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मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेन्द्र दास जी महाराज का अभिनन्दन : संस्कृत श्लोकात्मक (हिन्दी सहित) : डॉ हिमांशु गौड़



|||  श्रीमन्मलूकपीठाधिपाभिनन्दनम् |||
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          [[[ मलूकपीठाधीश्वर श्रीराजेन्द्रदासजीमहाराज का अभिनन्दन  ]]]
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सद्भावामृतसिक्तचित्तमतिमत्सौहार्दपूर्णङ्गुरुं
कारुण्याब्धिनिमज्जितैकहृदयं सारल्यसञ्जीवनं
नानाशास्त्रविदीप्तियुक्तवपुषा चादर्शसन्दर्शिनम्
श्रीमत्कृष्णपदारविन्दरसिकं वन्दे मलूकाधिपम्।।१।।

सद्भाव रूपी अमृत से सींचे हुए चित्त वाले , अत्यंत बुद्धिमान् , सौहार्द से पूर्ण जो गुरु हैं , करुणा रूपी समुद्र में डूबा हुआ है ह्रदय जिनका , ऐसे सरलता पूर्ण जीवन वाले, अनेक शास्त्रों के प्रकाश से चमक रहा है स्वरूप जिनका ऐसे , आदर्श को दिखाने वाले,  भगवान कृष्ण के  चरणकमलों के रसिक, मलूक पीठाधीश्वर जी को मैं प्रणाम करता हूं।।१।।

वृन्दारण्यसुवासवासितमनश्श्रीराधिकाराधकं
श्रीमद्दिव्यनिवासलोकहृदयप्रीतीष्टशिष्टम्मुनिं
गोविन्दार्चनवन्दनाभिनिरतप्रेमाब्धिमग्नञ्यतिं
विद्यालासविलासमोदमतिकेष्टार्थाच्युतम्भावये।।२।।

वृंदावन की महक से सुगंधित है मन जिनका ऐसे श्री राधा की आराधना करने वाले , दिव्य है लोक निवास जिनका ऐसे स्वरूप वाले (श्री हरि) से युक्त हृदय वाले, और प्रेम पूर्ण , इष्ट के प्रति अत्यंत शिष्ट जो मुनि हैं,
 गोविंद की अर्चना और वंदन में सदा लगे रहने वाले ,
प्रेम रूपी सागर में डूबे रहने वाले , जो सन्यासी हैं,  विद्या के आनंद-विलास से और प्रसन्नता से युक्त बुद्धि वाले, इष्ट ही है ईस्ट अर्थ जिनका ऐसे मलूक पीठाधीश्वर जी कि हम वंदना करते हैं।।२।।

हे सम्मानविनन्दितैकमतियुग्घे दिव्यलोकङ्गमिन्!
श्रीशार्चाविधिमन्त्रणादिविधिकश्चेभ्यैस्समाजैर्नुत!
विद्वद्वृन्दमहाप्रसन्नहृदये-शाशाभिशास्तश्शमिन्!
कृष्णापूरितपद्धतिं गुरुवरञ्चेडे मलूकाधिपम्।।३।।

आप सम्मान को प्रेम करने वाले हैं। पुण्य के कारण दिव्यलोक को प्राप्त करने की शील वाले हैं। भगवान लक्ष्मीपति की अर्चना की विधि , उनके मंत्र आदि विधियों को धारण करने वाले हैं।आप धनवान् एवं सभ्य समाज के द्वारा भी नमस्कृत हैं।  आप सदा ही विद्वानों के समूहों से महान् प्रसन्न होते हैं।  और भगवान की आशाओं से अभिशासित हैं । आप इंद्रियों का शमन करने वाले हैं । आप की संपूर्ण पद्धति कृष्ण भगवान की भक्ति से ही भरी हुई है । इस तरह मलूक पीठाधीश्वर गुरुवर को हम प्रणाम करते हैं।।३।।

हे हे साधुमहात्मनाम्प्रियतर!प्रीतीष्टदार्चासृत!
नानावेदपुराणशास्त्रकथनानन्दान्वितार्थिन्व्रजिन्!
नैकालोकविचिन्तनाब्गतमहातत्त्वाब्धिमग्नप्रभो!
नूनन्नाकतलस्थदेवजनताहर्षो मलूको भवान्।।४।।

