आचार्यश्री हिमाँशु गौड संस्कृत काव्य-जगत के उभरते सितारे हैं ।
इनका जन्म उत्तरप्रदेश के हापुड़ जिले के बहादुरगढ़ नामक ग्राम में सन् 1990 में हुआ था । इन्होंने वेदों और शास्त्रों की शिक्षा-दीक्षा उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर जिले के नरौरा कस्बे में विद्वन्नगरी के नाम से विख्यात नरवर नामक स्थान पर परम् विद्वान् एवं तपस्वी श्रीबाबागुरू के श्रीमुख से अर्जित की ।
वैसे ये व्याकरण से आचार्य हैं, बी.एड. हैं, किन्तु अनेक शास्त्रों में इन्हें महारत हासिल है । इनके जीवन की विशिष्ट-चर्या, अपनें आनन्द में ही मग्न रहना, हर प्रकार के दृश्य, घटना, स्थितियों को देखने की इनकी विशिष्ट दृष्टि, उनको महसूस करने की इनकी विशिष्ट क्षमता इनके काव्यों में झलकती है । अनेक शास्त्र, पुराण, तन्त्र आदि का ज्ञान एवं स्वयं की कल्पना,सद्भावना इनका कविताओं में दृष्टिगोचर होतें हैं । ये अपनी ही मौज में रहतें हैं । इनके पास रहनें वाले लोग ही इनकी खुशबू से वाकिफ़ हैं । साधारण रूप से इन्हें पहली बार देखकर आदमी इनकी विद्वत्ता को इनकी महान् प्रतिभा को बिल्कुल नहीं पहचान सकता । क्योंकि ये बहुत साधारण तरीके से रहतें हैं । इनकी सबसे बड़ी विशेषता है इनका सरल एवं विनम्र स्वभाव । ये कभी भी अपनी तुलना किसी से नहीं करते और ना ही किसी से होड़ करना पसन्द करतें हैं । इनके जीवन में ढ़ोंग के लिए जरा भी स्थान नहीं है । इसीलिए प्रायः शुरू में लोग इनसे आकर्षित नहीं होते, लेकिन सही तरह से इन्हें जानने के बाद मनुष्य इनको मानता है । जीवन की धारा जैसे बह रही है उसमें भी ये प्रसन्न रहतें हैं । जहाँ वेदों के मन्त्र इनके कण्ठस्थ है वहीं गज़ल , गाने, डायलॉग संस्कृत-हिन्दी की कविताएँ,कहानियाँ , उपन्यास इनके खूब याद हैं व इसी के साथ-साथ पुराणों के रहस्य, अनेक घटनाओं की रञ्जा ये जिस तरह से प्रस्तुत करतें हैं उससे ही इनका प्रतिभा का चातुर्य पता चलता है । युवावस्था में ही इतना ज्ञान एवं प्रतिभा से ये साबित होता है कि ये इनके मात्र इस जन्म का ही नहीं, अपितु पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य का फल है । खैर इनसे मिलने के बाद ही आप इनके व्यक्तित्व से परिचित हो पाएँगें । यद्यपि ये ज़ल्दी किसी से खुलतें नहीं हैं पर जिससे भी खुल जाएँ, वही इनके गुणों से, प्रतिभा से परिचित हो पाता है ।
- आचार्यश्री का शिष्य रघुवरदास शास्त्री ।
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