो दाक्षिण्यरूपं धनं

भूदेवा:! भवतामसौ प्रबलराट्तृप्यन्तु यज्ञे मम॥३३॥

 

हमारे यज्ञ में आने वाले किसी को भी दुख नहीं होना चाहिए! अरे भाई, ब्राह्मणों के लिए कंबल बांटो! उनको ठंड न लग जाए!  मिष्ठान्न, फल, भोजन, दक्षिणारूप धन। अरे ब्राह्मणों! यह आपका प्रबल है! सब मेरे यज्ञ में तृप्त हो जाओ।

 

स्वाहाकारगतं स्वरं श्रुतिगतं शृण्वन् मुदं गच्छति

साधूच्चारणतत्पराय सततं सद्दक्षिणां यच्छति

आचार्यादिवरत्वमस्तु विबुधाः! यद्वा घटस्थापनं

सर्वं तत् प्रबलाधिराजगुरुभिस्साध्येत निर्देशनै:॥३४॥

 

स्वाहाकार में उच्चारित होने वाला शब्द सुनकर श्रुतिगत शब्द को सुनकर जो आनन्दित होते थे।

साधु उच्चारण करने वाले को जो निरन्तर  दक्षिणा देते थे। चाहे आचार्य का वरण करना हो, चाहे घटस्थापन करना हो – ये सब कुछ आचार्य लोग वहां पर वह प्रबल गुरुजी के निर्देशों से साधित करते थे।

 

दृष्ट्वा श्रीधरणीधरं श्रुतिधरं हर्षैकवाचां वरं

यद्वा श्रीलदिवाकरं क्रतुमतां नम्यं शिवाढ्यं जनं

पार्श्वस्थं च गुणप्रकाशमपि यो वाऽन्यां समर्थश्रियं[67]

गर्वं मोदयुतं व्रजेत्प्रबलराट् वावन्द्यते सोऽधुना॥३५॥

 

धरणीधर नामक श्रुतिधर, जो हर्षपूर्ण वाणी बोलने वाले लोगों में श्रेष्ठ हैं। याज्ञिकश्रेष्ठ, शिवाढ्य, श्रील दिवाकर को देखकर। पास बैठे गुणप्रकाश और समर्थ की श्री (शास्त्रशोभा) को देखकर आनन्दपूर्ण गर्व को प्राप्त करते थे, वे प्रबलराट् आज हमारे द्वारा बारम्बार वन्दित हैं।

 

चर्चां यस्य निशम्य विप्रबटुका: कूर्दन्ति क्रत्वाशया

"क्व क्व क्वोद्भविताधुना मख" इति प्रेहन्त एवं मिथ:

दुर्गा-रुद्र-गणेश-याजुषगतान्मन्त्रान् रटन्तोऽन्वहं

यास्याम: प्रबलश्रियं वयमपीत्युत्सौक्यचित्तान्विता:॥३६॥

 

जिनकी चर्चा सुनकर ब्राह्मण बटुक यज्ञ की आशा से उछलने लगते थे, "कहां होगा? कहां होगा  यज्ञ?" ऐसी आपस में ईहा करते हुए, दुर्गा, रुद्र, गणेश तथा यजुर्वेद के मन्त्रों को रोज रटते हुए, हम भी प्रबलजी महाराज की (दर्शनरूप, यज्ञानन्दरूपा आदि) श्री को प्राप्त करेंगे, ऐसी अपने मन में उत्सुकता धारण करते थे।

 

किं कर्मास्तु कियत्यथास्तु मखजा हस्तस्थिता दक्षिणा

किं पृच्छन्ति क्रतुप्रवेशसमये तत्र स्थिता प्रेक्षका

इत्याद्युत्सुकतावितर्कसलिलै रोमाञ्चिताशाञ्चिता:

यान्ति श्रीप्रबलक्रतुं द्विजजना नीत्वा स्ववस्त्रादिकम्॥३७॥

 

क्या-क्या कर्म होंगे? यज्ञ से उत्पन्न हाथ में आई हुई दक्षिणा कितनी होगी? यज्ञ में प्रवेश के समय निरीक्षक क्या-क्या पूछते हैं? इत्यादि उत्सुकता के विभिन्न वितर्क रूपी जलों के द्वारा रोमाञ्चित और आशा से अन्वित ब्राह्मण अपने वस्त्रादिक की पोटली बनाकर प्रबल जी महाराज के यज्ञ में जाते थे।

 

नागोजीकृतशास्त्रपङ्क्तिमपि ते चित्ते विचार्य क्वचित्

रक्षोहागमलघ्वनेकपदयुग्घेतून्स्मरन्तो मखे

तिष्ठन्ति क्रतुजुड्भिरीक्षितजना विद्यैकमार्गप्रिया

एवं श्रीप्रबलाभिधैर्गुरुवरैरायोज्यते वित्सभा॥३८॥

 

नागोजीभट्ट विरचित शास्त्र की पङ्क्तियों का चित्त में विचार करके। कभी रक्षा, ऊहा, आगम, लघु इत्यादि अनेक पद (व्याकरण) से युक्त हेतुओं को यज्ञ में स्मरण रखते हुए। यज्ञमण्डप में क्रतुजुट् (यज्ञ के संयोजक, जोड़ने वाले) लोगों द्वारा देखे जाते हुए। विद्या का ही एक रास्ता है प्रिय जिन्हें, वे लोग बैठते थे। इस प्रकार प्रबल गुरुजी विद्वानों की सभा आयोजित करते थे।

 

पुष्पाणीवातिशयसुरभिश्रीश्रितं जीवनं च

धर्मोद्गारैरखिलजनतोल्लासदं धीवनं च

यस्याकाङ्क्षा परमपदवीप्रापणायैवनेह

सन्तं श्रीमत्प्रबलमिति तं सद्गुरुं भावयाम:॥३९॥

 

फूलों की तरह अतिशय सुगन्ध रूपी लक्ष्मी से सेवित उनका जीवन था। धर्म के उद्गारों से सारी जनता को उल्लास देने वाला उनकी बुद्धि रूपी जङ्गल था। उनकी आकाङ्क्षा उस बैकुण्ठ रूपी परम पदवी को प्राप्त करने की थी, इस संसार की नहीं। ऐसे सन्त श्रीमान् प्रबल जी सद्गुरु की हम मन में भावना करते हैं।

 

यस्यादर्शैर्बहुजनपदे जीवितास्साधुसन्तो

यस्योत्कर्षैर्हवनकरणे मोदिता विप्रवृन्दा:

यस्याशीश्च प्रणतजनतां शिष्यकानुद्धरेच्च

सन्तं श्रीमत्प्रबलमिति तं सद्गुरुं भावयाम: ॥४०॥

 

उनके आदर्शों से बहुत से जनपदों में साधु-सन्त जीवित रहते थे।  उनके उत्कर्षों से हवन करने में ब्राह्मण खुश होते थे। उनके आशीर्वाद से उनको नमस्कार करने वाले लोग और उनके शिष्य अपना उद्धार करते थे। ऐसे सन्त श्रीमान् प्रबल गुरुजी को हम आज याद कर रहे हैं।

 

ब्रह्मैकत्वे निजवपुरहो भावयन्भासमानश्

शारीरं लौकिकमिदमहो मन्यते नैव किञ्चित्

दुर्गापाठे शिवजपविधौ सर्वदा सावधानो

वन्दे श्रीमत्प्रबलगुरुभिर्दर्शितं दिव्यमार्गम्॥४१॥

 

ब्रह्म की एकता में ही अपना स्वरूप भावित और उद्भासित करते हुए। यह शारीरिक स्वरूप जो लौकिक है, इसको कुछ नहीं मानते थे। दुर्गापाठ और शिवजप की विधि में सदा सावधान रहते थे। ऐसे श्रीमान् प्रबल गुरुजी के द्वारा दिखाए गए दिव्यमार्ग को हम प्रणाम करते हैं।

 

शोकान्मुक्तिं निरयपतनाद्यश्च सद्यो रुणद्धि

लक्ष्मीर्यं चाऽधिगतपरमार्थं न नो संरुणद्धि

एकं ब्रह्मापरमिह न वै किञ्चिदस्तीति बुद्ध्या

जीवेद्यस्तं प्रबलगुरुभिर्जीवितं जीवयाम:॥४२॥

 

दुख से मुक्ति देने वाले हैं तथा नरक में गिरने से जो रोक देते हैं। परमार्थ को जान लेने के कारण लक्ष्मी जिनका रास्ता नहीं रोक पाती। एक ब्रह्म ही सम्पूर्ण में व्याप्त है, और दूसरा कुछ भी नहीं है। इस बुद्धि से जो जीवन जीते थे। ऐसे प्रबल गुरुजी के जिए हुए जीवन को हम जीना चाहते हैं।

 

गायत्री वै परमसुखदाऽलोकलोकार्थदात्री

गायत्री त्रायत इति सदा चित्तलोकेषु धत्त

गायत्र्या नो विरहितजनो यज्ञकार्येषु मान्यो

गायत्रीमन्त्रमननपरं सद्गुरुं भावयाम:॥४३॥

 

गायत्री ही परम सुख देने वाली है। लौकिक तथा अलौकिक पुरुषार्थों को देती है। अपने चित्तलोकों में यह बात धारण कर लो कि गायत्री ही हमेशा रक्षा करती है। जो व्यक्ति गायत्री से हीन है, वो यज्ञ के कार्य में मान्य नहीं है। गायत्री के मन्त्र का मनन करने वाले सद्गुरु को हम याद कर रहे हैं।

 

भाग्यान्नैवाधिकमिह परं लभ्यते वै मनुष्यैर्

हस्तस्थोप्युद्गलति यदि ते भाग्यहानि: कदाचित्

तद्भाग्यं वै सुकृतचरितैरर्ज्यते कर्मभिश्च

पुण्योत्कर्षैर्लभत इव तद्वाञ्छितं - श्रीगुरूक्ति:॥४४॥

 

भाग्य से ज्यादा यहां कोई भी कुछ प्राप्त नहीं कर सकता। यदि भाग्य खराब है, तो हाथ में रखा हुआ धन, वस्तु भी नष्ट हो जाती है। और वह भाग्य, पुण्यकर्मों के द्वारा तथा सत्कर्मों के द्वारा अर्जित किया जाता है। पुण्य के उत्कर्ष से सब कुछ वाञ्छित पदार्थ प्राप्त किया जा सकता है - ऐसा हमारे गुरु जी कहा करते हैं।

 

नानाकष्टैर्बहुविधपथैर्नैकदेहेषु बद्धो

योन्याः योनिं श्रयतितरतान्नैव चास्मान्महाब्धे:

सत्यं त्वेकं हरिरिति पदं यश्शरण्यं समेषां

श्रित्वा सद्यस्तरति जनिमान्तं भजेद्-उक्तिमान्स:॥४५॥

 

यह जीवात्मा नाना प्रकार के कष्टों से, सैकड़ो रास्तों से अनेक प्रकार के शरीरों में बन्धा हुआ, इस योनि से उसे योनि में जाता रहता है, लेकिन इस महान् भवसागर से पार नहीं उतरता। सिर्फ हरि का नाम ही सच्चा है, सबको उसकी ही शरण में जाना चाहिए। हरि का आश्रय लेकर ही यह जीवात्मा इस भवाब्धि को पार कर पाता है - ऐसा हमारे गुरुदेव कहा करते हैं।

 

विष्णुश्श्रीमान् श्रयति तुलसींनो तुलस्या: प्रियाऽन्या

विष्णोरर्चास्वपि च तुलसीमर्पयेद्भक्तिभावै:

विष्णुस्तृप्येदधिकतुलसीसौरभैर्मोक्षदोऽसौ

तस्मात्तां रोपय जय जन! श्रीधरेष्टां स्वगेहे॥४६॥

 

श्रीमान् विष्णु तुलसी का सेवन करते हैं। तुलसी से ज्यादा कोई अन्य पदार्थ उनको प्रिय नहीं है। विष्णु की पूजा में भी भक्तिभाव से तुलसी को चढ़ाना चाहिए। तुलसी की सुगन्धि से विष्णु भगवान् बहुत तृप्त होते हैं और मोक्ष प्रदान करते हैं। इसलिए हे मनुष्य, तू इसे अपने घर में बोना शुरू कर दे, यह श्रीधर की बहुत प्रिय है, इससे तुझे विजय प्राप्त होगी।

 

वेदार्थानां वदति महिमा यस्य यज्ञेषु साक्षाद्

हव्याशीर्नृत्यति मखमुखे मत्तवद् यत्र मन्त्रै:

विप्रा मेघस्वरगलरवा: याजुषान् योजयन्ति

सन्तं तं श्रीप्रबलगुरुमुद्भावयामस्स्मराम:॥४७॥

 

हव्य को खाने वाली अग्नि जिनके हवन कुण्ड के मुंह में मन्त्रों से हुई मतवाली होकर नाचती हुई वेद के अर्थों की महिमा को साक्षात् प्रकट है। और ब्राह्मण जहां बादल की तरह गम्भीर कण्ठ के स्वर से यजुर्वेद के मन्त्रों को पढ़ते हैं। ऐसे सन्त श्रीप्रबल गुरुजी को हम अपने उद्भावों से याद कर रहे हैं।

 

धर्मश्चैक: क्रतुरिति कलौ स्वर्गलोकस्य दृश्यं

वर्मैतद्वै ह्यतिशयशुभं काम्यदं सुप्रियं मे

यज्ञेनोद्भाव्यत इव सदा श्रौतगुण्यप्रचार:

इत्थं लोके मखसुकृतसञ्चारिणं भावयाम:॥४८॥

 

इस कलयुग में यज्ञ करना करना ही एक धर्म है। ये ऐसा है, जैसे स्वर्गलोक का ही दृश्य प्रकट हो गया हो। ये अतिशय कल्याणकारी हमारा कवच है। इच्छित कामनाओं को देने वाला है, और मेरा बहुत प्रिय है। श्रौतगुणों का प्रचार यज्ञ से ही उद्भावित किया जाता है। इस प्रकार इस संसार में यज्ञ के पुण्य को सञ्चारित करने वाले स्वामीजी की हम भावना करते हैं।

 

हरिद्वार-काशी-नरौरापुरेषु

पुरी-कर्णपू:-गोरखेषूत्तरेषु

कुरुक्षेत्र-मुम्बा-गया-माथुरेषु

मखा: कारिता: येन दिल्ल्यां नुमस्तम्॥५०॥

 

हरिद्वार, काशी, नरौरा नगरों में, पुरी, कानपुर, गोरखपुर, उत्तरीय क्षेत्रों में , कुरुक्षेत्र, मुम्बई , गया, मथुरा, दिल्ली इत्यादि स्थलों पर जिन्होंने जीवन भर यज्ञ कराए, हम उनको नमस्कार करते हैं।

 

क्वचिद्वा कलिङ्गे क्वचिच्चैव बङ्गे

क्वचिच्चैव दिल्ल्यां क्वचिच्चाप्यथाङ्गे

कृता: कारिता: सन्मखा: येन शक्त्या

नुम: प्राबलं सम्बलं हार्दभावै:॥४९॥

 

कलिङ्ग, बङ्गाल, दिल्ली, अङ्गदेश इत्यादि स्थलों पर यथाशक्ति हृदय के भावों से जिन्होंने यज्ञ करवाए, उन प्रबल महाराज के सम्बल को हम नमन करते हैं।

 

क्वचिल्लक्षचण्डी क्वचित्कोटिचण्डी

क्वचिद्रुद्रयाग: क्वचिद्विष्णुहोम:

क्वचित् कानकीधारया हेमवृष्टि:

कृता येन तं श्रीगुरुं भावयाम:॥५१॥

 

कहीं लक्षचण्डी, कहीं कोटिचण्डी, कहीं रुद्रयाग, कहीं विष्णुहोम, कहीं कनकधारा से स्वर्णवर्षा जिन्होंने करवाई, उन गुरुवर को हम याद करते हैं।

 

क्वचिन्नार्मदे वा तटे सम्भ्रमन्तं

क्वचिद्यामुने स्वाश्रमे संवसन्तं

क्वचिद्गाङ्गतीरे च मोदायमानं

नुम: प्राबलं सद्गुरोर्जीवनं तत्॥५२॥

 

कहीं नर्मदा नदी के किनारे घूमते हुए, कहीं यमुना के किनारे अपने आश्रम में वास करते हुए, कहीं गङ्गा के किनारे आनंद लेते हुए, उन सद्गुरु के जीवन को हम नमस्कार करते हैं।

 

क्वचित्तीर्थयात्रा क्वचिद्यज्ञपात्रा:[68]

क्वचिद्धोममन्त्रा: क्वचिच्चैव तन्त्रं

क्वचिच्छास्त्रचर्चा मुरारेस्समर्चा

समं जीवनं धर्मसक्तं नमाम: ॥५३॥

 

कभी तीर्थ की यात्राएंकभी यज्ञ के लिए पात्र ब्राह्मणों का चयनकहीं पर हवन के लिए मंत्रकहीं (अनिष्ट नाश के लिए) तंत्रकहीं शास्त्रों की चर्चाकहीं मुरारी (विष्णु) की अर्चना! ओहो! सारा जीवन ही महाराजजी का पूरी तरह से धर्म में डूबा हुआ है । हम उन्हें प्रणाम करते हैं।

 

क्वचिज्जागरश्शैवकार्येषु रात्रौ

क्वचिन्नागरैस्साकमागामिकार्ये

क्वचिन्मोदमग्नस्य विप्रैश्च संस्था

शुभं प्राबलं जीवनं सुस्मराम:॥५४॥

 

कभी शैवकार्यों में जागरण, आगामी यज्ञ की योजनाओं में नागरिकों से सम्पर्क, कभी आनन्दपूर्वक ब्राह्मणों के साथ बैठक करना - सारा ही जीवन बहुत शुभ है। उस प्रबलजी के जीवन का हम स्मरण करते हैं।

 

क्वचिन्मृत्तिकास्वेव तिष्ठेत्स्स मोदी

क्वचित्कम्बलेनैव शीतापनोदी

क्वचिद्विप्रवृन्दस्य बुद्धिप्रचोदी

प्रमोदं सतां सद्गुरुं पूजयाम:॥५५॥

 

कभी आनन्दपूर्वक मिट्टी में ही बैठ जाना। कभी सिर्फ एक कम्बल से ही ठण्ड को भगाना। कभी कुमार्ग पर जाते हुए छात्रों की बुद्धि को सन्मार्ग की तरफ प्रेरित करना। सज्जनों के आनन्ददायक सद्गुरु की पूजा करते हैं।

 

अरे गाणपत्यं वहेच्छैवरूपं

पुनश्शाक्ततां द्वैतमद्वैतमार्गं

समे चान्तकाले विशन्तीव तस्मिन्

न यस्मात्पुनर्लोकतामेति जानन्॥५६॥

चाहे गणपति के मार्ग का अनुसरण करके गणेश की दीक्षा धारण करो, चाहे शैवरूप धारण करोचाहे शाक्त बनोया द्वैत अद्वैत किसी भी मार्ग के पथिक बनोये सब उसी एक परब्रह्म में प्रवेश करते हैं, (जानन् - जिसको जानता हुआ मनुष्य) जहां या जिसमें पहुच कर , (सारूप्यादि प्राप्त कर) इस संसार में लौटना नहीं होता - ऐसी बातें श्री प्रबल जी महाराज आपने शिष्यों को बताते रहते हैं।

 

दिनेशो निशेशो जलेशो धनेशो

नगेशो खगेशो सुरेशो गणेशः

फणीशो महेशस्समे सत्यरूपास्

समर्च्या इमे प्रत्ययै: क्षेमकामै:॥५७॥

 

दिनेश (सूर्य), निशेश (चन्द्रमा), जलेश (वरुण), धनेश (कुबेर), नगेश (हिमालय), खगेश (गरुड़), सुरेश (इन्द्र), गणेश, फणीश (शेषनाग), महेश (शिव) - यह सब सत्य रूप हैं, अपने कल्याण के लिए विश्वासपूर्वक इनकी अर्चना करनी चाहिए।

 

अहो कल्पनाढ्यस्समश्चैष लोको

तरुः कामनानां फलेदत्र पुंसां

क्वचिद्रागरूपो विरागाढ्य एवं

निजैर्दर्शनैर्जीवति प्राबलार्थ:[69] ॥५८॥

 

यह सारा संसार कल्पनाओं से भरा हुआ है। यहां मनुष्यों की कामनाओं का वृक्ष फलता-फूलता है। कभी यह मोहजनित रागरूप है, कभी यह वैराग्यपूर्ण है - ऐसा अपने जीवन के दर्शनों से प्रबल जी जिया करते थे।

 

अहो वासुकिर्नागराट् तस्य लोके

विभूतिश्च भोगेषु मग्ना: फणीन्द्रा:

तदैश्वर्यकाङ्क्षा मनुष्याश्श्रयन्ति

सुमन्त्रैश्च सिद्ध्या व्रजेत्सर्पलोकम्॥५९॥

 

वासुकि नागों का राजा है। उसके नागलोक में महती सम्पत्ति है। सब नागजाति भोगों में मग्न है। उनके ही ऐश्वर्य की आकाङ्क्षा मनुष्य भी करते हैं। मन्त्रों और सिद्धि के बल से उस अद्भुत नागलोक में जाया जा सकता है।

 

कलौ विक्रमो भूपवर्य:,कवीनां

गुरु: कालिदास:पुरीणां च काशी

यथा हस्तपात्रो हि वै धर्मसम्राट्

तथा त्वां नमामो वयं, यज्ञसम्राट्! ॥६०॥

 

