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जगज्ज्वरग्रस्त:, संस्कृत पद्य हिन्दी सहित

 

|| जगज्ज्वरग्रस्तदशां निरूपयति -

 [[ सांसारिक विषय रूपी ज्वर से ग्रस्त मनुष्य की दशा का निरूपण करते हैं ]]

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क्रीणानि सर्वभुवनानि सुखी भवानि

चन्द्रानना: घटकुचीर्गृह आनयानि

इत्थं विचिन्तयति लोकगते मनुष्ये 

हा हन्त हन्त मरणं, वय उज्जहार


"""मैं सारी दुनिया को खरीद डालूंगा! मैं खूब सुख से रहा करूंगा! चांद के जैसे चेहरे वाली सुंदर स्त्रियों को अपने घर में लाऊंगा!""" इस दुनिया में आया हुआ आदमी ये सोचता ही रहता है (इन बातों में उलझा रहता है) और उसे पता भी नहीं चलता कि कब मौत आ कर उसकी उम्र को उखाड़ फेंकती है!!


स्वीयात्तपोबलत एव नृपो भवानि

एतानि दिव्यनगराणि धनान्नयानि

हो कामदेवसुकुमारवपूंषि धृत्वा

योषिद्भिरत्र रजनीषु रमै - विचिन्त्य


""अरे, मैं अपने परिश्रम और तपस्या के बल से राजा बनूंगा! इन सारे सुंदर शहरों को अपने पैसे से खरीद डालूंगा! मैं तो कामदेव जितना सुंदर शरीर बना करके, चांदनी की चमकती रातों में रमण करूंगा"" --- ऐसा सोचता हुआ मनुष्य--


अग्रिमे कथयति किं -


पापं करोति न शृणोति सतां सुवाक्यं

नित्यं धिया च मनसा कुपथं वृणोति

स्वीयान्पितॄनपि गुरून्सुहृदो विहाय

धावेद्दिशासु रमणीरतिलब्धुकाम:


उपर्युक्त सोच रखता हुआ मनुष्य , ना जाने कब पाप के रास्ते पर चला जाता है! संतों-महात्माओं की वाणी को सुनता नहीं! अपनी बुद्धि,मन और दिल को बुरे रास्ते पर डाल देता है! अपने हितैषी, गुरु, पिता और अच्छे दोस्तों की बातों को सुनता नहीं! उन्हें छोड़कर, गली-गली में भटकता फिरता है।


किं किं करोति कटुतां न सुहृत्सु वैरं

किं नाचरेत्सकलकल्मषमानसत्वात्

मूत्रैकमार्गरतिमान् हतधीस्स नीचो

यायादितश्शतसमं नरकं ह जीवन्


कूटनीति , कड़वाहट, अपने ही लोगों से बैर करना , और ना जाने क्या-क्या पाप, मनुष्य नहीं करता? सिर्फ पैसे के लोभ और कामुकता के अधीन होकर! मति मारी गई है जिसकी ऐसा मनुष्य जिंदा रहता हुआ भी सौ-सौ तरह के नरकों को देख लेता है।


स्वीयं समस्तचरितं मलिनीकरोति

कामो धनं च पुरुषं ह्यधमीकरोति

एष स्मरो मरणगं ह्यपि वृद्धदेहं

नो नो जहाति जरसं हरिणीकरोति


अपने पूरे व्यक्तित्व को ही मलिन कर डालता है,

ये काम और धन मनुष्य को अधम कर डालता है !

मरने को तैयार बूढ़े शरीर वाले आदमियों को भी,

छोड़ती नहीं, यह वासना हरिण कर डालती है!


वार्तास्तु का तरुणतापरिदीप्तयूनां

चर्चास्तु कोच्चकुचसङ्गमतत्पराणां

हा भक्षयेदपि विषं न पतेच्छिवारौ*

यो वर्धितश्शिवपथे जनिहानिवीप्सु:


जब बुड्ढों का यह हाल है, तो) नई जवानी की आग है जिनके अंदर, उनकी बात ही क्या! नई-नई औरतों के संगम को तत्पर रहने वाले लोगों की बात ही क्या! लेकिन भाई मैं एक बात कहता हूं, अगर वास्तव में आप इस जन्म-मरण के चक्कर से छूटना चाहते हो, और कल्याण के रास्ते पर थोड़ा भी चल पड़े हो, तो बेशक ज़हर खा लो, लेकिन इन अधम इच्छाओं के रास्तों पर मत चलो!


(*शास्त्र में यह वचन दूसरे तरीके से भी ऐसे भी मिलता है - सन्दर्शनं हि धनिनामुत योषिताञ्च, हा हन्त हन्त विषभक्षणतोऽप्यसाधु:।)



वेदान्विदीर्य पथि वीथिषु निक्षिपन्तु

भ्राष्ट्रेषु भाष्यशतकं च विभृंश्य भेद्यम्

पिष्ट्वा पुराणमपि पातयताज्जलेषु

इत्थं स्मरोद्गलितमानसयुङ्विजल्प:¶


(कामुकता में अन्धा हुआ मनुष्य, शास्त्रों के वचन को बिल्कुल नहीं सुनता समझता है! अगर वे शास्त्रों के वचन उसके रास्ते में रुकावट बनते हैं, तो वो ऐसी बातें भी कहता है कि) - वेदों को विदीर्ण करके रास्तों में , गलियों में फेंक दो ! सैकड़ों भाष्यों को भ्रष्ट करके भाड़ में झोंक दो! पुराणों को पीसकर पानी में बहा दो! इस तरह कामदेव ने गला दिया है मन जिसका, वह इस तरह की विजल्पना करता है।

¶जो लोग शिवराजविजय पढ़े होंगे, उन्होंने इस इस श्लोक को गद्य के रूप में भी देखा होगा।

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हिमांशुर्गौड:

०९:३८ रात्रौ,

२०/०१/२०२२


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