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।। आश्रम के बच्चे ।। हिन्दी कविता ।। हिमांशु गौड़

रहते थे जब आश्रम में
तब तुम कितना पढ़ते थे ,
बात-बात पर बच्चों से
रोजाना ही लड़ते थे ।

मेरी धोती मेरी लुटिया,
कर्मा ने ही चुराई है ,
लौटा दो मुझको
इस में तुम्हारी भलाई है ।

कर्मा गुस्सा होकर बोला
झूठा दोष लगाते हो,
मेरे पात्र चुरा कर के
मुझ पर ही रौब जमाते हो ।

दोनों में हो चली लड़ाई
सीनातानी हो निकली ,
एक दूसरे की चुटिया की,
खींचातानी हो निकली ।

तब तक आश्रम के स्वामी जी ,
आ गए उनके पास ,
बोले तुमने कर डाला है
इस आश्रम का नाश ।

चुटिया धारी गुस्सा होकर
बोला स्वामी सुनो जरा ,
मेरे गुस्से का कारण भी
अपने मन में गुनों जरा ।

ये जो कर्मा खड़ा सामने ,
घूंसे लात चलाता है ,
सब बच्चों के कपड़े बर्तन
ये ही रोज चुराता है ।

स्वामीजी बोले कर्मा से
तुम भी बात बताओ ,
दोनों अपना चलकर के
बक्सा चेक कराओ ।

धोती लुटिया नहीं मिली
तब खुश हो गया कर्मा ,
लेकिन पुस्तक एक मिली
जिस पर नाम लिखा था धर्मा ।

इसका मतलब धर्मा की
पुस्तक उसने चुराई थी ,
धर्मा भी था खड़ा सामने
जिसकी कर्मा से लड़ाई थी ।

लेकिन कर्मा अपने पक्ष में
बोला एक बात ,
एक बार धर्मा ने मुझ में
मारी थी लात ।

लेकिन मैंने कहा नहीं कुछ
मन में ही यह सोचा ,
डालूंगा इसके जिम्मे
मैं भी कोई लोचा ।

इसीलिए मैंने छत पर से
चुराई है रघुवंश,
धर्मा मुझको ऐसा लगता
जैसे मामा कंस ।।

धर्मा गुस्से में पागल हो
कर्मा पर ही झपट पड़ा ,
कर्मा भी प्रतिरोध रूप में
गुत्थमगुत्था लिपट पड़ा ।।

लेकिन धर्मा तगड़ा था
उसने आम बहुत थे चूसे ,
कर्मा ने भी लगा दिए
चार पांच फिर घूंसे ।।

तब तक स्वामी जी गुस्सा हो
बेंत उठाकर लाए ,
लड़ते हुए दोनों बच्चों में
दो दो बेंत लगाए ।।

बोले मैं तुम दोनों को
अभी भगा सकता हूं ,
बदतमीजी का इसी समय
मजा चखा सकता हूं ।।

तब जाकर कर्मा धर्मा को
आया थोड़ा होश ,
ठंडा पड़ चुका था उनका
लड़ाई का भी जोश ।।

तब स्वामी जी नरम हुए कुछ
और सोच कर बोले ,
प्रेम भाव से रहो सभी
छोड़ो सभी चिचोले ।।

चोरा चोरी छीना झपटी
बंद करो हुड़दंग ,
पढ़ो लिखो विद्वान बनो
और बनो दबंग।।

(नाम काल्पनिक है)

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