Saturday, 11 September 2021

||जीवन||हिंदी कविता||हिमांशु गौड़||

 पहले से ही लिखा हो जैसे ऐसा जीवन मेरा

मिला हो जैसे बसा बसाया, ऐसा उपवन मेरा

कभी-कभी लोगों को जीवन समझ नहीं आता है

नये-नये घटनाक्रम में यह उलझा सा जाता है


जैसे कोई देखता हमको, उस आसमान के पारे

जैसे बाट जोह रहे हों, चमकीले से तारे

जैसे इंद्रधनुष के रंगों में जीवन लिपटा हो

जैसे खुद के मन के भीतर जगत् सकल सिमटा हो


जैसे लिखी हुई गाथा को हमको कोई सुनाए

जैसे बुने हुए कपड़े को बस तन पर पहनाए

जैसे मिल जाते हों पिछले भाग्य प्रकट होकर के

वैसे ही जीवन हमको मिलता है निकट होकर के


जैसे कोई सरगम गाए आकर्षित सी करती

जैसे कोई कविता गाए मन हर्षित सी करती

वैसे ही कुछ नगर अदृश्य हो खड़े हैं अपने अंदर

अंदर भावों की नदियां, कर्मों के सात समंदर


जैसे घर तैयार खड़े हों, पहले से बने बनाए

जैसे दुनिया सजी हुई हो,किस्सों सी कही-सुनाई

जैसे बस संसार की अन्तिम लहर समेटे हमको

जैसे उन लोकों के वासी पास बुलाएं हमको


वैसे ही यह कथा सकल है बुनी हुई पहले से

जैसे रामायण की गाथा लिखी हुई पहले से

जैसे काकभुशुण्डि जी गाते हों युगों युगों से

जैसे और श्री वैनतेय सुनते हों युगों-युगों से


जैसे या फिर शिवजी का यह जप अखंड चलता है

प्रलय होय या सृष्टि उनका तप अखंड पलता है

जैसे प्रभु के दृष्टि मात्र से संसृति और विध्वंस

जैसे पुण्यों के मानसरोवर में शोभित हो हंस


ऐसे ही मानव भी अपने कर्मों को पाकर के 

अनजाने में दुखी होए, पर वस्तु को अपनाकर के

जो जो अर्जित किया तुम्हारा कहीं नहीं जाता है,

किसी रूप में वह तुमको फिर से मिल जाता है


अपनी आंखों से देखोगे फाड़ जन्म के पर्दे

मनस् लोक से झाड़ सको यदि विस्मृति के ये गर्दे

सब कुछ तब सुस्पष्ट तुम्हें यह कथा समझ आएगी

मस्तिष्कों में फंसी हुई हर बात सुलझ जाएगी


और जिसे कल्पना कहकर तुम निरस्त करते हो

स्वप्न मात्र में सुनी जल्पना सा समस्त करते हो

मैं कहता वह सत्य, कि बस आंखें बंद तो होने दो,

इस जिसको तुम सच माने, उसे सपना तो होने दो,


तांबें से निर्मित दीवारों जैसे भवन बनें हैं

कहीं रजत और स्वर्ण, रत्न के भी तो नगर खड़े हैं,

और जो तुम कौपीन मात्र में आत्म तत्व अन्वेषी

धूल-हेम में समदृष्टिक जगती के एक हितैषी


और कि तुम जो पाते हो यह जन्म गंग के तीरे

और कि तुम पाते किस्मत की बड़ी बड़ी लकीरें

ये सब भी तो वहीं बैठकर लिखे गयें हैं अक्षर

जहां कि रस्ता सीधा जाता शिव के धाम अनश्वर


और भ्रांति की दीवारों को ऐसे नष्ट करो तुम

हृदय प्रेरणाओं से अपने संशय ध्वस्त करो तुम

ये जो वर्षा,शरद, शीत, तपता है ग्रीष्म, हेमंता,

खिलता मौसम,बहती हवाएं, और छाता है बसंता


ये सब उस परमाक्षर से ही सृष्ट किए जाते हैं,

जंगल-जंगल वहीं हरे, उत्कृष्ट किए जाते हैं

वह भावों का लोक निराला, लेश नहीं दारिद्र्य

जो है सच्चा वही पाएगा शैव-लोक-सामृद्ध्य


और जो इस संसार की सम्पत्ति में डूब गए हैं,

पाप-कर्म में रमे हैं, दोष-पथों में खूब गये हैं,

उनके लिए बंद कर देते स्वर्गों के दरवाज़े

आती रहती हैं उनको यमदूतों की आवाजें


जीवन की यह कथा विचित्रा कौन समझ पाया है,

उसने उतना कहा कि जिसने, जितना गुन पाया है,

जीवन क्या है, होते हो यदि, तुम भी शङ्का-ग्रस्त

धर्म करो और राम भजो बस, सदा रहोगे मस्त

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हिमांशु गौड़

१०:३५ पूर्वाह्ण,

१२/०९/२०२१

उदयपुर

Sunday, 5 September 2021

शोधसारः

 

शोधविषयः – वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीनव्यसिद्धान्तकौमुद्योस्स्वरप्रक्रियायाः तुलनात्मकमध्ययनम्

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शोधकर्ता – हिमांशुगौडः

शोधनिर्देशकः – डॉ.कैलासचन्द्रदाशः (सहाचार्यः, व्याकरणविभागः, केन्द्रियसंस्कृतविश्वविद्यालयः,भोपालपरिसरः)

शोधसंस्था – राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानम्,मानितविश्वविद्यालयः,भोपालपरिसरः

विभागः – व्याकरणम्

शोधसमर्पणवर्षः - २०१९

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शोधसारः

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विषयसूचिः

भूमिका                                                -                                                        2

प्रथमोऽध्यायः                                        -                                                        4

द्वितीयोऽध्यायः                                      -                                                        6

तृतीयोऽध्यायः                                        -                                                         8

चतुर्थोऽध्यायः                                       -                                                        9

पञ्चमोऽध्यायः                                       -                                                         11

उपसंहारः                                             -                                                        13

