कल शाम चंदौसी स्थित "श्री रघुनाथ ब्रह्मचर्याश्रम आदर्श संस्कृत महाविद्यालय" के प्राचार्य डॉ.विश्वासकुमार उपाध्याय गुरुजी का निधन हो गया,वे विद्वत्ता के साथ-साथ बड़े ही सरलस्वभाव और विनम्र थे। वे हमारे पिताजी के मित्र भी थे।
डॉ विश्वास कुमार उपाध्याय जी के पिताजी (उपाध्याय जी) ने नरवर महाविद्यालय में ही अध्यापन किया था । वे सौ साल की आयु तक प्रतिदिन तीनों टाइम संध्या करते थे , एवं सभी शास्त्रों का व्याख्यान लेटे-लेटे ही कर देते थे।
मैंने प्रत्यक्षतया देखा कि व्याकरण आदि शास्त्रों के विद्यार्थियों को वे लेटे-लेटे ही (नब्बे-सौ साल की आयु में बैठते कम थे इसलिए) व्याकरण पढ़ा देते थे । वे साहित्य, ज्योतिष , धर्मशास्त्र, वेदांत , सांख्य आदि का उपदेश (प्रत्येक सिद्धान्त का तत्वत: व्याख्यान) भी बिना पुस्तक देखे ही दे दिया करते थे । ऐसे लोग यश के पीछे नहीं भागते ।
उन्हीं के सुपुत्र श्री विश्वास कुमार उपाध्याय जी व्याकरण शास्त्र के प्राध्यापक रहने के बाद इसी विद्यालय के प्रधानाचार्य बने एवं मुझ समेत हजारों छात्रों को शास्त्री एवं आचार्य की उपाधि प्राप्त करवाईं।
तीन-चार महीने पहले अपने महाविद्यालय में "विद्वत्-सम्मान-समारोह" में उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया था, लेकिन अपरिहार्य कारणों से मैं जा नहीं पाया था।
उन्हीं की स्मृति के रूप में इन कुछ संस्कृत के श्लोकों की मैंने रचना की है।
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।।चन्दौसीस्थ-रघुनाथाश्रमसंस्कृतमहाविद्यालयस्य प्राचार्यवर्येभ्यश्श्रीविश्वासकुमारोपाध्यायेभ्यश्श्रद्धाञ्जलि:।
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चन्दौसीनगरस्य शास्त्रसदनं छात्रैरनेकैर्युतं
विद्याभ्यासविकासभासितपदं सद्विज्जनैश्शोभितं
यच्चाऽस्थापि धनेन सभ्यवणिजां सत्पण्डितै: रक्षितं
प्राचार्यत्वमयाद्गभीरवदनो विश्वास एवास्य वै ।।१।।
उपाध्यायो विप्रो विमलचरितश्शब्दपरक:
प्रशास्ति स्माध्याप्यापि मधुरसुवाक् छात्रहितकृत्
कटूक्तीश्श्रुत्वापि प्रतिवजति रोषं नहि जनस्
सतामग्रेगामी सुरपुरमयाद्ध्यस्तनदिने ।।२।।
यत्रासीत् कविचातकोऽपि मतिमान्साहित्यविद्याम्बुधिस्
तत्र व्याकरणं भवान् बटुजनान्सम्पाठ्य संशोभितस्
तस्मिन् श्रीरघुनाथमन्दिरमये वारिष्ठविद्यालये*
शास्त्र्याचार्यपदं प्रयान्ति पुरुषा: यत्र त्वदीयाशिषा ।।३।।
*वरिष्ठानां(शास्त्र्याचार्याणाम्) अयं वारिष्ठ:, स चासौ विद्यालय:।
हे विश्वासगुरो! पितुर्मम सदा मित्रत्वमानिर्वहन्
आहूयापि विचारसारकथनो विद्यालयीयार्थना:
दत्वाऽदर्शि मया पुरा स विबुधस्सारल्यचित्तो भवान्
श्रुत्वा ह्यस्तनदेवलोकगमनं ते, नो जगद् रोचते ।।४।।
आयान्तीह च यान्ति चाप्यसुधरा: स्वीयैश्शुभै: कर्मभि:
यद्वाऽसद्भिरवाप्नुवन्ति सुखतां दौ:ख्यं च नूनं पुनः
सर्वे लौकिकवासनासु निरता: शोकाग्निनिज्वालिता:
ये शास्त्रामृतमग्नदिव्यवपुषस्ते नाकलोकं गता:।।५।।
जानेऽहं पितरं तथैव भवतो यो वा शतेऽप्यायुषि
सन्ध्योपासनकर्मधर्मनिरत: यश्च त्रिकालेष्वहो
तस्यैवं श्रुतिशास्त्रमज्जितहृद: पुत्रो भवान् सभ्यवाङ्
मन्ये देवपुरेऽद्य सूत्सव इव त्वत्स्वागते जायते ।।६।।
किन्तु श्रीलशुभे सुखे नरवरे विद्वत्समाजेऽधुना
सीदन्तीव जना निशम्य भवतां यात्रां हि नाकात्मिकीं
देहत्यागत एव सैव पुरुषैश्श्रीयेत पूर्णायुषि
तद्वै रोगगणैश्शरीरतरणिश्छिन्ना क्वचिज्जायते।।७।।
खिन्नास्स्विन्न इवेह कर्मसरणीजालश्रमैर्देहिनो
वाञ्छन्तीव शरीरयात्रिपदकाद्वैराग्यमेवं क्वचित्
तच्चेत्तृप्तियुतं वहेदथ जनश्चित्तं स्वकं शामयेत्
तन्मृत्युस्तु सुखाय कल्पत इव श्रेयश्शिवस्याश्रयम् ।।८।।
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© हिमांशुर्गौड:
१०:०२ पूर्वाह्णे, ०१/०९/२०२०
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