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शाब्दिकमणिश्रीब्रजभूषणौझाभ्य: पत्रम्

।। शाब्दिकमणिश्रीमद्ब्रजभूषणौझाभ्य: पत्रम् ।।
*****
विद्वन्! हे पदशास्त्रतीव्रमतियुक्काशीपुरप्रीतिमन्!
ओझाविप्रकुलप्रतिष्ठितजने! विद्वज्जनानन्दद!
शिष्यव्यूहपदप्रसारणरत! श्रौताननास्यो भवान्!
मन्ये पुण्यवशाल्लभन्त इव तल्लब्धं हि यच्छ्रीमता।।१।।

श्रीमन्शास्त्रसुधानिमज्जितधियां हर्येकचिन्तावताम्
संसारस्य हलाहलैर्न भवतान्मृत्योर्भयं कर्हिचित्
तस्माद्योऽयमहं हिमांशुपदभाक्काव्येऽधुना सक्तिमान्
किन्तु व्याकरणं भवत्सुमुखतस्संश्रोतुमीहे क्वचित्।।२।।

क्वाहं किञ्च भणामि वाणि! वणिजां नेव व्यनज्मि व्रजिन्!
यत्तु श्रीद्विजराजसूक्तिशरणं तन्नैमि नाहञ्च वा
शास्त्रम्मद्धृदयस्य सन्दिशति यद्यच्चोद्यते शम्भुना
तेनैवात्र गतीस्तनोमि शिववन्! शब्दप्रथासूत्रधृत्।।३।।

लब्धं व्याकरणं हि येन, च गुरोश्श्रीरामयत्नाभिधात्
(यद्वा श्रीपुरुषोत्तमाख्यविबुधाट्टीकादिभिस्संश्रितम्)
नूनम्मोद इव प्रजायत उत प्रादुर्भवेन्नव्यता
मच्छिष्योऽयमहो महेश्वरपथे शब्दात्मके धावति
ओझाश्रीब्रजभूषणो गुरुहृदि प्रीतिश्च सञ्चिन्तनै:।।४।।

अद्याऽहो भवतां प्रपाठितजना अध्यापयन्तो बुध!
सम्मानं सुखमाप्नुवन्ति धनितां शब्दैकशास्त्राश्रयै:
एवं ग्रन्थगतिं विलोक्य भवतां गुण्यप्रभावं मुहु:
के न स्युर्जयघोषणाभिनिरता: हे शब्दराण्! मां वदेत्।।५।।

भोपालेपि मया भवान्ह मतिमन्!शोधार्थमालोकित:
प्राथम्येन तदा स्वरार्थपरकं पौष्पं च भट्टोजिकं
कुर्यादित्यहमेव देशित इति स्मृत्वाद्य सल्लेखने
तस्माच्चात्र यते, यतो विरचिता प्रस्तावना मामकी।।६।।

दृष्ट्वा स्थूलवपुश्च सूक्ष्ममतिकं श्रुत्वा च शाब्दीं गिरां
पीत्वा नागसमुक्तिमत्र भवता क्वाचित्करूपैरहं
यद्यप्यस्मि रतोऽधुना कविमुदि, श्रीयेत शब्दो मया
किन्तूद्यन्तमहो प्रकर्षमथ ते, सक्तोऽस्मि पातञ्जले।।७।।

केचिद्वा कथयन्तु वक्ति हिमराड्व्यर्थं हि पत्रार्चनम्
केचिद्वा मतिभिश्श्रयन्तु मनुजा केयं समुद्योगिता
किन्त्वद्य प्रवदामि तान् मम मनो दिश्याच्च यद्धाार्दिकं
तथ्यं संस्मरणं तथान्यघटकं कुर्वे स्वपत्रे हि तत्।।८।।

ओझा नाम जनस्य चास्य विदितं यच्छाब्दिकानां गणे
तद्वच्छ्रीब्रजभूषणं पदपरं के नैव जानन्ति तं
किन्तु स्यात्सरलं बुधत्वसरणं नैतन्मया मन्यते
सारल्यं च ततो भवेद्यदि जने देवायते स द्रुतम्।।९।।

न स्वार्थैर्न च हेतुभिस्त्वहमिह प्रारब्धवांस्तद्यशस्
सूर्यो यो गगने भ्रमेदनुदिनं तस्य प्रशंसास्तु का?
स्वीयैरेव सुकर्मघर्मपदकैरुद्भासिताकाशितं
जानन्ति प्रतिभापरं न न हि के लोके, वदेयुर्बुधा:?१०?

काश्यां यद्यपि विश्वनाथनगरे कास्तु प्रतिष्ठा विदां
शास्त्रं शैवपथं विहाय वदत श्रीयेत मानञ्च कै:
सारल्यैरभिवर्तनैरपि जनस्सारस्वताराधनै:
विद्वद्राजसभासु याति झटिति प्रोच्चं पदं सद्यश:।।११।।

एवं वात्र मया भवत्स्तवपरं स्वीयं सुचिन्तापरं
मद्दृष्टिर्भवताञ्चरित्रमनने सन्दर्शिता शोभना
यो वै पुष्पलतासुगन्धिभवनं संसज्जयेन्मानसं
लेखैस्सोऽत्र नमेत् सुपण्डितमिमं ह्योझाभिधं शाब्दिकम्।।१२।।
****
हिमांशुर्गौडो
लेखनकालो दिनाङ्कश्च - १२:१५ रात्रौ,२६/०७/२०२०,
गाजियाबादस्थगृहे।

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