कलियुग में राजाओं में श्रेष्ठ विक्रमादित्य हुए। कवियों में कालिदास। नगरों में श्रेष्ठ काशी। इसी प्रकार संन्यासियों में श्रेष्ठ धर्मसम्राट् करपात्र स्वामी हुए। इसी प्रकार यज्ञ करने वालों में हे यज्ञसम्राट्! आप श्रेष्ठ हो। हम आपको प्रणाम करते हैं।

 

पुण्यव्रतं व्रतरतं व्रतमात्रजीव्यं

गुण्यप्रियं क्रतुरतं क्रतुकृत्प्रियं च

आशाविमोहजविबन्धननाशदक्षं

शैवव्रतं प्रबलनामगुरुं स्मराम:॥६१॥

 

पुण्य देने वाले व्रत करते हैं। अनेक शास्त्रीय व्रतों तथा नियमों में लगे रहते हैं। उनका जीवन भी एक व्रत है। गुणों से प्रेम करने वाले। यज्ञ में लगे रहने वाले। यज्ञ करने वालों के भी प्रिय हैं। आशा तथा विशिष्ट मोह से उत्पन्न बन्धन का नाश करने में दक्ष हैं। ऐसे शैवव्रती प्रबल गुरुजी को हम आज याद कर रहे हैं।

 

वेदान्तगामिपुरुषैरपि वन्द्यरूपं

संसारसक्तपुरुषैरपि पूज्यभूपं

भूपैश्च भूसुरगणैरपि हृष्यमाणं

विद्वद्वृतं प्रबलनामगुरुं नमाम:॥६२॥

 

वेदान्त मार्ग पर चलने वाले लोगों ने उनकी वन्दना की। संसार में आसक्त पुरुषों ने भी उन पूज्य राजा की वन्दना की। राजाओं ने तथा ब्राह्मणों ने भी उन्हें बहुत आनन्दित किया। विद्वानों से घिरे हुए प्रबल गुरुजी को हम नमस्कार करते हैं।

 

रामोस्ति दिव्यसुखदस्सकलार्तिहन्ता

रामो हि कामफलदो विमलैकगन्ता

तं वै भजन्तु मनुजा अपि सन्तु सन्तो

वक्तीति य: प्रबलनामगुरुस्स वन्द्य:॥६३॥

 

राम ही दिव्य सुख देने वाले हैं। राम समस्त आपदाओं का नाश करने वाले हैं। राम ही इच्छित कामनाओं का फल देने वाले, विमल पुरुषों द्वारा प्राप्त करने योग्य हैं। उनका सभी मनुष्य और सन्त भजन करो। ऐसा जो कहते हैं, उन प्रबल नामक गुरुदेव की हम वन्दना करते हैं।

 

रामायणं पठत रे परिहाय सर्वं

गीतानुगा भवत रे गुरुवाक्यशीला:

पौराणिकं चरत रे सुरपूज्यधर्मं

यस्सन्दिशेत् प्रबलराड्गुरुरर्चनीय:॥६४॥

 

सब कुछ छोड़ कर रामायण का पाठ करो। गुरु के वाक्य का अनुसरण करके गीता के विचारों पर चलो। देवताओं से भी पूजित धर्म जो पौराणिक है, उसका आचरण करो। ऐसा जो सन्देश देते थे, वे प्रबल गुरुदेव अर्चनीय हैं।

 

रामाय चार्पयत रे निजजीवनानि

रामाय सन्त्यजत रे पशुभूधनानि

रामाय संव्रजत रे विधिवद्वनानि

य: प्रेरयेत्प्रबलराड्गुरुरस्ति वन्द्य:॥६५॥

 

राम के लिए अपना समस्त जीवन अर्पण कर दो। राम के लिए ही अपने सब पशु, जमीन और धन छोड़ दो। राम के लिए ही विधि-विधान से वन चले जाओ। ऐसी जो प्रेरणा देते थे, वे प्रबलगुरुजी वन्दनीय हैं।

 

वेदोक्तमार्गमभिसंश्रयत द्रुतं रे

राधाप्रियाच्युतरसभ्रमरा भवेत

गोविप्रसत्सु कुरुत प्रियतां सदैव

य: प्रेरयेत्प्रबलनामगुरुस्स पूज्य:॥६६॥

 

वेद के द्वारा कहे गए रास्ते का सेवन करो। राधा और उनके प्रिय अच्युत के नाम रस का पान करने के लिए भंवरे बन जाओ। गो, ब्राह्मण और सन्तों में प्रियता का भाव धारण करो। जो ऐसी प्रेरणा देते थे। वे प्रबल नामक गुरुदेव पूजनीय हैं।

 

धामानि यान्ति न धनानि सह त्वया रे

नामानि सन्ति च मृषा पितृभि: कृतानि

तस्माज्जुषस्व सुकृते च विहाय भोगान्

वक्ति स्म यो गुरुवर: प्रबलस्स पूज्य:॥६७॥

 

यह घर, यह धन, तुम्हारे साथ जाने वाले नहीं हैं। पिता आदि लोगों द्वारा किए गए नाम भी झूठे हैं। इसलिए भोगों को छोड़कर पुण्य करने में ही जुट जाओ। ऐसा जो कहा करते थे, वे गुरुवर प्रबल जी पूज्य हैं।

 

विद्या प्रसादसुखदा मुखभूषणास्ति

विद्या विवादकरणाय न युज्यते रे

विद्या नृपैरपि सदा परिपूज्यते वै

यश्चाह शिष्यबटुकान् प्रबलस्स वन्द्य:॥६८॥

 

विद्या प्रसाद गुण वाली, सुख देने वाली है, मुख का आभूषण है। विद्या विवाद करने के लिए नहीं है। विद्या राजाओं से भी पूजी जाती है। जो अपने शिष्य बटुकों को यह बात बतलाते थे, ऐसे प्रबल जी की मैं वन्दना करता हूं।

 

सद्ब्रह्मचर्यशरणान्न भवन्ति रोगा:

रे ब्रह्मचर्यधरणं हि महच्च पुण्यं

तद्वै समस्ततपसां वपुषश्च मूलं

यो धारयेत्प्रबलराड्गुरुरस्ति वन्द्य:॥६९॥

 

सम्यक् ब्रह्मचर्य के आचरण से रोग नहीं होते। ब्रह्मचर्य धारण करना महान् पुण्य है। यह समस्त तपस्या का और निरोगता या सुन्दरता का भी मूलमन्त्र है। ब्रह्मचर्य धारण करने वाले प्रबल गुरुदेव के लिए नमस्कार है।

 

शैवी कृपा हि फलदा भवतीह जीव्ये

साकं न यान्ति गृहिणो न धनं न जाया

तस्माच्छिवं जपत रे त्यजताशु मोहं

यश्चाह नित्यमनुपालयति स्मवन्द्य:॥७०॥

 

शिव की कृपा ही इस जीवन में फलदायी होती है। इसके अलावा परलोक साथ में घर के लोग, धन, पत्नी इत्यादि जाते नहीं है। इसलिए मोह छोड़कर सिर्फ शिव का ही भजन करो। जो ऐसा कहते थे और उसका हमेशा पालन करते थे, वे वन्दनीय हैं।

 

भूदेवता:! मखहुताशसुतृप्तिदास्स्यु:

स्वर्देवता भुवि सुखं च ददत्वभीष्टं

देवस्य नुश्च भवतान्मिथ एष धर्मो

धर्मार्थदं सुरसरीप्रियमर्चयाम:॥७१॥

 

अरे भूदेवताओं! तुम हवन में अग्नि की तृप्ति करो! अरे स्वर्ग के देवताओं! तुम धरती पर अभीष्ट कामनाएं और सुख दो। देवताओं और मनुष्य का परस्पर जो धर्म है, वह धर्म से पुरुषार्थ को देने वाला है। ऐसे पुरुषार्थ देने वाले वचनों को बोलने वाले सुरसरी के प्रिय मुनि की हम वन्दना करते हैं।

 

अश्वत्थ-निम्ब-तुलसी-कदली-वटाम्र

शेफालिका-र्क-करवीर-पलाश-दर्भ-

धत्तूर-बिल्व-बकुला-र्जुन-पारिजात-

श्रीशाल्मली-खदिर-दाडिम-युक्तगेह:[70] ॥७२॥

 

पीपल, नीम, तुलसी, केला, वट, आम, शेफालिका, आक, कनेर, पलाश, कुशा, धतूरा, बेल,  बकुल, अर्जुन, पारिजात, शाल्मली, खदिर, अनार - ये सारे वृक्ष उनके आश्रम में लगे हैं।

 

ऐरण्ड-वेतस-करञ्ज-मधूक-साल-

खर्जूर-चम्पक-कदम्बक-भद्रदारू-

श्रीपाटला-ऽऽमलक-चम्पक-यूथिका-ऽद्रि[71]-

जम्बीर-ताल-मठ-राजित! ते नमोस्तु![72] ॥७३॥

 

अरण्ड, बांस , करञ्ज, मधूक, शाल, खजूर, चम्पक, कदम्ब, भद्रदारू, गुलाब , आंवला, चम्पा, जूही, नीम्बू, ताड़ - ये सब वृक्ष आपके मठ में संशोभित हो रहे हैं, आपको नमस्कार।

 

माण्डूक्यशाङ्करसुभाष्यविभातचित्तं

श्रीगौडपादकृतपद्यसुगन्धितं तम्

इत्थं सदौपनिषदादिविचारशीलं

ब्रह्मात्मना परिचरन्तमहं नमामि॥७४॥

 

शाङ्करभाष्य सहित माण्डूक्य उपनिषद् से प्रकाशित है चित्त जिनका। श्रीगौडपाद के किए हुए पद्य (गौडपादकारिका) से जो सुगन्धित हैं। ऐसे उपनिषद् आदि के विचार करने का स्वभाव है जिनका। ब्रह्म की आत्मा से इस संसार में विचरण करते हुए मुनि का मैं वन्दन करता हूं।

 

ग्रन्थप्रकाशनरतं कविताप्रमोदं

ग्रन्थप्रपाठनपरं द्विजनन्दनाँश्च

स्कान्दीकथासु रममाणमनेकरूपं

काशीनिवासशरणं प्रबलं नमामि॥७५॥

 

ग्रन्थ-प्रकाशन में रत। कविताओं से आनन्दित। ब्राह्मणों के बालकों को ग्रन्थ पढ़ाते रहने वाले। स्कन्दपुराण की कथाओं में रमते हुए। अनेक रूप वाले। काशी की निवास रूप शरण लेने वाले मुनि को मैं नमस्कार करता हूं।

 

वीरव्रती जलमुचामिव वाक्प्रयोक्ता

धीराकृतिश्श्रुतिमताञ्च सभासु वक्ता

देवालये शिवगुरोरभिषेककर्ता

शोभाननं गुरुवरं प्रबलं स्मरामि॥७६॥

 

वीरव्रती, बादलों की तरह गम्भीर वाणी का प्रयोग करने वाले, धैर्य आकृति वाले, वैदिक लोगों की सभाओं में वक्ता, मंदिर में शिव गुरु का अभिषेक करने वाले, शोभापूर्ण मुख वाले, गुरुवर प्रबल जी का मैं स्मरण कर रहा हूं।

 

गुणप्रकाशतां प्रयातुनैव यातु डम्बरं

समर्थतां श्रियम्प्रयातुनैव शक्तिहीनतां

दिवाकरो भवेत्तपोभिरस्तु लोकमङ्गलं

दिशेत्सदैव यो नमामि सद्गुरुं मखप्रियम्॥७७॥

 

गुणों के ही प्रकाश को प्राप्त करो। आडम्बर मत करो। समर्थ बनो। श्री को प्राप्त करो। शक्तिहीन मत होओ। तपस्या के द्वारा सूर्य बन जाओ। इस संसार का कल्याण हो। ऐसी सदा ही जो दिशा दिखाते हैं, उन सद्गुरु को हम प्रणाम करते हैं। उन्हें यज्ञ प्रिय हैं।

 

सदैव दीनहीनपोषकं विहीनदोषकं

अधर्मकृत्सु रोषकं सुधर्ममार्गजोषकं

हरीशगाथनैर्जनप्रतोषकं नृभूषकं

नमामि यज्ञराजमर्थवत्सु मानितं गुरुम्॥७८॥

 

दीन हीन के पोषक। नष्ट किया है दोषों को जिन्होंने। अधर्मियों पर क्रोध करने वाले। सुन्दर धर्म के रास्ते पर जोड़ने वाले। हरि-हर की गाथा से जनता को संतुष्ट करने वाले, मनुष्यों के आभूषण स्वरूप अर्थवान् विद्वानों तथा धनवानों में सम्मानित गुरु को मैं नमन करता हूं।

 

सुवर्णराजतैर्विनिर्मितं गणेशमर्चयेत्

प्रभाजुषेऽपि[73] ताम्रपात्रतोऽर्घ्यदानतत्पर:

जगत्सुरक्षिकापदेऽरुणं सरोजमर्पयेत्

स गाङ्गवारिरुद्रसेचनो बली गुरुर्जयेत्॥७९॥

 

सोने व चांदी से निर्मित गणेश की मूर्ति की पूजा करो। प्रभामय सूर्य के लिए तांबे के पात्र से अर्घ्य दो। जगत् की सुरक्षा करने वाली दुर्गा के चरणों में लाल कमल का फूल चढ़ाओ। गङ्गाजल की धारा से रुद्र का अभिषेक करो। ऐसा जीवन जीने वाले,  (देहेन मनसापि च) बलवान् गुरुदेव की जय हो।

 

सतां विदां मुदा प्रमोदधारिणं सुकृत्यदं

दिवि प्रियानिव स्वदेवतार्चकान् ह्वयेच्च य:

विधिप्रियो विधिप्रियान् विधानतस्समर्चयन्

सुरप्रियस्स सद्गुरुर्जयेत्स्वगौरवैस्सदा॥८०॥

 

सज्जनों तथा विद्वानों का आनन्दपूर्ण ढंग से प्रमोद धारण करने वाले। सुंदर कृत्य देने वाले। अपने प्रिय, देवार्चकों को स्वर्ग में बुला लेने वाले। विधिप्रिय और विधिप्रिय लोगों की सविधिक द्वारा पूजा करते हुए देवताओं के प्रिय सद्गुरु अपने गौरव से ही सदा जीतते हैं।

 

न योषिदङ्गसङ्गमै: कदापि तृप्यतात्पुमान्

न हेमपर्वतं समाप्य तुष्टिमेति मानव:

जगद्विदह्य चापि नैव क्रोधकृत् प्रशाम्यति

अतस् त्रिदोषतां विहाय नारकं[74] प्रणश्यतु॥८१॥

 

रमणियों के अङ्गसङ्ग से, भोग से कभी मनुष्य की तृप्ति नहीं हो सकती (काम)। सोने का पहाड़ प्राप्त करके भी मनुष्य ही सन्तुष्टि नहीं होती (लोभ)। संसार को जलाकर के भी क्रोधी व्यक्ति का क्रोध शान्त नहीं होता (क्रोध)। इसलिए इन नरक देने वाले काम, क्रोध, लोभ तीनों दोषों को अपने अन्दर से नष्ट कर दो।

 

यमे ह्युपस्थिते न बन्धुबान्धवा न सोदरा

न पुत्रमित्रशिष्यका: कलत्रगोत्रिणोऽथवा

भवन्ति रक्षणार्थिनस्तपांसि दानदक्षिणा:

शिवे सदा ह्यतो धियं नियोजयेद्-वदेद्गुरु: ॥८२॥

 

यमराज के आने पर बन्धु-बान्धव, सगे भाई, पुत्र, मित्र, शिष्य, पत्नी या गोत्र वाले लोग – इनमें से कोई रक्षा नहीं करता। रक्षा करते हैं तो सिर्फ अपने द्वारा की तपस्या, दी हुई दान-दक्षिणा। इसलिए अपनी बुद्धि को सदा शिव में ही लगाना चाहिए। ऐसा हमारे गुरुदेव कहा करते थे।

 

सदैव निर्मलाम्बुवत्स्वचित्तमाशु शोधयेत्

रहस्यहो निजं स्वयं निजेन चैव बोधयेत्

परो न कोऽपि मित्रशत्रुतां प्रयाति ते, स्वकं

समुद्धरेदथात्मनैवयो वदेद्गुरुर्वर:[75] ॥८३॥

 

सदैव निर्मल पानी की तरह अपने चित्त की तत्काल शुद्ध करनी चाहिए। एकान्त में जाकर अपने आप को अपने से ही जागना चाहिए (बोध करना चाहिए)। तुम्हारा दूसरा कोई भी मित्र या शत्रु नहीं है। अपनी आत्मा के द्वारा ही अपना उद्धार करना चाहिए - ऐसा गुरुवर कहा करते हैं।

 

दशावतारसत्कथाप्रमोदितो जनेषु यो

विगायति स्म दुग्धसागरे शयानमच्युतं

हरिर्हरिर्हरिर्हरिस्समस्तभीतिनाशकं

ततोऽन्यथा न किञ्चिदस्ति सत्यमेतु निश्चयम्॥८४॥

 

लोगों के बीच दशावतार की कथा से आनन्दित होने वाले। उस कथा को तथा क्षीरसागर में सोने वाले अच्युत (विष्णु) को हर समय गाते रहते हैं। हरि-हरि-हरि-हरि ये ही भगवान् समस्त भय का नाश करने वाले हैं। उनसे दूसरा कोई भी नहीं है। इस सच को निश्चित ही स्वीकार कर लो।

 

हनूमतश्चरित्रभावमज्जनोऽथ सज्जनो

धनुष्मतश्च[76] चित्रमश्रुधारयाभिसिञ्चति

त्रिनेत्र-दत्तनेत्र-दत्तनेत्र-दत्तनेत्रक:[77]

महान् स यज्ञराड्विभातु नस्सदा मनस्तले॥८५॥

 

हनुमान् जी के चरित्र के भाव में स्नान करने वाले। सज्जन। धनुर्धारी श्री राम की तस्वीर को अपनी प्रेमाश्रु की धारा से सींचते हैं। त्रिनेत्र शिव के लिए दिया है नेत्र जिन्होंने ऐसे श्री विष्णु के प्रति जो लोग देते हैं अपने नेत्र, अर्थात् उनके भक्त (विष्णुभक्त,वैष्णव) उन भक्तों के लिए भी जो अपने नेत्र देते हैं, अर्थात् उनकी सेवा करते हैं, वे प्रबल जी महाराज ,यज्ञराट् हमारे मन में सदा ही विराजित हैं।

 

निपीतकाव्यमाधुरीजगन्मधुप्रपायकं[78]

समेतमाशुतोषचित्ततोषणाय साम्बुजं

विदृष्टपुण्यपापभेदवेदमार्गदर्शकं[79]

यतीश! यज्ञराट्! स्वराट्!  शिवार्थिजीवनं नुम:! ॥८६॥

 

पी हुई काव्य की मधुरताओं से जो इस पूरे संसार को शहद पिलाने वाले हैं। (साम्बुजम्) जो कमल के फूल लेकर भगवान् आशुतोष को प्रसन्न करने या उनका चित्त संतुष्ट करने के लिए (समेतम्) आए हुए हैं। पुण्य और पाप के भेद को जिन्होंने देख लिया है। ऐसे वेदमार्ग के दर्शक (दिखाने वाले) हे स्वामियों में श्रेष्ठयज्ञसम्राट्! हे अपनी आत्मा के राजा! आप का सम्पूर्ण जीवन शिवार्थी है। हम आपके इस जीवन को नमस्कार करते हैं।

 

परमहंसमिव क्वचिदद्भुतं

विमलहंसमिवात्मनि संरतं

धवलवस्त्रधरै: प्रणतं गुरुं

प्रबलनामशुभं प्रणमाम्यहम्॥८७॥

 

कहीं परमहंस की तरह अद्भुत। कहीं विमल हंस की तरह अपनी आत्मा में मग्न। सफेद वस्त्र धारण करने वाले लोगों से नमस्कार किए हुए गुरु। प्रबल इस नाम के शुभ को हम प्रणाम करते हैं।

 

यतिसमाश्रितधर्ममुदं प्रियं

गृहिजनैरभिनन्दितसत्पदं

बटुगणैरपि संलसिताश्रमं

प्रबलधाम नमामि हरिश्रियम्॥८८॥

 

यतियों (संन्यासियों) के द्वारा समाश्रित धर्म से आनंदित होने वाले प्रिय महाराज जी। सांसारिक, गृहस्थी लोगों द्वारा अभिनंदन किया जाता हुआ पद जिनका ऐसे। छात्र गणों के द्वारा भी जिनका आश्रम शोभायमान है, ऐसे प्रबल-धाम को हम हरि की संपत्ति की तरह नमस्कार करते हैं।

 

कुटिलताधमता ह्यपि दु:खदा

सरलता शुचिता द्विज! सौख्यदा

इति सुवाक्यचयं हृदये धरन्[80]

प्रबलपूज्यपदं प्रणमाम्यहम्॥८९॥

 

अरे ब्राह्मण, कुटिलता अधमता है। यह दुख देने वाली है। सरलता व शुद्धता सुख देने वाली है। इस सुन्दर वाक्यवल्ली को अपने हृदय में धारण करता हुआ मैं प्रबलजी के पूज्य पद को नमस्कार करता हूं

 

अतिभयप्रदमस्ति जगत्त्विदं

पशुखगाप्चरकीटशरीरदं

शिवतयात्मनि सञ्चरतीव यो

भवभयाम्बुधिमुत्तरतात् स वै॥९०॥

 

यह संसार अत्यन्त भयानक है। इसमें कभी पशु का शरीर मिलता है, तो कभी पक्षी का। कभी जलचर का, तो कभी कीड़े-मकोड़े का। अपनी आत्मा में शिव की भावना करके जो भी इस संसार में संचरण करता है, वही इस भयानक भवसागर से उतर पाता है।

