यन्मङ्गलन्नरवरे च विलोक्यतेऽद्य यच्छास्त्रचर्यमपि विप्रगणैश्च चर्यम्।
यत्सौरभं सुमनसामनुभूयते वा बाबागुरोस्सकलमेव हि तत्प्रभावात्।।1।।
यत्सौरभं सुमनसामनुभूयते वा बाबागुरोस्सकलमेव हि तत्प्रभावात्।।1।।
-आज जो कुछ भी नरवर में मङ्गल दिखाई दे रहा है,या जो ब्राह्मणों की जो शास्त्रचर्या उनके द्वारा आचरणीय है, तद्गत जो माङ्गल्य है, और जो पुष्पों की सुगन्धि यहां अनुभूत की जाती है, वह सब श्रीबाबागुरूजी के प्रभाव से ही है।।
भो भो बुधाः क्षणमिमम्परितश्शृणुध्वं
यूयन्धनेषु परिसक्ततया विनिन्द्याः।
लोभैकपातितधियोऽपि च शास्त्रपाठै-
र्नैवङ्कदापि सुगतिम्परिलब्धुमर्हाः।।2।।
यूयन्धनेषु परिसक्ततया विनिन्द्याः।
लोभैकपातितधियोऽपि च शास्त्रपाठै-
र्नैवङ्कदापि सुगतिम्परिलब्धुमर्हाः।।2।।
-अरे विद्वानों क्षण भर को इस जन की भी बात सुनों,तुम धन की सब ओर से आसक्ति में पडे रहनें के कारण ही निन्दनीय हो। सांसारिक लोभों में गिराई गयी है बुद्धि जिसकी,ऐसे होकर तुम शास्त्र-पाठों के द्वारा भी सद्गति प्राप्त करनें के योग्य नहीं हो।।2।।
चेन्निर्धनत्वपरिपीडितसज्जनाना-
मापद्विनश्यथ न रे पदमानसक्ताः।
वाक्ष्वेव वस्सकलशास्त्रगलज्जलानि
कर्मस्वहो न दधथ स्मरपाशबद्धाः।।3।।
मापद्विनश्यथ न रे पदमानसक्ताः।
वाक्ष्वेव वस्सकलशास्त्रगलज्जलानि
कर्मस्वहो न दधथ स्मरपाशबद्धाः।।3।।
-यदि तुम दारिद्र्य से परिपीडित सज्जनों की आपत्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार नष्ट नहीं करते हो और सदा अपनें पद के अभिमान में ही आसक्त(चूर) रहते हो,तब तो यही सिद्ध हुआ कि शास्त्रों के जल केवल तुम्हारी वाणी से ही झरतें हैं,आप उन्हें कर्मों में धारण नहीं करते।अहो स्मर के पाश से बन्धे की विचित्र दशा है।।
यूयङ्कथं स्वहृदयानि निरुध्य चेदृ-
क्काञ्चिद्दयां न तनुतेत्यपि निर्धनेषु।
त्वत्संयमादिगतयःक्व गताःन जाने
म्लेच्छैरिव प्रचरथाऽद्य विनश्य पुण्यम्।।4।।
क्काञ्चिद्दयां न तनुतेत्यपि निर्धनेषु।
त्वत्संयमादिगतयःक्व गताःन जाने
म्लेच्छैरिव प्रचरथाऽद्य विनश्य पुण्यम्।।4।।
-तुम इस प्रकार कैसे अपने हृदयों को रोक कर , शास्त्र,वित्त,भाग्य आदि प्रकारों से निर्धन मनुष्यों पर दया का थोडा भी विस्तार नहीं करते। तुम्हारी संयम आदि शास्त्रोचित गतियां न जाने कहां गईं,और आज तुम अपने पुण्यों को नष्ट करके म्लेच्छों की तरह प्रचर्यमाण(घूम रहे) हो।।
दिव्यन्धरश्च चरति प्रणिरुध्य वेगं
वीर्यस्य संयमपरो भजते हरञ्च।
वाचञ्यमो निजपथे सरति श्रितार्थ
श्शैवम्भरस्स लभते सुफलं जगत्याम्।।5।।
वीर्यस्य संयमपरो भजते हरञ्च।
वाचञ्यमो निजपथे सरति श्रितार्थ
श्शैवम्भरस्स लभते सुफलं जगत्याम्।।5।।
-और वह दिव्यन्धर अपनें तेज का वेग रोककर संयम का आचरण करता हुआ शिव का भजन करता है। वह वाचञ्यम(वाणी का संयमी) वेद के अर्थों का आश्रय लेकर शैव तत्त्व को धारण करनें वाला अपनें मार्ग पर चलता है एवं इस जगत् में शुभफल प्राप्त करता है।।
केचिद्विनैव तपसा कवयो भवन्ति
वाक्संयमेन च विना प्रवदन्ति सर्वम्।
आचारहीनपुरुषाश्च वदन्ति धर्मं
काऽसौ द्रुतम्प्रचरति श्रुतिशास्त्रहानिः।।6।।
वाक्संयमेन च विना प्रवदन्ति सर्वम्।
आचारहीनपुरुषाश्च वदन्ति धर्मं
काऽसौ द्रुतम्प्रचरति श्रुतिशास्त्रहानिः।।6।।
- आजकल तो बिना तप किये ही लोग कवि बन रहें हैं,किसी भी सन्दर्भ की बात का बिना वाक्संयम के ही (जैसे ये ही तथ्य का ज्ञाता हो) प्रवाद करनें लगतें हैं।आचारहीनपुरुष भी देखों कितना धर्म का(बिना तत्त्वतः जाने, मनमाना ) व्याख्यान करनें में लगें हुए हैं, अहो शीघ्रतापूर्वक यह वेद और शास्त्रों की हानि होती जा रही है।
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