Tuesday, 6 August 2019

मत समझो।। हिन्दी कविता।। हिमांशु गौड।।

मत समझो स्वयं को जरा भी हीन
अगर खो गई है तुम्हारी कौपीन
छा रही है तुमपे आज निराशा
क्योंकि नहीं मिला है तुम्हें तान्त्रिक दुर्वासा
वह कभी नही गया था काशी
तालिमनगर वालो ने समझा था उसे अन्धविश्वासी
राहुल साङ्कृत्यायन बड़ा घुमक्कड़ रहता था
बाबा, शैव पुरुष होकर भी फक्कड़ रहता था
अचानक तालाब से निकलकर यक्ष तुम्हारी छाँह पकड़ सकता है
मत जाओ मसान में मुर्दा उठकर तुम्हारी बाँह पकड़ सकता है ।
सिंह,मकर से न डरोगे, न होगी मति विभ्रान्ता
अगर कानों में पहनोगे विष्णुक्रान्ता
बहुत छोटी करवा दी है तुमने अपनी चुटिया
जब से छोड़ी है बाबा की कुटिया
छात्र,बिना स्वाद की सब्जी को भी नमकीन बना सकता है,
छोड़ो मत अंगोछा, कोई भी फाड़कर कौपीन बना सकता है ।
कभी कभी अनेक शास्त्रों के उपाय सुझाते हुए
बाबा, कैयट का तात्पर्य बताते हैं दाढ़ी खुजाते हुए
दन्ती अकेले में बैठा हुआ बहुत जाप करता है
इसीलिए बड़े बड़े भाग्यमालिन्यों को साफ करता है ।
क्यों ना बने आदमी कूकर शूकर
जब आस्तिकता गई भी ना हो उसे छूकर
और पुण्यता गिर जाए चू चूकर ।।
सारी आपत्तियों पर तुम अभेद्य ताला गेर रहे हो,
अगर लौकिक व्यवहारों को छोड़, मजे में माला फेर रहे हो ।
क्योंकि सारी लौकिकता अत्यन्त दुःखो में गिराने वाली है,
संसार से तो शैवी निष्ठा ही तराने वाली है ।।

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