 

क्रतुमयं सकलं मम जीवनं

हविषि याजुषमन्त्रसुभावनं

प्रतिपदं सुरभूसुरतर्पणं

इति विभावयति स्म गुरुस्स मे॥९१॥

 

मेरा सारा जीवन यज्ञमय है। हविष्य में यजुर्वेद के मन्त्रों की भावना करना, रोजाना देवताओं और ब्राह्मणों का तर्पण करना - यही मेरा जीवन है - इस तरह की भावना करने वाले हमारे गुरुदेव हैं।

 

न पतताद्विषये विषसम्मते

न हरतात्परवित्तमथ क्वचिद्

न कुरुतात्परयोषित्सङ्गमं

वदति यस्स्म नुम: प्रबलं गुरुम्॥९२॥

 

विषयों का सुख जहर के समान है। इसमें नहीं गिरना चाहिए। दूसरे के धन का हरण नहीं करना चाहिए। दूसरे की स्त्री का सङ्ग नहीं करना चाहिए - ऐसा उपदेश जो देते थे, उन प्रबल गुरुदेव को हम नमस्कार करते हैं।

 

सकलमन्त्रमयी शिवदा शिवा

निखिलतन्त्रकरी भयहाऽभया

शुभदयन्त्रतनुर्जगदम्बिका

श्रयति यस्स्म नुम: प्रबलाह्वयम्॥९३॥

 

शिवा कल्याण देने वाली तथा सारे मन्त्रों की स्वरूप हैं। सारे तन्त्रों का ज्ञान देने वाली, डर को दूर करके निर्भीक बनाने वाली हैं। शुभ देने वाले यन्त्रों का शरीर जगदम्बिका हैं। ऐसा जो सेवन करते थे, हम उनको प्रणाम करते हैं।

 

अतिशयं न वदेन्न च मौनवत्

अतिथिपूजनतां नहि सन्त्यजेत्

अतिमिरे वसतान् न तमोमये

वदति यस्स्मगुरु: प्रबलो वर: ॥९५॥

 

अत्यधिक बोलना या अत्यधिक चुप रहना दोनों हानिकारक हैं। अतिथि का पूजन करना कभी छोड़ना नहीं चाहिए। जहां प्रकाश हो, वही निवास करना चाहिए, अन्धकार में निवास नहीं करना चाहिए - ऐसा जो बोलते थे, वे हमारे श्रेष्ठ गुरु हैं।

 

सदसि वाक्श्रयते स हि पण्डित:

समरवीरवरो भव चण्डित:

धनजलैर्निधिभिस्सुखमण्डित:

वदति यस्स्म गुरुर्नयवित् स वै॥९४॥

 

जो सभा में वाणी का आश्रय लेता है अर्थात् खूब शास्त्रार्थ करता है वही पण्डित है! जो युद्ध में वीरश्रेष्ठ हैवह खूब क्रोधित होता है (या हे युद्ध में गए हुए वीर, तुम खूब क्रोधित होकर शत्रुओं का संहार करो)। इस सांसारिकतथा धर्म आदि कर्मों को ठीक से करने के इच्छुक! तुम अपने परिश्रम से धन रूपी जल और निधियों से सुख का शृङ्गार करो! इस तरह सभी प्रकार की नीति को जानने वाले हमारे श्री प्रबल गुरुजी कहा करते थे।

 

श्रमतया तपसा मनसा श्रयेत्

सकललक्ष्यमहो निजचिन्तितं

वद न क: प्रतियाति समुन्नतिं

नवलहर्षयुतो निजकर्मणि॥९६॥

 

अपना सोचा हुआ सम्पूर्ण लक्ष्य, श्रम से, तपस्या से और मन लगाकर करना चाहिए। अपने कर्म में ताजगी से भरा हुआ हर्षोल्लास से भरा हुआ व्यक्ति किस उन्नति को प्राप्त नहीं कर पाता बताइए? ऐसा वे बोलते थे।

 

शूलहस्तार्चकं चक्रहस्तार्चकं

पाशहस्तं स्वमन्त्रैर्ह्वयेद्यश्च तं

दण्डहस्तस्य हस्तं  स्वहस्ताक्षरैर्[81]

वारयेद्गाङ्गवारा मुनिं तं नुम: ॥९८॥

 

त्रिशूल है हाथ में जिनके वे शिव, चक्र है हाथ में जिनके वे विष्णु - इन दोनों की प्रबलजी अर्चना करते हैं। पाश है हाथ में जिनके उन वरुण का अपने मन्त्रों से आवाहन करते हैं। दण्ड है हाथ में जिनके उन यमराज के हाथ को, अपने हाथ के अक्षरों से तथा गङ्गाजल के प्रभाव से जो दूर कर देते हैं, उन मुनि को मैं नमस्कार करता हूं।

 

यश्च नक्रासनाप्रेमपुण्यैर्दिनं

यापयेत्तत्तटे स्नानजप्यादिभिर्

भोगमोक्षप्रदा सर्वपापापहा

मानसे मे विराजेत गङ्गा सदा[82]॥९७॥

 

मगरमच्छ आसन है जिनका उन गङ्गाजी के प्रेमरूपी पुण्यों से दिन बिताते थे। गङ्गा के तट पर स्नान, जप आदि करते रहते थे। गङ्गाजी ही सभी पापों को हरण करने वाली, भोग-मोक्ष देने वाली हैं। हमारे मन में सदा गङ्गा जी विराजमान रहें।

 

दन्तिराजस्य नाम्नां सहस्रेण यो

मोदकान्यर्पयन् मन्त्रितानि प्रधी:

गाणपत्यं गणेशस्य भक्त्या भृतं

यज्ञसम्राट्! त्वदीयं वपुस्तन्नुम: ॥९९॥

 

दन्तिराज के हजार नाम से जो हरेक मन्त्र पर अभिमन्त्रित लड्डू चढ़ाते हुए शोभित होते हैं, हे यज्ञसम्राट्! आपके उस गणेश की भक्ति से भरे हुए गाणपत्य स्वरूप को हम नमस्कार करते हैं।

 

यक्षिणीसाधनासद्विधिप्रेरकं

तन्त्रमन्त्रादिगुप्तार्थचित्तं द्विजं

सत्वकर्माणमाद्याचरित्रामृतं

यज्ञसम्राट्! त्वदीयं शतं भावये॥१००॥

 

यक्षिणी साधना की सद्विधि की प्रेरणा देने वाले, तन्त्र-मन्त्र आदि गुप्त अर्थों से भरे चित्त वाले ब्राह्मण। सत्त्वगुणों से युक्त कर्मों को करने वाले। आद्या (दुर्गा देवी) के चरित्र रूपी अमृत का पान करने वाले यज्ञसम्राट्! आपके सैकड़ो चरित्रों की हम भावना करते हैं।

 

नम्रताढ्यं शुभाढ्यं गुणाढ्यं गुरुं

प्रेमताढ्यं मखाढ्यं शिवाढ्यं शिवं

वेदनाहारकं सत्यसंसारकं

धर्मसङ्घस्थमीडे गुरुं भावुकम्॥१०१॥

 

नम्रता से, शुभता से, गुणता से, प्रेम से, यज्ञ से, शिव से जो धनवान् हैं। कल्याण का स्वरूप हैं। दूसरों की पीड़ा का हरण करने वाले हैं। सत्य ही है संसार जिनका उन धर्म के सङ्घ में बैठे हुए भावुक गुरु को हम नमस्कार करते हैं।

 

विप्रसङ्घं सदा स्थापयँश्चैव यो

धर्मसङ्घं मुदा वर्धयँश्चापि य:

पुण्यसङ्घैकजुट्! सर्वपापप्रमुट्!

यज्ञसम्राजमीडे[83] भवज्जीवनम्॥१०३॥

 

ब्राह्मणों के सङ्घ को जिन्होंने सदा ही स्थापित किया। धर्म के सङ्घ को आनन्दपूर्वक जिन्होंने बढ़ाया। पुण्य के सङ्घ में एकमात्र जुड़े रहने वाले, सभी पापों की चोरी कर लेने वाले, यज्ञों के साम्राज्य वाले आपके जीवन को मैं नमस्कार करता हूं।

 

भारते नैकदेशेषु वेदालयान्

स्थापयन्पोषयन्सम्भरन्मोदयन्

विप्रजातान्बटून् शास्त्रशिक्षाप्रदो

धर्मसङ्घेट्![84] समीडे भवत्सौरभम्॥१०२॥

 

भारतवर्ष में अनेक स्थानों पर वेद की पाठशालाओं को स्थापित करते हुए, भरण-पोषण करते हुए, ब्राह्मण के बटुकों को आनंदित करते हुए जो शास्त्र की शिक्षा प्रदान करने वाले हैं। ऐसे धर्म के सङ्घ से स्तुति की जाती हुई आपकी सुगन्धि को मैं नमस्कार करता हूं।

 

देवतानां मुनीनां गुणीनां कथां

श्रावयन्पावयन्भावयन्शूलिनं

यो जनाँश्चैव पौराणिके योजयेद्

यज्ञसम्राट्! जयेत् पुण्यवाक्! सञ्जयेत्॥१०४॥

 

देवताओं की, मुनियों की और गुणियों की कथा सुनते हुए, पवित्र करते हुए। शिव की भावना करते हुए जो लोगों को पौराणिक रास्ते पर ले जाते हैं, जोड़ते हैं - ऐसे यज्ञसम्राट् आपकी पुण्यरूपी वाणी की जय हो, आपकी जय हो।

 

यश्च काषायवस्त्रैर्यतिर्लक्ष्यते

श्वेतपीताम्बरैश्शोभितो मोदितो

विष्णुवस्त्र: क्वचिद्ब्रह्मवस्त्र: क्वचित्

देहवस्त्रं सदात्मैकसत्यं नुम: ॥१०५॥

 

वे श्रीप्रबल जी महाराज, कभी कषाय वस्त्रों से सन्यासी प्रतीत होते थे। कभी पीले वस्त्र पर पहनने के कारण विष्णुऔर कभी श्वेत वस्त्र पहनने के कारण ब्रह्मचारी मालूम पड़ते थे। लेकिन असलियत यह थी कि वे अपने शरीर को भी एक वस्त्र ही मानते थेऔर आत्मा ही सत्य है - ऐसा ही अपने मन में सोचते थेउनके लिए हम नमस्कार करते हैं।

 

भूसुरास्सर्वदा पूज्यरूपा: मता

वर्धतामाशिषैषां जना:! प्रीणनै:

भूसुराणाम्प्रसादादहं यज्ञकृत्

उक्तवान् यस्तमीडे गुरुं भूसुरम्॥१०६॥

 

ब्राह्मण हमेशा ही पूज्य स्वरूप वाले माने गए हैं। इनके आशीर्वाद से समृद्धि प्राप्त करो, आगे बढ़ो। ब्राह्मणों के ही प्रसाद से मैं आज यज्ञ कर पाता हूं। जो ऐसा हमेशा कहते थे, उन ब्राह्मण गुरु की हम स्तुति करते हैं।

 

धर्मसम्राड्यतेर्दीक्षितं वीक्षितं

दिव्यसम्राट्शिवैरीक्षितं पावितं

देवसम्राण्मखामोददं बोधदं

यज्ञसम्राट्! भवन्तं तमीडे गुरुम्॥१०७॥

 

धर्मसम्राट् स्वामी के द्वारा उन्होंने दीक्षा प्राप्त की और निरीक्षण प्राप्त किया। दिव्यसम्राट् शिव के द्वारा दृष्टि प्राप्त की और पवित्र किए गए। देवताओं के सम्राट् के यज्ञों का आनन्द और ज्ञान देने वाले हैं। यज्ञसम्राट् गुरुवर, आपको हम नमस्कार करते हैं।

 

वैचित्र्यैस्संरवन्तो नियमपरपदैस्सद्गुरुप्रेरितैस्ते

तुर्यादीन्वादयन्तश्श्रुतिपदपठनाद्याजुषात्सुप्रयोगाज्

जोजुह्वन्तो हुताशे शिवशिवजपनाश्शान्तिमन्त्रैर्दिनेषु

ब्राह्मीभासोल्लसन्तो हरितहृदयकाः प्राबलास्सम्बला: न: ॥१०८॥

 

सद्गुरुओं से प्रेरित, नियमपूर्वक पदों का विचित्र स्वर में उच्चारण करते हुए, तूरी आदि वाद्य-यन्त्रों को बजाते हुए, श्रुति के पदों को पढ़ाते हुए, यजुर्वेद के सुन्दर प्रयोग से, हुताशन अग्नि में बार-बार आहुति डालते हुए, शिव-शिव जप करते हुए शान्ति के मन्त्रों से, दिनों के समय, ब्राह्मी आभा से उल्लासित होते हुए, हरे-भरे हृदय वाले प्रबल महाराज के यज्ञ के ब्राह्मण ही हमारा सम्बल है।

 

विद्युट्टङ्कारयुक्ताम्बरजलदगणे वारिधाराश्रियीत्थं

सत्यां नीराप्लुतायामपि हवनभुवि श्रीशमन्त्राहुतीनां

स्वारो यत्राम्बुदानां स्वरगमिततया[85] नाभसान् हूयमानस्

तद्यज्ञस्य प्रधानं प्रबलपदयुगं नौमि भक्त्या हिमांशु: ॥१०९॥

 

आकाश में बिजली की टङ्कार से युक्त बादलों के घिरने पर, वर्षा की धारा रूपी लक्ष्मी के बरसने पर, इस प्रकार हवन की धरती के भी जल से भर जाने पर , विष्णु के मन्त्रों की आहुतियों का स्वर जहां बादलों के स्वर से मिलकर आकाश में स्थित देवताओं को बुला रहा है, उस यज्ञ के प्रधानपुरुष प्रबलजी महाराज के चरणकमलों में, मैं हिमांशु गौड़ भक्तिपूर्वक नमन करता हूं।

 

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आजीवनकृतविविधक्रतुत्त्वाद् यज्ञसम्राडिति पदभ्राजितानां समस्तलोककल्याणदेशकानां ब्रह्मलीनानां श्रीमताम्प्रबलजीमहाराजाणां हिमांशुगौडविरचितमभिनन्दनात्मकं शतकं सम्पूर्णम् श्रीरस्तु

 

आजीवन विविध यज्ञ करने व करवाने के कारण यज्ञसम्राट् इस पदवी को शोभित करने वाले सारे संसार के कल्याण की कामना करने वाले, ब्रह्मलीन श्रीमान् प्रबल जी महाराज का हिमांशु गौड़ के द्वारा विरचित यह अभिनन्दनात्मक शतक सम्पूर्ण हुआ। श्रीरस्तु।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

|| समर्थश्रीशतकम् ||

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क्वचिद्गीताभाष्यं क्वचिदथ शुभं व्याकरणजं

वदेत् तथ्यं हृद्यं नवलविधिभिर्भाष्यहृदयं

क्वचिच्छान्ते वृन्दाविपिननिलये जप्यनिरतस्

समर्थश्रीस्वामी सुखदपथगामी भवतु मे||||

 

कहीं गीता का भाष्य, कहीं शुभ व्याकरण से जनित नव्य तथ्य, कहीं नव्यता लाने वाली विधियों से पातञ्जल भाष्य के हृदय के मनोरम तथ्य, कहीं शान्त वृन्दावन के आश्रम में जप करने में लगे हुए, समर्थस्वामी सुख प्रदान करने वाले पथ के गामी हों।

 

क्वचिद्देवीपूजाविधिसुखकरं दिव्यगतिकं

क्वचिद्दन्तिश्रेष्ठत्वपरकसुभाष्यं च वदति

क्वचिद्विद्वज्जीव्येक्षणकथनवार्तासु निरतस्

समर्थश्रीस्वामी शिवदपथगामी भवतु मे||||

 

कहीं देवी की पूजा की विधि का सुख देने वाला दिव्य गतिक भाष्य, कहीं गणेशजी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने वाला सुन्दर भाष्य कहते हैं। कहीं विद्वानों के जीवन का समीक्षण करके उनका कथन और वार्ताओं में लगे रहते हैं। ऐसे स्वामी शिव प्रदान करने वाले पथ के गामीं हों।

 

विलोक्य श्रीविष्ण्वाश्रमयतिपवित्राश्रममहो

बिहाराख्यं घट्टं भवति नवतौजस्कहृदयो

रमेशे चोमेशे सममतियुतश्शास्त्रसदनस्

समर्थश्रीस्वामी हवनविधिवक्ता भवतु मे||||

 

जो बिहारघाट नाम से प्रसिद्ध है उस श्रीविष्णु आश्रम जी महाराज के पवित्र आश्रम को देखकर ताजगी और उत्साह से उनका हृदय भर जाता है। रमेश और उमेश में समान बुद्धि को धारण करने वाले हैं। सभी शास्त्र ही उनका घर है। ऐसे समर्थस्वामी हवन की विधि का वाचन करें।

 

अघोरेभ्यो घोरेभ्य इति शुभमन्त्रस्य कथने

महत्वाभापूर्णो भवति सहसा भावुकवच:

कवित्वे शास्त्रार्थे द्रुतमतिगतिर्देवयतिकस्

समर्थश्रीस्वामी नयनपथगामी भवतु मे||||

 

अघोर मन्त्र की चर्चा करने के समय महत्त्व की आभा से पूर्ण भावुक वाणी वाले हो जाते हैं। कवित्व और शास्त्रार्थ में तेज बुद्धि की गति वाले। देवमुनि की तरह हमें दर्शन दें।

 

क्वचिद्दान्तश्शान्तश्श्रयति हरिपीयूषसरणीं

क्वचिज्जीर्णे शीर्णे सुरसलिलनद्यालय इह

जपेद्गङ्गे गङ्गेऽश्रुनयनयुतो भावुकतया

समर्थो गङ्गात्मा नरवरनिवासी भवतु मे||||

 

कहीं दान्त और शान्त होकर हरि के अमृत की लहरी का पान करते हैं। कहीं जीर्ण-शीर्ण कुटिया में गङ्गा जी के किनारे बैठते हैं। कहीं भक्ति के आंसुओं की धारा से गङ्गा-गङ्गा इस शब्द का उच्चारण करते हैं। गङ्गा में है आत्मा जिनकी, ऐसे समर्थस्वामी नरवरनिवासी हों।

 

हृदा बाबागुर्वाशयविदथ तेषाम्प्रियतरो

मुदा विष्णुश्रीणां चरणरजसां सेवनपरस्

सदा यज्ञेशश्रीप्रबलमुनिसेवाव्रतरतस्

समर्थोऽर्थप्रार्थाविमुखहृदयो जीवतु चिरम्||||

 

हृदय से बाबा गुरु के कहे गए आशय को जानने वाले और उनके प्रिय। आनन्दपूर्वक विष्णु आश्रम जी महाराज की चरणरज के सेवन में तत्पर। सदा यज्ञसम्राट् श्रीप्रबलमुनि की सेवा का व्रत धारण करने वाले, धन की प्रार्थना से विमुख, समर्थस्वामी दीर्घजीवी हों।

 

सवित्राभादीप्तो यमनियमचारी द्विजहितो

गवाम्प्रेमी नानामखनियमसारी शिवरतो

धियां सद्बालानामनुदिनमहो प्रेरणपरस्

समर्थात्मा स्वामी हितकरवचश्श्रावयतु मे||||

 

सवितृ-मन्त्र की प्रभा से दीप्त व्यक्तित्व। यम-नियम का आचरण करने वाले। ब्राह्मणों के हितैषी। गायों से प्रेम करने वाले। विभिन्न प्रकार के यज्ञों के नियम का अनुसरण करने वाले। शिवरत, बालकों की बुद्धि को प्रतिदिन प्रेरणा देते रहते हैं। वे हमें हितकर वचन सुनाएँ।

 

गणाधीशे श्रीशे नगपतिसुतेशेऽश्रुनयनैस्

सुरेशे वागीशे जलपतिपदे भावभरितैर्

मखेशे सीतेशे सरससरलैर्वाक्यनिचयैस्-

समर्थ: पुण्यात्मा जनगणमहो प्रेरयति वै||||

 

गणाधीश, श्रीश (विष्णु), नगपति की सुता (पार्वती) के ईश अर्थात् शिव, सुरेश (इन्द्र), बृहस्पति, वरुण के पद में, यज्ञपति में, राम में सरस और सरल वाक्यों से वो पुण्यात्मा स्वामी जनसमुदाय को निश्चित ही प्रेरित करते हैं।

 

त्रिपुण्ड्रं धृत्वा यश्श्रयति शिवतां शैवपुरुषस्

त्रिशूलं दृष्ट्वा यो भवति निजधर्माहवरतस्

त्रिकालं हृष्ट्वा स्वीकुरुत इव सर्वं हरिमयं

समर्थो गोपालो दिशतु नवगीतं कविमिमम्||||

 

जो शैवपुरुष त्रिपुण्ड्र धारण करके शिवत्व प्राप्त करते हैं। त्रिशूल देखकर जो अपने धर्म के युद्ध के लिए तत्पर हो जाते हैं। भूत, भविष्य, वर्तमान - इन तीनों कालों को आनन्दित होकर स्वीकार करते हैं, क्योंकि ये सारा संसार हरिमय है। वे गोपाल समर्थ जी मुझे मुझे किसी नए गीत की दिशा दिखाएं।

 

पचौरीवार्ताभिर्हसनपरकाभिश्च मुदित:

पचौरीज्योतिर्ज्ञानलभनसदिच्छाश्रितमना:

पचौरीसम्बन्धे विविधकथनाख्यानरसिकस्-

समर्थश्रीस्वामी नरवरनिवासी भवतु मे||१०||

 

