मत समझो स्वयं को जरा भी हीन
अगर खो गई है तुम्हारी कौपीन
छा रही है तुमपे आज निराशा
क्योंकि नहीं मिला है तुम्हें तान्त्रिक दुर्वासा
वह कभी नही गया था काशी
तालिमनगर वालो ने समझा था उसे अन्धविश्वासी
राहुल साङ्कृत्यायन बड़ा घुमक्कड़ रहता था
बाबा, शैव पुरुष होकर भी फक्कड़ रहता था
अचानक तालाब से निकलकर यक्ष तुम्हारी छाँह पकड़ सकता है
मत जाओ मसान में मुर्दा उठकर तुम्हारी बाँह पकड़ सकता है ।
सिंह,मकर से न डरोगे, न होगी मति विभ्रान्ता
अगर कानों में पहनोगे विष्णुक्रान्ता
बहुत छोटी करवा दी है तुमने अपनी चुटिया
जब से छोड़ी है बाबा की कुटिया
छात्र,बिना स्वाद की सब्जी को भी नमकीन बना सकता है,
छोड़ो मत अंगोछा, कोई भी फाड़कर कौपीन बना सकता है ।
कभी कभी अनेक शास्त्रों के उपाय सुझाते हुए
बाबा, कैयट का तात्पर्य बताते हैं दाढ़ी खुजाते हुए
दन्ती अकेले में बैठा हुआ बहुत जाप करता है
इसीलिए बड़े बड़े भाग्यमालिन्यों को साफ करता है ।
क्यों ना बने आदमी कूकर शूकर
जब आस्तिकता गई भी ना हो उसे छूकर
और पुण्यता गिर जाए चू चूकर ।।
सारी आपत्तियों पर तुम अभेद्य ताला गेर रहे हो,
अगर लौकिक व्यवहारों को छोड़, मजे में माला फेर रहे हो ।
क्योंकि सारी लौकिकता अत्यन्त दुःखो में गिराने वाली है,
संसार से तो शैवी निष्ठा ही तराने वाली है ।।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा बढ़ाने गए हों, नुकसान तो उन सरोवरों का ही है, जिनका ऐसे सुंदर राजहंसों से वियोग है।। अर्थात् अच्छे लोग कहीं भी चले जाएं, वहीं जाकर शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन हानि तो उनकी होती है , जिन लोगों को छोड़कर वह जाते हैं । *छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति* *तिष्ठन्ति स्वयमातपे।* *फलान्यपि परार्थाय* *वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।* अर्थात- पेड को देखिये दूसरों के लिये छाँव देकर खुद गरमी में तप रहे हैं। फल भी सारे संसार को दे देते हैं। इन वृक्षों के समान ही सज्जन पुरुष के चरित्र होते हैं। *ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव* *गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।* *गुणात् गुरुत्वमायाति* *दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।* अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है, यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है। *अर्थार्थी यानि कष्टानि* *सहते कृपणो जनः।* *तान्येव यदि धर्मार्थी* *न भूयः क्लेशभाजनम्।।*...
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