Monday, 23 September 2019

अवधूत गीता , अध्याय - 8

🌸🌸🌸 अवधूत गीता अध्याय आठ 🌸🌸🌸
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#आत्मानं_चामृतं_हित्वा_अभिन्न_मोक्षमव्ययम्।
#गतो_हि_कुत्सितः #काको_वर्तते_नरकं_प्रति॥१०॥

अमृतस्वरूप, भेदरहित, मोक्ष स्वरूप तथा शाश्वत आत्मा का त्याग करके निन्दित और नीच पुरुष [बार-बार] नरक की ओर दौड़ता है॥ १० ॥

#मनसा_कर्मणावाचा_त्यज्यते_मृगलोचना।
#न_ते_स्वर्गोऽपवर्गो_वा_सानन्दं_हृदयं_यदि॥११॥

मन, वाणी तथा कर्म से मृग के समान नेत्रों वाली नारी का त्याग
कर देना चाहिये। यदि तुम्हारा मन आत्मानन्दसे पूर्ण है, तब तुम्हें
स्वर्ग अथवा मोक्ष की क्या आवश्यकता? ॥ ११॥

#न_जानामि_कथं_तेन_निर्मिता_मृगलोचना।
#विश्वासघातकी_विद्धि_स्वर्गमोक्षसुखार्गलाम्॥१२॥

मैं नहीं जानता कि उस [विधाता]-ने मृगनयनी स्त्री की रचना
किसलिये की। स्त्री को तुम विश्वासघात करनेवाली और स्वर्ग तथा
मोक्ष के सुख की अर्गला (बाधा) समझो ॥१२॥

#मूत्रशोणितदुर्गन्धे_ह्यमेध्यद्वारदूषिते।
#चर्मकुण्डे_ये_रमन्ति_ते_लिप्यन्ते_न_संशयः॥१३॥

जो लोग मूत्र तथा रक्त से दुर्गन्धयुक्त और मल के द्वार का दूषित
चर्मकुण्ड में रमण करते हैं, वे इस दुःखमय संसार में लिप्त रहते हैं; इसमें सन्देह नहीं है॥१३॥

#कौटिल्यदम्भसंयुक्ता_सत्यशौचविवर्जिता।
#केनापि_निर्मिता_नारी_बन्धनं_सर्वदेहिनाम्॥१४॥

कुटिलता तथा दम्भ से युक्त और सत्य तथा पवित्रता से रहित
एवं सभी देहधारियों की बन्धन स्वरूपा नारी को किसने बना दिया ? ॥१४॥

#त्रैलोक्यजननी_धात्री_सा_भगी_नरकं_श्रुवम्।
#तस्यां_जातो_रतस्तत्र_हा_हा_संसारसंस्थितिः ॥ १५ ॥

जो स्त्री तीनों लोकों की जननी और पोषण करनेवाली है, वह
भगयुक्त होने से निश्चय ही साक्षात् नरक है। उसकी स्त्री से उत्पन्न हुआ मनुष्य पुन: उसी का भोग करता है, महान् खेद है कि संसार की यही स्थिति है॥१५॥

#जानामि_नरकं_नारी_ध्रुवं_जानामि_बन्धनम्।
#यस्यां_जातो_रतस्तत्र_पुनस्तत्रैव_धावति।॥ १६॥

मैं स्त्री को [साक्षात्] नरक समझता हूँ और इसे निश्चितरूप से
बंधन मानता हूँ; क्योंकि स्त्री से उत्पन्न हुआ मनुष्य उसी में आसक्त
हो जाता है और बार-बार उसी की ओर दौड़ता है॥१६॥

#भगादिकुचपर्यन्तं_संविद्धि_नरकार्णवम्।
#ये_रमन्ति_पुनस्तत्र_तरन्ति_नरकं_कथम्॥१७॥

योनि से लेकर स्तन पर्यन्त स्त्री को नरक का समुद्र समझो। जो लोग [उसी से उत्पन्न होकर] पुन: उसी में रमण करते हैं, वे नरक को किस प्रकार तर सकते हैं? ॥१७॥

#विष्ठादिनरकं_घोरं_भगं_च_परिनिर्मितम्।
#किमु_पश्यसि_रे_चित्त_कथं_तत्रैव_धावसि ॥ १८ ॥

