२००३ में "नश्चापदान्तस्य झलि" की वृत्ति जब भी पाठ आवृत्ति करते समय सामने आती थी, तो एक लय (लहर) स्वयं बन जाती थी - नस्य मस्य चापदान्तस्य झल्यनुस्वार:।
इसी तरह और भी अनेक सूत्र हैं , जिनके बहुत से छात्रों ने गाने ही बना रखे थे ।
एक विद्यार्थी था ।
उसकी यह आदत थी , कि वह बहुत ही उछल-उछल कर चलता था, कुलांचें भरते हुए।
और जब वह कक्षा 10 में था, तो समास और कारक पाठ्यक्रम में लगे हुए हैं ।
तो समास में एक सूत्र आता है , वह उसको गा-गाकर बोलता था - अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तैरल्पश: ।
"इको यणचि", "झलां जश् झशि" जैसे सूत्रों के भी गाने बना रखे थे लोगों ने। एक नई ट्यून की खोज।
तो मेरे ख्याल से शिक्षाशास्त्र में जो स्मरण करने की पद्धति बताई गई हैं , उसमें से एक यह भी बहुत अच्छी विधि हो सकती है - गा-गा कर याद करना।
इससे दीर्घकाल तक याद रहता है , क्योंकि उसके विषय में बालक कंफर्टेबल हो जाता है।
खैर।
"अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:" का मैंने पूरा लाभ उठाया। अभी भी मैं शब्दों के मध्य में जो अनुस्वारान्त शब्द होते हैं उनको इस सूत्र का ही उपयोग करके, विशेषत: काम चलाता हूं - अस्तङ्गच्छति, पुष्पञ्चिनोतीत्यादिषु।
और णिनि प्रत्यय का मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूं, जो मेरे बहुत काम आया है ।
साथ ही साथ २२ उपसर्गों (विशेष रुप से प्र,परि,वि, उत्, ) का भी धन्यवाद अदा करता हूं ।
जीवन में एक-दो बार , अच् प्रत्यय का प्रयोग मैंने भ्रांति से अघटित स्थान पर भी किया था, लेकिन बाद में गुर्विङ्गितों से सुधार दिया।
मेरे ख्याल से कृदन्त प्रकरण ने संस्कृत बोलने वालों की जितनी सहायता की है , जितना संस्कृत को सरल कर दिया है , वह सराहनीय है ।
लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष या नुकसान कह लीजिए, यह भी हुआ, कि इस कारण से अब आदमी सारे लकारों को याद करना ही भूल गया।
सारे लकारों की प्रक्रिया ही भूल गया ।
अब वैयाकरणों को भी लकारों की वह प्रक्रिया ठीक से याद रहती नहीं , क्योंकि जब भूतकाल में क्त प्रत्यय का प्रयोग कर देते हैं , तो लङ् लुङ् तो खत्म हो ही गये।
और फिर तव्यतव्यत् अनीयर् का ही हर जगह प्रयोग करने के कारण विधिलिङ्लकार को भी लोगों ने खत्म सा ही कर रखा है ।
बहुत कम ही जगह बहुत गिनी चुनी धातुओं का ही विधिलिङ् , लोग प्रयोग करते हैं , अन्यथा
तव्यतव्यत् अनीयर् का प्रयोग करके - मया गन्तव्यम्, तेन भोक्तव्यम्, भवद्भि: वर्धनीयम् ,
इत्यादि का प्रयोग करके निकल लेते हैं जिससे वह विधिलिङ्लकार की विशिष्ट धातुओं के प्रयोग से वंचित रह जाते हैं। अब भू , वर्ध, कृ , गम् , खाद् , क्रीड , चल , इन सामान्य धातुओं , जिनमें विशेष प्रत्यय प्रयोग की आवश्यकता होती नहीं , उनको ही रट्टा मार कर और "भयंकर संस्कृत बोलने वाले" कहलाते हैं ।
वैसे मैं यह नहीं कह रहा कि हर जगह विधिलिङ् लकार या भूतकाल में लङ् या लुङ् का ही प्रयोग होना चाहिए।
यह सब वस्तुतः औचित्य,परिस्थिति और साहित्य के अनुसार होता है । किस जगह कृदन्त प्रत्यय का प्रयोग करना है और किस जगह तिङन्त का, इस बात का विवेक, यदि वक्ता या लेखक अपने भाषा या लेखन में कर लें, तो भाषा बड़ी रोचक हो जाती है। और अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहती है ।
वैसे कवि लोग ऐसे भी प्रयोग करते हैं कि कहीं-कहीं तिङन्तों की ही भरमार, और कहीं कृदन्तो की भरमार!
