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॥अशोक जी सिङ्घल भारतात्मा ॥ (संस्कृत-काव्यम्) हिमांशुगौड़

आतिथ्यसद्भावसुधाभिसक्तो

माहात्म्यलोकेषु सदैव सक्तो

सद्धर्मकार्ये हृदयेन रक्तो

हि-अशोकजीसिङ्घल भारतात्मा॥१॥


अङ्गं च बङ्गं ह्यथवा कलिङ्गं

मद्रश्च कार्णाटकमल्लयालम्

हिमाढ्यदेशो जलधिप्रदेशो

एकीकृतो येन नुमो ह्यशोकम्॥२॥


गङ्गातटं वा यमुनातटं वा

सरस्वतीतीर उतास्तु रम्य:

प्रयागराजेऽस्तु तथा त्रिवेणी

एकत्वनिष्ठोऽस्त्यथ भारतात्मा॥३॥


देशे विदेशे निजधर्मवक्ता

"सङ्घ"स्य शक्ते: परिवर्धको य:

हिन्दूद्धृतौ जीवनदानकर्ता

अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥४॥


अयोध्यया यत्प्रथितं यशश्च

श्रीरामसन्मन्दिरनिर्मितिश्च

हिन्दुत्ववादस्य यशस्तनोति

अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥५॥


प्राणप्रिया वै खलु मानवाश्च

धर्मप्रियास्सन्ति महात्मलोका:

प्राणप्रमोहं च विहाय रामा-

लयस्य कार्ये रतभारतात्मा॥६॥


जीवन्ति केचिद्धि धनार्जनाय

परे तु केचिद्यशसोऽर्जनाय

धर्मार्जनायापि परे प्रलग्ना:

रामार्जनायास्ति च भारतात्मा॥७॥


यत्संस्कृतेर्मूलमहो गरीयं

यज्जीवनं सौख्यमये युनक्ति

तद्भारतस्यान्तर्हितधर्मरूपं

प्रसारयेत् तत् खलु भारतात्मा॥८॥


वेदेषु सर्वं निहितं सदैव

त्रिकालसत्यं च सदैव वेदा:

तद्रक्षणाय प्रथितप्रयत्नो

अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥९॥


वेदाच्च शास्त्राणि समुद्भवन्ति

विज्ञानमूला श्रुतिरेव मुख्या

नारायणान्नि:श्वसितस्य रक्षा

तद्ब्राह्मणानां च सदैव धर्म:॥१०॥


तस्यैव कार्यस्य सुनिश्चयार्थं

विप्रप्रसादप्रतिवर्धनार्थं

सम्माननार्थं ननु वैदिकानां

समुद्भवेद् योऽखिलभारतात्मा॥११॥


सङ्कल्पवीरो भुवि कर्मनिष्ठो

जातोऽद्भुतो वेदनिधिर्वरिष्ठो

बुद्ध्या तथा योजनया गरिष्ठश्

शिष्टो ह्यशोकोऽखिलभारतात्मा॥१२॥


मोहान्धकारे निपतन्ति जीवा:

पापेषु कर्मस्वपि खिन्नचित्ता:

कथं विरामं लभतां च शान्तिं

रामे रमध्वं भवहं भजध्वम्॥१३॥


सन्मार्गमेवं परिसंश्रयध्वं

सर्वं हनूमत्प्रभवे कुरुध्वं

एधध्वमर्थे नहि रे ह्यनर्थे

स्पर्धध्वमध्वन्यथ रामनाम्न:॥१४॥



................प्रवर्तमानम्


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