हास्य रस में सनी हुई पचौरी गुरुजी की वार्ताओं से आनन्दित होने वाले। पचौरी जी के ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान को लेने की इच्छा वाले। पचौरी जी के सम्बन्ध में विविध कथन और आख्यान में रस लेने वाले। समर्थश्री स्वामी दोबारा नरवरनिवासी होवें।

 

"पचौरीतिख्यात्या प्रथितसुरदूतेन विदुषा

फकीराबादाख्ये विमलजनजुष्टे सुविपिने

विनोदार्थं स्वस्य व्यरचि भवनं जीर्णवपुषा"

इति श्रीबाबोक्तिं सफलपरकां वेत्ति स यति:||११||

 

पचौरी इस उपनाम से प्रसिद्ध देवदूत विद्वान् ने सज्जन मनुष्यों से युक्त सुन्दर जङ्गल में, फकीराबाद नाम के स्थान पर अपने विनोद के लिए वृद्धत्त्वकाल में ये भवन बनाया है  - ये जो श्रीबाबागुरुजी की सूक्ति है, यह निश्चित ही सफलतापरक है, और समर्थजी इस बात को जानते हैं।

 

पचौरीविज्ञानां दशसमनिवासै: प्रगतिभि:

पचौरीव्याख्यानैर्व्रजति नवतथ्यं यतिवर:

पचौरीहास्यैश्च व्यपगमितदु:खो भवति यस्

समर्थश्रीस्वामिन्! नरवरनिवासी भव पुनः||१२||

 

पचौरी नामक विद्वान् के दस साल निवास के द्वारा उनकी प्रगतियों द्वारा, और पचौरीजी के व्याख्यानों से नए तथ्य को जो स्वामी प्राप्त करते हैं। पचौरी जी से सुनी हुई हास्यवार्ता से जिनका दुख दूर भाग जाता है, ऐसे आप समर्थश्री दोबारा नरवरनिवासी हो जाओ।

 

पचौरीसामर्थ्यं नरवरगतं वेत्त्यपि च य:

पचौरीदिव्यार्थं सकलजनतां यः प्रवदति

पचौरीज्ञानानां प्रतिभवपुषां सारणरतस्

समर्थश्रीर्नूनं नरवरविभाभि: प्रकटित:||१३||

 

नरवर में होने वाली पचौरीजी की सामर्थ्य को जो जानते हैं। रोज पचौरीजी के शास्त्रों के दिव्य अर्थों को जो सारी जनता को बताते हैं। पचौरीजी के विभिन्न ज्ञान को और महान् प्रतिभायुक्त स्वरूप को जो हर जगह प्रसारित करते हैं। ऐसे समर्थश्री निश्चित ही नरवर के प्रभाओं से प्रकट हुए हैं।

 

स वै बाबागुर्वाश्रमबटुकवीक्षामुदितहृत्

स वै बाबागुर्वाशयमथ तनोति स्ववचसा

स वै बाबागुर्वाश्रयगतजनैर्हृष्यति सदा

समर्थो बाबागुर्वतिशयदयाभृत्त्वमयते||१४||

 

वे गोपालजी, बाबागुरुजी के आश्रम के बटुक को देखकर आनन्दित हृदय वाले हो जाते हैं। वे निश्चित ही बाबागुरुजी के आशय को अपनी वाणी से और भी विस्तार पूर्वक बताते हैं। वह बाबागुरु के आश्रय में आए हुए लोगों से बहुत हर्षित होते हैं। समर्थश्री बाबागुरुजी के अतिशय दयाधारण के स्वभाव को प्राप्त करते हैं।

 

समालोक्यैवं यस्सुरसलिलनद्याश्शुभतटं

"अहो प्राप्तो गेह"स्त्विति मनसि नैजे विचिनुते

वयो नीतं येन श्रुतिशरणतायां स हि यतिस्

समर्थश्शान्तात्मा शतसमसुखायूंषि लभताम्||१५||

 

देवताओं की नदी गङ्गा जी के शुभ किनारे को देख कर, "ओहो मेरा घर आ गया" - ऐसा जो अपने मन में चुनते हैं। वेदों की शरण में ही जिसने अपनी सारी उम्र गुजार दी, ऐसे शान्त आत्मा वाले समर्थश्री सौ साल की सुख भरी आयु को प्राप्त करें।

 

समालोक्य च्छात्रान्स्वपठनदिनानि स्मरति य:

पुनर्दृष्ट्वा तान् यो नरवरदिनानि स्मरति च

क्वचिच्चाञ्चल्येनापि तदिव समावर्तनमना:

समर्थश्छात्रात्मा नरवरसुवासी भव पुनः||१६||

 

छात्रों को देखकर जो अपने पढ़ने के दिनों को याद करते हैं। फिर उन्हें दोबारा देखकर जो नरवर के दिनों को स्मरण करते हैं। कभी मन में चञ्चलता भरने पर छात्रों जैसा ही आचरण करते हैं, ऐसे समर्थ छात्रों की आत्मा हैं, वे नरवर की सुगन्धि हैं।

 

विहायार्थीं चिन्तां गृहजनितदु:खात् पृथगहो

समुज्झित्यात्मीयानिव सकलमोहप्रदजनान्

वयस्यादौ सेवेत नरवरभूमिं वदति यस्

समर्थो बाल्यस्मारणनयितपन्था: भवतु मे||१७||

 

धन की चिन्ता छोड़कर, घर के झंझट से दूर होकर। मोह देने वाले आत्मीय बन्धुजनों को छोड़कर जीवन की शुरुआत अर्थात् बचपन में छात्र के रूप में नरवर की भूमि का सेवन करना चाहिए - जो ऐसा बोलते हैं, ऐसे समर्थजी हमें अपने बाल्यकाल की याद दिलाने वाले रास्ते पर ले जाने वाले हों।

 

प्रतिष्ठां सम्मानं धनजनपदादीन् क्व गणयेत्

महिष्ठां सत्कीर्तिं कविकुलसुलभ्यां क्व च पुनः

सुखं छात्रावस्थागतमिति भवेद्भावुकमनास्

समर्थश्छात्रात्मा हरहरसुघोषी भव पुनः||१८||

 

प्रतिष्ठा, सम्मान, धन, जनपद आदि की कहाँ गिनती करें! महान् सत्कीर्ति, जो कवि के कुल (कविकुलं प्रतिभया भवति) से सुलभ है, उसको भी कहां देखें। अरे, छात्रावस्था का जो सुख है उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती - ऐसा सोचकर जो भावुक मन वाले हो जाते हैं - ऐसे समर्थस्वामी छात्ररूपी आत्मा वाले हैं। वे पुनः नरवर में रहकर हर-हर का उद्घोष करें।

 

कुरुक्षेत्रे पुण्ये प्रबलगुरुभिर्य: कनखले

क्वचिन्मुम्बय्यां वा भरतपुरभूमौ मखकरो

हरिद्वारे दिल्ल्यां जबलपुर इन्दौरनगरे

समर्थो यज्ञात्मा हवनमहिमानं वदतु माम्||१९||

 

कुरुक्षेत्र, पुण्यभूमि कनखल, मुम्बई, भरतपुर की भूमि, हरिद्वार, दिल्ली, जबलपुर, इन्दौर इत्यादि नगरों में प्रबलगुरु के द्वारा आयोजित यज्ञों के स्थलों पर यज्ञ से आत्मीयभाव बनाए समर्थ मुझे हवन की महिमा बताएँ।

 

स्वकीयैर्यश्शिष्यैश्चरति सह रुद्रस्य यजनं

पुनर्गत्वैकान्ते हरिहरगतं चैव भजनं

मृषा मायैषा रे कुरुत सुकृतानीति वदति

समर्थो वैराग्याश्रितहृदयतो यातु शिवताम्||२०||

 

अपने शिष्यों के साथ जो रुद्र का यजन करते हैं। फिर एकान्त में जाकर हरिहर का भजन करते हैं। ये सारी माया झूठी है रे, पुण्य इकट्ठा करो- ऐसा बोलते है। वे समर्थ वैराग्याश्रित हृदय से शिवत्व को प्राप्त करें।

 

सहस्रैस्सद्विप्रैस्सह यजनकृद्वैदिकवरैस्

सहस्राख्याभिश्श्रीगणपतिसमर्चाञ्च कुरुते

सहस्रश्रीशाख्या: जपति जयकाव्यार्थरमणस्-

सहस्रैश्चिन्त्यैरावृणुत इव लक्ष्यं स नियमी ||२१||

 

एक हजार सत्वगुणी, श्रेष्ठ वैदिक ब्राह्मणों के साथ बैठकर यज्ञ करते हैं। गणेश-सहस्रनाम से गणेश जी की समर्चना करते हैं। श्रीश विष्णु के सहस्रनाम का जप करते हैं। वे जयकाव्य (महाभारत) के गूढार्थों में रमते हैं। वे नियमी, हजारों चिन्तनों से अपने लक्ष्य का वरण करते हैं।

 

विनोदार्थं विद्याभ्यसनमिति शिष्यान् प्रवदति

प्रमोदार्थं शास्त्राश्रयणमिति दृश्यानि नुदति

प्रबोधार्थं गीतामनुदिनमरे! गायत समे!

समर्थो गीतात्मा विविधगतिभिर्याति शुभताम्||२२||

 

विद्या का अभ्यास करना भी खुद के विनोद के लिए है - ऐसा शिष्यों को बताते हैं। शास्त्र का आश्रय लेना भी प्रमोद के लिए है - ऐसा दृश्यों को[86] प्रेरित करते हैं। आप सभी लोग, अपने निजी जागरण के लिए गीता को रोजाना गाओ। गीतों की या गीता की आत्मा वाले समर्थ विभिन्न गतियों से मङ्गल को प्राप्त करते हैं।

 

विवेकेनैवास्ति प्रतिदिनमहो नव्यसुगतिर्

विवेकेनैवाप्यं सकलविपदां चापि शमनं

विवेकान्नश्यन्ति ह्यरिजनगणा दुष्टहृदयाः

विवेकात्मा स्वामी नरवरनिवासी भवतु मे||२३||

 

विवेक से ही प्रतिदिन नई सुन्दरगति प्राप्त कर सकते हैं। विवेक से ही सारी आपत्तियों का शमन हो सकता है। विवेक से ही दुष्ट हृदय वाले सभी शत्रु नष्ट होते हैं। ऐसे विवेकपूर्ण आत्मा वाले स्वामी नरवर निवासी हो जाएं।

 

विवेकान्नानन्द: परतर इति श्रीयत इव

विवेकैर्जीवेद्योऽवनतिरपि पश्येन्न सुजनं

विवेकैस्साफल्यं झटिति लभतेऽल्पेन च पथा

विवेकभ्राजात्मा नरवरसुखानि श्रयतु मे||२४||

 

विवेक से बढ़कर कोई आनन्द दूसरा नहीं हैं - ऐसा वे सेवन सेवन करते हैं। जो विवेक से जीवित  रहते हैं उनको अवनति कभी देखती नहीं है अर्थात् वे कभी अंधेरे के गड्ढे में नहीं गिरते। विवेक द्वारा ही जल्दी और छोटे रास्ते से सफलता प्राप्त होती है। ऐसे विवेक से शोभित आत्मा वाले, वे स्वामी हमारे नरवर के सुखों को सेवन करें।

 

सदा देवेशार्चा फलति निरयं चैव हरति

अहो देवेशार्चा जगति जयदाऽलोकसुखदा

पुनर्देवेशेच्छाश्रितमिति जगज्जालमखिलं

सदेवेशस्स्वामी[87] नरवरविभावी भवतु वै||२५||

 

देवेश शिव की अर्चना ही सदा फलवती होती है, और नरक के दुख को हरती है।  देवेश की अर्चना ही इस संसार में विजयप्रद तथा अलौकिक सुख देने वाली है। यह सारा जगत् का जाल देवेश की इच्छा के ही आश्रित है (उनकी इच्छा हो तो यह जगत का जाल नष्ट भी हो सकता है) ऐसे देवेश के सहित वे स्वामी नरवर की ही विशिष्ट भावना वाले दोबारा बन जाए।

 

"न वै चिन्ता कार्या यदि सुखगतिर्नैव तव हे!

न वै धैर्यं हेयं यदि विपदि मग्नस्सुजन रे!

समं साधिष्यत्येव कपिसमर्चेति[88]" वदति

स चिन्ताग्न्यप्स्वामी कपिवरकथाश्श्रावयतु मे||२६||

 

अगर जीवन में सुख का समय नहीं है तो चिन्ता मत करो। यदि आफत में फंस गए हो, डूब गए हो, तो हे सज्जन! अपने धैर्य को मत छोड़ो। हनुमान् जी की पूजा से सब कुछ ठीक हो जाएगा - ऐसा कहते हैं। वे चिन्ता रूपी अग्नि के लिए पानी का काम करने वाले स्वामी, मुझे कपीश हनुमान् जी की कथा सुनाएं।

 

"कपीशो रामात्मा रमयति च चित्तं हरिपदे

कपीशो ध्यानात्मा भजति हरिरित्येव सततं

कपीशश्शुद्धात्मा बलवदखिलेशो" वदति य:

कपीशात्मा स्वामी हनुमति सुनिष्ठो भवतु मे||२७||

 

कपीश हनुमान् जी ही राम की आत्मा हैं, और हमेशा अपने दिल को हरि के पद में ही रमाते हैं। हनुमान् जी ज्ञानात्मा हैं। वे सदैव हरि (राम) का ही भजन करते हैं। निरन्तर हनुमान् जी शुद्ध आत्मा वाले, बलवान् और सबके स्वामी हैं।[89] ऐसा कहने वाले, हनुमान् जी की आत्मा वाले स्वामी हनुमान जी में ही प्रतिष्ठित हो जाएं।

 

हनूमान् भावाढ्यो हनुमति शिवत्वं श्रयत रे

हनूमान् प्रेमाढ्यो हनुमति हरित्वं जपत रे

हनूमान् श्रीबाबागुरुफलकरश्चेति वदति

हनूमद्बाबात्मा नरवरसुखात्मा भवतु मे||२८||

 

हनुमान् जी भावनाओं को प्रेम करने वाले हैं, भावनाओं से सम्पन्न हैं। हनुमान् जी में ही शिवजी का सेवन करो। हनुमान् जी प्रेम से सम्पन्न हैं, इसलिए हनुमान् जी में विष्णु का ध्यान करके उनका जप करो। हनुमान् जी श्रीबाबागुरुजी को विशिष्ट फल देते हैं - ऐसा जो हमेशा कहते हैं, वे हनुमान् जी और बाबागुरुजी की आत्मा वाले बनकर नरवर की सुखात्मा भी बन जाएँ।

 

"सदा राधे राधे रटत रटते"ति प्रवदति

"मुदा श्यामश्श्यामस्त्विति रसनयास्वादयत रे

पुना "राधे श्यामा"ह्वयत हृदयैर्भक्तसुजना:!"

स राधाश्यामात्मा रमयतु सुरम्ये हरिजनान्||२९||

 

हे भक्त सज्जनों! सदा  राधे-राधे रटो - ऐसा कहते हैं। फिर आनन्दपूर्वक अपनी जीभ से श्याम-श्याम का अस्वादन करो। फिर अपने हृदय से - राधेश्याम - ऐसा आवाहन करो। वे राधाश्यामात्मा स्वामी, रमणीय संसार में हरिजनों को रमाएँ।

 

सुधीनामानन्दं तनुत इव काव्यैर्हरिमयै:

प्रधीनामानन्दं वितनुत इव श्रौतवचनै:

जनानामानन्दं हरहरवचोभि: प्रकुरुते

सदानन्द! स्वामिन् नरवरसुगन्धिर्भव पुनः||३०||

 

हरिभक्तिपूर्ण काव्यरचना के द्वारा जो विद्वानों का आनन्द बढ़ाते हैं। श्रौतवचनों से प्रकृष्ट बुद्धि वालों का आनन्द बढ़ाते हैं। हर-हर महादेव ऐसे वचन बोलकर जो जनता का आनन्द बढ़ाते हैं, वे आनन्दस्वरूप स्वामी दुबारा नरवर की महक बन जाएँ।

 

अहो बाबावैदुष्यमिति स निमज्जेन्मधुरसे

अहो बाबाचर्येति मनसि विचिन्त्यैव नमति

अहो बाबाशीर्वादफलवितरत्वं द्विजगणे

स बाबात्मा स्वामी शिवनिलयवासी भवतु वै||३१||

 

ओहो बाबागुरुजी का वैदुष्य कितना महान् है - ये सोच कर जो मधुर रस में डूब जाते हैं। बाबागुरुजी की दिनचर्या कितनी महान् है - ऐसा सोचकर जो मन में ही उनको नमन करते हैं। बाबा के आशीर्वाद के फल का वितरण ब्राह्मणों में कितना सुन्दर है - ऐसा सोचकर वे बाबा की आत्मा वाले स्वामी, शिव के घर में वास करें।

 

शिवो ध्येयो गेयो निखिलजनताभिश्च भुवने

शिवो गण्यो मान्यो बहुजनसमाजैरपि सदा

शिवान्नान्यत्किञ्चित्परतरमिति प्राह च यश्

शिवप्रेमी स्वामी शिवजपसुदीक्षां प्रतनुते||३२||

 

हमेशा शिव का ध्यान करना चाहिए, उनका ही गुणगान करना चाहिए। इस सारे संसार में सब जनता द्वारा, बहुत जनों के समाजों द्वारा भी शिवजी ही गणना में श्रेष्ठ हैं, वे ही सम्माननीय हैं। शिव से अन्यत्र कोई भी, कुछ भी, मैं नहीं देखता हूं - ऐसा जो हमेशा कहते हैं। वे शिवप्रेमी स्वामी, शिव जी के जप की दीक्षा का भी प्रसार करते हैं।

 

गणेशादेतद्वै भवति जगदित्येव लभतां

गणेशे चिन्ता ते प्रतिदिनमहो वृद्धिमयतां

गणेशाय प्रेम्णा मधुमयपदार्थान् कुरुत रे

गणेशात्मा स्वामी गुणगणगिरश्चोद्गिरतु माम्||३३||

 

गणेश जी से ही यह सारा संसार बनता है - इस तथ्य को प्राप्त करो। गणेशजी में ही तुम्हारा चिन्तन की हमेशा वृद्धि होनी चाहिए। गणेश जी के लिए प्रेमपूर्वक मधुर पदार्थ लड्डू आदि अर्पित करो - ऐसे गणेशात्मा, गुणगणों की वाणियों को मेरे लिए बताएं।

 

"गणेशाज्जायन्ते सकलभुवनानीति वदति

गणेशै: पाल्यन्ते विविधजनताश्चेति सरति

गणेशो वै हन्तीत्यखिलजनिविश्वानि च पुनो

गणेशात्मा ज्ञानी नरवरनिवासी भवतु मे||३४||

 

और गणेश जी ने ही सारे भुवन (लोक) बनाए हैं। गणेश जी ही विभिन्न रूपों में प्रकट होकर सब जनता का पालन करते हैं - ऐसा अनुसरण करते हैं। और फिर गणेश जी ही इस सारे उत्पन्न विश्व का विनाश करते हैं। श्रीगणेश में अपनी आत्मा को लगाए हुए ज्ञानी, पुनः नरवरनिवासी हों।

 

गणेशाज्जायेतप्रियपतिगुरौ सृष्टिरखिला

श्वसेन्नृत्येत्स्फूर्त्ता वसति हसति श्वेतवसना

गणेशे लीयेत प्रलयसमये लोकसरणी"-

वदेद्यस्स स्वामी गणपतिकथाश्श्रावयतु माम्||३५||

 

गणेश जी से ही पैदा होती है, और प्रियपति गुरु में ही सारी सृष्टि सांस लेती है, नाचती है, स्फूर्त होती है, निवास करती है। सरस्वती भी गणेश जी में ही हंसती है। गणेश में ही प्रलय के समय सारे संसार की सीढ़ी विलीन हो जाती हैं - ऐसा जो कहते हैं, वे स्वामी मुझे गणपति की कथाएं सुनावें।

 

हिमांशो: काव्यानि श्रयणरमणीयानि वदति

हिमांशोर्भाव्यानि प्रियतरमयानीति मम वै

हिमांशोर्या शैली न न न न न चान्यस्य विदुषो

वदेद्यस्सस्स्वामी नरवरनिवासी भवतु मे||३६||

 

हिमांशु के काव्य सेवन करने से बहुत रमणीय है - ऐसा कहते हैं। हिमांशु के जो सुन्दर भाव हैं, वे मेरे लिए बहुत ही प्रियतम लगते हैं। हिमांशु की जो शैली है - वो अन्य विद्वान् की नहीं - ऐसा जो स्वामी कहते हैं, वे नरवरनिवासी होवें।

 

गुणाकर्ष्या श्रीश्च श्रमपरजनैर्भाग्यविरतै:

क्वचिद्भाग्यैर्लभ्या सुकृतजनितं भाग्यपदकं

अहो पुण्यापुण्ये सुखमसुखमेते प्रददत:

वदेद्यस्सस्स्वामी नरवरनिवासी भवतु मे||३७||

 

लक्ष्मी गुणों से आकर्षित होती है, जो भाग्य से विरक्त होकर अपने लक्ष्य हेतु श्रम में जुटे रहते हैं - उनके द्वारा ये लक्ष्मी प्राप्त की जाती है। किन्तु कभी-कभी ये भाग्य द्वारा भी प्राप्त होती है। और भाग्य हमारे द्वारा किए पुण्यकर्मों से उत्पन्न होता है। पुण्य और पाप से ही सुख और दुख - ये दोनों मिलते हैं। इस तरह कर्म-भाग्य, पाप-पुण्य का विवेक करने वाले स्वामी दोबारा नरवर निवासी होवें।

