उसे छांव का पता ही क्या, के जो धूप में चला नहीं,
उसे बारिशों की ना कद्र है, के तपन में जो जला नहीं
है उम्मीद पे ही कायनात टिकी तू क्यों मचल रहा,
है कोई भी ऐसा ग़म नहीं, जो कि वक्त से मिटा नहीं
ये जुनूने आफ़ताब है, इसे क्या कोई मिटाएगा,
सौ काली रातें भले ही हों, सुबहे-उज़ाला झुका नहीं,
जो अंधेरों में रहा नहीं, उसे रोशनी की न कद्र है,
क्या प्यास को जानेगा वो, सहरा में जो जिआ नहीं
बनते हैं सब ही देवता, अमरित पिए जीते हैं जो,
क्या शिव को पहचाना कि जिसने, विष कभी पिआ नहीं!
नहीं लफ्ज़ कोई उस हकीकत को बयां करता जिसे,
कहते सभी जज़्बात हैं, ज़ाहिर कभी हुआ नहीं!
मैं कि हूं ये पुरवाई हवा यादों को जिंदा रखती जो,
आंधी से वक्त की फैलता, ऐसा मैं कोई धुंआ नहीं!
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हिमांशु गौड़
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