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भूमिका

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          व्याकरणं ह्यद्यत्त्वेऽपि यथा प्रसिद्धिं लभते, तन्नूनमाचार्याणां सुखायैव। किन्तु व्याकरणस्यैवाङ्गभूतं यद् वेदलोकार्थनिश्चयकरं स्वरशास्त्रं नाद्यत्त्वे काश्यादिष्वपि पठनपाठनपरिपाटिगतम्परिलक्ष्यमवाप्नुते । जनाः स्वरशास्त्रग्रन्थान् अपि यथाकथञ्चिद् विलोक्यैव दुष्करो मे इत्यवगम्येव दूरादपसर्पन्ति । वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्याः परिष्कारपक्षपक्षिणस्तु सर्वत्रैव पक्षान् प्रसारयन्ति, प्रक्रियायामपि नैके शोद्धारः प्रक्रियन्ते स्वीयानि चेतांसि, किन्तु कौमुद्या एव पृष्ठभागे समुद्भासिताशेषस्वरां स्वरप्रक्रियामुपेक्षापक्ष एव क्षिपन्ति । वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यां पाणिन्यष्टाध्यायीस्थानि स्वरसूत्राणि धातुप्रातिपादिकसमासतिङन्तस्वरप्रकरणेषूपनिबध्य प्रस्तुतानि सन्ति । वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीटीकासु च सुबोधिनीशेखरादिषु तद्गतार्थो वैशिष्ट्येन प्रकटीकृतम् । एवञ्च पाणिनिस्वरसूत्राणाम्भाष्येऽपि समुद्गुम्फितं व्याख्यानं, तत्स्थं कैयटमतं, तदापतितञ्चोद्योतन्नागेशमतं, सर्वामेव स्वरभ्रान्तिं ध्वंसयन्ति । एवञ्च पुष्पादीक्षितमहाशयया बिलासपुरस्थया पाणिनिशास्त्रदत्तजीवनयाऽपि नव्यकौमुदीनामग्रन्थो विरचितः । तत्र च त्रयोदशो भागो वर्तते स्वरप्रक्रियात्मकः । तस्यान्नव्यकौमुद्यामनया पुष्पया पाणिनिस्वरसूत्राणि व्यवस्थितीकृत्य व्याख्यातानि, यश्च वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीक्रमस्सूत्राणां यश्च नव्यव्याकरणसिद्धान्तकौमुदीक्रमस्स च भिन्नः। द्वयोरेव कौमुद्योः व्याख्यानं स्वरसूत्रगतं कयाचिद्भिन्नशैल्या कृतम्। नव्यकौमुदीकर्त्र्या पौर्विकास्स्वरसम्बद्धग्रन्थाः विलोक्य स्वनव्यशैल्या स्वरसूत्रव्याख्यासमुद्घाटनङ्कृतम् । अस्माभिरेतदभिलक्षितम् ! उभयोः कौमुद्योः स्वरप्रक्रियायाङ्को भेदः ? का चावश्यकता सत्यामपि वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यां, नव्यकौमुदीविरचनस्य ? इत्यादिकानां सर्वेषां प्रश्नानामुत्तराण्यस्माभिरस्मिन् शोधे  स्वकीये तुलनात्मके दीयन्ते ! वैशिष्ट्यं त्वत्रेदमस्ति, यद्द्वयोरेव कौमुद्योर्यद्यपि कुत्रापि सूत्रार्थसम्बद्धभेदो नास्ति ! तर्हि शोधस्तु व्यर्थः। नैतच्छक्यम् ! उभयोः कौमुद्योः क्वचित्क्रमभेदः क्वचिद्व्याख्यानभेदः। क्वचिद्रहस्यख्यापनाधिकताल्पताः, क्वचिन्नानोदाहरणानान्नावीन्यम् क्वचिद्भाष्यमतोद्धरणम्, क्वचित्काशिकामतनिरासः, क्वचित्प्रदीपप्रदत्तमतोद्भासः, क्वचिदुद्योतोद्योगः क्वचिदल्पशब्दैस्तथ्यख्यापनम् क्वचिदधिकमार्गैरवबोधगत्याऽवस्थानम्। इत्येतावस्थापन्नयोः कौमुदीनव्यकौमुद्योः स्वरप्रक्रियायां किं वैशिष्ट्यमित्येतदत्र शोधैकाक्षिभिरस्माभिर्विख्यापने यत्नो   शोधेऽस्मिन्नस्माभिर्विविधशोधविधिभिस्समीक्षावीक्षापरिशलनतत्परैस्स्वाध्यायपरैः कौमुदीद्वयस्वरप्रक्रियायाम्मनो न्यवेशि ।

          अस्माभिरत्र पञ्चानां अध्यायानां विभागः कल्पितः । सर्वेषां अध्यायानाम् प्राङ्मया प्रस्तावनाऽपि नियोजिता अस्ति । यया सम्पूर्णाध्यायस्य निर्दशनम् भवितुं शक्यते । तत्र प्रथमेऽध्याये व्याकरणमाहात्म्यम्, वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीपरिचयस्तत्कर्तुः परिचयः, नव्यकौमुदीपरिचयस्तत्कर्त्रीपरिचयो, व्याकरणैतिह्यं, तन्माहात्म्यञ्च  प्रावोचि । द्वितीयेऽध्याये स्वरशब्दार्थविमशस्तन्माहात्म्यञ्च, स्वरभेदनिरूपणपूर्वकमुदात्तानुदात्तस्वरितस्वरानुशीलनम्, स्वराङ्कनविधिश्च निधत्तोऽत्रैव वैयाकरणकौमुद्यनुसारेण धातुप्रातिपदिकफिट्स्वराणां सामान्यपरिचयो, नव्यकौमुद्यनुसारेण धातुप्रतिपादिकफिट्स्वराणां सामान्यपरिचयः, उभयोः मतभेदानुशीलनम् (तुलना), सम्पूर्णस्य द्वितीयाध्याध्यस्य निष्कर्षख्यापनञ्च व्यधायि । तृतीयेऽध्याये क्रमशो वैयाकरणकौमुद्यनुसारेण प्रत्ययप्रकृतिस्वरयोस्सामान्यपरिचयः, उभयोः मतभेदानुशीलनम् (तुलना) वैयाकरणकौमुद्यानुसारेण आदेशागमसुबन्तस्वराणां सामान्यपरिचयो, नव्यकौमुद्यनुसारेण आदेशागमसुबन्तस्वराणां सामान्यपरिचय, उभयोः मतभेदानुशीलनम् (तुलना) सम्पूर्णस्य तृतीयाध्यायस्य निष्कर्षश्च ख्यापितः । चतुर्थेऽध्याये वैयाकरणकौमुद्यनुसारेण समासस्वराणां सामान्यपरिचयो, नव्यकौमुद्यनुसारेण समासस्वराणां सामान्यपरिचय, उभयोः मदभेदानुशीलनम् (तुलना) सम्पूर्णस्य चतुर्थाध्यास्य निष्कर्षख्यापनञ्च विधत्तम् । एवमेवान्तिमे पञ्चमेऽध्याये वैयाकरणकौमुद्यनुसारेण आमन्त्रिताम्रोडितवाक्यस्वराणां सामान्यपरिचयः, नव्यकौमुद्यनुसारेण आमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वराणां सामान्यपरिचय, उभयोः मतभेदानुशीलनम् (तुलना) कृता, वैयाकरणकौमुद्यनुसारेण एकश्रुतिस्वरस्य सामान्यपरिचयो,  नव्यकौमुद्यनुसारेण एकश्रुतिस्वरस्य सामान्यपरिचय, उभयोः मतभेदानुशीलनम् (तुलना) सम्पूर्णस्य पञ्चमाध्यायस्य निष्कर्षनिर्धारणञ्च कृतम् । तत उपसंहारः सन्दर्भग्रन्थसूची चापिः प्रदर्शिता । साङ्केतिकशब्दविवरणम्मयाऽऽदौ एव नियोजितम् । अत्र संक्षेपरपेण शोधप्रबन्धगताध्यायानाम्परिचयः प्रस्तूयते ।