लेकिन वह चीज अलग है , वह कवि भाषा में रोचकता उत्पन्न करने के लिए कभी सर्दी ही सर्दी , कभी गर्मी ही गर्मी, और कभी बरसात ही बरसात की तरह प्रयोग करते हैं। वह कवि के विचार वैशिष्ट्य को दर्शाती है , वह कवि के कौशल को दर्शाती है ।
लेकिन यह बात आधुनिक संस्कृतज्ञों हेतु है कि हम किसी भी चीज के यदि सिर्फ एक ही अङ्ग का प्रयोग करें , दूसरे अङ्ग को बिल्कुल ही छोड़ दें , या किंचित् मात्र ग्रहण करें, तो फिर वह उसके स्वरूप के साथ न्याय नहीं है।
मुझे लगता है , सामान्य जो लोग हैं , उनको संस्कृत के प्रति उत्सुक करने के लिए तो यह सब ठीक है , किंतु जो संस्कृत के मूल, पारंपारिक विद्यार्थी हैं , उनको इतने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए ।
अपितु धातुओं की सूत्रों के द्वारा जो प्रक्रिया है , उसका ज्ञान कर उसको दिमाग में बैठा कर , यदि संस्कृत का लेखन या वाचन करें, तो वास्तव में संस्कृत के मूल स्वरूप को पकड़े रहेंगे , अन्यथा पल्लवग्राही ज्ञान में अटकना ज्यादा उचित नहीं।
भ्वादि में क्रादि नियम, सेट्-अनिट्त्व को ठीक से मस्तिष्क में बिठाना।
(जब हमने शुरुआती दौर (२००५-६, उत्तरप्रथम) में तिङन्त पढ़ना शुरू किया , तो "अच एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि" सूत्र को प्रायः भूल जाते थे। लेकिन फिर गुरुदिष्टावधान से एकचित्तता आई)
अदादि की प्रक्रियाओं को समझना।
(असलियत बताऊं, तो मैंने अदादि, जुहोत्यादि, तनादि, स्वादि को कभी ठीक से पढ़ा ही नहीं , या तो वाचम्-वाची की है, या दो-चार बार नजर ही घुमाई है , सिर्फ सिद्धान्तकौमुदी में।
क्योंकि पूरा साल सिर्फ भ्वादि पढ़ने में ही निकल गया।
उसका एक-एक शब्द हमारे इस तरह याद है ,जैसे पानी किसी भी बात को हजारों वर्षों तक याद रखता है । इसीलिए हम संकल्प करते समय हाथ में जल लेते हैं , क्योंकि जल हमारे संकल्प को याद रखेगा हमेशा ! और अगर हम संकल्प से हटें, तो वे वरुण देव कुपित हो सकते हैं)
लेकिन एक प्रकरण की भी प्रक्रिया को ठीक से यदि पढ़ लिया जाए,
तो अन्य प्रकरण समझने में आसानी होती है।
इसलिए जुहोत्यादि दिवादि में तो विशेष जगड्वाल नहीं।
चुरादि के णिच् का मन में बिठाना बड़ा
जरूरी है।
वैसे सिद्धान्तकौमुदी का एक भी अक्षर ऐसा छूटा नहीं , जो हमने गुरु मुख से ना पढ़ा हो (चाहे सामान्य निर्देश द्वारा हो)
सन्, क्यच् , काम्यच्, क्यङ् , क्यष् , णिच्-णिङ्, यङ्, यङ्लुक् और इनके ही अन्तर्गत कहीं होने और कहीं न होने वाले ईत्व का ध्यान रखना। कहीं अभ्यास, द्वित्व, गुणावादेश (बोभवीति,बोभोति (यङ्लुक्)) । सिर्फ यक् में बोभूयते। सन् में बुभूषति। णिच् भावयति।
इसी तरह नामधातु जो कि न जाने कितने काम बनाती है।
उसका अभ्यास हो जाए तो कहना ही क्या ! लेकिन सूत्रों की प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति का ध्यान रखना जरूरी है। सूत्रबाध, (पूर्वत्रासिद्धम्), यह बड़ा मुख्य है पूरे ही व्याकरण शास्त्र में इस के ज्ञान के बिना बड़े-बड़े शास्त्री भी कभी-कभी धोखा खा जाते हैं।
सूत्रों के अर्थ का ठीक-ठीक ज्ञान होना और प्रयोग करने से पहले उसे घटा लेना वैयाकरण को निर्भ्रान्त और वीर बनाते हैं।
अन्यथा कभी-कभी नवोदित (अपटु) काव्यकारों के समस्त,सन्धियुत,या कहीं कहीं णिनि,अच्,क्यप् आदि संबंधी भ्रान्ति को पकड़ कर (सभ्य)शाब्दिक लोग एकांत में, और क्वचित् (धृष्टशाब्दिक) सभा में , बहुत हंसते हैं।
स्त्री प्रत्यय जहां जाते हैं वहां ङीप् , ङीष् , ङीन् का विचार, टाप् , डाप् , चाप् का विचार तैयार रखना, किसी भी संस्कृत भाषी के लिए बड़ा जरूरी है , अन्यथा अध्ययन अध्यापन या भाषा प्रयोग में लोग, मात खा जाते हैं।
और सबसे जरूरी चीज तो कारक है !
