आंसुओ को मत दिखाना ये जरूरी है बहुत
जबरदस्ती मुस्कुराना ये जरूरी है बहुत
खुदकुशी से तुम खुशी से मरो लेकिन आजकल
ना हाले दिल अपना सुनाना ये जरूरी है बहुत।।
ख़ुद की अन्तर्वेदना से , सब यहां संतप्त हैं
जी रहे हैं सब मगर , मानो हुए अभिशप्त हैं
पास होते हुए भी , कैसी ये दूरी हो गई
बोलना दुश्वार है,चुप्पी जरूरी हो गई
आज हम इक दूसरे से यूं अलग है दोस्तों
असलियत अपनत्व से कुछ दूर यूं हैं दोस्तों
जैसे हों परवाज़ वाले परिंदों को कैदघर
डरे हम आपस में ही इक दूसरे से इस क़दर
मौत से इस खौफ में जीते सभी हैं जा रहे
ज़हर ग़म-बेचैेनियों का रोज़ पीते जा रहे
ये अकेलापन हमें जानें कहां ले जाएगा
दौर ये इंसानियत को एक दिन मरवाएगा
हंसते चेहरों की हकीकत क्या है, हम हैं जानते
झूठे रुतबों की फजीहत हम सदा पहचानते
आदमी अब आदमी से डर रहा है मर रहा
जाने खुद ही ना कभी , क्या कर रहा, क्यों कर रहा
आओ इस माहौल को बदलें , कहीं ना देर हो
रोशनी रुक जाए ना , देखो ना अब अन्धेर हो
हम ही भर सकते अभी भी बढ़ती जो ये खाइयां
घेर ना लें बढ़ रही जो गमज़दा तन्हाइयां।
नकलियत ढोते हुए ये हम कहां हैं आ गये
सहजता और सरलता से दूर कितने हो गये
अब जरूरी हो गया खामोशियों को तोड़ना
दर्दे राहों को सुकूं के रास्तों पर मोड़ना।।
अब अगर हम मौन हो एकांत में ही रोएंगे
दस्तख़त दरियादिली के भी जहां से खोएंगे
यही ऐसा वक्त है कि अब बदलना है हमें
पत्थरों सी शख्सियत को मोम करना है हमें ।।
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हिमांशु गौड़
१०:२५ रात्रि, १४/०६/२०२० गाजियाबाद।
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