 

 

प्रथमोऽध्यायः

          सकललोकपरिपावकानाम् अस्मदृषिमुनीनां वेदशास्त्रपुराणज्ञानवारिप्रवाहो नूनमेवास्माकञ्चिरसमृद्धियुतस्य दिव्यार्षस्य भारतस्य शैवदिनानामुद्भासक एव । शास्त्राणां यन्माहात्म्यं, तत्सर्वैर्बुध्यत एव, षट्सु च शास्त्रेषु व्याकरणमहत्ताऽपि लोकमान्यैव । अतोऽस्मिन् प्रथमेऽध्याये प्रथमबिन्दुरूपेण मया व्याकरणस्य माहात्त्म्यमेव न्ययोजि ।

1.1. व्याकरणमाहात्म्यम् – व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेन इति व्याकरणम् । व्याकरणशास्त्रस्य किं माहात्म्यम् विषयेऽत्र न कोऽपि सन्देहलेशो यत् व्याकरणं विना सर्वेषां वेदशास्त्राणां अर्थावगमनम् असम्भवम् अस्ति । व्याकरणं कथं ह्यस्मत्कृते महत्वं धत्ते इत्येतत्सर्वं शोधकर्त्राऽत्र निरूप्यते ।

1.2 वैकरणसिद्धान्तकौमुद्यास्सामान्यपरिचयः -

           अष्टाध्याय्याः कार्यकालविधिमाश्रित्य रचितेषु ग्रन्थेषु यत्स्थानं वैयाकरणसिद्धातकौमुद्या प्राप्तं या च कीर्तिश्चिरस्था तया लब्धा, तदवश्यमेव ग्रन्थकर्तुः पुण्यकर्तृत्त्वं सूचयति ! अष्टाध्यायीस्थसूत्राणामस्मिन् ग्रन्थे कश्चिद्विशिष्ट एव क्रमो व्यवस्थापितः । इयं कौमुदी आदौ क्लिष्टा पश्चात्सरलाऽतो विद्वद्भिः ‘‘सिंहदाहिनी’’यं निगदिता। कौमुद्याः लोकप्रियत्त्वमनेन पद्येन ज्ञातुं शक्यते -

कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः।

कौमुदी यद्यकण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः।।

          कौमुदी चेयं चतुर्दशप्रकरणविभक्ताऽस्ति । तानि च - सञ्ज्ञा-परिभाषा- सन्धि- सुबन्त- अव्यय -स्त्रीप्रत्यय-कारक-समास-तद्धित-तिङन्त-प्रक्रिया-कृदन्त - वैदिक-स्वर-नामधेयानि सन्ति । अस्मिन् बिन्दौ मया वैयाकरणकौमुदीस्थस्वरप्रक्रियाया अत्र परिचयोऽपि प्रस्तूयते ।

1.3 वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीकर्तुः परिचयः -

          को न जानीते नाम  वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्याः रचनाकारस्य श्रीमद्भट्टोजिदीक्षितस्य । अयं भट्टः विक्रमार्कराज्ञः षोडशशतकस्य पूर्वभागे स्वजन्मना भुवमलञ्चकार । अस्यैव कृतीनां, परिवारस्य अन्येषाञ्च परिचयोऽत्र बिन्दौ मया यथालोडितशास्त्रं दीयते।

 

1.4 नव्यसिद्धान्तकौमुद्यास्सामान्यपरिचयः - 

          नव्यशोधयुतेऽस्मिन् काले विद्वद्भिरनुदिनं शोधग्रन्थाः लिख्यन्ते, प्राचाम्मतानि चोद्ध्रीयन्ते स्वमतानि चापि विख्याप्यन्ते, सरलत्त्वं च विशेषेण ग्रन्थेषु निवेश्यन्ते ! एतादृशीमेव परिपाटीमुद्वहन्ती श्रीपुष्पादीक्षिता नव्यसिद्धान्तकौमुदीग्रन्थं ग्रथिवती । इयं नव्यकौमुदी चतुर्दशभागेषु विभक्ता वर्तते, येषु पञ्च भागाः प्रकाशिताः अन्ये च प्राकाश्याः सन्ति । तत्र त्रयोदशो भागो स्वरप्रक्रियात्मकः अस्ति। अत्र नव्यकौमुदीग्रन्थपरिचयपूर्वकम्मया स्वरखण्डस्य विशेषविवेचनं विधीयते।

1.5 नव्यसिद्धान्तकौमुदीकर्त्र्याः परिचयः -

          अस्मिन् संसारे अनेके पुरुषाः जन्म लभन्ते तथा म्रियन्ते परन्तु तेषामेव जीवनं सफलीभवति, ये शास्त्राय जीवन्त्युपकुर्वन्ति चान्यान् अपि। एतादृशीमेव काञ्चित्परम्परामुद्वहन्ती श्रीपुष्पादीक्षितमहाशया बिलासपुरस्था वृद्धत्त्वं धन्यीकुर्वन्ती नानाऽध्येतृभ्यो व्याकृज्ज्ञानं  प्रददाति । तासामेव परिचयो मयाऽत्र सामान्यरूपेण प्रस्तूयते

1.6 व्याकरणैतिह्यम् -

          व्याकरणशास्त्रस्य समृद्धम् ऐतिह्यं नूनमेवाद्यापि जनांश्चमत्करोति। व्याकरणशास्त्रं ह्यादिकाले महेश्वरादारभ्य अन्यैश्चापि महर्षिभिः प्रोक्तम् । अस्य नवधा भेदा रामायणकाले दृष्टाः - ‘‘सोऽयं नवव्याकरणार्थवेत्ता’’। अष्टभेदा अपि -