 

घृणा द्वेषश्चेर्ष्या परगुणविमानोऽतिकथनं

सदालस्यं हास्ये परजनविनिन्दैव नितराम्

इमे दोषा: विद्वांसमपि नरकत्वं प्रददति

वदेद्यस्स स्वामी नरवरनिवासी भवतु मे||३८||

 

घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, दूसरे के गुणों का अपमान करना, ज्यादा बोलना, सदा आलस करना। दूसरों की खूब निन्दा करके हंसी उड़ाना। ये दोष विद्वान् को भी नरक में ले जाते हैं - ऐसा कहने वाले स्वामी नरवर में निवास करें।

 

रमेशस्याशीर्वै फलति मनुजस्योदयविधौ

रमेशस्यार्चा वै सकलभयहन्त्री सुखकरी

रमेशो नौका दुस्तरभयभवाब्धेश्च तरणी

समर्थश्चेत्युक्त्वाऽश्रुनयनयुतो ध्यायति हरिम्||३९||

 

रमेश का आशीर्वाद ही सदा फलता है। मनुष्य की उन्नति की विधि में रमेश की पूजा ही सारे भयों को नष्ट करती है और सुख देती है। इस दुस्तर, भयानक भवसागर से उतारने वाली नौका रमेश ही हैं। समर्थजी ऐसा कहकर भक्ति के आंसुओं से भीगे चेहरे वाले होकर हरि का ध्यान करते हैं

 

रमेशश्चोमेशो नहि नहि पृथक्तत्त्वमथ रे

रमेशश्चोमेशो नहि नहि विभाज्यौ मतिधनै:

रमेशश्चोमेशो नहि न विपरीतौ क्वचिदपि

समर्थश्चेत्युक्त्वा विशदयति तत्त्वं स्ववचसा||४०||

 

रमेश और उमेश - ये दोनों अलग-अलग तत्व नहीं हैं। रमेश और उमेश इन दोनों को बुद्धि है धन जिनका, ऐसे बुद्धिमानों द्वारा बाँटना नहीं चाहिए (तत्त्वदर्शी होने के नाते)। रमेश और उमेश एक दूसरे के विपरीत कभी नहीं हैं। ऐसा कहकर समर्थ अपनी वाणी द्वारा तत्त्व का विशदीकरण करते हैं।

 

रमेशस्याह्वानं कुरु कुरु विहायाखिलमलं

रमेशस्य ध्यानं कुरु कुरु सुखं तत् फलकरं

रमेशस्य ज्ञानं न हि शतशतश्रौतवचसा

सुशक्यंयो वक्ति प्रियतरपथं निर्दिशतु व:||४१||

 

सारे मानसिक मलों को छोड़कर रमेश का आवाहन करो। रमेश का ध्यान करो, क्योंकि वह फलदायी है। सौ-सौ वैदिक वाक्यों से भी रमेश का वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता - ऐसा कहने वाले स्वामी, तुम्हें प्रियतर कल्याण मार्ग का निर्देश करें।

 

प्रशंसां यस्याहं ह्युदयपुरमेवाडभवने

प्रकुर्वे संस्थित्य श्रुतिपथपरस्येह सुविधैः

सुपद्यैस्सच्चिन्तोन्नतिकरसुमार्गा शिखरिणी

शतं सौख्यं गच्छेन्नरवरपुरात्मा यतिवर:||४२||

 

मैं यहाँ उदयपुर, मेवाड़ के भवन में रहकर जिस श्रुति के पथ पर चलने वाले स्वामी की प्रशंसा सुन्दर विधाओं से, सुन्दर पद्यों से, सच्चिन्तन होने के कारण उन्नति की तरफ ले जाने वाले शोभासम्पन्न मार्ग वाली इस शिखरिणी से मैं यह काव्य कर रहा हूँ, (उससे) नरवर नगर की आत्मा वाले संयमियों में श्रेष्ठ स्वामी विभिन्न सुखों को प्राप्त करें।

 

मया छात्रावासे गुरुकुलनिवासे दशसमैर्

व्यतीतो य: कालो नरवरधरण्यां श्रुतिपदै:

समुत्कीर्णस्स्वर्णाक्षरसुरगिरा नीलगगने

इति श्रित्वा कल्पां व्रजति सुखतां वै यतिवर:||४३||

 

मैंने छात्रावास में गुरुकुल में निवास का जो समय बिताया, वह वैदिक स्वर्णाक्षरों से, देववाणी में नीलगगन पर उत्कीर्ण हो गया, ऐसा अनुभव करके वे सुखद कल्पना को प्राप्त करते हैं।

 

क्वचिद्गङ्गाक्रोडे सकलदिवसे कूर्दनमहो

क्वचिज्जाह्नव्यम्बौ तरणशरणं मोदितहृदा

मिथो हस्तैस्तत्राम्बुनिचयसमुत्ताडनमिह

इति स्मृत्वा स्मेरैर्नरवरदिनानि स्मरति स:||४४||

 

कभी गङ्गा जी की गोद में पूरे दिन कूदना, कभी जाह्नवी के जल में आनन्दपूर्वक खूब तैरना, गङ्गा जी में खेलते समय[90] दो मित्रों का आपस में पानी से एक दूसरे को मारना - ये सब अपने छात्र काल के दिनों स्मरण करते हुए उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है, और वे नरवर में बिताए दिनों को याद करते हैं।

 

क्वचिद्रुद्रीपाठे स्वगुरुगिरयाऽन्यस्य च गिरा

कथं मन्दीकार्येति लयसरणीं वाप्य मुदित:

पुनश्शैलीवैशिष्ट्यमपि गतितीव्रत्वमथ वा

क्व वैलम्ब्यै: पाठ्यंनरवरितया वेत्ति स यति:||४५||

 

कभी रुद्री-पाठ में अपनी भारी आवाज से दूसरे की आवाज को कैसे मन्द करना (दबाना) है - ऐसी वेद-पाठ करने की लय-पद्धति को प्राप्त करके आनन्दित होना। फिर वेद बोलने की विशिष्ट शैली, कहीं मन्त्रों को तेज गति से बोलना या कहीं धीरे-धीरे बोलना  - नरवरीय होने के कारण ये सब (छात्रकालीन चाञ्चल्य) बातें स्वामी जी जानते हैं।

 

गुरूणां पाठेषु श्रयतु कथमेवावगमनं

पुनस्तैर्यत्प्रोक्तं कथमिव विजानातु झटिति

फणिप्रोक्तेस्तात्पर्यमपि पदभाष्ये निगदितं

समं छात्रे काले नरवरमये वेत्ति स सुधी:||४६||

 

गुरुओं के पाठों में कैसे जल्दी शास्त्रपङ्क्तियों को समझा जाए, फिर जो उन्होंने कहा है उसको जल्दी से कैसे जाना जाए[91]। फणि (पतञ्जलि) की उक्ति का तात्पर्य जो व्याकरण-महाभाष्य में बतलाया गया है – उसको पढ़ने-पढ़ाने का, समझने का सब अन्दाज/तरीका नरवर के वातावरण में छात्रकाल में तीव्रबुद्धि वाले ने जाना है।

 

क्वचिद्रुद्राध्याये पठनसमये मित्रविगतिं

समालोक्य स्वारीं त्रुटिमपि निबोध्याशुमतिक:

सहाध्येतृप्रीतिं व्रजति वयसश्चादिसमये

समर्थश्छात्रात्मा नरवरदिनानि स्मरतु मे||४७||

 

कभी रुद्री-पाठ के समय मित्र की विपरीत गति को, दुर्गति को देखकर या स्वरसम्बन्धित त्रुटि को देख, उसको उसके सम्बन्ध में अवगत करवा के (कि तुम यहां त्रुटि कर रहे हो) , (आशुमतिक) तुरतबुद्धि वाले  वे, अपने सहपाठी के प्रेम को भी प्राप्त करते हैं, ऐसे बचपन के समय में समर्थ जब छात्रात्मा थे, वे हमारे नरवर के दिनों को स्मरण करें।

 

अहोऽधीत्यात्रैव प्रथितकरपात्रस्य विदुषो

यशांसि श्रेयांसि क्रतव उत विश्वे धवलिमा

सरन्ति श्रीलानि श्रुतिमयवपूंषीव जगते

समर्थस्तत्रैवं नरवरगृहेऽधीतविबुध:||४८||

 

ओहो, यहीं अध्ययन करके विख्यात करपात्र नामक विद्वान् की प्रसिद्धि, कल्याण तथा यज्ञों की वृद्धि हुई। विश्व में उनकी साफ-सुथरी छवि (धवलिमा) फैली। उनका श्रुतिमय स्वरूप, उनका मङ्गलत्व संसार के लिए प्रकट हुआ, समर्थ भी यहां नरवर रूपी घर में पढ़े हुए विद्वान् हैं।

 

"द्विजत्वं क्षात्रं वा सकलमपि जन्माश्रितमिति

वणिक्त्वं शूद्रत्वं भवति मनुजानां च जनित:

जनित्वं पूर्वस्मिन् सुकृतकुकृताद्यैश्च भवति

चतुर्वर्णत्वं तत् त्वृषिनिगदितं"- वक्ति स यति:||४९||

 

ब्राह्मणत्त्व, क्षत्रियत्त्व, वैश्यत्त्व, शूद्रत्त्व - ये सब जन्म से होता है। और जन्म जो है, पूर्व जन्म में किए हुए सत्कर्म और बुरे कर्म के अनुसार प्राप्त होता है। इस तरह चतुर्वर्ण का व्याख्यान ऋषियों द्वारा कहा गया है - ऐसा ये स्वामी बोलते हैं।

 

सदा मन्त्रे तन्त्रे विधिलिखितयन्त्रेऽप्यथ पुनः

कुरु श्रद्धां बद्ध्वैकनियमविधौ चित्तसरणीं

फलन्तीत्थं चैते परधनकलत्रे विरतित:

स मन्त्रश्रद्धालुर्नरवरनिवासी भवतु मे||५०||

 

मन्त्र, तन्त्र और विधिपूर्वक लिखे हुए यन्त्र में भी सदा श्रद्धा धारण करो। एक नियम की विधि में अपने चित्त की लय को साधो। दूसरे के धन और स्त्री में वैराग्य धारण करो, तब यह तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र फलदायी होते हैं।  ऐसा मानने वाले, मन्त्रों में श्रद्धालु स्वामी नरवर-निवासी होवें।

 

"न विश्वस्ता: नीचे मलिनयवने हिन्दपुरुषा:!

भवेयु,र्मैत्रीं नाचरत हरतैषां च बलताम्

सदैषां गोघ्नानामवनतिकराः भात हरयः! "

स धर्मश्रीस्वामी वदति युवकान् सत्यवदन:||५१||

 

हे हिन्द के पुरुषों! नीच और मलिन देशद्रोहियों का कभी भी विश्वास मत करो। अधर्मियों अत्याचारियों की दोस्ती मत करो। उनके बल का हरण करो। गो-हत्यारों की अवनति करो। सिंह की तरह तेजसम्पन्न हो जाओ - ऐसे धर्मशोभा को धारण करने वाले स्वामी, सदा युवकों को ये बताते हैं, जो सच हैं।

 

"सुहृत्वं नैतेषां भवति निजधर्मात्पृथगरे

प्रियत्वं नो हिन्दौ दधति मनसीमे क्वचिदपि

स्वसङ्ख्यावृद्ध्यै ये जनमतविवृद्ध्यै प्रयतिन:

इमान्देशद्रोहप्रियकुमनसो[92] घातय"- वदेत्||५२||

 

अपने धर्म से अलग इनकी किसी के साथ भी दोस्ती नहीं होती। हिंदुओं के लिए, ये कभी अच्छी भावना अपने मन में धारण नहीं करते। मतवृद्धि हेतु अपनी संख्या बढ़ाने के लिए हमेशा प्रयत्न करते हैं। ऐसे देशद्रोहियों के प्रिय कुत्सित विचारधारा वाले लोगों के विचारों को खत्म करो - ऐसा स्वामी जी बताते हैं।

 

"न सम्बन्धश्चैभिर्भवतु भवतामार्थिक इतो

म्रियन्तेऽर्थाभावादयतनत एते निरयिन:

बलाद्बुद्धिश्श्रेष्ठा ह्यसुरहनने तां श्रयत रे"

इति प्राह स्वामी -"नयपथमयध्वं हरिजना:!"||५३||

 

जो हमारे देश के विरुद्ध है - उनसे आर्थिक सम्बन्ध भी नहीं रखना चाहिए, तब वे हमारे भारत के द्रोही, अर्थ के अभाव से बिना प्रयास ही नष्ट हो जाएंगे, क्योंकि ये नारकीय हैं। बल से बुद्धि  श्रेष्ठ हैं, और राक्षसों का वध करने में बुद्धि का ही आश्रय लेना चाहिए। हे हरि के जनों, नीति के रास्ते पर चलो - ऐसा स्वामी ने कहा।

 

"शिवं दुर्गां विष्णुं दशरथसुतं यादववरं

जलेशं मेघेन्द्रं बलद-हनुमन्तं दिनकरं

हुताशं मृत्युं श्रीधनकरकुबेरं स्वरपतिं

नमेद्भक्त्या" स्वामी वदति सततं सर्वजनता:||५४||

 

शिव, दुर्गा, विष्णु, दशरथ के पुत्र राम, यादव श्रेष्ठ कृष्ण, जलेश्वर वरुण, मेघराज इन्द्र, बलप्रद हनुमान् जी, दिनकर, अग्नि, मृत्यु, संपत्ति करने वाले कुबेर और स्वरों के राजा इन सबको भक्तिपूर्वक नमस्कार करना चाहिए - ऐसा ये स्वामी सारी जनता को बताते हैं।

 

"द्विजे देवे धेनौ गणपतिगुरौ शास्त्रकथने

क्रतौ ज्योतिश्शास्त्रेऽप्यगमनिगमेष्वर्थपरके

सदा श्रद्धा धार्यान कुरुत कुतर्कान् क्वचिदरे"

इति प्राह स्वामी मनुजशुभधर्मान् शिवजपी||५५||

 

ब्राह्मण, देवता, गौ, गणेशजी, गुरु, शास्त्रों का वचन, यज्ञ, ज्योतिषशास्त्र, जिनमें प्रवेश बहुत कठिन है ऐसे वेद। अर्थपरक गूढ़ अर्थ से भरे हुए शास्त्रकथन  - इनमें सदा श्रद्धा धारण करो और उनके विषय में कुतर्क मत करो – ऐसे मनुष्य के शुभधर्म को शिव का जप करने वाले स्वामी कहते हैं

 

शिखा धार्या,कार्यं सुरमुनिपितृप्रीणनमपि

स्वके भाले देवानुगम-तिलकाँश्चैव कुरुत

त्रिकाले सन्ध्योपासनमपि चरेयुर्द्विजजना:!

स्वधर्मश्रद्धाया: प्रतिदिशमरे सारय रसम्||५६||

 

शिखा धारण करो। देवता, ऋषि, मुनि, पितृ - इनका तर्पण भी करो। अपने मस्तक पर अपने-अपने देवताओं का अनुगमन करने वाला तिलक भी लगाओ। त्रिकाल सन्ध्या वन्दन करो। हे ब्राह्मण, अपने धर्म की श्रद्धा का रस हर एक दिशा में फैला दो।

 

स्वकं पापं हर्तुं सुरसलिलदेवीं व्रजत रे

धियां जाड्यं हन्तुं मुनिचरणसेवां कुरुत रे

जनेर्जालं दग्धुं जपत शिवमित्येव सुखदं

वदेद्यस्स स्वामी नवयुवकधर्मान् श्रयतु मे||५७||

 

अपने पाप हरने के लिए देवताओं के जल वाली देवी गङ्गा के पास जाओ। अपने बुद्धि की मूर्खता नष्ट करने के लिए विद्वान् मुनियों की चरण सेवा करो जन्म-मरण के जाल को जलाने के लिए शिव इसका भजन करना ही सुखदायक है इत्यादि उपदेश जो स्वामी देते हैं, वे नौजवानों के धर्म को अपना लें, अर्थात् नौजवानों की तरह जोश में भरकर सम्पूर्ण जनता में धर्म का प्रचार करें।

 

अरे मासे वर्षे व्रज नरवरं श्रीगुरुजनान्

मुदा द्रष्टुं गङ्गां, पशुपतिसुसेकाय चल रे

क्व मूढो भ्रान्तोऽसि विविधधनमायासु तृषितस्

स्मराक्रान्तोऽशान्तस्सुरतटिनि! पापं शमय व: ||५८||

 

अरे भाई, गुरुजनों को देखने के लिए, गङ्गा जी को देखने के लिए, पशुपति शिव का अभिषेक करने के लिए, एक महीने में या एक साल में तो नरवर चले जाओ। कहाँ मोहित व भ्रान्त होकर विभिन्न प्रकार की धन-मायाओं में प्यासे होकर, कामदेव से आक्रान्त होकर, अशान्त हुए भटक रहे हो, गङ्गा जी तुम्हारे पापों का शमन करें।

 

क्वचिद्दिल्यां वास: क्वचिदथ च काशीं व्रजसि रे

हरिद्वारं भोपालमपि जन! यासीति मथुरां

क्वचित्त्वं मेवाड़े वससि बुध! विस्मृत्य सुहृदो

ह्यरे षाण्मासे तु व्रज नरवरं स्वां गुरुभुवम्||५९||

 

कहीं दिल्ली में वास, कभी काशी जाते हो। कभी हरिद्वार, भोपाल तो कभी मथुरा। कभी हे विद्वन्! तुम अपने पुराने मित्रों को भूलकर मेवाड़ में निवास करते हो। अरे भई, छः महीनें में तो अपनी गुरुभूमि नरवर चले जाया करो।

 

स्मरेद्वर्षे वर्षे नवहृदयहर्षे नरवरं

व्रजेल्लब्धे काले स्मृतिनवल-तायै नरवरं

कथा: पूर्वास्स्मर्तुं त्यज पुरजमोहंनरवरं

द्रुतं याहीत्युक्त्वाविगतदिनगाथां स्मरति स: ||६०||

 

हर साल दिल में लहर आने पर नरवर-स्मरण[93] करना चाहिए। समय मिलने पर यादों की ताजगी के लिए नरवर जाना चाहिए। पूर्व छात्र-काल की कथाओं को याद करने के लिए वर्तमान शहर का मोह छोड़ो, और अपनी छात्रभूमि नरवर को जाओ। ऐसा कहकर तुरन्त अपने विगत छात्रकाल की गाथाओं को वे स्वामी स्मरण करते हैं।

 

समायाते वर्णोत्सव इह च होलीति कथिते

व्रजेद् गङ्गानन्दं द्विजमुनिसुवृन्देन सह रे

बिहाराख्यं घट्टं यतिनिलयशुद्धं वस तदा

यजुस्स्वारैश्छन्नं नरवरविभिन्नं[94] श्रय तदा||६१||

 

रंगों के उत्सव होली के आने पर, ऋषि-मुनियों के गण के साथ गङ्गा का है आनन्द जहां, ऐसे बिहारघाट में जो कि संन्यासियों के रहने से शुद्ध हो गया है, वहाँ जाकर निवास करना चाहिए। यजुर्वेद के स्वर से आच्छन्न है जो, ऐसे नरवर के ही एक विभिन्न भाग का सेवन करना चाहिए।

 

मयूखैराक्रान्तां दिवसपतिरेनां प्रकुरुते

कुटीं वृक्षाच्छन्नां कुशशयनयुक्तां सुमनसां

लताभिर्व्यापृत्य प्रियतरतुलस्याश्च विटपो

विकीर्णंश्चाशासु प्रियजनमनो हृष्यति चिरम्||६२||

 

दिवसपति सूर्य अपनी किरणों से इस कुटी को, जो कि वृक्षों से ढकी हुई है, कुशों के आसनों के जिसमें बिस्तर लगाए गए हैं, और साधु लोग जहां रहते हैं, लता-वितानों से जो ढकी हुई है। अधिकतम प्रिय तुलसी के पेड़ जहां दिशाओं में सुख को बिखेरते हुए, प्रियजनों का मन देर तक हर्षित होता है।

 

अखण्डे ह्यानन्दे सति चिदि समास्थाय मनसा

सदा स्वात्मारामोऽप्यथ निजजनान् यो रमयति

शतं विप्रान् साधून् यतिततिनतीष्टस्सुखयति

प्रभाते भातीत्थं ह्युपनिषदि सक्तो गुरुवर:[95] ||६३||

 

अखण्ड सच्चिदानन्द में मन के द्वारा स्थित होकर सदा आत्माराम, अपने लोगों (शिष्यादिकों) को जो रमण करवाते हैं। सैकड़ो ब्राह्मणों और साधुओं को जो सुख देतें हैं, संन्यासियों की पंक्तियों के प्रणाम हैं इष्ट जिनको, ऐसे उपनिषद् में आसक्त गुरुवर, सुबह के समय सब को सुख देते हैं और शोभित मन वाले दिखाई देते हैं।

 

सदा सेव्यं भव्याश्रमपदमिहैषां सुमनसां

मुदा वासश्श्लाघ्यो विरमयति दु:खानि जगत:

विरक्तानां साकाश्यमपि लभतां चेत्क्षणभवं

विपत्तिघ्नं तत्सच्छमयति मनोभ्रान्तिमथ वै||६४||

 

इन सुन्दर मन वाले, फूलों के समान कोमल साधुओं का आध्यात्मिक शोभा के कारण भव्य आश्रम रूपी पद सदा सेवनीय है। आनन्दपूर्वक यहां वास करना बहुत प्रशंसनीय है, क्योंकि यह सांसारिक दुखों पर विराम लगा देता है। भक्त-साधुओं का एक क्षण में होने वाला सान्निध्य भी विपत्तियों का नाश करता हुआ मन की भ्रान्ति का शमन कर देता है।

 

लघूञ्ज्येष्ठान् प्रेयांस इव सदा मन्यत इति

अरे भ्रातस्साधो! तव, नहि परः, क्वासि सुकृतिन्!

