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दिवङ्गतेभ्यश्श्रीस्वरूपानन्दसरस्वतीमहाराजेभ्यश्श्रद्धाञ्जलि:

 

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द्वैताद्वैतपथैश्च साङ्ख्यशरणैर्नैयायिकैश्शाब्दिकैर्

देवप्रार्थनतत्परैश्शिवरतै: पौराणिकैरन्वहं

वेदोल्लासितमानसैरपि च यो मीमांसकैर्वन्दितस्

सोऽयं शङ्करतां गतश्शिवगृहं श्रीमत्स्वरूपाभिध:||१||


जीवेम क्व वयं भवद्विरहिता याम क्व दु:खाहता:

किं वा निश्श्वसिमोऽपि विश्वसिम उद्भ्रान्ता इव स्मोऽधुना

हा हा हन्त विहाय धर्मनगरीसम्राड्गतो भूतलात्

स्वामिश्रीकरपात्रदीक्षितगुरुश्श्रीमत्स्वरूपाभिध:||२||


चत्वारस्सकलेऽपि भारत इह भ्राजन्त उत्कर्षदा

आद्याच्छङ्करपादपूज्यपदकाच्चीर्णा सुखानाम्प्रथा

सोऽसौ पीठयुगे विराजितवपुर्धर्मश्रियोद्भ्राजितश्

शैवं लोकमगाद्विहाय पृथिवीं पूज्यस्स्वरूपो गुरु:||३||


विद्वान्सो बहवो निशादिनमहो येनात्र सम्पोषिता:

धूर्ता: म्लेच्छजनाश्च धर्मनगराद् दूरीकृता येन च

बुद्ध्यातङ्कभृतां विनश्य च भयं, धर्मश्च संस्थापितस्

सोऽयं वेदवतां वरो दिवमगात्स्वामी स्वरूपाभिध:||४||


धिग्धिग्धिग् वयमद्य स्वात्मपुरुषान्पूज्यांश्च विस्मृत्य हा

वित्तार्थं च पिशाचराजपदवीं यामो ह्यलज्जान्विता:

रे रे वेदपुराणधारिपुरुषा: देवार्चनासंरता:!

सोऽस्मद्धर्मगुरुर्गतो दिवमितस्तस्मै क्षणं दत्त व:||५||


वादान् कुत्सितमानसांश्च मलिनान् योऽध्वंसयद्वै द्विषां

श्रद्धाश्रीपरिशोभितान् स्वपुषा हास्येन योऽवर्धयत्

वीक्ष्यैनं सकलास्समाजफलका हृष्यन्ति धर्मप्रियास्

सोऽसौ देवपुरं प्रयात इति नश्शान्तिर्न चित्तेऽधुना||६||


देहो नाम पदं जनिश्च मरणं सर्वं ह्यसत्यं मृषा

वैराग्येण विलोकयन्ति सुजनास्तद्ब्रह्म साक्षादिव

किन्त्वस्मादृशलोकजालनिगडाबद्धास्तु दु:खाकुला

स्वामिश्रीगणभूषणश्शिवपुरं यातो विहायैहिकम्||७||


हा हा हा ध्वनिरद्य सर्वधरणीं व्यापृत्य चैवं नभस्

संश्रूयेत सुरैरपि स्वपुरि तैर्हस्तस्थपुष्पैरहो

मोदस्तत्र, भुवीह दु:खमिति संव्यग्रा: सुरा मानुषा

यातायातभृतो दिवि प्रभवताद्वैमानिकस् सत्पथ:||८||


शब्दार्थं परिपाठयन्द्विजगणान्वेदार्थमुद्बोधयन्

शास्त्रार्थं परिकारयन् बुधजने सत्यार्थमुत्पादयन्

शैवार्थं परिदर्शयन् जगति यो दिव्यार्थमुद्भासयन्

देवार्थं गतवान् दिवं गुरुरसौ श्रीमान्स्वरूपाभिध:||९||


पुण्यापुण्यविवेकशीलपुरुषैर्यो निश्चयार्थं चित:

सत्यासत्यसमुत्सुकैर्जनवरैर्यो वेदनार्थं श्रित:

ज्ञाताज्ञातबहुप्रकारकमलध्वंसाय यो ध्रीयते

सोऽसौ धर्मभृतां सतां सुखकरो ब्रह्मत्वपन्नोऽधुना||१०||


रज्जौ सर्प इति भ्रमाद्भवति यो बुद्धौ नृणां भावना

तद्वद्ब्रह्मणि लोकदर्शनमिति ज्ञायेत तत्त्वप्रियै:

इत्याकारकसत्यरूपपदकादर्शी प्रकर्षी गुणैर्

गीर्वाणालयमुच्चकासत इतो गत्वा स्वरूपो गुरु:||११||


श्रद्धां गाणपते कुरुध्वमधुना बुद्ध्यै स्वशुद्ध्यै जना:!

वृद्धिं तर्हि समश्नुत प्रतिपदं तत्पादपूजारता:!

इत्याद्यादिसुरेशदेशपदकप्रीतिश्रियाम्प्रेरकं

वन्दे घ्राणरसादिदोषरहितं स्वर्वासिनं सद्गुरुम्||१२||


"हेमन्त: प्रभवेच्छरद्विकसति प्रावृट् च संवर्षति

ग्रीष्मस्तापयति प्रियश्च नितरां बाभात्यहो शारद:

वासन्तं रमणं सुखं" - "नहि सखे! गृह्णाति मृत्युश्शिरष्

षड्भिर्नात्मविमुग्धिमेहि" - वदति स्म श्रीस्वरूपो गुरु:||१३||


लोको भीतिकरो गृहं क्व मम चेत्याच्छन्नचित्तो भवेत्

यात्रा क्वैतु समाप्तिमित्यथ जनस्सञ्चिन्त्य विष्णुं भजेत्

कौटिल्यं भयदं जगन्न सुखदं यानि क्व चिन्तान्वित:

आत्मान्वेषणतत्परो भव सदा - श्रीमत्स्वरूपोऽवदत्||१४||


"पुत्रस्स्त्री गृहमर्थमस्तु सुजना:! लेशं न नो वास्तवं

मृत्यौ नैव तृणं सहैति जगतश्चेत्येव सन्धार्यताम्

भेकस्सर्पमुखस्थितोऽसि रमसे संसारचक्रे कथं"

रात्रौ यो वदति स्म चिन्तनवशात् सोऽसौ स्वरूपो गुरु:||१५||

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हिमांशुर्गौड:

०९:५१ रात्रौ

११/०९/२०२२


https://archive.org/details/20220912_20220912_1019

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