ऐन्द्रश्चान्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः

पाणिन्यमरजैनेन्द्राः अष्टौ व्याकरणानि हि ।।

तथा चात्रास्माभिः व्याकरणशास्त्रस्य परम्परायाः विभिन्नाचार्याणां कालः कृतयः नामानि च प्रस्तूयन्ते । पाणिनिपूर्ववर्तिनां समकालिकानां पाणिनेः परवर्तिनां च आचार्याणां परिचयः सामान्यरूपेण अत्र प्रस्तुतमस्ति । एवम्प्रकारेण शोधैकपक्षापन्नैरस्माभिरत्र व्याकरणैतिह्यं स्वाध्यायानसारं समाशील्यते।

द्वितीयोऽध्यायः

          अत्र द्वितीयेऽध्याये शोधकर्त्रा ऐदम्प्राथम्येन ‘‘स्वरशब्दार्थविमर्शस्तन्माहात्म्यञ्च वक्ष्यते । अस्मिन् बिन्दौ मया स्वरशब्दस्य कोऽर्थः? स्वरशब्दस्य के पर्यायवाचिनश्शब्दाः? नैकेषु उपनिद्ब्राह्मणग्रन्थेषु च स्वरशब्दस्य किं व्याख्यातव्यस्वरूपम् ? काऽस्य व्याकरणसम्मता व्युत्पत्तिरित्यादिप्रश्नानां यथापरिशीलितशास्त्रम् उत्तराणि दीयन्ते । स्वरभेदनिरपणमपि मयाऽस्मिन् क्रियते । उदात्तानुदात्तस्वरितानुशीलनमपि च नानाग्रन्थविलोडनद्वारा प्राप्ततथ्यान् आधारीकृत्य क्रियते। स्वराङ्कनविधिश्चापि सामान्यतयाऽत्र परिचीयते

2.4.वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यनुसारं धातुप्रतिपादिकफिट्स्वराणां सामान्यपरिचयः – वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्याः स्वरप्रक्रियायां, धातूनां स्वराः क्व भवेयुः, इत्येतद्भ्रमनिरासाय धातुस्वरः इत्यध्यायो वर्तते । पाणिनिशास्त्रे धातूनां सामान्यरूपेण अन्तोदात्तः प्रोक्तः । किन्तु तदनन्तरं विशिष्टनियामकानि अपि सूत्राणि उपदिष्टानि । ततः अनन्तरम् अभ्यस्तानामादिः[1] एतेन अभ्यस्तसंज्ञकस्य आद्युदात्तः क्रियते । अनुदात्ते च[2] इत्येतदपि आद्युदात्तविधानं करोति धातोः । एवं दृश्यते यत् अत्र पूर्वं सामान्यतया धातुस्वरविषये सामान्यनियमत्वेन अन्तोदात्तविधानं कृतं ततः विशेषैः सूत्रैः तदपवादाः प्रोक्ताः । शोधकर्त्रा तस्य प्रकरणस्य मुहुर्मुहुरध्ययनं कृत्त्वा, चिन्तनं तद्वियकं च विधाय, अत्र द्वितीयेऽध्याये धातुस्वराणां यथाशास्त्रं सामान्यपरिचयो दीयते। तथैव च वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यां प्रातिपादिकस्वराणामपि निर्देशस्समुपलभ्यते। अत्र चतुरः शसि[3]  झल्युपोत्तमम्[4]  इत्यादीनि सूत्राणि प्रोक्तानि सन्ति सिद्धान्तिकौमुद्याम् ।  तस्यापि चाध्ययनं कृत्त्वा मयाऽत्र यथाग्रन्थं तत्प्रस्तूयते । फिट्सूत्राण्यपि वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यां प्रोक्तानि सन्ति। फिट् इति प्रातिपादिकसंज्ञाऽस्ति प्राचाम् आचार्याणाम् । फिट्सूत्राणि शान्तनवाचार्यविरचितानि सन्ति । एतानि चतुर्षु पादेषु विभक्तानि सन्ति । वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यां यथावदेतेषां सन्निवेशः कृतः । एतानि फिट्सूत्राणि कौमुद्यां सरलरीत्या सोदाहरणानि व्याख्यातानि सन्ति । एषां वीक्षणमात्रेणैव तद्गतावबोधः सारल्येन भवितुं शक्नोति । तान्यपि मया वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्याः क्रमेणैव समुपस्थापितानि स्वाध्यायवशाच्च स्वकीयेषु शब्देषु द्वितीयेऽस्मिन्नध्याये यथाग्रन्थं समुपवर्णितानि च

 

2.5 नव्यसिद्धान्तकौमुद्यनुसारेण धातुप्रातिपदिकफिट्स्वराणां सामान्यपरिचय -

नव्यकौमुद्यामपि धात्वादिस्वराणां व्याख्यानं प्राप्यते, किन्तु तत्र तत् किञ्चित्पृथग्रपेणप्रोक्तमस्ति। नव्यकौमुद्यां धातुस्वराध्याये केवलं धातोः इत्येकसूत्रमात्रमेव दत्तम् । सन्क्यच्काम्यचादीनां च स्वराः तत्र अल्पशब्दैः प्रोक्ताः, यानि वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीस्थानि धातुस्वरप्रकरणे सूत्राणि प्रोक्तानि सन्ति, तानि नव्यसिद्धान्तकौमुद्यां प्रकृतिस्वराध्याये योजितानि सन्ति। एवमेव नव्यसिद्धान्तकौमुद्यां प्रातिपादिकस्वरसूत्राणामुत च फिट्स्वरसूत्राणां क्रमविभागोऽपि वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यपेक्षया भिन्नोऽस्ति, व्याख्यानरीतिश्च पृथगस्ति, किन्तु सूत्राणाम् अर्थसम्बन्धे द्वयोरेव कौमुद्योर्न कोऽपि भेदो लभ्यते

2.6 धातुप्रातिपदिकफिट्स्वरसन्दर्भे उभयोः कौमुद्योः मतेभेदानुशीलनम् (तुलना) –

धातुस्वरव्याख्याने कौमुद्यां नव्यकौमुद्यां च भेदोऽयमेवावलोक्यते यत् सिद्धान्तकौमुद्यां यानि सूत्राणि धातुस्वरप्रकरणे प्रोक्तानि तानि नव्यकौमुद्यां प्रकृतिस्वरप्रकरणे सन्ति। अतः प्रकृतिस्वरतुलनाऽवसरे एव तत्तत्सूत्राणां तुलना शोधकर्त्रा विधीयते । तथा च फिट्सूत्रप्रकरणे उभयोरेव कौमुद्यो बहवो भेदाः दृक्पथमायान्ति । तथैव प्रातिपदिकस्वरव्याख्याने अपि द्वयोः कौमुद्यो यो भेदः तत्सर्वम्मया अत्र समुद्घाटनं कृतम् अस्ति । अत्रेदं ध्यातव्यमस्ति यदुभयोः कौमुद्योः यानि सूत्राणि तुलनायोग्यानि, श्च व्याख्यानभेदोऽथ स्वरसम्बन्धिमतभेदस्तत्सर्वं यथालोडितशास्त्रं विविच्यते । ततश्च -

