Wednesday, 2 September 2020

श्राद्ध और तर्पण अवश्य करें : संस्कृत श्लोक: हिमांशु गौड़

 ।। श्राद्धे च तर्पणविधौ भव सावधान:।।

                ।। श्राद्ध और तर्पण करने में तत्पर होओ।।

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कृष्णे शुभे च पितृपक्षमये प्रसिद्धे

श्राद्धार्थशास्त्रगदिते द्विज! मार्गशीर्षे

संयम्य देहमनसी पवनस्सुकर्मन्

मध्याह्नकालशरणश्चर तर्पणाद्यम्।।१।।


मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष के शुभ समय में (जो कि पितृपक्ष के नाम से प्रसिद्ध है) । यह पक्ष शास्त्रों में श्राद्धकर्म हेतु  बताया गया है । इसमें अपने शरीर और मन को संयत कर शुद्ध आचरण वाले और शुद्धकर्म करने वाले होकर, मध्याह्न के समय तर्पण और श्राद्ध की क्रिया को करें।


मत्पुत्रपौत्रकुलजा: मम रक्तबन्धा:

दास्यन्ति कव्यमथ मे पितृमन्त्रपूतं

इत्थं विचिन्त्य दिवसे सकले मृतात्मा

वायुश्रितो गृह इवैति बुभुक्षितोसौ।।२।।


मेरे बेटे और पोते मेरे खानदान में उत्पन्न , मेरे रक्त के संबंधी,  वेदों में कहे हुए पितरों के मंत्र से पवित्र पिंडदान मेरे लिए करेंगे - ऐसा मन में सोचकर संपूर्ण दिवस-पर्यन्त वह मृत-आत्मा , वायु का शरीर धारण कर अपने पुत्रों के घर में भूखी होकर घूमती रहती है।

(गरुडपुराण में ऐसा लिखा है)


अन्नानि पिण्डकमयानि पलाशपत्रे

ग्रन्थिश्रिता कुशगणाश्श्रुतिविच्च विप्रो

गाङ्गे सुमिश्रितयवाश्च तिलाश्च गाव:

श्राद्धाय तर्पणविधावथ सन्तु काका:।।३।।


पलाश (या अन्य पीपल आदि) के पत्ते पर रखे हुए जौ के आटे के पिंड, कुछ गांठ लगी हुई कुशाएं, वेद-शास्त्र को बढ़िया जानने वाला ब्राह्मण, गंगाजल और उसमें मिश्रित जौ और तिल, तथा (रोटी देने हेतु) गाय और कौवा" - यह सब श्राद्ध और तर्पण की विधि में काम आते हैं।


श्रद्धानिबद्धकरहार्दसुभावयुक्तो

गृह्णीत मे च पितरोऽन्नमिदं प्रदत्तं

सञ्चिन्त्य चेद्विधियुतो, नहि शास्त्रहीनश्

चायान्ति ते पितृगणा: गृह आत्मलोकात् ।।४।।


शास्त्र विधि का अनुसरण करते हुए, (बिल्कुल भी शास्त्र ही ना हो) श्रद्धा के वशीभूत होकर हाथ जोड़े हुए , हार्दिक सद्भावों से युक्त जौ के पिंड और भोजन को सामने रखे हुए, जब वह मनुष्य आकाश की तरफ देख कर "हे पितरों! मेरे द्वारा दिए हुए इस अन्न को ग्रहण करो!" - ऐसा कहता है , तो एक क्षण के भीतर वे पितर, अपने पितृलोक से इस उस व्यक्ति (अपने पुत्र आदि) के पास पहुंच जाते हैं ।


केचित् पिपासितगला: बत दत्तनेत्रा:

कश्चित्प्रदास्यति जलं त्विति चिन्त्यमाना:

भ्रष्टान् विलोक्य शुभधर्मपथात् स्वपुत्रान्

लोकाद्विहीनवपुषश्शतधा रुदन्ति ।।५।।


हमारे बहुत से पितर प्यासे गले वाले होकर, टकटकी बांधे रहते हैं कि मेरे कुल में कोई तो धार्मिक व्यक्ति मुझे जल देगा, कोई तो तर्पण करेगा! लेकिन आधुनिकता में पड़कर अपने महान् धर्म से भ्रष्ट हुए कुटुम्बियों को देखकर , वे आंखों से ना दिख सकने वाले (आत्मा होने के कारण)अनुभव किए जाने वाले पितर , सैकड़ों प्रकार से बार-बार रोते हैं।


