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।।। १३. आचार्यदीपकहरिदत्तशर्मणे पत्रम् ।।।


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भो भो दीपक! कुत्र ते स्थितिरथोद्योगश्च को वर्तते
यातानीति दिनानि दीर्घतमया नो वार्तया मोदितः
त्वत्साकं न समैश्च हास्यपरकैःयात्रादिवृत्तान्तकृत्
त्वं चैवं हरिदत्तदीपक इति ख्यातोधुना ज्ञायते ।।१।।

आश्रित्य त्वां शतकमपि च प्रारचीत्यत्र मोदैः
तस्यारम्भः कृतमपि मया शङ्कराक्ष्यब्दपूर्वम्
कल्पा भूयः निजकविधिया यन्नरौरास्थलस्य
चर्या दृष्टा नरवरनगर्यां पुरा नैकवर्षैः ।।२।।

त्वद्भावीति प्रथितमनसा कल्पना या कृतापि
तत्त्वच्चित्रं जगति पुरुष ख्यापनायाधुनाहो
काले काले स्फुरितनवभावैस्स्वभावासरोहं
त्वद्गुण्यैर्मोदितबहुनृणां दृश्यमाकल्पयामि।।३।।

यदि मुदितमनास्त्वं वर्तसे नैजगेहे
 विविधपठनकार्येष्वत्र लग्नोसि वाद्य ।
धनकरणसुवृत्तिं प्राप्तुमाचेष्टयन् वा
 मम सकलशुभाशौन्नत्यमार्गे त्वदीये ।।४।।

शतकमिदमहं यत् त्वत्कृते चार्पयामि नवकवनवितानप्रार्थनायेत्यवेहि ।
तव बत यदनुक्तं केनचित्किञ्चिदूह्यम्
तदिह निजमनीषाभिस्समाख्यापयामि ।।५।।

द्विजेह संश्रणुष्व रे मदीयभावकाशिनीं
स्थितिं ममात्र वा विभिन्नकार्यबद्धसारणीम् ।
कुवृत्तिपाशबद्धमानुषः कदापि सौख्यदां
गतिं न वाऽऽप्नुतेनुभावयामि चात्र सर्वतः।।६।।

अहं गाजियाबादपुर्यां वसामि प्रभातेप्यतश्चैव दिल्लीं प्रयामि ।
न सूर्योदयं नैव सूर्यास्तकालं स्वकार्यालये कार्यकृद् द्रष्टुमर्हः।।७।।

न चास्मादृशां जीवनं चैवमस्ति
सदा शान्तिसौख्यं प्रधानं मतं यत् ।
अतस्सन्त्यजामीति चित्ते विचार्य
मुधात्राप्यहानि द्विजाऽऽयापयामि ।।८।।

प्रदुष्टोत्र वायुः नृणां वा मनांसि न कस्यापि कोपीह वर्तेत मित्रम्
कुदिल्लीप्रदेशो न मे रोचते वै यदा धावतां वीक्ष्य लब्धुं च वित्तम् ।।९।।
यदि त्वं नरौरापुरं नैव यासि न बाबागुरोः दर्शनं वा करोसि ।
तदा चित्तशान्तिं कथं प्राप्नुयाः रे द्विजातो प्रयाहि द्रुतं तत्र भक्त्या ।।१०।।
होलिकोत्सव एवायं चागतो वार्षिकोप्यहो ।
नानारङ्गैः निजं चित्तं दीपकारञ्जयेः पुनः ।।११।।

होलिकाग्नौ च ते क्लेशाः मम नानाविधास्तथा ।
नृसिंहपूजया नष्टाः भवेयुश्चेति कामये ।।१२।।

अस्मिन् महाजनौघेहो क्व मिलन्ति मिथो जनाः।
सन्तो वापि द्विजाश्चापि पुण्यैरेव हि तद्भवेत् ।।१३।।
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प्रेषकः – हिमांशुगौडः
दिनाङ्कः समयश्च – २८-०२-२०१८ , ९.३० रात्रौ,
गाजियाबादस्थे स्वगृहे, चायपानानन्तरं लिखितम् ।।

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