Skip to main content

महाकवि माघ





माघ माऽघवतो घूकान् क्षमस्व कवितामुखान्।
माघौघवीक्षका: माऽघं यात माघेऽघघातिनि।।
हे माघ! एतान् अघवतो  घूकान् (उलूकानिव
कवीन्) (प्रशंसार्थे - अन्धकारेऽपि दर्शनत्वात् , अन्धकारमयेऽपि लोके स्वकाव्यकृतप्रकाशप्रदातृत्वात् कवीनां घूकत्त्वम्,) (निन्दार्थे - घूकवद् रात्रिचरत्वात् रात्रिरत्र पापपर्याया , (कवयोऽपि प्रायोऽधुना यशोधनादिकामा निन्द्यकर्मरक्ता: भवन्ति, तदेव पापकर्म नरकान्धत्त्वदायित्त्वेन रात्रिरूपोदाहृतिरत्र, अतो घूकत्त्वं कवीनाम्) (गर्हार्थस्वीकृत्यैवार्थसिद्धिरत्र)

कवितामुखान्  मा क्षमस्व (विध्यर्थिलोट्)।
द्वितीयपक्षे - एतान् माघवतो (माघकाव्यसंरक्तान् , अथवा माघ-मास-कृत-स्नान-दानान्) घूकान् (प्रशंसापक्षे) क्षमस्व (एतेषां पापानि क्षमस्व) ।
किन्तु ये अघघातिनि माघमासे माघकाव्यस्य औघवीक्षका: (तत्र काव्यौघे कृष्णचरितपठनजातपुण्यशालिन:) ते अघं मा यात (विध्यर्थिलोट्) न यान्तीत्यर्थ:।
© हिमांशु गौड़
१२/१२ रात्रौ,११/०२/२०२०

Comments

Popular posts from this blog

संस्कृत सूक्ति,अर्थ सहित, हिमांशु गौड़

यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा बढ़ाने गए हों, नुकसान तो उन सरोवरों का ही है, जिनका ऐसे सुंदर राजहंसों से वियोग है।। अर्थात् अच्छे लोग कहीं भी चले जाएं, वहीं जाकर शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन हानि तो उनकी होती है , जिन लोगों को छोड़कर वह जाते हैं ।  *छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति* *तिष्ठन्ति स्वयमातपे।* *फलान्यपि परार्थाय* *वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।* अर्थात- पेड को देखिये दूसरों के लिये छाँव देकर खुद गरमी में तप रहे हैं। फल भी सारे संसार को दे देते हैं। इन वृक्षों के समान ही सज्जन पुरुष के चरित्र होते हैं।  *ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव* *गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।* *गुणात् गुरुत्वमायाति* *दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।* अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है,  यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है। *अर्थार्थी यानि कष्टानि* *सहते कृपणो जनः।* *तान्येव यदि धर्मार्थी* *न  भूयः क्लेशभाजनम्।।*...

Sanskrit Kavita By Dr.Himanshu Gaur

संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक

 ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्रुतस्फूर्त विचार है, इस विषय पर अन्य प्रकारों से भी विचार संभव है। ) ****** पिछले दशकों में किसी विद्वान् के लिखे साहित्य पर पीएचडी करते थे तब प्रथम अध्याय में उस रचयिता के बारे में जानने के लिए, और विषय को जानने के लिए उसके पास जाया करते थे, यह शोध-यात्रा कभी-कभी शहर-दर-शहर हुआ करती थी! लेकिन आजकल सब कुछ गूगल पर उपलब्ध है, आप बेशक कह सकते हैं कि इससे समय और पैसे की बचत हुई। लेकिन इस बारे में मेरा नजरिया दूसरा भी है, उस विद्वान् से मिलने जाना, उसका पूरा साक्षात्कार लेना, वह पूरी यात्रा- एक अलग ही अनुभव है। और अब ए.आई. का जमाना आ गया! अब तो 70% पीएचडी में किसी की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। बेशक नयी तकनीक हमें सुविधा देती है, लेकिन कुछ बेशकीमती छीनती भी है। आप समझ रहे हैं ना कि कोई व्यक्ति आपके ही लिखे साहित्य पर पीएचडी कर रहा है और आपकी उसको लेश मात्र भी जरूरत नहीं! क्योंकि सब कुछ आपने अपना रचित गूगल पर डाल रखा है। या फिर व्याकरण शास्त्र पढ़ने के लिए...