Skip to main content

महाकवि कालिदास के बारे में दो शब्द : डॉ हिमांशु गौड़


कालिदास संस्कृत और संस्कृति के महान् पोषक और प्रचारक, कवियों में अग्रगण्य हैं।

उनकी रचनाओं में कौनसा शास्त्र परिलक्षित नहीं है?

 कितनी सरसता और सरलता से वे उन तत्वों को, बातों को समझा देते हैं, जो वेदान्त  के कठिन व्याख्यानों से भी कदाचित् सामान्य मनुष्य की समझ में नहीं आती।

इस संदर्भ में मुझे उनके कुछ श्लोक याद आ रहे हैं, जैसे , मनुष्य की वास्तव में सहजता क्या है , और असहज (विकृत) स्थिति क्या है ?

इसके विषय में देखिए - "मरणं प्रकृतिर्हि शरीरिणां, विकृतिर्जीवनमुच्यते बुधै:।"

मुनिस्वभावविषयकोपमा - "शैत्यं हि यत्सा प्रकृतिर्जलस्य"

मतलब यहां प्रसंग है कि यद्यपि मुनिवर ने क्रोध की अग्नि के वशीभूत होकर के शाप दे दिया,  लेकिन वह कुछ देर बाद ही जल के समान शीतल हो गए!
 क्यों ?

क्योंकि जिस प्रकार , अग्नि के संयोग से जल में गर्मी तो हो जाती है, किंतु थोड़ी देर बाद वह अपने स्वाभाविक रूप में आ जाता है ,और ठंडा हो जाता है ,

इसी प्रकार ऋषि-मुनियों का स्वभाविक स्वरूप तो शीतलता ही है , मतलब कितनी अच्छी उपमा दी है ! जल से ऋषिवर की उपमा।

और यहां वैयाकरण लोग शब्दशास्त्र के भी खेल करते हैं । वे कहते हैं कि "शैत्यं हि यत् तत् प्रकृतिर्जलस्य " यह यह क्यों नहीं होगा? क्योंकि यत् का योग जिस तरह शैत्य शब्द से है , उसी प्रकार तत् का भी उससे ही करना चाहिए, तब यहां कौण्डभट्टशास्त्रीय वचनानुसारितया तत् का विशेषणत्व प्रकृति से करना साधु होता है ।

इसी तरह
"ग्रीवाभङ्गाभिरामं" में स्वभावोक्ति देखिए।

मतलब किस किसको गिनता फिरूं।
बहुत तथ्य हैं।
हजारों हैं।

  जीवन के सूत्रों को इतने सरल अंदाज में अपने काव्य द्वारा समझा देते हैं , जो हजारों अनुभवों के बाद प्राप्त होते हैं ।

प्रकृति के प्रत्येक स्वरूप और सुंदरता को इतने नजदीक से देखने वाले, कालिदास जी सबके पूज्य है।

Comments

Popular posts from this blog

संस्कृत सूक्ति,अर्थ सहित, हिमांशु गौड़

यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा बढ़ाने गए हों, नुकसान तो उन सरोवरों का ही है, जिनका ऐसे सुंदर राजहंसों से वियोग है।। अर्थात् अच्छे लोग कहीं भी चले जाएं, वहीं जाकर शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन हानि तो उनकी होती है , जिन लोगों को छोड़कर वह जाते हैं ।  *छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति* *तिष्ठन्ति स्वयमातपे।* *फलान्यपि परार्थाय* *वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।* अर्थात- पेड को देखिये दूसरों के लिये छाँव देकर खुद गरमी में तप रहे हैं। फल भी सारे संसार को दे देते हैं। इन वृक्षों के समान ही सज्जन पुरुष के चरित्र होते हैं।  *ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव* *गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।* *गुणात् गुरुत्वमायाति* *दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।* अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है,  यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है। *अर्थार्थी यानि कष्टानि* *सहते कृपणो जनः।* *तान्येव यदि धर्मार्थी* *न  भूयः क्लेशभाजनम्।।*...

Sanskrit Kavita By Dr.Himanshu Gaur

संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक

 ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्रुतस्फूर्त विचार है, इस विषय पर अन्य प्रकारों से भी विचार संभव है। ) ****** पिछले दशकों में किसी विद्वान् के लिखे साहित्य पर पीएचडी करते थे तब प्रथम अध्याय में उस रचयिता के बारे में जानने के लिए, और विषय को जानने के लिए उसके पास जाया करते थे, यह शोध-यात्रा कभी-कभी शहर-दर-शहर हुआ करती थी! लेकिन आजकल सब कुछ गूगल पर उपलब्ध है, आप बेशक कह सकते हैं कि इससे समय और पैसे की बचत हुई। लेकिन इस बारे में मेरा नजरिया दूसरा भी है, उस विद्वान् से मिलने जाना, उसका पूरा साक्षात्कार लेना, वह पूरी यात्रा- एक अलग ही अनुभव है। और अब ए.आई. का जमाना आ गया! अब तो 70% पीएचडी में किसी की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। बेशक नयी तकनीक हमें सुविधा देती है, लेकिन कुछ बेशकीमती छीनती भी है। आप समझ रहे हैं ना कि कोई व्यक्ति आपके ही लिखे साहित्य पर पीएचडी कर रहा है और आपकी उसको लेश मात्र भी जरूरत नहीं! क्योंकि सब कुछ आपने अपना रचित गूगल पर डाल रखा है। या फिर व्याकरण शास्त्र पढ़ने के लिए...