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हर एक भाषा का अपना एक वैशिष्ट्य होता है! एक साहित्य होता है !
किसी भी विषय को व्यक्त करने की विशेष शैली होती है!
इसीलिए एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करते समय अनुवादक का दायित्व इतना बढ़ जाता है कि उसे दोनों भाषाओं का मूड (हालात,प्रकृति,स्वभाव, तात्कालिकजातविचारापन्नता - हेतु यहां आंग्लभाषा के मूड शब्द का प्रयोग किया है) समझना चाहिए।
प्रस्तुत विषय की अंतर्भावनाओं को समझना चाहिए ।
मुख्यरूप से उसे विशेष शैली , विशेष शब्दावली में डालते हुए अपने अनुवादरूपी कार्य को सम्पन्न करना चाहिए ।
जैसे मैं अगर किसी उर्दू के शेर का संस्कृत भाषा में अनुवाद करूं, तो यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि अनुवाद करते समय 'शेर' का जो निहित गूढार्थ है , जो अंतरात्मा है , जिस माहौल को प्रकट करने का उस शायर ने प्रयत्न किया है , वह मेरे भी संस्कृत अनुवाद में झलके !
एक प्रसिद्ध गज़ल का शेर है -
" बेरुखी के साथ सुनना दर्दे दिल की दास्तां,
और कलाई में तेरा कंगन घुमाना याद है !"
तो यहां हम इस शायरी के भावों को समझें!
यहां नायिका का नायक के प्रति जो बेरुखी का भाव है , वह भी एक प्रकार से नायक के मन को आकर्षित करने के लिए ही है । और कलाई में भी कंगन घुमाना है , वह सिर्फ यही प्रदर्शित करना है कि मुझे कोई परवाह नहीं है तुम्हारे दिल के दर्द की !
किन्तु अंतर्भाव से यह क्रिया भी नायक के मन को एक अलग प्रकार के आकर्षण से युक्त कर नायिका के प्रति अनुरंजित करती है।
'अन्यमनस्कतया शृणोति हृदयवेदनाकथां
सार्धं हस्ते कङ्कणं भ्रामयन्ती, स्मर्यते मया।'
एक सामान्य उसका अनुवाद हो सकता है जो उसी गजल की लय में है।
तो हमें ठीक प्रकार से उन्हीं उन्हीं भावनाओं का बोध कराने वाले शब्दों से उसी विशिष्ट लय में, इन पंक्तियों का अनुवाद करना चाहिए
कभी-कभी अनुवाद, अनुवादक की अपनी मूल भावनाओं या पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने के कारण, मूल लेखक के अंतर्निहित अर्थ को नहीं समझा पाते ।
मूल लेखक ने या कवि ने किस विशेष माहौल को महसूस करके उस कविता या लेख को लिखा है , इस बात को यदि अनुवादक-कवि का अनुवाद नहीं बता पाता, तो यह एक प्रकार से अनुवादक की विफलता ही होती है ।
या फिर इस प्रकार के अनुवाद को पूर्ण अनुवाद नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां अनुवादक की खुद की धारणाएं संयुक्त हो जाती हैं, इस प्रकार कभी-कभी अनुवाद हमें एक मिलावटी रूप में प्राप्त होता है।
इसी प्रकार जब हम किसी काव्य की समीक्षा करते हैं या फिर किसी भी विषय या पहलू की समीक्षा करते हैं , तब हमें इस बात का ध्यान देना बहुत जरूरी हो जाता है कि हम समान रूप से उसके अनेक पहलुओं को देखते हुए , उस विषय के अंतर्निहित भावों को समझते हुए , किस परिस्थिति में, इस मनोदशा में , वैचारिक स्थिति में , कवि ने वह काव्य लिखा है - इस बात का सम्यक् अध्ययन और अनुसंधान, समीक्षक को पहले ठीक से करना चाहिए।
जैसे संस्कृत काव्य को ही अगर लें , तो आधुनिक काल में पारंपारिक संस्कृत काव्य से हटकर पारंपारिक जो महाकाव्य, खंडकाव्य , नाटक आदि के लक्षण बताए गए हैं , उन से हटकर भी कुछ काव्य लिखे जा रहे हैं । जैसे - आत्मकथा-पद्यकाव्य , चित्राश्रितकाव्य , क्षणिकस्थितिकाव्य, अन्य भाषाओं के छंदों में निबद्ध काव्य इत्यादि ।
जो समीक्षा करने वाला समीक्षक है, उसको मूल काव्य के परिप्रेक्ष्य का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है ।
मान लो किसी ने महाराणा प्रताप को लेकर संस्कृत में काव्य लिखा तो उसकी समीक्षा करने वाले समीक्षक को चाहिए कि वह महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित अनेक पहलुओं पर विचार करे।
हिंदी , राजस्थानी आदि भाषाओं में निबद्ध उनके साहित्य को भी पढ़े। उसके बाद उसे लोकपरंपराओं से, जनश्रुति परंपरा से भी, जो राणा प्रताप के संबंध में अभिज्ञान प्राप्त हुआ है , उसका भी वह उपयोग अपनी समीक्षा में कर सकता है। (यदि वह सत्य प्रमाणान्वित है तो)।
कवि ने किस तथ्य को प्रस्तुत काव्य में प्रकाशित नहीं किया है तथा किस तथ्य को अतिरिक्त रूप से प्रकाशित कर दिया है - इस चीज का भी ज्ञान होना और उसको विज्ञापित करना समीक्षा का कर्तव्य है।
समान है दृष्टि जिसकी , वह है समीक्षक!
जो समान रूप से, या अच्छी प्रकार से किसी काव्य के अंतर्निहित भावों को प्रकट करने की क्षमता रखता है ,उसके गुणों के प्रकाश को फैलाने की क्षमता रखता है ,कवि के वैदुष्य को लोगों के सामने रखने की सामर्थ्य समीक्षक की लेखनी में होनी चाहिए। तभी वह अच्छे समीक्षक की श्रेणी में आ सकता है।
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समीक्षा एवं अनुवाद के संबंध में आज का अतिलघुकाय विचार।
डॉ हिमांशु गौड़
०८:०१ प्रात:काल,२९/०५/२०२०, गाजियाबाद।

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