अंबर भी शोक मनाता है!
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लेकिन अंबर में प्राण कहां,
है भावगंध को घ्राण कहां,
इस विरह, वियोगी जीवन को,
भावुक मन ना सह पाता है,
हो भरी भीड़ इस दुनियां में,
पर किसी से न कह पाता है
पत्थर हो जाते हैं वो दिल,
जीते जी वो मर जाता है,
जिसका जिससे जो बिछड़ गया,
फिर कहां वह मिल पाता है।
मानव, पशु पक्षी भी अपनों
की याद में रोते रहते हैं,
तारे जब टूटे हैं नभ से,
ना हमें दीख वह पाता है,
बारिश कर करके याद उन्हें,
अंबर भी शोक मनाता है।
बच्चन जी की इस कविता का
उद्देश्य अलग है, पर दिल से
जो उठा भाव का वेग अभी,
वो कौन रोक फिर पाता है,
मैं फिर कहता हूं सच मानो,
हर अपने बिछड़े की खातिर,
मानव की तो है बात ही क्या
अंबर भी शोक मनाता है!
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हिमांशु गौड़
०५:१३ शाम
१७/०३/२०२३
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