हालेण्डदेशे शुभधर्मसंस्थां
संस्थापनायेह कृतप्रयत्न:
श्रीब्रह्मदेवस्य सुतश्शिवाढ्य:
श्रीशङ्करोऽसौ द्विजधर्मगुण्य:||१||
|| केतुमालेश्वरं पूजयामो वयम् ||
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ब्रह्मदेवस्य पुत्रो ह्यसौ शङ्करो
भव्य-हॉलेण्डदेशे शिवश्रद्धया
सत्यधर्मप्रचाराय सङ्कल्पवान्
केतुमालेश्वरं मन्दिरं भावयेत्||१||
भगवान् शिव में श्रद्धा होने के कारण, तथा सत्य सनातन धर्म के प्रचार के लिए जिन्होंने संकल्प लिया है , ऐसे आचार्य शङ्कर उपाध्याय जी ने इस भव्य हॉलैंड देश में केतुमालेश्वर मंदिर की भावना की है।
यो विदेशे स्वदेशे प्रदेशेष्वपि
भक्तचित्तेषु सर्वत्र संवर्तते
यत्कृपा यद्दया जीवनोद्धारिणी
केतुमालेश्वरं शङ्करं तं भजे ||२||
चाहे विदेश हो, चाहे स्वदेश हो, चाहे कोई सा भी प्रदेश हो, हर जगह अपने भक्तों के हृदयों में जो रहते हैं, जिन की कृपा और जिनकी दया, इस जीवन का उद्धार करने वाली है, उन भगवान् केतुमालेश्वर शिव का मैं भजन करता हूं।
श्रीगणेशेन गौर्य्या कुमारेण च
नन्दिना वन्दिना शोभितो दृश्यते
देव-रक्षो-मुनीशैर्नृभि: पन्नगैस्
संस्तुतं केतुमालेश्वरं भावये||३||
श्री गणेश, गौरी , कार्तिकेय , नंदीश्वर, तथा वन्दना करते भक्त - इनसे जो शोभित दिखाई देते हैं ! देवता, राक्षस, ऋषि-मुनि, मनुष्य, नाग - ये सब जिनकी स्तुति करते हैं, ऐसे भगवान् केतुमालेश्वर की मैं भावना करता हूं।
जानकी-जानकीशं वरं लक्ष्मणं
तत्समक्षस्थितं मारुतिं पूजये
जन्मनां ग्लानितो मां समुद्धारयेद्
रामनामाक्षरं भीतिसंहारकम्||४||
सीता के सहित बैठे हुए श्रीरामचन्द्र, श्रेष्ठ लक्ष्मण और उनके ही सामने बैठे हुए हनुमान् जी की मैं पूजा करता हूं । राम ये जो दो अक्षर का नाम है, ये भय का नाश करने वाला है, तथा मेरी जन्मों-जन्मों की ग्लानि से मेरा उद्धार करे (जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाए)।
कार्न-हार्नाख्यदेशे च गङ्गाजलै:
पावनं तद् विधाय प्रियं मन्दिरं
स्थापितं हिन्दुभक्ताय शोभायुतं
यैरुपाध्यायवर्यान् नुमश्शङ्करान्||५||
हिन्दू भक्तों के लिए शोभायमान, प्रिय मन्दिर, जिसे गङ्गाजल से पवित्र करके कार्न-हार्न इस स्थान पर बनाया गया है, मैं उन मन्दिरस्थापक आचार्य शङ्कर उपाध्याय को भी नमन करता हूं।
पञ्चदेवार्चना पुण्यदा सौख्यदा
श्रद्धया लोक आचर्यते सर्वदा
अत्र सर्वत्र धर्मप्रचाराय तत्
केतुमालेश्वरं मन्दिरं स्थाप्यते||६||
गणेश, दुर्गा, विष्णु,शिव, सूर्य - इन पञ्च देवताओं की उपासना, पुण्य और सुख प्रदान करती है! इनकी पूजा हम सभी हमेशा श्रद्धापूर्वक करते हैं! इसी हमारे धर्म का, यहां, वहां, हर जगह प्रचार हो, इसलिए इस केतुमालेश्वर मंदिर की स्थापना की गई है।
चन्द्रभालं धनुष्पाणिमुद्धारकं
राधयालिङ्गितं वासुदेवं वरं
भावये सिंहरूढां च दुर्गामहं
केतुमालेश्वरं शङ्करस्थापितम्||७||
जिनके माथे पर चन्द्रमा है वे भगवान् शिव, धनुष् हाथ में धरने वाले, उद्धारक भगवान् राम, राधा के द्वारा आलिङ्गित श्रीकृष्ण, शेर पर सवारी करने वाली माता दुर्गा, और आचार्य शङ्कर द्वारा स्थापित केतुमालेश्वर शिव - इन सबकी मैं अपने मन में भावना करता हूं, नमन करता हूं।
श्रीयन्त्रस्था तु या देवी सर्वलोकेश्वरी शुभा।
भोगं मोक्षं प्रयच्छेन्मे माता त्रिपुरसुंदरी।।८||
श्रीयन्त्र में स्थित देवी, जो इस पूरे ब्रह्माण्ड की नायिका हैं, शुभ प्रदान करती हैं, ऐसी माता त्रिपुरसुन्दरी मुझे भोग और मोक्ष प्रदान करें। (जहां भोग है वहां मोक्ष नहीं, जहां मोक्ष है वहां भोग नहीं, किन्तु ऐसी प्रसिद्धि है, कि जो त्रिपुरसुन्दरी की उपासना करते हैं, उन्हें भोग और मोक्ष दोनों मिल जाते हैं, इसलिए कवि का यह उपर्युक्त वचन है)।
अनन्तबोधचैतन्यप्रेरितेन हिमांशुना
केतुमालेश्वरस्यैषा स्तुतिर्हृद्या कृता मुदा||९||
स्वामीश्री अनन्तबोधचैतन्य जी से प्रेरित होकर हिमांशुगौड़ ने भगवान् केतुमालेश्वर की हृदय को प्रिय लगने वाली स्तुति की आनन्दपूर्वक रचना की।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा बढ़ाने गए हों, नुकसान तो उन सरोवरों का ही है, जिनका ऐसे सुंदर राजहंसों से वियोग है।। अर्थात् अच्छे लोग कहीं भी चले जाएं, वहीं जाकर शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन हानि तो उनकी होती है , जिन लोगों को छोड़कर वह जाते हैं । *छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति* *तिष्ठन्ति स्वयमातपे।* *फलान्यपि परार्थाय* *वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।* अर्थात- पेड को देखिये दूसरों के लिये छाँव देकर खुद गरमी में तप रहे हैं। फल भी सारे संसार को दे देते हैं। इन वृक्षों के समान ही सज्जन पुरुष के चरित्र होते हैं। *ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव* *गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।* *गुणात् गुरुत्वमायाति* *दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।* अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है, यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है। *अर्थार्थी यानि कष्टानि* *सहते कृपणो जनः।* *तान्येव यदि धर्मार्थी* *न भूयः क्लेशभाजनम्।।*...
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