साधु और महात्मा आपसे बहुत प्रेम मानते हैं। प्रीति से मनोवांछित फल देने वाले भगवान् की पूजा का ही रास्ता आपका है । अनेक वेद पुराण शास्त्र की कथाओं के आनंदों से युक्त रहते हैं और उनके तात्पर्य को प्राप्त करते हैं । हे प्रभो, अनेक प्रकाशमय चिंतन रूपी जलवान् आप महान् तत्व के समुद्र में डूब जाते हैं।।४।।

कृष्णाकीर्तिकरङ्क्रतुक्रियमहो होतारमीडे हरिं
खाप्पृथ्वीमरुदग्निसारकथनं खात्पारमुद्गामिनम्
गङ्गागोगणनाथगीर्गुरुगतङ्गोविन्दगीताङ्गिनम्
घण्टाकर्णघटोत्कचादिकथनाख्यातारमुद्भावये ।।५।।

भगवान कृष्ण और यमुना नदी की कीर्ति फैलाने वाले गाने वाले यज्ञ करने वाले यज्ञ में आहुति छोड़ने वाले भगवान हरि की भक्ति के कारण हरि स्वरूप वाले पंचमहाभूतों का सार कहने वाले , आसमान के पार भी अपने चिंतन की धाराओं से पहुंच जाने वाले ,
गंगा, गाय ,गणेश जी ,सरस्वती, और गुरु भगवान् की महत्ता जानने वाले , और भगवान कृष्ण के द्वारा गाई हुई गीता के प्रधान तत्व को धारण करने वाले , भगवान् शिव के घंटाकर्ण नामक गण, और भीम के घटोत्कच नामक पुत्र की कथा को भी विशिष्ट रूप से व्याख्यापित करने वाले आपको , मैं नमस्कार करता हूं।।५।।

*****
०१:२१ अपराह्णे, २७/०६/२०२०, गाजियाबादस्थगृहे।





पुण्यश्रीपरिमण्डितोऽतिविमलस्साहित्यवारान्निधि:
विद्याश्रीधृतपण्डितोखिलविदाम्पूज्यत्वमाशुर्गतो
धर्मश्रीश्रितभक्तियज्ञशरणश्श्रौतक्रियाप्रीतिभाग्
वन्द्योहोद्य मलूकपीठसरणो राजेन्द्रदासो गुरु:।।६।।

पुण्य रूपी श्री से शोभा संपन्न , अति विमल हृदय वाले, साहित्य के समुद्र विद्या रूपी शोभा को धारण करने वाले महान पंडित,  समस्त विद्वानों के पूज्य पद को तत्काल प्राप्त करते हैं । धर्म की श्री को धारण करने वाली जो भक्ति है , उस भक्ति के ही यज्ञों की शरण वाले , और वैदिक क्रियाओं से प्रेम मानने वाले , श्री मलूक पीठ को शोभित करने वाले, राजेंद्र दास जी महाराज अत्यंत वंदनीय है।।६।।

दृष्ट्वा ते भवहारिरूपमधुना नूनं हि धन्यायिता
श्रुत्वा विष्णुगुणानुवादकथनं कर्णौ विशुद्धिङ्गतौ
पीत्वा माधवमाधुरीमिव भवद्दृष्ट्या वयं हे गुरो
नाकं नामृतमन्यदेव भगवन्मन्यामहेऽस्मादृते।।७।।

और बात तो छोड़िए , आपका तो दर्शन भी करना भवबंधन से मुक्त करा देता है ! और आज आपका दर्शन करके मैं बहुत ही धन्य हो गया! आपके मुंह से जब मैंने विष्णु भगवान् के गुणों का अनुवाद रूपी कथन सुना, तो मेरे दोनों कान बहुत पवित्र हो गए, । हे गुरु जी ! हमने आपकी दृष्टि मात्र से ही , माधव की माधुरी पी ली है! इतना सब होने के बाद मैं तो किसी अन्य स्वर्ग और अमृत को मानता हूं नहीं।।७।।

हे शम्भुप्रियकीर्तन! श्रुतिमतान्धर्मध्वनैर्ध्मायित
हे विद्वत्कवितानुरागिशिववन्हे हेमरूपाच्युत!
हे सद्धाम! विधेर्विधानवशतश्चायात्य भूमण्डले
भ्राजन्तेत्र भवादृश: क्वचिदहो विष्णुप्रभामण्डिता:।।८।।

