वैसे तो शब्द का अनादित्त्व स्वयं सिद्ध है ! शब्द स्वयं ही ब्रह्म है , किंतु फिर वही उसी शब्द ब्रह्म के साकार तेजस्वी स्वरूप की प्रभा हमें देवताओं के स्वरूपों में दिखाई देती है!
ये देवता ही हैं , ये भगवान ब्रह्मा विष्णु महेश दुर्गा सूर्य आदि ही हैं ,
जो उसी परब्रह्म के अत्यंत तेजो स्वरूप साकार ब्रह्म हैं, जो इस संसार को चलाने के लिए मानों धर्म ने ही साकार स्वरूप धारण किया है,
क्योंकि निराकार तो ना चल फिर सकता है, ना बोल सकता है, ना बैठ सकता है ।
उस पर वाणी नहीं पहुंच सकती ।
इसलिए ब्रह्म की साकार कल्पना ही वस्तुतः इस संसार के मनुष्यों के लिए उनके लौकिक और अलौकिक मार्ग का निश्चय करती है।
जो लोग कहते हैं कि हम तो सिर्फ पर ब्रह्म की उपासना करते हैं , ये देवता आदि मिथ्या हैं ,वे लोग बहुत गहरे अंधेरे में डूबे हुए हैं ।
उन्हें यह नहीं पता की परब्रह्म, साकार स्वरूप ही यह देवता ब्रह्मा, विष्णु , महेश , इंद्र , अग्नि , वरुणादि हैं ,और पौराणिक पूजा पद्धतियों में इनकी ही उपासना का विवेचन है ।
इन साकार ब्रह्म की उपासना के द्वारा ही मनुष्य उस निराकार ब्रह्म की प्राप्ति कर पाता है ।
क्योंकि आप खुद सोचिए, निराकार ब्रह्म का आप कैसे ध्यान करेंगे ?
क्या योग की विधियों के द्वारा , योग की विधियों में जो जप, तप, ध्यान ,धारणा ,समाधि आदि विधान बताए गए हैं ,उनकी दृश्यपरकता तो सर्वप्रसिद्ध है ही ।
वह भी करोड़ों में एक दो व्यक्तियों को ही प्राप्त होती है , उसमें भी अनेक अड़चनें हैं , फिर भी कुछ संप्रदाय विशेष के लोगों अपने आप को परब्रह्म का ध्यान ही बताते हैं ।
अपने आपको निराकार-ब्रह्ममात्र की उपासना करने वाला विज्ञापित करते हैं !
वे कहते हैं कि वेदों में सिर्फ निराकार ब्रह्म की ही चर्चा है ।
मैं उन लोगों से कहना चाहता हूं कि भाई वेदों में जिन यज्ञादियों का वर्णन है , जिन इंद्र, अग्नि, कुबेर आदि का वर्णन है , क्या वह आप को साकार रूप में नजर नहीं आ रहे ?
क्या अग्नि देवता साकार रूप में नहीं है?
क्या यह गंगा आदि नदियां साकार नहीं है ?
जिनके बार-बार नाम वेदों में आए हैं ,क्या यह सूर्य चंद्र नक्षत्र आदि साकार नहीं है ?
तो डायरेक्ट निराकार ब्रह्म को प्राप्त करने वाला तो कोई अत्यंत बिरला ही मनुष्य होता है ।
वस्तुतः साकार ब्रह्म ही , अर्थात् ब्रह्मा विष्णु महेश आदि देवता ही इन सांसारिक जीवो के लौकिक और अलौकिक मार्ग को प्रशस्त करते हुए हमारे जीवन को धन्य बनाते हैं ।
और शास्त्रोचित नित्यकर्म एवं धर्म का आचरण करता हुआ मनुष्य धीरे-धीरे स्वयं ही शरीर के अध्यास से मुक्त होकर उस आत्मस्वरुप का अनुभव करने लगता है।
एवं फिर सभी के एकमात्र प्राप्य में अपने ही स्वरूप में अंत में लीन हो जाता है ।
इसी प्रकार जो शैव लोग हैं , वैष्णव लोग हैं , शाक्त लोग हैं, वे भी अपने-अपने इष्ट का ध्यान करते हुए वस्तुतः उस ब्रह्म की ही अनुभूति करते हैं ।
© हिमांशु गौड़
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