अलाव नहीं चौराहों पर फिर कैसी सर्दी
दिल में कोई लगाव नहीं है , कैसी सर्दी
उपन्यास पढ़ते पढ़ते जब चाय ना मिले
नोचो अपने बाल कहो फिर कैसी सर्दी।
मीठी मीठी धूप ना मिले खेतों में जब
फ्लैटों में रहते लोगों की कैसी सर्दी
कंबल ओढ़े शास्त्रों का जो पाठ पढ़ाएं
शास्त्री जी को शोभित करती ऐसी सर्दी।।
पीपल के पेड़ों के नीचे कहीं नहीं अब
बतियाते लोगों के जमघट, कैसी सर्दी
स्वच्छ हंसी और हृदय खो गए
हम सबसे अब दूर हो गए
चेहरे पर मल ली लोगों ने
कृत्रिमता की देखो हर्दी
हर मौसम की गई महक
फिर कैसी सर्दी.....
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा बढ़ाने गए हों, नुकसान तो उन सरोवरों का ही है, जिनका ऐसे सुंदर राजहंसों से वियोग है।। अर्थात् अच्छे लोग कहीं भी चले जाएं, वहीं जाकर शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन हानि तो उनकी होती है , जिन लोगों को छोड़कर वह जाते हैं । *छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति* *तिष्ठन्ति स्वयमातपे।* *फलान्यपि परार्थाय* *वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।* अर्थात- पेड को देखिये दूसरों के लिये छाँव देकर खुद गरमी में तप रहे हैं। फल भी सारे संसार को दे देते हैं। इन वृक्षों के समान ही सज्जन पुरुष के चरित्र होते हैं। *ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव* *गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।* *गुणात् गुरुत्वमायाति* *दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।* अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है, यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है। *अर्थार्थी यानि कष्टानि* *सहते कृपणो जनः।* *तान्येव यदि धर्मार्थी* *न भूयः क्लेशभाजनम्।।*...
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