2.7 द्वितीयाध्यायस्य निष्कर्षख्यापनम् -

          अत्र अस्माभिः सम्पूर्णस्य द्वितीयाध्यायस्य निष्कर्षरूपः कथ्यते । इत्येतत्प्रकारेणेयं द्वितीयाध्यायस्वरलीलाऽत्र धात्वादिवियिणी शोधैकपक्षिभिरस्माभिरत्र समुपस्थाप्यते

 

 

 

 

तृतीयोऽध्यायः

          तृतीयेऽस्मिन्नध्याये प्रत्ययस्वरप्रकृतिस्वराणां अथ च आदेशागमसुबन्तस्वराणां परिचयः कौमुदीद्वयपरिप्रेक्ष्ये कृत्त्वा, तत्तुलना निष्कर्षश्च ख्याप्यते।

3.1 वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यनुसारं प्रत्ययस्वरप्रकृतिस्वरयोः सामान्यपरिचयः -

अथादौ प्रत्ययस्वरपरिचयः -

          प्रत्ययस्वरास्ते भवन्ति, ये प्रत्ययमुद्दिश्य सूत्रैनिर्दिश्यन्ते । प्रत्ययसम्बन्धसामान्यनियमोऽस्ति यत् प्रत्यय आद्युदात्त एव स्यात् आद्युदात्तश्च इति सूत्रेण ! ततश्चास्यानेकेऽपवादा अपि प्रोक्ताः । यथा- अनुदात्तौ सुप्पितौ, चितः, तद्धितस्य कितः - इत्येतानि सूत्राण्यपवादत्त्वेन प्रत्ययस्य अन्तोदात्तविधानं कुर्वन्ति । इतयेतत्प्रकारकं प्रत्ययस्वरविधानं वैयाकरणकौमुद्यां विवेचितमस्ति, तस्यैव परिशीलनङ्कृत्त्वा, तदत्र प्रस्तूयते

वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यनुसारेण प्रकृतिस्वरः - एतन्नामको कऽपि अध्यायो वैयाकरणकौमुद्यां नास्ति,  नव्यकौमुद्यां यानि सूत्राणि प्रकृतिस्वरप्रकरणे प्रोक्तानि तानि सिद्धान्तकौमुद्यां धातुस्वरप्रकरणे कथितानि, अतः पूर्वमेव धातुस्वरप्रकरणे एतेषां सर्वेषां प्रवचनत्वात् अत्र न पुनः कथयिष्यते

3.2 नव्यकौमुद्यनुसारेण प्रत्ययस्वरप्रकृतिस्वरयोः सामान्यपरिचयः -     

नव्यसिद्धान्तकौमुद्यां प्रत्ययस्वरसन्दर्भे प्रकृतिस्वरसन्दर्भेत्तमरीत्या व्याख्यानं प्राप्यते । नव्यकौमुद्यां प्रत्ययस्वरसन्दर्भे प्रकृतिस्वरसन्दर्भे च सारल्ययुक्तशैल्या प्रयोगः कृतः अस्ति । एवञ्च शेखरसुबोधिनीटीकासु यानि तथ्यानि प्राप्यन्ते , तानि अपि चात्र बहुत्र दृग्गोचरीभवन्ति । भाष्यस्य साहाय्यमपि चात्र नव्यकमुदीकर्त्र्या गृहीतमस्ति । प्रकृतिशब्देनात्र धातुर्गृह्यते । अतः सिद्धान्तकौमुद्यां यानि सूत्राणि धातुस्वरप्रकरणे सन्ति तानि नव्यकौमुद्यां प्रकृतिस्वरप्रकरणे व्याख्यातानि सन्ति ।  

3.3 प्रत्ययस्वरप्रकृतिस्वरसन्दर्भे मतभेदानुशीलनम् -

          शोधकर्त्रा एतदनुभूतं यद् उभयोरेव कौमुद्योः प्रत्ययप्रकृतिस्वरसन्दर्भे नैकत्र भिन्नता अस्ति । नव्यकौमुद्यां बहूनि तथ्यानि तादृशानि अपि प्राप्यन्ते यानि कौमुद्यां मूले सूत्रस्य व्याख्यास्थले नोक्तानि , एतत्सर्वं समातोलनं कृत्वा अत्र मया दर्शयिष्यते ।

3.5 वैयाकरणकौमुद्यनुसारेण आदेशागमसुबन्तस्वराणां सामान्यपरिचयः -

नव्यकौमुदीवत् सिद्धान्तकौमुद्यां स्वरप्रकरणे आदेशागमसुबन्तस्वराणां कृते विशिष्टप्रकरणं नास्ति । प्रक्रियास्थलेषु अन्यत्र प्रकरणेषु तानि तत्र प्रोक्तानि सन्ति  । नहि तत्र तेषां स्वररूपेणैव विशेषविभावनं कृतमस्ति । अतस्सिद्धान्तकौमुद्यां स्वरप्रकरणे तेषाम् अनुक्तत्वात् अत्र मया तत् न व्याख्यातम् ।

3.6 नव्यकौमुद्यनुसारेण देशागमसुबन्तस्वराणां सामान्यपरिचयः –

  बहूनि सूत्राणि अष्टाध्याय्यां तादृशानि सन्ति यानि आदेशविधानं तु कुर्वन्ति एव सहैव स्वरविधानम् अपि कुर्वन्ति । यथा सहस्य सध्रिः इति सूत्रं सहस्य सध्रिरित्यादेशं करोति स च उदात्तो भवति । एवमेव आगमकराण्यपि बहूनि सूत्राणि तथा सन्ति, तेषां नव्यकौमुद्याम्प्रकरणे अत्र व्याख्यानम्प्राप्यते,यथा - लुङ्लङ्लृङ्क्ष्वडुदात्तः- अनेन अडागमो भवति, स चोदात्तः भवत्यतः आगमस्वरप्रकरणे नव्यकौमुद्यामस्य निवेशः कृतः। एतत्सर्वं  मया अत्र नव्यसिद्धान्तकौमुद्याः परिशीलनाधारेण तत्वरूपेण समुपस्थापितम् ।