स्त्री की योनि विष्ठा आदि से युक्त घोर नरकस्वरूप बनायी गयी
है। हे चित्त! तुम उसे क्यों देखते हो और उसकी ओर क्यों दौड़ते
हो? ॥१८॥

#भगेन_चर्मकुण्डेन_दुर्गन्धेन_व्रणेन_च।
#खण्डितं_हि_जगत्सर्वं_सदेवासुरमानुषम्॥१९।।

दुर्गन्धयुक्त तथा घाव सदृश चर्मकुण्ड रूप स्त्रीभग के द्वारा देवता,
असुर तथा मानव सहित सम्पूर्ण जगत् विनाश को प्राप्त हुआ है॥ १९ ॥

#देहार्णवे_महाघोरे_पूरितं_चैव_शोणितम्।
#केनापि_निर्मिता_नारी_भगं_चैव_अधोमुखम्॥२०॥

नारी के महाभयंकर देहरूप समुद्र में रक्त भरा हुआ है। भला
किसने नारी की रचना कर दी और उसकी योनि को अधोमुख बना
दिया॥२०॥

#अन्तरे_नरकं_विद्धि_कौटिल्यं_बाह्यमण्डितम्।
#ललितामिह_पश्यन्ति_महामन्त्रविरोधिनीम्॥ २१ ।।

स्त्री के देह के भीतर नरक विद्यमान है-ऐसा जानो; जो कुटिलता से युक्त है, किंतु बाहर से शोभायुक्त लगता है। बुद्धिमान् (लोग) इस लोक में स्त्री को महामन्त्रस्वरूप वैराग्य का शत्रु समझते हैं ॥ २१ ॥

#अज्ञात्वा_जीवितं_लब्धं_भवस्तत्रैव_देहिनाम्।
#अहो_जातो_रतस्तत्र_अहो_भवविडम्बना॥ २२ ॥

आत्मा को न जान करके ही मनुष्य ने पुनः जन्म प्राप्त किया;
देहधारियों का जन्म उसी स्त्री से हुआ। महान् आश्चर्य है कि वह
पुनः उसीमें आसक्त हो गया; अहो, संसार की ऐसी विडम्बना है ।।२२ ॥

#तत्र_मुग्धा_रमन्ते_च_सदेवासुरमानवाः
#ते_यान्ति_नरकं_घोरं_सत्यमेव_न_संशयः॥२३॥

देवता, असुर तथा मानव समेत सभी मूढ़ बुद्धिवाले लोग उसी
स्त्री में रमण करते हैं और [परिणामस्वरूप] वे घोर नरक में जाते हैं, यह सत्य है; इसमें सन्देह नहीं है॥ २३ ॥

#अग्निकुण्डसमा_नारी_घृतकुम्भसमो_नरः।
#संसर्गेण_विलीयेत_तस्मात्तां_परिवर्जयेत्॥ २४॥

स्त्री अग्नि के कुण्ड के समान है और पुरुष घृत के कुम्भ के समान
है। नारी के सम्बन्ध से पुरुष का विलय हो जाता है; अत: उसका त्याग कर देना चाहिये।॥ २४

#गौडी_पैष्टी_तथा_माध्वी_विज्ञेया_त्रिविधा_सरा।
#चतुर्थी_स्त्री_सुरा_ज्ञेया_ययेदं_मोहितं_जगत्॥२५॥

गुड़, जौ तथा महुए की बनी हुई तीन प्रकार की मदिरा जाननी
चाहिये; किंतु स्त्री को चौथी मदिरा समझना चाहिये, जिसके द्वारा यह जगत् उन्मत्त कर दिया गया है॥ २५॥

#मद्यपानं_महापापं_नारीसङ्गस्तथैव_च।
#तस्माद्_द्वयं_परित्यज्य_तत्त्वनिष्ठो_भवेन्मुनिः ॥२६॥

मद्य का पान करना महान् पाप है, उसी तरह स्त्री-संसर्ग भी
महान् पाप है। अत: इन दोनों का त्याग करके मुनि को तत्त्वज्ञान से युक्त होना चाहिये॥२६॥

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