इति प्रीतिं तेषु प्रतिदिनमहो दर्शयति यस्

समर्थश्रीस्वामी हृदयहरणश्शम्भुशरणः||६५||

 

छोटे-बड़े सबको अपना अत्यन्त प्रियतर मानते हुए, अरे भई साधु! तुम्हारा ही हूं मैं पराया नहीं हूँ! कहां जा रहे हो! सदा ऐसी प्रीति दिखाते हैं। ऐसे स्वामी हृदय-हरण कर लेते हैं, व शम्भु की शरण लेने वाले हैं।

 

क्व मे पात्रं वस्त्रं क्व च भवतु कौपीनमथ रे

क्व भस्म त्रैपुण्ड्र्यं क्व च जपनमाला वदत रे

क्व गङ्गातोयः क्वास्ति कुशभवपावित्र्यकरणी

प्रभाते योऽन्विष्येत् सुरपितृमुनिप्रीतिसुकृतिः||६६||

 

मेरे पात्र कहां है? मेरे वस्त्र कहां हैं? मेरी कौपीन कहाँ हैं? मेरी भस्म, त्रिपुण्ड्र में प्रयोज्य पदार्थ और जप करने की माला कहाँ है, भई बताओ रे? मेरा गङ्गाजल कहां है? कुशों की बनी मेरी पवित्री कहां है? देवताओं, पितरों, ऋषि-मुनियों के प्रेम में अनुरक्त हुए वे पुण्यकर्मा स्वामी, ये सब वस्तुएँ सुबह-सुबह ढूंढते हैं।

 

अरे चायं त्यक्त्वा पिब मधुरदुग्धं द्विज निशि

अरे नित्यं कर्माऽऽश्रय[96] सुरसरीतीरजपकृत्

पुनीह्यात्मानं याहि गणपतिदेवालयमपि

वदेद्यस्स स्वामी हवनवनगामी[97] भवतु मे||६७||

 

अरे भई! चाय छोड़कर, रात के समय मधुर दूध पियो। अरे भई! नित्य कर्मों का आश्रय लो। गङ्गा जी के किनारे जाकर जाप करो। अपने को पवित्र करो। गणेश जी के मन्दिर में जाओ। ऐसे वक्तव्य वाले स्वामी, हवन की यज्ञशाला वाले जंगल में जावें।

 

न विप्राणां हानिर्भवतु न गवां घातनमुत

न यज्ञानां कार्यं धनवसनतो[98] लुप्यतु जन

न रुद्धो देवानां यजनकथनाद्यः कथमपि

यतेतेत्येवं यश्श्रयतु परितः पुष्पभवनम्||६८||

 

ब्राह्मणों की हानि नहीं होनी चाहिए। गायों की हत्या बन्द होनी चाहिए। धन, वस्त्र आदि के कारण यज्ञ के कार्य का लोप नहीं होना चाहिए। देवताओं का यज्ञ, पूजा, कथा आदि कभी भी रुकना नहीं चाहिए इत्यादि-प्रकारक हमारा प्रयत्न होना चाहिए - ऐसी सोच रखने वाले फूलों के भवन का सेवन करें।

 

जलं रक्ष्यं सर्वैरमृतमिव सर्वस्य विपुलम्

विनैतज्जीवेयु: पशुविहगकीटा न मनुजा:

अहो धातुश्चित्रं वरुणकलशच्यावितमिव

जयेन्नीरेशोऽसौ सकलभुवनप्राणशरण: ||६९||

 

अमृत की तरह सभी को इस विपुल जल की रक्षा करनी चाहिए। इसके बिना पशु, पक्षी, कीड़े, पतंगे, मनुष्य कैसे जिएंगे? ओहो विधाता का यह विचित्र, वरुण के कलश से गिराया हुआ यह तत्त्व, सारे भुवनों का प्राण बैठा है जिसमें, ऐसा जल का देवता महान् है। हे जलेश! तुम्हारी जय हो।

 

नदी कूपो वापी सरसिजसरांसि श्रुतिसुखा:[99]

चतुष्पादोऽप्सञ्चारिण उत विहङ्गा: बहुविधा:

समं शम्भोर्लीलाकृतमिदमहो दृश्यमखिलं

नर! त्वं चापीत्थं प्रकृतिजनितं रक्ष सुजन||७०||

 

नदी, कुआ, बावड़ी, कमल खिले हैं जिनमें ऐसे तालाब, कानों को सुख देने वाले पद होने चाहिए। इस प्रकृति में चार पैर वाले भूचर, जलचर या बहुत तरह के नभचर - ये भगवान् शिव की लीला से बनाया हुआ सारा दृश्य है। ये प्रकृति से जनित है। अरे भले आदमी! तू भी इसी तरह इस प्रकृति की रक्षा कर।

 

सुरक्षा नारीणांपुरुषगणपीडाऽपि न भवेत्

वसेत् सौहार्दैस्स्फूर्तमिव जगदेतद्गृहमिव

समाजस्स्यात् पुंसामितिच समजो नैव भवतात्

समर्थश्रीस्वामी दिशति बहुतथ्यं हितकरम्||७१||

 

नारियों की सुरक्षा होनी चाहिए, किन्तु साथ ही साथ पुरुषों की भी पीड़ा ना हो। यह सारा संसार सौहार्द व स्फूर्त्ति वाले लोगों से युक्त घर की तरह होवे। यह समाज सभ्य जनों का हो, ना कि पशुवद् आचरण वालों का (समज) हो, ऐसे बहुत से हितकारक तथ्य, समर्थश्री जी सुझाते हैं।

 

कवीनां बोद्धृणां नवमननशीलव्यसनिनां

मखीनां शोद्धॄणां घटपटपदव्यस्तसुधियां[100]

गवामुन्नेतॄणामनुदिननटत्वाभ्यसनिनां[101]

चरेत् सम्मानं वित्तमपि कुरुत- श्रीयतिवच: ||७२||

 

कवि, विद्वान्, नया चिन्तन-मनन करने वाले बुद्धिजीवी, यज्ञ करने वाले, शोधकर्ता, घट-पट आदि में व्यस्त रहने वाले विद्वान् नैयायिक। गायों की उन्नति करने वाले, रोजाना नटत्व की कला का अभ्यास करने वाले - इन सभी का सम्मान करना चाहिए तथा इनको धन देकर प्रोत्साहित करना चाहिए[102]  - ऐसा श्रीयति का वचन है।

 

अहो चर्चा धन्या नरवरधरण्यां शिवमयी

समर्चा सा धन्या भवति करपात्रस्थलभवा

विदर्चा सा मान्या कपटपटहीना पटुकृता

समर्थश्चेत्युक्त्वा दिशति बटुकान्नव्यकथनम्||७३||

 

ओहो, नरवर की धरती पर शङ्कर भगवान् की या कल्याण पूर्ण शास्त्रों की चर्चा धन्य है। करपात्र-स्थल पर होने वाली ये देव-पूजा धन्य है। कपट रूपी कपड़े से हीन बुद्धिमानों द्वारा  विद्वानों की, की हुई पूजा ही वास्तव में मान्य है - समर्थ जी ऐसा कहकर बटुकों को नए-नए कथन की दिशा दिखाते हैं।

 

अरे वार्ता कास्तु श्रियमपि तिरस्कृत्य वसतां

अरे चर्चा कास्तु प्रियमपि परित्यज्य वजतां

ह हा हा हा हा हा गमयति च दुःखे लघुसुखं

सदा तस्मात्त्वं रे भज भज भज श्रीशिवगुरुम्||७४||

 

अरे भई! सम्पत्ति का तिरस्कार करके निवास करने वालों की बात ही क्या! अपने प्रिय जनों को छोड़कर के भी चले जाने वालों की बात ही क्या! विषय सम्बन्धी ये छोटे-छोटे सुख, महान् दुखों में गिरा देते हैं, इसलिए सदा श्रीशिवगुरु का भजन करो।

 

नरौरा वै काशी न च नरवरत्त्वं लघुपदं

इदं प्राप्यंहेयं नहि नहि बटो! ब्राह्मणशृणु

शिखां बद्ध्वा श्रद्धाभृतहृदयवन् रे जप शिवं

अनेनैवं नश्या जनिमृतिजराभीतिरखिला||७५||

 

नरवर ही काशी है, यह कोई छोटा पद नहीं है। हे ब्राह्मण! सुनो, शिखा बान्धकर श्रद्धा से भरे हुए हृदय वाले होकर शिव का भजन करो। इससे जन्म ,मृत्यु, और बुढ़ापे के डर का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है।

 

पिबेः क्षीरं, नीरं सुरपतिपदान्निस्सृतमिदं

पितॄणाम्पक्षेऽस्मिन् कुरु विधिवदाचारमपि रे

स्वधेत्युच्चार्यैवं सतिलसलिलैस्तर्पय च तान्

द्विजान् काकान् गोर्भोजयजय जय श्राद्धकरण||७६||

 

नरवर में पितृ पक्ष में देखे हुए दृश्य का ही उपस्थापन करते हैं – बलप्रद दुग्ध का पान करना चाहिए। देवताओं के स्वामी विष्णु के चरणों से निकले हुए गङ्गाजल को पीना चाहिए। पितरों के पक्ष में विधिवत् आचार करना चाहिए। स्वधा का उच्चारण करके, तिलमिश्रित जल से पितरों का तर्पण करना चाहिए। ब्राह्मण, कौवे और गाय को भोजन करवाना चाहिए। हे श्राद्ध करने वाले! तेरी जय हो! तेरी जय हो!

 

कुशोत्पाट्या मन्त्रैर्ग्रथितशुभरूपा कुरु च तां

प्रयोज्या सन्ध्याकर्मणि पितृमखे देवहवने

कुशानाम्माहात्म्यं त्वृषिमुनिगणैर्गीतमपि यत्

तथा चास्मद्बाबागुरुरपि कुशोत्पाटनपटु: ||७७||

 

कुशा उखाड़कर मन्त्रों के द्वारा उसकी ग्रन्थि बना लो, सन्ध्या कर्म में और देवताओं के हवन तथा पितृ-यज्ञ अर्थात् तर्पण में इसका प्रयोग फलप्रद है। कुशों का महत्त्व, ऋषि-मुनियों ने भी खूब गाया है, इसलिए हमारे बाबागुरु भी कुशों के उत्पाटन में बहुत पटु (निपुण) हैं।

 

हनूमद्धामाध्यात्मिक इति शुभे स्वाश्रमपदे

वसेच्छ्यामो बाबा पटुतरबटून्पाठयति यस्

स वै नम्योस्माकं निखिलगुणधामातिसरलस्

समर्थश्चेत्युक्त्वाश्रुनयनयुतस्तत्स्मरणकृत्||७८||

 

हनुमद् धाम आध्यात्मिक विद्यालय इस अपने शुभ आश्रमपद में श्रीश्यामबाबा रहते हैं, जो खूब बुद्धिमान् छात्रों को पढ़ाते हैं। ये हमारे लिए प्रणम्य हैं। सारे गुणों के धाम हैं। अत्यन्त सरल हैं। समर्थ स्वामी ऐसा कहकर गुरु-स्नेहाश्रुओं से भीगे चेहरे वाले उनका स्मरण करते हैं।

 

मिलित्वा सन्मित्रैर् हर हर महादेव भणति

सतो दृष्ट्वा हृष्ट्वा हर हर महादेव वदति

मखस्यान्तोद्घोषे हर हर महादेव कुरुते

अहं कुर्वे सन्तं हर हर महादेव मनसा||७९||

 

अपने मित्रों से मिलकर हर हर महादेव कहते हैं। साधु सन्तों को देखकर हर हर महादेव बोलते हैं। यज्ञ के  अन्त में जो उद्घोष होता है, उसमें हर हर महादेव करते हैं। मैं उस सन्त को अपने मन में ही हर हर महादेव कर रहा हूं।

 

भवेद् भाण्डारेति[103] प्रयतत इव ब्राह्मणहिते

चलेद् भाण्डारार्थं मठमनुमठं योजनमपि

सतां तृप्तिर्भाण्डारगतबहुभोज्यैश्च भवति

कथं भण्डारा स्यादिति मनसि सञ्चिन्तनरत: ||८०||

 

भण्डारे का आयोजन होना चाहिए - ऐसा ब्राह्मणों के हित में ही प्रयास करते हैं। भण्डारा खाने के लिए इस आश्रम से उसे आश्रम कई योजन भी जाना पड़े तो जाओ। साधुओं की तृप्ति भण्डारे के भोजन से ही होती है। कैसे भण्डारा आयोजित कराया जाए - ऐसा ये स्वामी जी अपने मन में सोचते रहते हैं।

 

इतोऽपि स्यात् किञ्चिद् रजतभवदाक्षिण्यमिति च

द्विजेभ्यो हैमं कर्गदभवधनं वाऽपि कुरुताद्

इति श्रीमन्नॄन् प्रेरयति रयिरावान्नहरह:[104]

समर्थश्रीस्वामी समुचितमिदं[105] यच्छतु च मे||८१||

 

और भी थोड़ी सी चांदी की या सोने की दक्षिणा होनी चाहिए या कागज के नोट हों तो आप करें -  ऐसा, धन के द्वारा ही महान् शब्द है जिनके जीवन में उन धनवान् लोगों को, प्रतिदिन धार्मिक दृष्टि से प्रेरित करते हैं। वे समर्थ स्वामी हमें भी ये समुचित धन प्रदान करवाएँ।

 

पिबन्ति क्षीरं मृद्भवलघुसुपात्रेऽत्र नकुला:

द्विजोच्छिष्टं क्षिप्तं सुरसरीतटस्थाश्रम इह

तदालक्ष्यं साक्ष्यं नरवरहनूमद्गृहगतं

विलोक्यं तद् बाबागुरुरिति गुरोराश्रमपदे||८२||

 

ब्राह्मण के झूठे और फेंके गए मिट्टी के छोटे से सकोरे में नेवले खीर पी रहे हैं - ऐसा गङ्गा के तट पर स्थित आश्रम में इस लक्ष्य का साक्ष्य मिलता है। नरवर के हनुमान् जी के घर में देखा जाता है, जो बाबागुरु नामक इन गुरुजी के आश्रम में है।

 

अकार्यं कार्यं किं सपदि गदति प्रीतिवचसा

कथं जीवेच्छास्त्रं विशदयति तथ्यं सुमनसा

शिवं यायात्कश्चेति मनसि विचिन्तापर इव

समर्थश्शास्त्रात्मा जयतु शतवर्षं भुवि सुखै: ||८३||

 

क्या करना चाहिए, क्या नहीं - ऐसा तुरन्त बताते हैं। प्रेम भरी वाणी से - जीवन में शास्त्र को कैसे जीना चाहिए - इस तथ्य का अपने सुन्दर मन से विस्तार करते हैं। कल्याण कैसे प्राप्त हो इसके विषय में मन में चिन्तन करते हैं। ऐसे समर्थ जी शास्त्रों में अपनी आत्मा को लगाए हुए, इस धरती पर सुखपूर्वक चिरञ्जीवी होवें।

 

रवौ सोमे भौमे बुधगुरुभृगुष्वर्कतनये

मुहूर्ते प्रत्येकं क्षणकणनिमेषेष्वपि च वा

दिने रात्रौ मध्याह्न उत दिवसान्ते दिनमुखे

जपेद्राधां श्यामं हरिहरशुभाख्यानपि सदा||८४||

 

रवि, सोम, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनिवार, हरेक मुहूर्त, हरेक क्षण, हरेक कण, हरेक निमेष में, दिन में, रात में, दोपहर में, शाम में या सुबह में राधे श्याम का जप करना चाहिए और हरहर का शुभ चरित्र भी जपना चाहिए।

 

वटाश्वत्थाशोकाम्रबकुलतमालार्कखदिरै:

कदम्बैर्धत्तूरैरमृतफलवृक्षै: परिवृते

अपामार्गैर्दर्भैर्हरिसुखतुलस्या सुरभिके

वसेद्यस्स स्वामी तरुसुहृदिव स्वाश्रमपदे||८५||

 

वटवृक्ष, पीपल, अशोक, आम, बकुल, तम्बाकू, आक, खजूर, कदम्ब धतूरा, अमृतफलवृक्ष, अपामार्ग, कुश तथा हरि को सुख देने वाली तुलसी की सुगन्ध वाले आश्रम में जो स्वामी रहते हैं,  वे वृक्षों के मित्र जैसे मुझे मालूम पड़ते हैं।

 

क्वचित्प्रायश्चित्तं ह्युपनयनकर्म क्वचिदथ

क्वचित्केशोत्सर्गः क्वचिदथ च सङ्कल्पधरणं

व्रतं होमश्श्रीनार्मदतटपरिक्रामणमपि

क्वचिद्दीक्षादानं चरति बटुकेभ्यश्शिवपरम्||८६||

 

कहीं प्रायश्चित कहीं उपनयन संस्कार , कहीं मुंडन, कहीं संकल्प धारण, कहीं व्रत, कहीं होम, कहीं नर्मदातट की परिक्रमा करवाने का आयोजन, कहीं बटुकों को शिवपरक दीक्षाओं का दान करते हैं।

 

फलाहारी वारित्यजनपरता दुग्धपरता

क्वचिच्चान्नत्यागो मधुरलवणत्यागपरता

दिने स्वापत्यागः कुशशयनता नग्नपदता

इतीत्थं स स्वामी व्यपगमयति पापक्रमभयम्||८७||

 

कभी फलाहारी, कभी जल का त्याग, कभी सिर्फ दूध पीकर रहना, कभी अन्न का त्याग, कभी मीठे और नमकीन का त्याग, कभी दिन में सोने का त्याग, कभी सिर्फ कुशासन पर सोना, कभी नंगे पैर रहना। इस प्रकार वे स्वामी अनेक दिनचर्याओं को अपनाकर पाप के आक्रमण के डर को दूर कर देते हैं।

 

तरोर्मूले स्थित्वा विजनविपिने शान्तमनसा

ममोद्देश्यं लोके किमिति सततं चिन्तयतु रे

स्वकक्षे वैकान्ते निशि निजविबोधाय यतताम्

इति स्वात्मज्ञानेरणरततया[106] दृश्यत इव||८८||

 

जिसमें कोई मनुष्य नहीं है, ऐसे जंगल में जाकर वृक्ष के मूल में बैठकर शान्त मन से इस संसार में आने का मेरा उद्देश्य क्या है - ये लगातार सोचो। या फिर अपने कक्ष में एकान्त में रात के वक्त  अपने आत्मबोध के लिए प्रयत्न करो। इस तरह वे स्वयं से आत्मज्ञान के लिए प्रेरित करते हुए से देखे जाते हैं।

 

क्वचिद्भस्मस्नानं जलजजलजालं क्वचिदहो

क्वचित्पुण्योद्भासो धनदधनधन्यः क्वचिदथ

क्वचिकौपीनाढ्यो विगलितशरीरोस्मि मनुते

विरागी रागीव श्रितविविधदृश्यो भवतु वः||८९||

 

कहीं भस्म-स्नान करना। कहीं कमल के पानी का जाल बना देना। कहीं पुण्य-प्रकाश करना। कहीं कुबेर के धन से धन्य हो जाना। कहीं कौपीन से धनवान् बन जाना, और मेरा शरीरभाव गल गया है - ऐसा मानना। कभी वैराग्य धारण करना। कभी रागी होना। इस प्रकार वे स्वामी तुम्हें विविध दृश्य का सेवन करते हुए दिख सकते हैं।

 

गुणे वृद्धौ सन्धौ प्रकृतिपररूपेषु विकृतौ

सरूपान्वेषे वाऽऽगमनियमनाऽऽदेशकरणे

विकल्पे सङ्कल्पे विविधपदसूत्रैस्सरति यस्

स शब्दात्मा स्वाम्यक्षरनिलयदेशं दिशतु नः||९०||

 

गुण, वृद्धि, सन्धि, प्रकृति, पररूप, विकृति, सरूपान्वेषण, आगम, नियम, आदेश, विकल्प, सङ्कल्प - इन सब में विभिन्न व्याकरण के सूत्रों द्वारा जो गति करते हैं, ऐसे शब्दात्मा स्वामी हमें उस अक्षर-निलय वाले देश को दिखाएँ।[107]

 

असौ धूम्रो लोकोर्चिषि विशतु वायुश्रिततनुस्

तमो विज्ञानैर्नश्यतु विविधयोनिप्रजभयं

हरिल्लोकान्वेषी भवतु हरिपीयूषहृदयो

रहस्यात्मा स्वामी रहसि हसनो हंस इव नः||९१||

 

यह सारा संसार धुएं में लिपटा जा रहा है। हवा बनकर इस अग्निमय लोक में प्रवेश करो। विभिन्न योनियों से उत्पन्न होने वाले भय रूपी अन्धेरे को अपने विज्ञान से नष्ट करो। उस हरे-भरे लोक की खोज करो। हरि के अमृत से अपने हृदय को अमर कर दो। ऐसे रहस्यात्मा स्वामी एकान्त में हंसते हैं, और हमारे लिए हंस की तरह हैं।

 

यदा सीता प्रीता हृदयतलगीता भवति नो

यदा पीता गङ्गासलिलकणिका मोक्षपददा

परेषां पीडा चेदपि सकलयत्नैरपहृता

तदाऽऽनीता स्वर्लोकपतिपदवी वै भुवि नरैः||९२||

 

