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प्राप्त को पर्याप्त मानो! हिन्दी कविता हिमांशु गौड़

 प्राप्त को पर्याप्त मानो!

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मन हो यदि उद्भ्रांत मानो, बहुत ही अशांत मानो

दौड़ते धन के लिए जो, प्राप्त को पर्याप्त मानो


थोड़ा सा जीवन-मधु यह, युवा-तन मुग्धा वधू यह,

ग्राम का आराम-गृह यह, इसी को संसार जानो

प्राप्त को पर्याप्त मानो


बन गये यद्यपि विजेता, विश्व के एकमात्र नेता 

युग के या उद्भट प्रणेता, आंख मूंदोंगे तो सब कुछ

खो गया साम्राज्य मानो, प्राप्त को पर्याप्त मानो


मैं नहीं कहता कि भूखे मरो, तुम कर्तव्य छोड़ो

मैं नहीं कहता कि धन से, तुम कभी आनन सिकोड़ो

हाय माया में ना अपना जनम घुट घुट कर गुजारो

प्राप्त को पर्याप्त मानो 


किंतु सब कुछ खेल सा है, लगता अब बेमेल सा है

सिसकती सी ज़िंदगी की, अवधि कुछ समाप्त जानो

प्राप्त को पर्याप्त मानो


काम जो कुछ हैं अधूरे, कर सके ना जिन्हें पूरे

उनका पश्चात्ताप कैसा, हृदय में सन्ताप कैसा 

जितना भी तुम कर सके हो, उसे ही सत्यार्थ मानो

प्राप्त को पर्याप्त मानो 


झूठी रिश्तेदारियों से, तुम भी कुछ दूरी बना लो

सर्दियों में चाहतों की ऊन का कंबल सिला लो


जो तुम्हें दे दिल उसे तुम, इश्के-घर दिलबर बना लो

हो अंधेरा चाहे जितना, आस का दीपक जला लो


जो तुम्हारे अपने रूठें, सौ दफ़ा उनको मना लो

बीत जाए ना उमर यह, जल्दी कोई फैसला लो


जिंदगी को कर दिया गमगीन इस बद्किस्मती ने

अब मिले मौके को ही खुशकिस्मती सरगम बना लो


देखो ना नासूर बन जाए है दिल का जख्म ये

इश्के-मोहब्बत का कोई, इसपे फिर मरहम लगा लो 


इक गई तो ग़म ही क्या, आतीं बहारें फिर नई

फूल मुरझाए तो क्या, खिल जाती फिर कलियां नई

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हिमांशु गौड़

०९:२३ रात्रि

१४/०२/२०२३


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