पहले से ही लिखा हो जैसे ऐसा जीवन मेरा
मिला हो जैसे बसा बसाया, ऐसा उपवन मेरा
कभी-कभी लोगों को जीवन समझ नहीं आता है
नये-नये घटनाक्रम में यह उलझा सा जाता है
जैसे कोई देखता हमको, उस आसमान के पारे
जैसे बाट जोह रहे हों, चमकीले से तारे
जैसे इंद्रधनुष के रंगों में जीवन लिपटा हो
जैसे खुद के मन के भीतर जगत् सकल सिमटा हो
जैसे लिखी हुई गाथा को हमको कोई सुनाए
जैसे बुने हुए कपड़े को बस तन पर पहनाए
जैसे मिल जाते हों पिछले भाग्य प्रकट होकर के
वैसे ही जीवन हमको मिलता है निकट होकर के
जैसे कोई सरगम गाए आकर्षित सी करती
जैसे कोई कविता गाए मन हर्षित सी करती
वैसे ही कुछ नगर अदृश्य हो खड़े हैं अपने अंदर
अंदर भावों की नदियां, कर्मों के सात समंदर
जैसे घर तैयार खड़े हों, पहले से बने बनाए
जैसे दुनिया सजी हुई हो,किस्सों सी कही-सुनाई
जैसे बस संसार की अन्तिम लहर समेटे हमको
जैसे उन लोकों के वासी पास बुलाएं हमको
वैसे ही यह कथा सकल है बुनी हुई पहले से
जैसे रामायण की गाथा लिखी हुई पहले से
जैसे काकभुशुण्डि जी गाते हों युगों युगों से
जैसे और श्री वैनतेय सुनते हों युगों-युगों से
जैसे या फिर शिवजी का यह जप अखंड चलता है
प्रलय होय या सृष्टि उनका तप अखंड पलता है
जैसे प्रभु के दृष्टि मात्र से संसृति और विध्वंस
जैसे पुण्यों के मानसरोवर में शोभित हो हंस
ऐसे ही मानव भी अपने कर्मों को पाकर के
अनजाने में दुखी होए, पर वस्तु को अपनाकर के
जो जो अर्जित किया तुम्हारा कहीं नहीं जाता है,
किसी रूप में वह तुमको फिर से मिल जाता है
अपनी आंखों से देखोगे फाड़ जन्म के पर्दे
मनस् लोक से झाड़ सको यदि विस्मृति के ये गर्दे
सब कुछ तब सुस्पष्ट तुम्हें यह कथा समझ आएगी
मस्तिष्कों में फंसी हुई हर बात सुलझ जाएगी
और जिसे कल्पना कहकर तुम निरस्त करते हो
स्वप्न मात्र में सुनी जल्पना सा समस्त करते हो
मैं कहता वह सत्य, कि बस आंखें बंद तो होने दो,
इस जिसको तुम सच माने, उसे सपना तो होने दो,
तांबें से निर्मित दीवारों जैसे भवन बनें हैं
कहीं रजत और स्वर्ण, रत्न के भी तो नगर खड़े हैं,
और जो तुम कौपीन मात्र में आत्म तत्व अन्वेषी
धूल-हेम में समदृष्टिक जगती के एक हितैषी
और कि तुम जो पाते हो यह जन्म गंग के तीरे
और कि तुम पाते किस्मत की बड़ी बड़ी लकीरें
ये सब भी तो वहीं बैठकर लिखे गयें हैं अक्षर
जहां कि रस्ता सीधा जाता शिव के धाम अनश्वर
और भ्रांति की दीवारों को ऐसे नष्ट करो तुम
हृदय प्रेरणाओं से अपने संशय ध्वस्त करो तुम
ये जो वर्षा,शरद, शीत, तपता है ग्रीष्म, हेमंता,
खिलता मौसम,बहती हवाएं, और छाता है बसंता
ये सब उस परमाक्षर से ही सृष्ट किए जाते हैं,
जंगल-जंगल वहीं हरे, उत्कृष्ट किए जाते हैं
वह भावों का लोक निराला, लेश नहीं दारिद्र्य
जो है सच्चा वही पाएगा शैव-लोक-सामृद्ध्य
और जो इस संसार की सम्पत्ति में डूब गए हैं,
पाप-कर्म में रमे हैं, दोष-पथों में खूब गये हैं,
उनके लिए बंद कर देते स्वर्गों के दरवाज़े
आती रहती हैं उनको यमदूतों की आवाजें
जीवन की यह कथा विचित्रा कौन समझ पाया है,
उसने उतना कहा कि जिसने, जितना गुन पाया है,
जीवन क्या है, होते हो यदि, तुम भी शङ्का-ग्रस्त
धर्म करो और राम भजो बस, सदा रहोगे मस्त
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हिमांशु गौड़
१०:३५ पूर्वाह्ण,
१२/०९/२०२१
उदयपुर
इस कविता में कवि ने जीवन की अद्वितीयता और रहस्य को बयां किया है। यह कविता जीवन के अनगिनत पहलुओं को चित्रित करती है और व्यक्ति के जीवन को एक पुनरावलोकन के रूप में प्रस्तुत करती है।
ReplyDeleteइस कविता में बताया गया है कि जीवन कई पहलुओं से भरपूर होता है, और व्यक्ति को इसे एक दूसरे से तुलना करने के माध्यम से समझने की जरूरत है। यह भी दिखाया गया है कि जीवन में सभी प्रकार की गतिविधियां होती हैं, और हर कार्य का अपना अर्थ और महत्व होता है।
कवि ने इस कविता के माध्यम से मानव जीवन की गहराइयों को और उसके रहस्यों को व्यक्त किया है, और यह भी बताया है कि ज्यों किसी विशेष स्थिति या दृष्टिकोण से देखा जाए, तो जीवन का सच और उसकी महत्वपूर्ण मुद्दे हमेशा स्पष्ट नहीं होते।
कवि के शब्दों से प्रेरित होकर, हमें जीवन को और भी गहराई से समझने का प्रयास करना चाहिए और उसकी अद्वितीयता को समझने का प्रयास करना चाहिए।