तृतीयाध्यास्य निष्कर्षख्यापनम् –

अत्र शोधकर्त्रा क्रमशः सम्पूर्णाध्यायस्य निष्कर्षः प्रोच्यते । अत्र मयैतद्वैशिष्ट्येन प्रोच्यते यत् प्रत्ययस्वरप्रकृतिस्वरसन्दर्भे मयोभयोरेव कौमुद्योस्समाशीलङ्कृतन्तेन च निष्कर्षोऽप्ययमेवावापि यद्बहुषु सूत्रेषु दृश्यते नव्यकौमुद्यां व्याख्यानस्य सारल्यं, नानाटीकोट्टीप्पणं च, कौमुद्याञ्चाल्पशब्दैस्तथ्योद्भासो लभ्यते । अत एव अवगमनसौकर्याय नव्यकौमुदीस्थं प्रत्ययप्रकृतिस्वरव्याख्यानमतीवापयोगी अस्ति । किन्तु तथाप्युभयोःकौमुद्यो स्वरसम्बन्धभेदस्तु नास्त्येव ! एवमेव आदेशागमसुबन्तस्वरसन्दर्भे अपि निष्कर्षरूपेण एतद्वक्तुं शक्यते यत् नव्यकौमुद्यामेतेषां प्रकरणानां सन्निवेशेन स्वरग्रन्थस्य अस्य महत्वं वर्धत एव ।

 

चतुर्थोऽध्यायः

          चतुर्थोऽयमध्यायो वर्तते समासस्वरात्मकः। अत्र द्वयोः कौमुद्योरालोके समासस्वरसम्द्धभ्रमध्वंसोऽस्माभिश्चर्यते। तत्र प्रथमबिन्दुः -

4.1 वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यनुसारेण समासस्वराणां सामान्यपरिचयः- अत्रास्माभिर्वैयाकरणकौमुद्याः परिशीलनङ्कृत्त्वा समासस्वराणां परिचयोऽदायि । वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यां समासस्वरसम्बद्धसूत्राणां क्रमोऽष्टाध्यायीमनुसृत्यैव वर्तते । तत्र श्रीमद्भट्टोजिदीक्षितेनाष्टाध्याय्यनुसारमेव समासस्य[5] इत्यनेन समासस्य अन्तोदात्तो भवतीत्युक्तम्, ततोऽपवादत्त्वेन बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्’’ इत्यादिसूत्रेण सामान्यसमासस्वरस्यापवादाः प्रोक्ताः । वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यां समासस्वराणां वैशिष्ट्यमिदमस्ति यत्तत्र समासस्वरवियकसूत्राणामुपन्यासोऽष्टाध्यायीक्रमेणैव कृतः । अतोऽत्र मया वैयाकरणकौमुदीक्रमेण सामान्यतया समासस्वराणाम्परिचयो दीयते

4.2 नव्यकौमुद्यनुसारेण समासस्वराणां सामान्यपरिचयः – नव्यकौमुद्यां वर्तते कश्चिद्विशिष्टः क्रमः सूत्राणां तद्व्याख्यानस्य च । अत्र समासस्वरसन्दर्भे नव्यकौमुद्याः वैशिष्ट्यमिदमस्ति यत्- नव्यकौमुद्यां सर्वेषां समासानां स्वरा पृथक्कृत्य प्रोक्ताः। यथा- आदौ बहुव्रीहिस्वरास्ततस्तत्पुरुस्वरास्ततोऽव्ययीभावस्वरास्ततश्च द्वन्द्वस्वराःप्रोक्तास्सन्ति । अतो मयाऽत्र तत्क्रमेणैव कानिचित् सूत्राणि नव्यकौमुद्याः शैलीगतवैशिष्ट्यस्य आलोके व्याख्यातानि, विशिष्टतत्त्वानि चैतद्विषयकाणि विख्याप्यन्ते

4.3 समासस्वरसन्दर्भे उभयोः कौमुद्योः मतभेदानुशीलनम् -

अत्र द्वयोरेव कौमुद्योः समासस्वरपरिप्रेक्ष्ये तुलनापरकतथ्यानि मया वीक्षितानि, तत्सर्वमत्र परिशील्यते

          कस्यां कौमुद्यां किं तथ्यं प्रोक्ताः, किञ्च न प्रोक्तम् इत्यपि मयाऽत्रैव तुलनावसरे विज्ञाप्यते । महाभाष्यादिमतानां समाशीलनपूर्वकम्मया एषा समासस्वरतुलनाऽऽचर्यते । अस्मिन् तुलनात्मके बिन्दौ मया तान्येव सूत्राणि गृहीतानि, यानि कैश्चिदपि मार्गेस्तुलनायोग्यानि भाष्यादिभिरपि समुद्गुम्फितानि च । अत्र उभयोः कौमुद्योरध्ययनेन प्राप्तं स्वमतमपि किञ्चित् प्रकटीक्रियते । क्वचित्क्वचिद्भाष्यमतमप्युभयोरेव कौमुद्योः व्यक्तं दृश्यते, तदपि मया वर्णितम् । यथा - उपसर्गात्स्वाङ्गं ध्रुवमपर्शुः[6]  इत्यस्य सूत्रस्य व्याख्यायाम् उभयोः कौमुद्योः अस्य अस्वाङ्गार्थमिति स्वीकृतम् । किन्तु उद्योते प्रोक्तम् - भाष्येऽध्रुवार्थोऽबहुव्रीह्यर्थ इति, अस्वाङ्गार्थ इति तु नोक्तम्, स्वाङ्गग्रहणस्य अत्राप्यनुवृत्तेरिष्टत्त्वात् ’’ एतत्प्रकारेणास्माभिरत्र नानाग्रन्थानुशीलनद्वारा तुलना विधत्ता

4.4 चतुर्थाध्यायस्य निष्कर्षख्यापनम् – अत्र शोधकर्त्रा सम्पूर्णस्य चतुर्थाध्यास्य निष्कर्षः प्रोच्यते । उभयोः कौमुद्योः स्थितानां समासस्वरसन्दर्भे या तुलना कृता निष्कर्षरूपेण एतदेवात्र अभिलक्ष्यते यत् स्वरसन्दर्भे वैमत्याभावे अपि उभयोः कौमुद्योः सूत्राणां व्याख्यानसम्बन्धी भेद एव दृग्गोचरीभवति ।

ञ्चमोऽध्यायः

          अन्तिमेऽस्मिन्नध्यायेऽस्माभिः पूर्ववदेव मार्गानुसारिभिर्यः क्रम आचर्यते, तदत्र वर्ण्यते-

