सिर पर मुँडासा, माथे पर त्रिपुण्ड लगाया है........
तुम्हारा ये अन्दाज मुझे बहुत भाया है........
सीताराम बाबा-आश्रम पर तो गये हो बहुत बार........
क्या तुमने टाटिया बाबा का भण्डारा खाया है.......
ज़रा भी मत करना दान दक्षिणा में शरम .......
अगर करते हो पाण्डित्य करम........
क्यों छुपाओगे भला तुम अपनी चुटिया........
क्या तुमने चुराई है किसी की लुटिया.......
अरे ये तो हमारे स्वाभिमान की पहचान है........
वेदाचार्यों की एक शान है.........
ये ब्राह्मण ही तो राष्ट्र की जान हैं..........
जनेऊ और चुटिया पर ही तो हमें अभिमान है........
गरज़ के बोलो मन्त्र, कि फूट जाएँ अधर्म के कान.......
चिल्ला चिल्ला कर कहो- जय हनुमान् जय हनुमान्........
आज तक तुमने वेदों का रहस्य जाना ही नही .......
अगर शिव को गुरु माना ही नहीं...........
चाहे धोती लाँघ की पहनो या पहनों कटिवस्त्र........
अँटी में लगा कर रखो, माउज़र नाम का शस्त्र.........
मैं तुमसे बाइक चलाने को मना नहीं करता, पर चलाओ यामहा........
ताकि सब कहें – अहा अहा अहा.....
केवल रासलीला ही नहीं, ताण्डव भी सुनाओ.......
राणा प्रताप की वीरता को जोर जोर से गाओ.........
बेलपत्थर का शर्बत तो बना लिया, इसमें गङ्गाजल भी मिलाओ....
बर्फ डालकर खूब इसे हिलाओ...
कल ना सही लेकिन आज ये बात मान लो ...
मूँड बन रहा है - विज़या छान लो ....
उससे शाम को तुम गङ्गा में तुम खूब तैरोगे........
शास्त्रार्थ में सबको नीचे गेरोगे...
जर्फरी तुर्फरी शब्द वेदों में हैं,इन्हें गुनों.........
अब नरवरी हरहरी सरसरी भी सुनों......
बातों-बातों में ही हज़ारो शास्त्र सुनो, यदि मिल जाएँ गुरु पचौरी.........
उनके साथ कॉलोनी जाओ,तुम्हें भी मिलेंगी कचौरी..........
पैसों की बात ही मत करो,फ्री में ही सारे ग्रन्थ पढाएँगें...........
सिर्फ बाबा के शब्द ही संसार में तुम्हारा सम्मान बढाएँगे......
अजी, लङ्गड़ी-पुरुषों का स्थान है नरवर........
बहुत हुआ, शाब्दिकों! हर हर ।।
लेखनसमयो दिनाङ्कश्च – 1.30 अपराह्णे , 27-05-2018
गाज़ियाबादस्थे स्वगृहे ।।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा बढ़ाने गए हों, नुकसान तो उन सरोवरों का ही है, जिनका ऐसे सुंदर राजहंसों से वियोग है।। अर्थात् अच्छे लोग कहीं भी चले जाएं, वहीं जाकर शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन हानि तो उनकी होती है , जिन लोगों को छोड़कर वह जाते हैं । *छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति* *तिष्ठन्ति स्वयमातपे।* *फलान्यपि परार्थाय* *वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।* अर्थात- पेड को देखिये दूसरों के लिये छाँव देकर खुद गरमी में तप रहे हैं। फल भी सारे संसार को दे देते हैं। इन वृक्षों के समान ही सज्जन पुरुष के चरित्र होते हैं। *ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव* *गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।* *गुणात् गुरुत्वमायाति* *दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।* अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है, यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है। *अर्थार्थी यानि कष्टानि* *सहते कृपणो जनः।* *तान्येव यदि धर्मार्थी* *न भूयः क्लेशभाजनम्।।*...
Comments
Post a Comment