और फिर एक शरद की सुबह हुई , जब हरी-हरी दूर्वा के अग्र-भाग पर लगी हुई ओस की बूंदे, सूरज की किरणों से सात रंगों को धारण कर रही थी , जब मन्द-मन्द बहती हुई वायु, सभी पशु-पक्षियों और मनुष्यों के शरीरों में नए उत्साह का संचार कर रही थीं,
जब हरे रंग के घोड़ों से जुते स्वर्णरथ पर बैठने वाले , हजारों किरणों वाले , वे हेमपुरुष भगवान् सूर्य उदित हो रहे थे, तब हनुमत्-धाम से निकल कर कोई त्रिपुंडधारी पुरुष , उपवन में से शिव की पूजा के लिए गुलाब के फूल तोड़ रहा था। और उधर श्रीबाबागुरु जी वेदांत-सूत्रों की व्याख्या कर रहे थे, जिसे वहां बैठे हुए कई दंडी स्वामी और अनेक छात्रगण सुन रहे थे।
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