जब सीता माता के चरणों में हमारा प्रेम हो जाता है और हृदय के तल पर हम उनका भजन करते हैं। जब हम मोक्ष को देने वाली गङ्गा के पानी की एक बूंद भी पीते हैं, जब हम इस संसार के प्राणियों की, दूसरों की पीड़ा अपने पूरे प्रयत्न से दूर करते हैं, तब हम इस धरती पर ही स्वर्गलोक के राजा की पदवी को प्राप्त कर लेते हैं।

 

पिता माता भ्राता गुरुजनसुहृद्बान्धवगणः

स्वसा कन्या भार्यानुगमनसुशीला शुभकरी

सुतश्शिष्यो वान्यः परिचित इवाप्यस्तु मखलो

वियुक्तैर्युक्तैर्वा व्यवहृतिपरैस्सेव्य इति रे||९३||

 

माता, पिता, भाई, गुरु, मित्र, बन्ध- बान्धव, बहन, बेटी, पत्नी, बेटा, शिष्य, कोई दूसरे परिचित, कोई यज्ञ का मित्र, हमसे अलग या हमसे जुड़े हुए – इन सबका लौकिक-रीति के अनुसार ही सेवन करना चाहिए।

 

गुरूणां साधूनां जपमखरतानामपि च वा

बुधानां देवानां सुकृतिचरितानां क्वचिदहो

विलोक्य श्रेष्ठत्त्वं रचयति कविः पञ्चकमिति

स पञ्चास्यासक्तः प्रथमकवितावाचनरतः[108]|९४||

 

गुरु, साधु, जप-यज्ञ आदि में लगे रहने वाले विद्वान्, देवता, पुण्यचरित्र वाले, इन लोगों के श्रेष्ठत्त्व को देखकर वे कवि पञ्चक रचते हैं, और पांच मुख वाले शिव में आसक्त रहते हैं तथा वाल्मीकि रामायण का वाचन करते रहते हैं।

 

वसन्तो ग्रीष्मो वा जलदशुभकालोवतरति

शरद् वीतश्शीतस्तदनु च हेमन्त इति वै

तदा लोके सोयं शिशिरऋतुरायाति सुखदो

न मुह्येदात्मानं समयकृतचक्रेण धृतिमान्||९५||

 

वसन्त, ग्रीष्म, बादलों का सुन्दर समय उतर रहा है। शरद् ऋतु निकल गई है, उसके बाद शीत ऋतु और फिर उसके बाद हेमन्त, फिर उसके बाद इस संसार में सुख देने वाली शिशिर ऋतु आती है। किंतु यह सब समय का चक्र है, धृतिमान् पुरुष स्वयं को इन सबसे मोहित न करें और आत्मा का अन्वेषण करें।

 

प्रभाते नीरं मध्यदिवसगतस्तक्रमथ च

दिनान्ते दुग्धं चेत्पिबतु, भवताद् रोगरहितः

मनोनीरुक्त्वं स्त्रीरमणकलया प्राप्य भवति

तथायुर्वेदोक्तं वदति जगतस्स्वस्थकरणः||९६||

 

सुबह-सुबह पानी, दोपहर में मट्ठा और रात्रि में दूध यदि पिओगे तो रोग रहित रहोगे। मन की निरोगता स्त्रियों की रमणकला से प्राप्त होती है - इस तरह से ये आयुर्वेद में बताया गया संसार को स्वस्थ करने का मार्ग है।

 

क्व रीतिर्वक्रोक्तिः क्व नवपदयोगः क्व रसता

गभीरोक्तिः क्वाद्य प्रथयति कविः भावरमणं

अलङ्कारौचित्यार्थपरकसुभाषा क्व गुणता

क्व वा वाचां क्रीडाभिरतसुजनो लोक्यत इति||९७||

 

कहाँ रीति? कहाँ वक्रोक्ति? कहां नए-नए शब्दों का योग? कहां रस? कहां गम्भीर उक्ति? आजकल भावों की रमणीयता कौन कवि फैलाता है? अलङ्कार, औचित्य, अर्थपरक सुन्दर भाषा कहां है? गुणवत्ता कहां? वाणी की क्रीड़ा में लगा हुआ विद्वान् सज्जन आजकल कहाँ देखा जाता है?  अर्थात् आजकल इन सब का अभाव है।

 

विदग्धानां वाचां क्षणजनितविद्युन्निभदृशां

वितर्कैर्वृद्धानामथ सुरनिषिद्धार्थसदृशां

वितण्डावादानां झटिति हरति स्वासिसमित-

प्रवाचा यो जालं यतिवरमहं नौमि मनसा||९८||

 

अपनी वाणी से दूसरों को जला देने वाले। एक क्षण में उत्पन्न हुई बिजली के समान विभिन्न तर्कों से बढ़े विद्वान्, जो हमारे देवताओं का ही निषेध करते हैं, ऐसे वितण्डावाद फैलाने वाले लोगों की वाणियों को जो अपनी तलवार के समान महान् प्रकृष्ट वाणियों से जो उन कुतर्कियों की वाणी के जाल को काट देते हैं, ऐसे स्वामी को मैं मन से नमस्कार करता हूं।

 

स वै वीरो धीरो ह्यवति निजमानं निशि दिनं

स वै गण्यो मान्यश्श्रयति परगेहं न च जनः

न दीनं चाटूक्तिं प्रवदति स वै सिंह इव ना

इति स्वीयान् शिष्यान् भणति कुरुते यस्स सुजनः||९९||

 

वही धीर है, वही वीर है, जो दिन-रात अपने सम्मान की रक्षा करता है। वही गणनीय है। वही सम्माननीय है, जो दूसरे के घर में नही बसता। जो दीन और चाटु वचन नहीं बोलता, वही सिंहपुरुष है - इस तरह अपने शिष्यों को कहते हैं, और स्वयं भी इस का आचरण करते हैं।

 

म्रियेतान्नैर्हीनो जललवविहीनश्च तृषया

भ्रमेन्नग्नश्चैवं वसनरहितो रिक्तजठरः

न चाधर्मश्श्रेयो न च कुपथगामी भवतु वै

श्रयेद्यस्स स्वामी हितकरवचश्श्रावयतु मे||१००||

 

बिना जल की एक बूंद के प्यासे मर जाओ। बिना अन्न के भूखे मर जाओ। बिना कपड़े, भूखे पेट नंगे घूमो, फिर भी अधर्म का सेवन मत करो। कुपथ के गामी मत बनो। ऐसा जो स्वामी कहते हैं, वे मुझे हितकर बातें सुनावें।

 

हिमांशो! त्वं कार्ष्ण्यं व्रजसि लभसे चायमपि यत्

ततस्त्यक्त्वा विप्र! प्रभव निजशास्त्रे मतिधन!

मम स्वामिन्! काव्यं झरति सततं तच्छ्रयणतः

त्यजेयं नो जाने कथमिव निजप्रीतिजनकम्||१०१||

 

हिमांशु जी! आप चाय ग्रहण करने के कारण काले पड़ गए हो, इसलिए हे बुद्धिमान् ब्राह्मण! चाय को छोड़कर अपने शास्त्र में ही लग जाओ। हे स्वामिन्! चाय का सेवन करने से ही मेरा काव्य झरने के समान निरन्तर झरता है। इसको कैसे छोड़ूँ! यही मेरे निजी अनुराग को बढ़ाने वाली है।

 

शतश्लोकैर्यस्मैरविहतगतिश्रीविरचितैः

प्रबन्धोयं दत्तो मखहुतवहानामिव सुखं

समर्थश्रीस्वामी कुसुमसदृशैर्भावनिचयैः

क्वचिद्देवाभासाश्रितमिममनुप्राप्य मुदितः||१०२||

 

बिना रुके, गति से लक्ष्मी के समान विरचित सौ श्लोकों से यह काव्य-प्रबन्ध मैंने जिसके लिए दिया है, वे मेरे इन फूलों जैसे सुन्दर भावों के समुदाय को देखकर। आहुति को देवताओं तक ले जाने वाली अग्नि जो सर्व कामनाओं को देती है, उसके समान ही मुझे सुख देवें तथा देवताओं की आभा से सम्पन्न इस काव्य को प्राप्त करके खूब प्रसन्न होवें।

 

स यो यज्ञेशानामनुदिनमहो दिव्यकृपया

मुदा स्नातस्त्रातस्सुरगणसुदृष्ट्येक्षित इव

स पुण्योद्रेकत्वाद्विगलितजगज्जालगतिको

भजेदानन्त्यं वाञ्छति कविहिमांशुर्हृदि सदा||१०३||

 

यज्ञ के स्वामियों की दिव्य कृपा से आनन्दपूर्वक स्नान किए हुए। देवताओं की दृष्टि से देखे तथा रक्षा किए गए। पुण्य के उद्रेक से संसार के जाल की गतियों को जिसने गला दिया है, ऐसे स्वामी अनन्तभाव (ईश्वर) को प्राप्त करें। ऐसा कवि हिमांशु अपने हृदय में चाहता है।

 

समुच्झित्य स्वीयं गृहधनपदादीँश्च सहसा

परब्रह्माकाशोड्डयनपरपक्षीव रहसा

स्त्रियाः मूत्रागारो नहि नहि न दृष्टश्च घृणितो

भ्रमध्वंसी स्वामी श्रुतिमति पथि प्रेषयतु वः||१०४||

 

अपना घर, धन, पद आदि छोड़कर परब्रह्म के आकाश में उड़ने वाला पक्षी, रमण के लिए स्त्री का मूत्रागार जिसने कभी नहीं देखा, ऐसे भ्रम का ध्वंस करने वाले स्वामी तुम लोगों को वैदिक रास्ते पर भेज देवें।

 

त्रिपत्रैर्यो बिल्वैरखिलभुवनत्रीन् विजयते

चतुर्वेदैर्यो वार्जयति सकलाशासु विजयं

जयाद्धीनो[109] दीनोद्धरणमनसा धावितबुधं

नमस्कुर्मो लोकावनपवनवाहं शिवधनम्||१०५||

 

तीन पत्तियों वाले बिल्वपत्रों को शिव भगवान् पर चढ़ाकर जो इन तीनों लोकों को जीत लेते हैं,  या इस संसार के तीनों गुणों को जीतते हैं। चार वेदों से जो सारी दिशाओं में विजय प्राप्त करते हैं। वे सांसारिक जय से हीन। दीन के उद्धार के मन से दौड़ते हुए शिव रूपी धन वाले, संसार की रक्षा की पवन बहाई है जिन्होंने ऐसे हैं। उनको हम नमस्कार करते हैं।

 

अरे स्वामिन्! दृष्ट्वा सकलसुरसौख्यैकशरणं

बृहस्पत्यर्थानां सरलतमभाष्यप्रदमुख!

अहो गाङ्गेयोक्त्या सुरसलिलदेव्याश्च कथया

जनान् पुण्ये मार्गे प्रणुदति भवाँस्त्र्यम्बक! वरः||१०६||

 

हे स्वामिवर्य! सारे देवताओं के सुख की एक मात्र शरण को देखकर, बृहस्पति के अर्थों के सरलतम भाष्य को प्रदान करने वाला तुम्हारा मुख है। भीष्म के उपदेशों को सुनाकर तथा गङ्गाजी की कथा से लोगों को आप पुण्य के मार्ग में ले जाते हो।

 

वयं भोगासक्तास्त्वयि च शिवनिष्ठा गुरुतरी

वयं हाऽऽशासक्तास्त्वयि विरतिरस्माच्च जगतो

यमाद्भीतास्स्वामिन्! हरिगुणकथासूत्सकतया

त्वदास्यात्संश्रोतुं प्रयतनपरास्त्वामुपगता||१०७||

 

हम सांसारिक लोग भोग में आसक्त होते हैं, किन्तु तुम्हारे अन्दर शिव के प्रति महान् निष्ठा है। हम सांसारिक आशाओं में लगे हैं, और तुम्हारे अन्दर इस संसार से विरक्त-भाव है। हम यमराज से डरे हुए स्वामी, हरि के गुणों की कथाओं में उत्सुक होकर तुम्हारे मुख से उन कथाओं को सुनने के लिए प्रयत्न करते हुए तुम्हारे पास आए हैं।

 

मया स्वीयोद्गारैर्बहुविधमनोजातकुसुमैः

समर्थश्रीस्वामिश्रितविविधचिन्ताविलसितैः

कृतं काव्यं कण्डूमिव शमयितुं यच्छिखरिणी-

निबद्धं सम्बद्धं श्रुतियतिसुखैर्बोधजनकम्||१०८||

 

मैंने काव्य रूपी खुजली को मिटाने के लिए, अपने उद्गारों से, बहुत तरह के मन में उत्पन्न फूलों से, समर्थश्री स्वामी को लेकर, निजी कल्पनापूर्ण विचारों और चिन्तन से सजा हुआ, जो शिखरिणी में निबद्ध काव्य लिखा है, वह संन्यासियों के और वेदों के सुखों से बोधजनक है।

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||को जानाति हि लोकेस्मिन् कदा किं किं भविष्यति। समर्थश्रीः कविश्चैव हिमांशुश्चागमिष्यति||

 

||कौन जानता है कि इस संसार में कब क्या-क्या होगा? एक तरफ समर्थश्री आएंगे तो एक तरफ कवि हिमांशु आएंगे||

 

*****************

|| इति श्रीगोपालजीत्यपरनामविभूषितानां समर्थश्रीरित्याख्याविख्यातानां श्रीमत्त्र्यम्बकेश्वरचैतन्यमहाराजाणां हिमांशुगौडकृतं विविधभावसुरभितं शिखरिणीशतकं सम्पूर्णम्||

 

|| गोपालजी इस अपरनाम से विभूषित, समर्थश्री इस नाम से विख्यात, श्रीत्र्यम्बकेश्वरचैतन्यमहाराज का हिमांशुगौड़ कृत विविध भावों से सुगन्धित, शिखरिणीशतक सम्पूर्ण हुआ ||


 

आचार्यहिमांशुगौडस्य संस्कृतकाव्यरचनाः (काश्चन प्रकाशिताः काश्चन अप्रकाशिताश्च)

श्रीगणेशशतकम्

गणेशभक्तिभृतं काव्यम्

सूर्यशतकम्

सूर्यवन्दनपरं काव्यम्

पितृशतकम्

पितृश्रद्धानिरूपकं काव्यम्

मित्रशतकम्

मित्रसम्बन्धे विविधभावसमन्वितं काव्यम्

श्रीबाबागुरुशतकम्

श्रीबाबागुरुगुणवन्दनपरं शतश्लोकात्मकं काव्यम्

भावश्रीः

विविधविद्वद्भ्यो लिखितानां पत्रकाव्यानां सङ्ग्रहः

वन्द्यश्रीः

वन्दनाभिनन्दनादिकाव्यसङ्ग्रहः

काव्यश्रीः

बहुविधपद्यगीतकवितादिसङ्ग्रहः

भारतं भव्यभूमिः

भारतभक्तिसंयुतं काव्यम्

१०

दूर्वाशतकम्

दूर्वामाश्रित्य विविधविचारसंवलितं शतश्लोकात्मकं काव्यम्

११

नरवरभूमिः

नरवरभूमिमहिमख्यापकं काव्यम्

१२

नरवरगाथा

पञ्चकाण्डान्वितं काव्यम्

१३

नारवरी

नरवरस्य विविधदृश्यविचारवर्णकं काव्यम्

१४

दिव्यन्धरशतकम्

काल्पनिकनायकस्य गुणौजस्समन्वितं काव्यम्

१५

कल्पनाकारशतकम्

कल्पनाकारचित्रकल्पनामोदवर्णकम्

१६

कलिकामकेलिः

कलौ कामनृत्यवर्णकं काव्यम्

१७

यज्ञसम्राट्शतकम्

श्रीप्रबलजीमहाराजमाहात्म्यनिरूपकं विविधविचारवलितम् अभिनन्दनात्मकं काव्यम्

१८

समर्थश्रीशतकम्

श्रीगोपालजीमहाराजसम्बन्धे विविधविचारसमन्वितं शिखरिणीबद्धं काव्यम्

 



[1] देवताओं को धर्म एवं दैत्यों को अधर्म सम्बन्धि युद्ध की प्रवृत्ति (केन) किस तत्त्व के द्वारा होती है ।

[2]  सत्सङ्ग हरिभजन एवं मुक्तिप्रयत्न ही वास्तविक बुद्धिमानी है , इससे अतिरिक्त केवल सांसारिक कार्यों में ही उलझकर अपने जीवन को नष्ट करना मूर्खता ।

 

[3] श्रीश्रीश्रीगणनाथदेवदयया दृष्टास्स्थ पुण्यञ्चराः।। इति पा.

[4] यो वै धूम्रजटाधरस्य तनयो गौरीसुतो यः प्रभुर्-

विघ्नध्वंसकरश्च यश्च भगवान् आपद्गतान् पाति यो

दारिद्र्यं दहति क्षणात् स्तुतिकृतां श्रद्धाश्रितानां नृणाम्

तं वै लोकचमत्कृतं च सततं लम्बोदरं भावये ।। इति पा.

 

[5] प्रावाहयेद्बुद्धिधृत् इति पाठान्तरम्

 

[6] त्रियां - स्त्रियं ददातीति।

[7] पाणिनिकात्यायनपतञ्जलिभिरर्चितमित्यर्थः ।

[8] चातुरीभिः जगद्रूपं चित्रं करोतीति , चातुरीणां चित्रणं करोतीति वा ।

[9] चमत्कारपूर्णो लोको यस्य , चमत्कर्तुं तच्छीलः यस्य लोकस्य (दर्शनस्य) इत्यर्थोपि लब्धुं शक्यते ।

 

[10] भ्रामरी इत्याख्यविद्याया ईशस्तमित्यर्थः ।

[11] केशय इति। के जले शेते केशयो यद्यपि विष्णुस्तथापि गणेशस्यैवात्र सर्वात्मकत्त्वात्तस्यैव केशयरूपकल्पना कृता । अपि च विष्णुस्तु सागरे शेते, कविनाऽत्र सरोवरस्थे कूपस्थे नदीस्थे वा सर्वत्र जले, शेते यो गणेशस्तादृशस्य चित्रमत्रोदभावि ।

[12]   रागिनीनां सङ्गीतलहरीविशिष्टानामीशस्तं, सर्वाः सङ्गीतादिविद्याः गणेशतो लभ्या इति शास्त्रेण रागिनीश इति वचनमवोच्यत्र कविना ।

[13]  शिवं कल्याणरूपं , अपि च आत्मा वै जायते पुत्र इति विचिन्त्य गणेशोपि शिव एव ।

[14] कार्तिकेयस्य अग्रजः अग्रतो जातः । शम्भोः पुत्रः । शिवः कल्याणरूपः । स्वयमपि स्वपितुश्शिवस्याराधकः । स्ववाहने मूषके राजितः । पीतानि वस्त्राणि यस्य तद्धारकः । शस्त्रैस्सह सशस्त्रः , अङ्कुशपाशप्रभृतीनि शस्त्राणि । गुरुः लोकस्येति शेषः । गुण्यश्चासौ पुण्यञ्च उभयोर्करूपतयात्र गणेशो गुण्यपुण्यः । गिरां वेदादिगिराम् , अपि च यावज्जीवति स्वकल्याणार्थं जीवैराश्रिताः गिरस्तासामेकमात्रं लभ्यं, अर्थात् सर्वेषामेकलभ्यो गणेश एव ब्रह्मरूपः । तं नुमः वन्दामहे ।

[15] जल जैसे नया ताज़ा बहुत शीतलता और ताज़गी देता है ऐसी नवनवोन्मेष-प्रतिभाशालिनी एवं प्रसन्नबुद्धि ।

[16] गणेशजी का ही एक नाम शिव भी है । शिव ही सबके राजा हैं इसलिए यहाँ गणेशजी का नाम शिवराज – यह कहा गया है ।

 

[17] सोऽर्चिस्स्वरूपो गणेशो लौहस्थोऽपि बलतायाः दानं श्रयति भक्तायेत्यर्थः ।

 

[18] भगवान् को वैसे तो कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि सब वस्तुओं के निर्माता वे ही हैं । यह अमुकामुक वस्तु चढाने का विधान तो मनुष्य की देवताओं में निष्ठा बढाने के लिए है। कुछ लोग सामर्थ्य होते हुए भी देवपूजा में लोभ करते हैं तथा कोई असमर्थ होते हुए भी उदार भाव से पूजन-सामग्री समर्पित करता है । जैसे विष्णु भगवान् द्वारा जब एक सहस्र कमलपुष्पों से शिवजी की पूजा के समय शिव ने परीक्षा हेतु एक कमल चुरा लिया था , तब महान् भक्ति के कारण विष्णु ने अपनी आँख (कमलनयन होने के कारण) ही निकालकर समर्पित करनी चाही, ती शिव ने प्रसन्न हो उन्हें सुदर्शन चक्र दिया । अर्थात् भगवान् को किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं । ये तो केवल भक्तों के मन की श्रद्धा है । 

 

[19]  (तस्माद् अपि ईश उत्तरे = उच्चतरे स्थाने संवसेरित्यर्थः)

[20] (गोमयेषु आयसे - अयस इदं आयसं लौहमयं तत्र इत्यर्थः)

 

[21] जीवतायाः कस्मिंश्चिदपि अङ्गे न मे मती रतिर्वास्ति ।

 

[22] (गिरीश - शिवगिरीश - हिमालयगीरीश - बृहस्पतिगवीश्वर- कृष्णगोत्रेश - ब्राह्मणगुणेश- गुणवान् व्यक्ति)

 

[23]  ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डाः भैरवादयः – ये सब देवयोनिविशेष हैं ।

 

[24] सुरा ईड्याः येषान्ते सुरेड्यास्तेषाम्पीडनं तस्य पीडनस्यान्तकं गणेशमित्यर्थः।

