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बैठें हैं अपनी ही धुन में, बिल्वपत्र की छाया में
छोड़ो व्यर्थ झमेलों को, क्या रक्खा है माया में
उबल रही चाय चूल्हे पर, दूध डाल दो उसमें भी
कूटो अदरक, तुलसी के,कुछ पत्र घोल दो उसमें भी
एक तरफ है यजुर्वेद की, पुस्तक रक्खी चौकी पर
पास खड़े पेड़ पर बेलें, चढ़ी तुरैंया, लोकी पर
हरित,पीत पत्तों से धरती,पटी हुई है एक तरफ
श्री जीवन दत्त स्वामी की, लगी मूर्ति एक तरफ
और अधस्तल से ऊपर को, चढता है जो रस्ता
वहीं बनें नभस्तल-भू पर, पहन अंगोछा सस्ता
कंधे पर लंबा जनेऊ, सिर पर है मोटी चुटिया
बनी हुई है उस पंडित की, पास ही सुन्दर कुटिया
मंगा लिया उसी बालक से, उसने इक सिलबट्टा
लगा रहा था पास बैठकर, जो मंत्रों का रट्टा
बोरी में से पके हुए कुछ बिल्वफलों को लेकर
फोड़ा तोड़ा गूदा डाला एक लोटे के भीतर
सिलबट्टे पर विजयापत्री घिसन लगे धर्मेश
तखत लगाकर उढ़के से कुछ सोच रहे सर्वेश
दस-दस को भी एक साथ जिस इकले ने मारा
"छान छान" कहते आए , पीछे से विप्र कटारा
दुपहरिया के तीन बजे थे, जंगल का एकान्त
बाबा लोगों की मस्ती है, जीते सुखी व शान्त
पहने थे रुद्राक्ष गले में, मस्तक पर तिरपुण्ड
रोज जपें जो "जय शिवशंकर" "जय जय वक्रतुण्ड"
पीला गमछा गंगाजल से धोकर साफ किया फिर
'नाभ्या आसीत्' जैसे मंत्रों का भी जाप किया फिर
दूध,बेलफलों का गूदा, विजया और कुछ मेवा
घोटम-घाटी कर के होवे सब संतन की सेवा
हर-हर कर के छान-छान कर बड़े पात्र में डाला
पीने हेतु आ गये वे भी जो फेर रहे थे माला
पांच किलो वह शरबत, छः पण्डों ने मिल गटकाई
लंगड़धारीपन की कुछ तस्वीर नज़र तब आई
बढ़ी चली शास्त्रों की बात, जो बनतीं गई बतंगड़,
दो घंटे फिर तैरे गंगा में, ये ही है गुरु का लंगड़!
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हिमांशु गौड़
११:३७ मध्याह्न,
१४/०२/२०२१, रविवार,
उदयपुर।
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