5.1 वैयाकरणकौमुद्यनुसारेण आमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वराणां सामान्यपरिचयः - शोधकर्त्रा केवलं तिङन्तस्वरस्य विषये चर्चा कृता अस्ति । यतो हि सिद्धान्तकौमुद्यां स्वरप्रक्रियायाम् आमन्त्रिताम्रेडितस्वराः न प्रोक्ताः , प्रक्रियास्थलेषु तत्सम्बद्धानि सूत्राणि प्रोक्तानि सन्ति । किन्तु तत्र आदौ साधारणस्वरप्रकरणे एव आमन्त्रितस्य च[7] इत्येतत्सूत्रमस्ति । तत्र एव आमन्त्रितस्वरसन्दर्भे प्रोक्तं किन्तु विशिष्टचर्चा तथा नास्ति यथा नव्यकौमुद्यामस्ति ।प्रक्रियास्थलेषु च यानि आमन्त्रिताम्रेडितसूत्राणि प्रोक्तानि तत्र स्वरवैशिष्ट्यमात्रचर्चनं तेषां नास्ति । किन्तु सुप्तिङ्चयो वाक्यं भवति । अतः तिङन्तस्वराः सिद्धान्तकौमुद्यां स्वरप्रक्रियायां प्रोक्ताः सन्ति । अतस्तदनुसृत्य अस्माभिरपि चात्र केवलं तिङन्तस्वरा एव प्रोक्ताः । आमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वरनामकं प्रकरणम् एव सिद्धान्तकौमुद्यां नास्ति । किन्तु नव्यकौमुद्यां तत्तत्सूत्राणि अन्विष्य एतत्प्रकरणं निबद्धमस्ति । सिद्धान्तकौमुद्यां केवलं तिङन्तस्वरसम्बद्धप्रकरणस्यैवोपस्थितत्वात् अत्र शोधकर्त्रा तिङन्तस्वरसम्बन्ध एव सिद्धान्तकौमुद्याः वैशिष्ट्यं दर्शितमस्ति ।

5.2 नव्यकौमुद्यनुसारेण आमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वराणां सामान्यपरिचयः -

अत्र आमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वराः विस्तृत्य व्याख्याताः दृश्यन्ते।  किन्तु मया ते अत्यल्पमार्गेण, स्वाध्यायप्राप्ततथ्यानुसारेण नव्यकौमुदीक्रमेण विख्याप्यन्ते । अत्र मया न हि सर्वाणि एव सूत्राणि गृह्यन्ते अपितु केषाञ्चिदेव सूत्राणां व्याख्यानं कृतं, येन नव्यकौमुद्याः शैली अस्माभिर्ज्ञाता स्यात् । तद्गतवैशिष्ट्यं ज्ञायेत ।  नव्यकौमुद्यां तत्तत्सूत्राणां यः विस्तारो, उदाहरणाधिक्यं च तन्मयाऽत्र न प्रस्तूयतेऽपितु सामान्यतयैव तत्परिचीयते

5.3 आमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वराणां सन्दर्भे उभयोः कौमुद्योः मतभेदानुशीलनम् -

          मयोभयोः कौमुद्योः परिशीलनाधारेणमान्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वराणां सन्दर्भे या काचित्तुलनात्मकाऽवाप्ता सा प्रस्तूयते । वस्तुतः आमन्त्रिताम्रेडित-स्वरसन्दर्भे तूभयोरेव कौमुद्योर्वैमत्यं क्वचिदपि न प्रतिभाति, परन्तु व्याख्याने पूर्ववदेव नव्यकौमुद्याम् अतिविस्तृतशैल्याः प्रयोगः कृतः । तत्र सारल्यं तु वर्तते, भाष्यमतख्यापनत्त्वञ्च, किन्तु स्वरसम्बद्धतुलनाचारिभिरस्माभिरत्र रिक्तहस्तैरेव भव्यम् । वाक्यस्वराणां सन्दर्भे चैतद्वक्तुं शक्यते-

          नव्यकौमुद्यां वाक्ये सुबन्ततिङन्तप्लुस्वराणां च व्याख्यानं त्कृतं, तन्नूनं स्वरजिज्ञासूभ्यो महोपयोगि सद् ग्रन्थस्य महत्तां वर्धयति । एवमेव कौमुद्यां नैतत्प्रकारेण तन्निर्देशः प्राप्यते । सुबन्तस्वरसम्बद्धसूत्राणि कौमुद्यां प्रकरणान्तेरषूपलभ्यन्ते, यथा- युष्मदस्मदोः ष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोर्वान्नावौ, मयावेकवचनस्य, त्वामौ द्वितीयायाः -

इत्यादीनि सूत्राणि हलन्तपुँल्लिङगस्थानि सन्ति प्रक्रियावसरे कौमुद्यां न च स्वरप्रकरणावसरे । नव्यकौमुद्यां स्वरप्रक्रियायां निवेश्य तत्स्वरोऽपि निदर्शित इत्येतन्मात्रम् अत्र विशेषत्वम् अभिलक्ष्यते । एवमेव प्लुस्वरसम्बद्धानि यानि नव्यकौमुदीस्थसूत्राणि तानि कौमुद्यामच्सन्धौ दर्शितानि, प्रक्रियावसरे । ततस्तुलनाचर्चैव नास्ति । केवलं तिङन्तस्वरा उभयोः कौमुद्योस्सामान्यं व्याख्याताः । तिङन्तस्वरसन्दर्भे यद्यप्युभयोः कौमुद्योस्तात्त्विको भेदो नास्ति, तथाप्यस्माभिर्भाष्यादिग्रन्थालोनैरुभयकौमुदीवीक्षणैश्च या काचित्तुलनात्मकताऽवाप्ता साऽत्र प्रस्तूयते

 

5.4. वैयाकरणकौमुद्यनुसारेण एकश्रुतिस्वरस्य सामान्यपरिचयः -

          अत्रास्माभिरेकश्रुतिस्वरसन्दर्भे चर्चा विधीयते । यद्यपि वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्याम् एकश्रुतिस्वरप्रकरणं पृथक्कृत्य नास्ति, तथापि साधारणस्वरनामकाध्याये, आदावेव एकश्रुतिसम्बद्धसूत्राणि प्राप्यन्ते यथा - एकश्रुतिः दूरात्सम्बुद्धौ, यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु इत्यादीनि । अत्रास्माभिः वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्याः परिशीलनेन यत्किञ्चिदपि एकश्रुतिवियकं तथ्यमवापि, तत्सामान्यतया समुद्घाट्यते

5.5. नव्यसिद्धान्तकौमुद्यनुसारेण एकश्रुतिस्वरस्य सामान्यपरिचयः -

          नव्यसिद्धान्तकौमुद्याम् अपि एकश्रुतिस्वरस्य विषये सम्यक्तया व्याख्यानं प्राप्यते । तत्र नैकेषां ग्रन्थानां सहायतया एकश्रुतिस्वरगतानां तथ्यानां रहस्योद्घाटनं कृतमस्ति । अतोत्र तस्यानुसरणं कृत्वा मया तत्सम्बन्धे शोद्धृदृष्ट्या चर्चा क्रियते ।