[25] सदीडितं - सद्भिरीडितं, सदेडितं – सदा ईडितम् इति द्विधा प्रोक्तम् ।

 

[26] हस्तिनां समूहः। हस्ति-कन्।

[27]  हट त्विषि (दीप्त्यर्थे), हटनः त्विण्मानित्यर्थः

[28] दुष्टानां घट्टः (चालः) तेन अतिक्रान्तं पट्टं (नगरम्) तं हटयतु दीपयतु ज्वालयतु इत्यर्थः। अथवा दुष्टानां घट्टस्य चालस्य यत् अतिपट्टं (पट्टानि अतिक्रम्य, पट्ट वस्त्रे, (मर्यादाहीनत्वमर्थः) तद् दुष्टघट्टातिपट्टं तं त्वं हटनः सन् हटयतु ज्वालयतु इति व्याख्यालभ्योर्थः।

[29] अतिवृष्ट्यनावृष्ट्यादिरूपाः।

[30] तु – आच्युतानि – इव । अच्युतस्य इमानि आच्युतानि – कर्माणि तत्त्वानि वा। (विष्णु ही परमशैव हैं, अतः वे शिव के चरित्रों धारण करते हैं इसी तरह सूर्य भी)। (शिवचरित्रों को धारण करना अविनाशी तत्त्व को धारण करना ही है, किन्तु लौकिक कथा की तरह दिखाई पड़ने पर सामान्य जन को उसमें कल्पनात्मकता दिखाई पड़ती है, जबकि सूर्य, शिव-विष्णु तत्त्व की अक्षरता को जानते हैं अतः शिव तत्त्व को अक्षरणीय, अच्युत तत्त्व या अच्युत कर्म की तरह धारण करते हैं। देव होने के नाते शिव-विष्णु-चरित्रों की दिव्यता को मनुष्य से बेहतर पहचानते हैं।

[31] सौ घड़ों को भेदने का तात्पर्य शतशः लौकिक-बाधाओं को पार करके, या शतशः सत्सङ्कल्पों व सत्कर्मों से है। जैसे कवि मयूर ने सूर्यशतक की रचना के लिए स्वयं को ऊँचे वृक्ष पर सौ ग्रन्थियों से बांधा था, एक श्लोक रचना पर एक ग्रन्थि खोल देते थे, सौ ग्रन्थि खोलने पर साक्षात् सूर्य नें प्रकट होकर उन्हे कुष्ठमुक्त किया – ऐसी कथा हमने गुरुजनों से सुनी हैं।

[32]  नागसम्बद्धं (पतञ्जलिसम्बद्धं) यत् पदशास्त्रं तत् प्रभाषितुं तच्छीलः। पुनश्चावृत्त्या नागशब्देन नागेशभट्टोऽपि ग्राह्यः। अत्र सर्वोऽपि जनो नागपदप्रभाषी वसेदित्यर्थः।

[33] मनोरमा अप्रिया यस्य इति, मनोरमा (मनोरमाख्यग्रन्थः) प्रिया यस्य इति द्विधाऽपि कर्तुं शक्यते,तेनैवार्थसिद्धिः।

[34] उपर्युक्त श्लोकों में कहें गए सभी ग्रन्थ शास्त्रीय एवं क्लिष्ट-शैली वाले हैं। साधारण मनुष्य की बात तो छोड़ो, प्रायः विद्वान् भी इन ग्रन्थों को सारल्य से नही जान सकते, लेकिन गुरुजी इन सभी को बड़ी आसानी से पढ़ा देते हैं - यही कवि का अभिप्राय है।

[35] गङ्गाया इदं गाङ्गं, गाङ्गञ्च तन्नीरं, तेन।

[36] सद्धर्मतथ्यानुगैरेतैश्श्रीबाबागुरुभिर्धत्तूरादिभिश्शङ्करस्सेव्यते।

[37] या फिर - जीवन की धारा को सरलता से बहाते हैं।

[38] शास्त्रैरिति पदस्य द्विधा विनियोगः – शास्त्रैश्श्रितं तथ्यम्। पुनश्च शास्त्रैरेव शास्त्राचरणैरेव शास्त्रश्रितं तथ्यमिदं मनुष्याः लभन्ते। एतद्धिन्दीभाषायां स्पष्टत्त्वेन बुध्यताम्।

[39]  शब्दस्य शब्दशास्त्रस्य वृष्टिरिव यः। शब्दप्रियैश्शब्दशास्त्रप्रियैरित्यर्थः।

[40] निजस्वैः निजधनैरित्यर्थः।(सर्वकारीयाध्यापकवृत्तिप्राप्तैस्स्वकीयैर्धनैरित्यर्थः। )

[41] शुभमस्यास्तीति शुभः।शुभशीलः (भविष्येति पदस्य विशेषणम्)। अर्शाद्यच्। शिष्यस्य शुभो भविष्योऽशुभो वेत्यादिकं तद्गत्यादिकमवलोक्यैव श्रीगुरुर्जानातीत्यर्थः।

[42] अग्रिमे (आगामिनि) काले इत्यर्थः।

[43] निषेधार्थकः।

[44] यत्र च संसारे धूर्तजनाः(सन्यासिवेशमाधृत्य) अहर्निशं वणिजां वञ्चने संरताः सन्ति, तत्र एष श्रीमद्बाबागुरुः धनिना दानप्रसङ्गे उत्थापिते सत्यपि तं परिवर्जयति, एवञ्च तं धनिनं परीक्ष्यैव (अयं अन्यायेन तु वित्तं न उपार्जयतीत्यादिविषयकं) दानं आश्रमवासिभ्यश्छात्रेभ्य एव स्वीकरोति, स्वयं तु लेशमात्रमपि तदुपयोगं न करोतीत्यर्थः। (अध्यापनप्राप्तवित्तजीवितजीविकात्त्वात् )

[45] के – जले यथा पद्मपत्रस्य स्थितिर्भवति तथा अयं (श्रीगुरुः) संसारे वसेत् (निवासं करोतीत्यर्थः)।

[46] भूषणैः शूलिनः किं च बाबागुरोः इति पा.

[47] अहो, अरे सांसारिकाः। एतं श्रीबाबागुरुं गुप्तं महामणिं (वैराग्यकारणाद् बाबागुरूणां कीर्त्यादिवैमुख्यं, तस्मात्तेषां गुप्तत्त्वं, सदोपकारलग्नत्त्वात् सकलशास्त्रज्ञत्त्वाच्च महामणित्त्वम्) पश्यन्तु (हर्षाश्चर्यभावसमन्वितत्त्वात् पश्यन्तु इति द्विर्वचनम् )। शुभस्थलं नरवरविशेषणत्त्वेनाह। (नह्यत्र काशीगमनप्रतिरोधकत्त्वम् अपितु नरवरवैशिष्ट्यदर्शनाय छात्रेभ्यो नरवरमहत्त्वबोधनाय चैतद्वचनम्) अपि च ये काशीस्थास्तेषाङ्कृते वचनमिदं काशीवैशिष्ट्यपरान्वयसिद्धम्।

 

[48] अस्मिन्नरवराख्ये तीर्थ इत्यर्थः।

[49]  नरवरं प्रति जना आकर्षिताः भवेयुश्शास्त्रं धर्मं च लभेरन् इति भावेन वचनमेतदुक्तम्।

[50] विताना विस्तृताश्चेमे तरुशष्पभिषजस्तैर्युतस्तस्मिन्। नानावितानतरुशष्पभिषग्भिर्युते युक्ते।

[51] शास्त्राणां गर्ज्जं यस्य तम्। गर्ज्जनमेव गर्ज्जः– भावे घञ्। तं गर्ज्जम्। शास्त्रसम्बन्धिगर्ज्जनायुक्तः। न हि शास्त्रज्ञोऽपि भीरुरिवाचरत्यपितु स शास्त्रसिंह इव गर्ज्जनशील इत्यर्थः।

[52] सम्यक्चरन्ति विदुषे सुजनाः नमांसि इति पा.

[53] तादृशस्य मतित्त्वस्य सर इव, तादृशमतित्त्वसरः

[54] जैसे आज कपिला रंग की बिजली चमकी तो हवा चलेगी, अमुक पक्षी की आवाज सुनाई दी तो ये अर्थ है, अमुक जीव का अमुक अवसर पर दर्शन हुआ तो ये होगा इत्यादि विषयक।

[55] सारल्ययुक्तवपुषं सहसाऽतिहृष्टाः इति पा.

[56] शास्त्रनिधिरेव शास्त्रनिधिकः।

[57] यश्चैव शास्त्रनिधिरास्यविभावविज्ञ इति पा.

[58] नानाविधानानां  कलनं, (कल्यते लक्ष्यते) तेषां आकरणे समर्थः (नानाविधान-कलनानाम् आकरणे आ-समन्तात् करणे अथवा आकारप्रदाने समर्थ इत्यर्थः)

[59] क्षणेनैव दीप्यते भासो यस्याः, तादृशी मतिः।

[60] नक्षत्राणि अश्विनीभरण्यादीनि, ग्रहाः भौमशन्यादयः, तेषां यन्मण्डलं, तेनान्विते, सु शोभने (रात्रिकालिके) खे गगने

[61] यद्वच्छुक्लमहाष्टमीनिशि च खे चन्द्रो मुदा राजते इति पा.

[62]  श्रीमतां स्वरूपैर्नुतश्चासौ हर्षभरः, हर्षस्य भरो (अतिशयो) यस्मिन्। हर्षयुतमिति पा.।

[63] गङ्गापुत्र भीष्म जैसे ब्रह्मचारी थे, प्रबलजीमहाराज भी ब्रह्मचारी थे, भीष्म गङ्गा के पुत्र थे, प्रबलजी गङ्गा में अतिशय भक्ति के कारण पुत्र थे- अतः यह द्व्यर्थक शब्द है।

[64] इति प्राबलैर्निर्देशैविप्रेभ्यश्श्राद्धभोज्यपात्रं जना: जानन्तीत्याशय:।

 

[65] श्रद्धाबद्धैस्तत्र नरौराख्यदेशे एष एव शिवो वृद्धिकेशी प्रोच्यत इत्याशय:

 

[66] कदाचिद्गुरुर्हास्यप्रियोऽपि जायते येन पार्श्वस्था अपि प्रसन्नतामनुभवेयुरिति भावार्थ:।

 

[67] समर्थस्य श्रियं – अत्र षष्ठीतत्पुरुषत्वेन समर्थश्रीरिति स्त्रीत्वं वहति, अन्यां समर्थश्रियमिति। समर्थस्वामिनः तपश्शास्त्रादिरूपिणीं श्रियं दृष्ट्वेत्याशयः।

[68] यज्ञाय पात्रब्राह्मणा इत्याशय:।

[69]  प्राबल: अर्थ:/तात्पर्यं/चिन्तनं वा- प्राबलार्थ:। [प्रबलस्य अयं प्राबल:प्राबलश्चासावर्थ इति]

इत्येतैरुपर्युक्तैर्निजैर्दर्शनैरधुनापि तच्छिष्यमनस्सु जीवतीत्यर्थ:।

 

[70]  यतीनामाश्रमो मठो वैव तेषां गृहम्भवतीति कृत्वा गेहशब्दोऽत्राश्रमपर:।

[71] अद्रिः – वृक्षः।

[72]  एतैर्वृक्षैश्शोभिते मठे राजित गुरो ते नम इत्याशय:।

[73]  प्रभाभिर्जुषतीति प्रभाजुट्, तस्मै। सूर्यायेत्याशयः।

[74] नारकं दु:खंत्रिदोषैर्लब्धनरकदु:खं नश्यत्वित्याशय:

[75] अपने चित्त को हमेशा निर्मल जल की तरह साफ रखोशुद्ध रखो! एकांत में जाकर खुद को जगाओअपने ही द्वारा अपना आत्मबोध जगाओ! कोई दूसरा मित्र या शत्रु हमारा नहीं है हमें अपना अपनी ही आत्मा के द्वारा उद्धार करना है- ऐसा श्री प्रबल जी महाराज कहते हैं। (उद्धरेदात्मनात्मानम्)

[76]  धनुष्मत: रामस्य चित्रं (हृदयस्थंबहिर्वा) अश्रुधारया (भक्तिप्रेमोद्वेगत्वान्निस्सृताश्रूणां धारा तया) अभिषिञ्चति।

[77]  त्रिनेत्र- शिव। त्रिनेत्रदत्तनेत्र - त्रिनेत्राय शिवाय दत्तं नेत्रं येन ,स विष्णु:। त्रिनेत्र-दत्तनेत्र (विष्णु:)-दत्तनेत्र-(विष्णुभक्ता:) - त्रिनेत्रदत्तनेत्रदत्तनेत्र- दत्तनेत्रक (विष्णुभक्तेषु वैष्णवेषु दत्ते नेत्रे येन (विष्णुभक्तान् प्रति विशेषसौहार्दसक्त:तेषु आदरयुत:तेषु विशेषेण दत्तं अवधानंतेषु सम्माननेत्र:तेषु कृतावधान:वैष्णवसेवालग्नो वा) स श्रीप्रबलमहाज:)

[78] निपीताश्चेमा: काव्यमाधुर्यो - निपीतकाव्यमाधुर्यस्ताभि: - निपीतकाव्यमाधुरीभि: (गीतगोविन्दगोपीगीतप्रभृतिभि:)। मधुन: प्रपायक: मधुप्रपायक:। जगतो मधुप्रपायक: - जगन्मधुप्रपायक:। निपीतकाव्यमाधुरीभि: जगन्मधुप्रपायक: य: - निपीतकाव्यमाधुरीजगन्मधुप्रपायक:। तम्।

[79] विदृष्टपुण्यपापभेद-वेदमार्गदर्शकं - अत्रोभयो: कर्मधारय:।

[80] हे गुरो, कुटिलताधमता दुःखदेत्यादिकं भवतां वाक्यमहं स्वहृदये धरन् भवन्तं प्रबलाख्यं पूज्यपदं प्रणमामीत्याशयः।

 

[81] स्वयज्ञाक्षरैरिति पाठान्तरम्। [[ स्वहस्ताक्षरैर् - स्वीयै: पुण्यार्जकहस्तलिखितैरक्षरैर्दण्डहस्तस्य हस्तमपि वारयेद् - दण्डहस्तकृतकष्टं (यमकष्टं) वारयेदित्याशय: न तु मृत्युं वारयेद्। हरिभक्तिद्वारा च मृत्युनिवारोऽपि शक्यस्तां भक्तिं नृभ्यो ददात्यतो मृत्युं वारयेदित्यर्थकरणेऽप्यदोष:। ]]

[82] इति वदति स्म।

[83] यज्ञा एव सम्राजन्ते यस्मिन् तद् यज्ञसम्राजं, जीवनम्। हे गुरो भवतां तद्यज्ञसम्राजं जीवनम् ईडे स्तौमि।

[84] धर्मसङ्घ ईट् पूज्यो यस्य करपात्रगुरुस्थापनत्वात्अथवा धर्मसङ्घेन ईड् यस्स तादृशो भवानित्यर्थ:।

[85] यत्र अम्बुदानां स्वारः (स्वर एव स्वार इति स्वार्थेऽण्) श्रीशमन्त्राहुतीनां स्वरगमिततया, गमिततया प्रेषिततया मेलिततया अपि च मिश्रिततयेत्यर्थः। वैदिकैस्स्वीयस्स्वरः अम्बुदस्वरं प्रति गमितः प्रेषितः मिश्रितो वेति व्याख्यानैरर्थस्साध्यः।

[86] शास्त्र का आश्रय प्रमोदार्थ है - ऐसा दृश्यों को प्रेरित करना- वास्तव में वर्तमानादि कालों में भौतिकशरीरों द्वारा जीवन की गतिविधिया सब दृश्य के रूप में हमारे मन में समाहित होतीं हैं, स्वयं शास्त्र से प्रमोद करना ही उन क्षणों को इन दृश्यों को इस तथ्य के रूप में ख्यापित करता है कि हम और हमारा वातावरण शास्त्रप्रमोदी है, तत्रोपस्थित जनों के मस्तिष्क में वह दृश्य शास्त्रप्रमोद की प्रेरणा के रूप में उपस्थित होता है, इसलिए कहा – दृश्यानि नुदतीत्यादि।

[87] देवेशेन सहित: सदेवेश:

[88] सर्वं साधयति हनूमान् इति शिवराजविजयेऽपि तथैवात्र हनुमतः सर्वसाधकत्त्वात् प्रशस्तिः।

 

[89] राम और हनुमान् में अभेद दृष्टि से भक्त व भगवान् के एक हो जाने पर जगत् का स्वामित्व होना हनुमान् जी में भी रामवत् ही यहां दिखाया गया है।

[90] गङ्गा जी माता हैं, इस दृष्टि से बालवत् ब्राह्मण बच्चे, वहाँ माँ की गोद में खूब खेलते हैं, जिससे माँ गङ्गा भी अपने उन पुत्रों को खेलता देख प्रसन्न होती है। यह शास्त्र के कठोर नियमों से परे भावसंसार है, इसमें भक्तिभाव व भगवान् से आत्मीयता स्थापित होने पर सभी लौकिक नियम समाप्त हो जाते हैं। अन्यथा लौकिकोपासना फलप्राप्ति आदि की दृष्टि से तो – गङ्गां पुण्यजलां प्राप्य त्रयोदश विवर्जयेत् इत्यादि शास्त्र प्रसिद्ध है ही।

[91]  यहाँ ध्यातव्य है कि पहले अवगमन उसके बाद ही जानना - यह क्रमिक प्रक्रिया दिखाई है, पहले सामान्य रूप से किसी भी पाठ को समझना फिर चिन्तन-मनन-प्रवचनादि के द्वारा इसको विस्तार से जानना, इसलिए कवि ने अवगमनं श्रयतु, जानातु - इन दो का अलग-अलग प्रयोग किया है।

[92] देशद्रोहः प्रियो येषां ते देशद्रोहप्रियाः, कुत्सितानि मनांसि येषां ते कुमनसः – देशदोहप्रियाश्चेमे कुमनस इति देशद्रोहप्रियकुमनसः। शसः रूपम्।

[93] हृदयहर्ष के समय स्मरण, स्मरणोपरान्त ही नरवरजनवार्ता, तत्र गमनादिक क्रियाओं का सम्भव होना शक्य है।

[94] नरवरस्यैव विभिन्नं (वैभिन्न्यदर्शिरूपम्) - एतद्बिहारघट्टमित्याशय:

[95] विष्ण्वाश्रममहाराज इत्याशय:।

 

[96] कर्मद्वितीयैकवचनम्। आश्रय –(लोण्मध्यमैकवचनम्)

[97] हवनस्य वनं – हवनवनं (यस्मिन् वने हवनं भवति प्रायः, मुनयो यत्र वने वसन्ति तत्र हवनमपि कुर्वन्ति, अतस्तत्स्थलस्य हवनवनसंज्ञा कृता) तत्र गन्तुं तच्छीलः- हवनवनगामी। हवनानां वन्,बाहुल्ये गन्तु तच्छील इति वा।

[98] धनवसनकारणाद् यज्ञानां कार्यं न लुप्येत ।

[99]  श्रुतिभ्यां सुखं यैस्ते स्वराः शब्दा वा स्युर्लोके, तैश्शब्दैरन्वितो वा लोकस्स्यादित्याशयः

[100]  नैयायिकानाम्। घटपटादिपदेषु व्यस्ता: इमे सुधिय:अथवा घटपटादिपदेषु व्यस्ता: शोभनाः धियो येषां ते।

[101] गवामुन्नेतार: - वास्तवेन गोसेवका:। न तु गोभ्यः प्राप्तवित्तेनात्मोदरम्भरिणो धूर्ताः। नटत्वाभ्यसनिनां - प्रसिद्धाभिनेतृणामपेक्षया नवाभिनेतृणां अथवा संस्कृतनाट्यप्रस्तोतृणां तदभ्यासशीलानामपि वित्तादिदानैस्सम्मानं चरेदित्याशय:। (नाट्यस्यापि वेदाङ्गत्वात् तदभ्यासिजनोत्साहवर्धनशीलस्समर्थश्रीरिति भाव:)

[102] जिससे ये विद्वान् कलाकार, बुद्धिजीवी लुप्त न हों तथा संसार का उपकार करते रहें।

[103]   भाण्डानां अरा: पङ्क्तयो यत्र - बहुविधभोजननिर्मितत्वात् - भाण्डारा: (लोके भण्डारेति प्रसिद्धत्वादेवं व्युत्पत्तिशरण्यं कृतम्)

[104] रयित: - धनादेव राव: शब्दो येषां ते रयिरावा: धनवन्त:। धनिकयजमाना:।

[105]समुचितं इदं दाक्षिण्यं हेमादिभवं मेपि कवयेपि यच्छतु इत्याशय:।

 

[106]  (सुष्ठुरूपेण आत्मज्ञानम्) स्वात्मज्ञानाय ईरणं प्रेरणं , तत्र रतः, तस्य भावस्तया, स स्वामी लोके दृश्यत इत्यर्थः। अन्यच्च स्वत एव आत्मनो ज्ञानमिति स्वात्मज्ञानम्।

 

 

[107] यह पद्य व्याकरणशास्त्रपरक तथा मोक्षपरक उभयार्थक सिद्धि वाला है।

[108]  पञ्चास्यश्शिवस्तस्मिन् सक्तः। प्रथमा चेयं कविता – वाल्मीकेः कविता –रामायणं, तस्य वाचनरतः।

 

[109] लौकिकवस्तुजयाद्धीनः। अथवा लौकिकवस्तुजयेऽपि तस्माद्धीन इव य आचरतीति भावार्थः।

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