भगवान् शिव के कीर्तन आपके बहुत प्रिय हैं । वेदपाठियों के धर्मयुक्त स्वर को सुनकर आप भी स्वरायित हो जाते हैं। विद्वानों की कविताओं में अनुराग रखने वाले , कल्याण स्वरूप आप , स्वर्ण जैसे सौंदर्य वाले हैं । आप चूंकि भगवान कृष्ण की पूजा करते हैं , तो इसलिए अच्युत स्वरूप हैं। सज्जनों के शरण! विधि के विधान के वशीभूत होकर के कभी-कभी, कहीं ,जब आप जैसे लोग, इस संसार में आते हैं तो विष्णु भगवान् की प्रभाओं से मण्डित दिखाई पड़ते हैं।।८।।

त्वञ्जानासि कथं हि सत्सु चरणं गेयं विधेयञ्च किं
त्वम्भूयो भुवि भावुका इव रसं कृष्णात्मकं सम्पिबन्
भ्राम्येश्श्रोतृजनांश्च दिव्यकवितापीयूषमापाययन्
त्वन्नूनन्नयवर्त्मवर्तितवपुश्शोशुभ्यसे हे गुरो।।९।।

आप जानते हैं कि किस तरह से महात्माओं के बीच व्यवहार करना चाहिए, आचरण करना चाहिए, क्या गाने योग्य है , और क्या विधान करने योग्य है , आप भावुक रसिकों की तरह कृष्णरस को पीते हुए और सभी श्रोताओं को कृष्ण भगवान् की दिव्य कविताओं के अमृत का पान कराते हुए, सचमुच सत्य नीति के रास्ते पर स्थित स्वरूप वाले, बार-बार शोभायमान हो रहे हैं।।९।।

धृत्वा चापि मलूकपीठशरणं कृत्वा महासत्क्रतुं
ऊढ्वा ग्रन्थशतप्रदत्तकथनीकर्तव्यतानिश्चयं
सोढ्वा लौकिकवञ्चनामपि गुरो! नैवाच्युतं सन्त्यजे-
दित्येतत्परिशिक्षयन्द्विजगणान्संशोभसे वै भृशम्।।१०।।

आपने मलूक पीठ की शरण को धारण करके , महान् भक्ति रूपी यज्ञ करके ,धर्म ग्रंथों के सैकड़ों कथन रूपी कर्तव्यों के निश्चयों को ढ़ोते हुए,  "संसार की ठगी को सहन करते हुए भी भगवान की भक्ति नहीं छोड़नी चाहिए" - ऐसा आप सिखाते हैं , इस प्रकार आप बहुत ही शोभित हो रहे हैं।।१०।।

संश्रित्यैकहरीशवाक्यनयतां सङ्गीय गीतङ्क्वचित्
सन्दायात्मगुणांस्तथात्मति वा शिष्येषु सम्मोदसे
संस्कृत्यैव गिरां विचार्य परितश्शास्त्रीयतथ्यावधिं
मञ्चस्थो हरिराट्शुभाशयसृतो संश्रूयसे श्रोतृभि:।।११।।

एकमात्र भगवान् शिव और विष्णु के जो शास्त्रों में वचन हैं , या हरिहर संबंधी जो वाक्य की नीति है , उसको ही अच्छी तरह से अपनाकर, और उन्हीं भगवान शिव और विष्णु के गीतों को , कहीं गाकर आप आनंदित होते हैं । कभी अपने शिष्यों में और सज्जनों प्रेमियों (आत्मवान्) में , अपने गुणों को अपने निवेशित कर देते हैं , और अपनी वाणी को शास्त्रों के तथ्य , अवधि या मर्यादा का विचार करके और वाणी को शुद्ध करके ही बोलते हैं । जब आप मंच पर स्थित होते हैं , तो भगवान् विष्णु के शुभ आशय का अनुसरण करते हुए श्रोताओं द्वारा सुने जाते हैं।।११।।
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रचयिता - डॉ हिमांशु गौड़ (संस्कृत कवि)
०८:४५ रात्रौ,२७/०६/२०२० गाजियाबादस्थगृहे।



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