एक दिन मेरे भी बहुत से चेले होंगे
चारों और खुशियों के मेले होंगे
ऐसा सोचकर वह ,
शास्त्रों को पढ़ता रहा
प्रतिदिन विद्वत्ता की
ऊंचाइयों पर चढता रहा
शुक्ल यजुर्वेद को उसने
कंठस्थ कर लिया था
नागेश के ग्रंथों को
हृदयस्थ कर लिया था
दान नहीं लूंगा, अतः
पंडिताई से बचता था
स्वयं के लिए पूजा करना ही,
उसे जंचता था
मोटी सी चुटिया उसके
वैदुष्य की पहचान थी
एकांत में कुटिया, उसके
वैराग्य का प्रतिमान थी
उसके मंत्र बड़े ही तेजस्वी थे
एक एक वाक्य बड़े ओजस्वी थे
लेकिन सबके लिए वह मंत्रों का प्रयोग
करता नहीं था
दान दक्षिणा के लिए
कभी मरता नहीं था
बहुत वर्ष उसनेे गंगाजल पीकर बिता डाले
विनियोग छोड़ते छोड़ते हाथ गला डाले
वह वैदिक विधियों की व्याख्या,
बड़ी विचित्र करता था ,
पुराणों की कथा
बड़ी सचित्र करता था ..
दर्शनशास्त्र उस पर ही खत्म ,
और उससे ही शुरू था
नवयुवक होते हुए भी
वह सबका गुरु था
घमंडी विद्वान उससे बहुत जलते थे
शास्त्रार्थ में हराने को मचलते थे
जबकि वह बिल्कुल आचार विहीन थे
सिर्फ वाणी मात्र से ही शास्त्रप्रवीण थे
धर्मशास्त्र को आचरण में नहीं उतारते थे
बस नागेश की पंक्तियां ही सब पर मारते थे
और किसी भी शास्त्र का उनको नहीं था ज्ञान ,
थोड़े से व्याकरण से ही भरा था अभिमान
लेकिन उनका इस बार,
दिव्यन्धर से पड़ा था उनका पाला ,
गंगा जी के घाट पर जो,
फेर रहा था माला
व्याख्यानों की परंपरा का
रूप बदल डाला था
दिव्यन्धर ने उन सबका
हृद्रूप बदल डाला था
अभिमानों के पुतले वे,
हो गए बहुत चमत्कृत
नरवर की उस पुण्य धरा को,
करके गए नमस्कृत
तपस्वी लोग अक्सर
रहते ही हैं अकेले ,
लंगड़ जमा ही देते हैं आखिर,
बाबा के चेले।।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा बढ़ाने गए हों, नुकसान तो उन सरोवरों का ही है, जिनका ऐसे सुंदर राजहंसों से वियोग है।। अर्थात् अच्छे लोग कहीं भी चले जाएं, वहीं जाकर शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन हानि तो उनकी होती है , जिन लोगों को छोड़कर वह जाते हैं । *छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति* *तिष्ठन्ति स्वयमातपे।* *फलान्यपि परार्थाय* *वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।* अर्थात- पेड को देखिये दूसरों के लिये छाँव देकर खुद गरमी में तप रहे हैं। फल भी सारे संसार को दे देते हैं। इन वृक्षों के समान ही सज्जन पुरुष के चरित्र होते हैं। *ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव* *गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।* *गुणात् गुरुत्वमायाति* *दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।* अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है, यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है। *अर्थार्थी यानि कष्टानि* *सहते कृपणो जनः।* *तान्येव यदि धर्मार्थी* *न भूयः क्लेशभाजनम्।।*...
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