शापं ददत्यथ च दुष्टविधर्मिणे ते

कुप्यन्ति चैव तृषया परिशुष्ककण्ठा

नाकात्पतन्ति नरकं च समाविशन्ति

श्राद्धादिकर्मरहिता पितरस्सदैव ।।६।।


और उस दुष्ट विधर्मी के समान कुटुंबी जन को देखकर पितर शाप दे देते हैं ।  प्यास के मारे सूखे गले वाले वे पितर ,  श्राद्धविहीन संतान के कारण , शुभ (स्वर्ग आदि) लोकों से गिर जाते हैं , और अशुभ लोकों में प्रवेश कर जाते हैं।


"तृप्तं मया तव कुलं परिवर्धितं च

रे रे कृतघ्न! पितरं स्मरसीव किञ्चित्?

किन्त्वद्य मां परिविहाय धनप्रसक्तो

लोकद्वयाद् भव विहीन" इमे शपन्ति ।।७।।


"मैंने जीवित रहते हुए तेरे कुल को बढ़ाया ! तुझे तृप्त किया ! और कृतघ्न ! तू मुझे उस पिता को ही नहीं याद करता !"  "आज मेरे मरने के बाद तू मुझे भूल कर धन कमाने में ही लगा हुआ है ! "दुष्ट! तू इहलोक और परलोक के सुख से वंचित हो जा" - ऐसा वे पितर शाप देते हैं।


कीदृश्यहो मम कुटुम्बविडम्बनैषा

जीवत्यपीह परलोकमुपासते के

सर्वेपि शूकर इवोदशिश्नतुष्ट्यै

धर्माद्विहीनवपुषो भुवि सम्भ्रमन्ति ।।८।।


आज ये हमारे कुटुंबों की कैसी विडंबना है! अपने जीवन में यहां कौन परलोक की उपासना करता है ? प्राय: अधिकतर लोग यहां शूकर की तरह सिर्फ अपना पेट भरने और इन्द्रियभोग के लिए, धर्म से विमुख होकर इधर-उधर भाग रहे हैं।


पित्रर्चिषैव मनुजाश्श्रियमालभध्वं

तस्याशिषैव सुखतां कुलतां श्रयध्वं

तत्तर्पणैश्च शिवसन्ततिमाकुरुध्वं

वर्धध्वमर्थदपथेऽवितथं मनुध्वम् ।।९।।


उन पितरों की ही पवित्र ज्योति से, मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है ! उनके ही आशीर्वाद से कुल आगे बढ़ता है और सुख मिलता है ! पितरों का तर्पण करने से ही श्रद्धावान् संतान पैदा होती है और सत्य-अर्थ एवं धन देने वाले मार्ग में भी , पितरों की ही सेवा से मनुष्य आगे बढ़ता है - ऐसा बिल्कुल सत्य मानों।


मध्याह्नकालपरिजागृतपैतृदेवा:

हस्ताच्च्युतं सुतिलयुक्सलिलं पिबन्ति

पुत्रस्य सत्पथमहो परिलोक्य हृष्टा:

श्राद्धे हि विप्रतनुषाऽन्नमथाश्नुवन्ति ।।१०।।


दोपहर के समय जागने वाले वे पितृ देवता* , अपने पुत्र के हाथ से छोड़ा हुआ तिल मिश्रित जल , बड़े खुश होकर के पीते हैं ! और उसे धर्म के मार्ग पर चलता हुआ देखकर बहुत हर्षित होते हैं । वे श्राद्ध में दिया हुआ भोजन ब्राह्मण के शरीर में बैठकर के खाते हैं।


*श्राद्ध कर्म सदैव दोपहर को कराना चाहिए!


क्षीरं भवेद्घृतयुतं श्रितशर्करञ्च

ओष्णं च शुद्धमपि तण्डुलमिश्रितं च

शाकं सुपक्वमथ ते बहुशष्कुलीश्च 

विप्राय वेदशरणाय सुभोजयेद्वै ।।११।।


श्राद्ध कर्म में भावशुद्धि बहुत आवश्यक है । घी मिलाई हुई खीर (जो हल्की हल्की गर्म हो शुद्धता से बनाई हुई हो),  बढ़िया सब्जी और बहुत सी पूड़ियां, (साथ में रायता हो तो और अच्छा) , वेद-शास्त्र के जानकार और आचार्य ब्राह्मण को भोजन कराएं और अपने पितरों की प्रसन्नता प्राप्त करें।


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© हिमांशुर्गौड:

०१:३० मध्याह्ने,०२/०९/२०२०,

गाजियाबादस्थिते गृहे।

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