5.6. एकश्रुतिस्वरसन्दर्भे उभयोः कौमुद्योः मतभेदानुशीलनम् -

अत्र एकश्रुतिस्वरसन्दर्भे वयम् उभयोः कौमुद्योः अध्ययनानन्तरं एतदेव वक्तुं शक्नुमो यत् स्वरसम्बन्धिवैमत्यं सूत्रमाध्यमेन तत्र न लब्धम् । नव्यकौमुदी च एकश्रुतिस्वराणां व्यवस्थितरूपेण उपस्थापनं कृतवती एतत्तद्वैशिष्ट्यम् अस्ति । तत्र नैकासां टीकानां सहायतया सूत्रगतं तात्पर्यं स्पष्टीकृतं वर्तते ।

5.7. पञ्चमाध्यायस्य निष्कर्षख्यापनम्-

अत्र अस्माभिः सम्पूर्णस्य पञ्चमाध्यायस्य निष्कर्षः ख्याप्यते । आदौ आमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वराणां सन्दर्भे ततश्च एकश्रुतिस्वराणां सन्दर्भे निष्कर्षविख्यापनङ्क्रियते

5.7.1. आमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वरसन्दर्भे निष्कर्षख्यापनम्-

अत्रास्माभिरेतदेव वक्तुं क्यते यदुभयोरेव कौमुद्योः यद्यपि तद्वियकाणि सूत्राण्युपनिबद्धानि, किन्तु नव्यकौमुद्याम् अन्वेणपरकरीत्याऽऽमन्त्रिताम्रेडितवाक्यस्वरसम्बद्धसूत्राणां पृथक्  प्रकरणविन्यासेन तद्गतव्याख्यानेन च सुलभीकृतस्सरसीकृतस्सुकरीकृतश्च स्वरमार्गस्तत्पान्थेभ्यः । कौमुद्यामपि च तत्तत्स्वरसूत्राणां सम्यङ्निर्देशः कृतः अस्ति । उभयोरेव स्वरसम्बन्धिपृथक्त्वं कुत्रापि न दृक्पथमायाति

5.7.2. एकश्रुतिस्वरसन्दर्भे निष्कर्षख्यापनम् -

तुलनाधारेणैकश्रुतिस्वरसम्बन्धेऽत्रास्माभिरेतदेव निश्चीयते, यत् उभयोरेव कौमुद्योः यद्यप्येकश्रुतिस्वरसन्दर्भे कुत्रापि वैमत्यं नास्ति, तथापि नव्यकौमुद्यां यद्व्यवस्थितरपेणैकश्रुतिस्वरसम्बन्धिसूत्रस्थानं, यया च सरलरीत्या तत्रत्यं व्याख्यानं कृतं तन्नूनमेवाध्येतृभ्यस्सरलं झटित्यवबोधकरं च वर्वर्त्ये

उपसंहारः

इतोऽनन्तरम् अस्माभित्रोपसंहारः क्रियते- सर्वेषामध्यायानां उपसंहर्तृत्त्वेनात्रतदेव वक्तुं क्यते यदुभयोः कौमुद्योः यद्यपि धातुप्रातिपदिकफिट्सूत्रसमासतिङन्तादिस्वराणां सम्यग्विवेको लभ्यते उभयोश्चापि कौमुद्योः यद्यपि थ्यख्यापनता, भाष्याद्यनुशीलनपरकत्त्वञ्च वर्वर्त्ति , तथापि वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीस्था स्वरप्रक्रिया, नानाटीकालोकनानन्तरमेव सूत्रगतानि रहस्यानि अवबोधयति ! वैयाकरणकौमुदीस्थस्वरप्रक्रियायामत्यल्पशब्दैस्स्वरगततथ्यं  यद्यपि निगदितं, तथापि तस्य गूढतथ्यं ज्ञातुं सुबोधिनीशेखरादीनां ग्रन्थानामवलोकनस्य आश्यकता, भाष्याद्यलोनावश्यकता च शिष्यत एव! किन्तु नव्यकौमुद्यां मूल एव स्वरसूत्रसम्बद्धं यत्सामान्यव्याख्यानम्, यच्च नानाटीकानां रहस्यं, भाष्यभावाश्चापि निगुम्फिताः तेन वास्तविकरूपेण सर्वं स्वरभ्रमविनाशो भवति । वैयाकरणकौमुद्यपेक्षया नव्यकौमुदी ह्यद्यत्त्वे स्वरप्रक्रियाविये झटित्यवबोधदाऽल्पमतीभ्योऽप्यध्येतृभ्योऽस्तीति तदध्ययनद्वारेण तुलनया च स्पष्टयितुं क्यते । नव्यकौमुद्यां कठिनशब्दानां हिन्द्यामर्था अपि प्रोक्ताः, येन तत्स्था स्वरप्रक्रिया हिन्दीभाषिजनेभ्यः अपि नितान्तं सरला जाता । एवमेव आदेशागमसुबन्तानां स्वरप्रकरणनिवेशेन आमन्त्रिताम्रेडितस्वरनिदर्शनेन, फिट्सूत्राणां बाध्यबाधकभावपुरस्सरव्याख्यानेन, समासस्वरावसरे, प्रत्येकं समासस्य पृथक्पृथक्स्वरनिदर्शनेन नव्यकौमुद्याः वैशिष्ट्यं स्पष्टमेव अस्ति । साधारणरपेण स्वरप्रक्रिया यद्यपि वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीद्वारेणापि जनैर्लब्धुं क्यत एव । तथापि नव्यकौमुद्यामस्त्येव किञ्चित्सारल्यं, तथ्यविख्यापकत्त्वं, युगानुरुपकत्त्वञ्च । एवमस्माभिर्बोद्धुं क्यते स्वरप्रक्रियायाः व्यावस्थितं समृद्धं महाभाष्यादिभावविद्योतकं च रपं नव्यकौमुद्यामेव प्राप्यते । स्वरसम्बन्धिभेदस्तूभयोरेव कौमुद्योः न दृक्पथमारोहति । यतो हि द्वयोरेव कौमुद्योः अष्टाध्यायीस्थसूत्राणामेव व्याख्या कृता, तत्कथं पृथग् भवितुं शक्यते । किन्तु क्वचित् क्वचित् व्याख्यानवैशिष्ट्येन, नानोदाहरणसमुल्लसिता च नव्यकौमुदी स्वरसम्बन्धिप्राकर्ष्यं यात्येव

 



[1] पा.सू.6-1-189

[2] पा.सू. 6-1-190

[3] पा.सू.6-1-167

[4] पा.सू.6-1-180

[5] पा.सू.6-1-223

[6] पा.सू.6-2-177

[7] पा.सू.8-1-19

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