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'परि' उपसर्ग के साथ कुछ बातें
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अभि, प्रति, परि, उप - ये चारों उपसर्ग दो बाईकों पर सवार हो, उस समय जयपुर शहर में घूम रहे थे ! एक बाईक पर अभि, प्रति और दूसरी पर परि , उप बैठे हुए थे।
'प्रति' और 'उप' ये दोनों उपसर्ग बाइक चला रहे थे ।
'अभी' और 'परि' यह दोनों पीछे बैठे हुए थे ।
वे अपनी 'Brezza' नामक गाड़ी को अपने घर बनारस में ही छोड़ आए थे ।
उन्हें पता चला कि मैं भी इस समय जयपुर आया हूं, तो इन्होंने मुझसे मिलने की योजना बनाई, लेकिन 'वि' नामक उपसर्ग का फोन आने के कारण 'अभी','प्रति' और 'उप' - ये तीनों उसके पास चले गए ,
और अकेला 'परि' मुझसे मिलने के लिए मेरे कमरे पर आया।
'परि' ने चाय पीते हुए कहा - मेरा आपने जितना उपयोग किया है उसका मैं क़ायल हूं ! जब आपकी छंद पूरा करने की इच्छा रहती है तो आप 'धातु' में तुरंत ही मुझे लगा देते हैं!
मैं बोला - तुम सही कह रहे हो 'परि' !
यद्यपि मैं सभी उपसर्गों का यथासमय, यथास्थिति प्रयोग करता हूं ,लेकिन फिर भी
श्लोक बनाने में तुमने मेरा बहुत साथ दिया है!
तुम तो जानते ही हो,
कि तुम्हारा साथ 'धातु' को कितना अच्छा लगता है। 'धातु' ख़ुद तुम्हारा साथ पाकर अपना महत्व बढ़ाती है अपना अर्थ विस्तृत करती है ।
अपनी प्रशंसा सुनकर 'परि' मुस्कुराया और बोला- आपने सही कहा ! लेकिन कुछ लोग मेरा दुरुपयोग भी करते हैं ।
तात्पर्य के प्रतिकूल जाकर धातु के साथ मेरा संयोग करते हैं , जो मुझे तनिक भी पसंद नहीं आता।
मैं बोला- वैसे तुम अपने मुंह से बताओ कि तुम्हारा असली मतलब क्या है ?
'परि' - आप कैसी बात करते हैं , आप तो जानते ही हैं मेरा ('परि' का) लोग 'परित:' , 'बहुतया' या 'सम्पूर्णतया' अर्थ ग्रहण करते हैं !
लेकिन मैं आधुनिक लोगों से थोड़ा नाराज भी हूं !
हिम. - "क्यों" ??
परि- "ये लोग प्राचीन ग्रंथों को पढ़ते नहीं हैं और इन्हीं 2-3 अर्थों में मेरा प्रयोग करते हैं !"
हिम. - "मैं जानता हूं 'परि', कि तुम धातु के अर्थ को बलपूर्वक परिवर्तित कर देते हो ",
"दूसरी जगह खींच ले जाते हो , लेकिन हर कोई इस बात को नहीं समझ पाता।"
परि - "उन्हें नहीं पता कि अनेक प्रसंगों में , मैं अपना अर्थ बदलता रहता हूं !"
तभी 'परि' के मोबाइल पर उसके दोस्त 'अभि' का कॉल आया ।
'परि' ने कप मेज पर रखा और कहा - मुझे आज्ञा दें, मेरे दोस्त मुझे बुला रहे हैं !
मैं फिर कभी आपसे मिलूंगा और उनको भी साथ लेकर आऊंगा।
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