प्रातिपदिक से लेकर अधिकरण तक, सबका यदि विचार दिमाग में ना हो, तो आधुनिक कवियों से तो विशेष रूप से बहुत भयंकर चूकें हो सकती हैं!
और कवियों से ही क्यों , कोई भी संस्कृत प्रयोग करने वाला हो , किसी से भी चूकें (त्रुटियां, (शब्दपतन)) हो सकती हैं ।
इसलिए पास बैठे वैयाकरण को चाहिए , कि उसके कान में उसका सही प्रयोग बता दे , और कारक का स्वरूप उसे समझा दे । तभी उसके शास्त्र पढ़ने की सफलता है , अन्यथा अशुद्ध संस्कृत का फैलाव, शाब्दिक लोगों की बड़ी विफलता है।
अतः यह शब्दशास्त्र सभी शास्त्रों का नाना है
इससे बचना आलसियों का मात्र बहाना है
संकल्प करो , अब व्याकरण पढ़ना और पढ़ाना है
और भारतवर्ष के विद्यार्थियों का आगे बढ़ाना है ।।
****
हिमांशु गौड़
१२:०३ मध्याह्ने। १६/०७/२०२० गाजियाबाद।
इसी तरह और भी अनेक सूत्र हैं , जिनके बहुत से छात्रों ने गाने ही बना रखे थे ।
एक विद्यार्थी था ।
उसकी यह आदत थी , कि वह बहुत ही उछल-उछल कर चलता था, कुलांचें भरते हुए।
और जब वह कक्षा 10 में था, तो समास और कारक पाठ्यक्रम में लगे हुए हैं ।
तो समास में एक सूत्र आता है , वह उसको गा-गाकर बोलता था - अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तैरल्पश: ।
"इको यणचि", "झलां जश् झशि" जैसे सूत्रों के भी गाने बना रखे थे लोगों ने। एक नई ट्यून की खोज।
तो मेरे ख्याल से शिक्षाशास्त्र में जो स्मरण करने की पद्धति बताई गई हैं , उसमें से एक यह भी बहुत अच्छी विधि हो सकती है - गा-गा कर याद करना।
इससे दीर्घकाल तक याद रहता है , क्योंकि उसके विषय में बालक कंफर्टेबल हो जाता है।
खैर।
"अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:" का मैंने पूरा लाभ उठाया। अभी भी मैं शब्दों के मध्य में जो अनुस्वारान्त शब्द होते हैं उनको इस सूत्र का ही उपयोग करके, विशेषत: काम चलाता हूं - अस्तङ्गच्छति, पुष्पञ्चिनोतीत्यादिषु।
और णिनि प्रत्यय का मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूं, जो मेरे बहुत काम आया है ।
साथ ही साथ २२ उपसर्गों (विशेष रुप से प्र,परि,वि, उत्, ) का भी धन्यवाद अदा करता हूं ।
जीवन में एक-दो बार , अच् प्रत्यय का प्रयोग मैंने भ्रांति से अघटित स्थान पर भी किया था, लेकिन बाद में गुर्विङ्गितों से सुधार दिया।
मेरे ख्याल से कृदन्त प्रकरण ने संस्कृत बोलने वालों की जितनी सहायता की है , जितना संस्कृत को सरल कर दिया है , वह सराहनीय है ।
लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष या नुकसान कह लीजिए, यह भी हुआ, कि इस कारण से अब आदमी सारे लकारों को याद करना ही भूल गया।
सारे लकारों की प्रक्रिया ही भूल गया ।
अब वैयाकरणों को भी लकारों की वह प्रक्रिया ठीक से याद रहती नहीं , क्योंकि जब भूतकाल में क्त प्रत्यय का प्रयोग कर देते हैं , तो लङ् लुङ् तो खत्म हो ही गये।
और फिर तव्यतव्यत् अनीयर् का ही हर जगह प्रयोग करने के कारण विधिलिङ्लकार को भी लोगों ने खत्म सा ही कर रखा है ।
बहुत कम ही जगह बहुत गिनी चुनी धातुओं का ही विधिलिङ् , लोग प्रयोग करते हैं , अन्यथा
तव्यतव्यत् अनीयर् का प्रयोग करके - मया गन्तव्यम्, तेन भोक्तव्यम्, भवद्भि: वर्धनीयम् ,
इत्यादि का प्रयोग करके निकल लेते हैं जिससे वह विधिलिङ्लकार की विशिष्ट धातुओं के प्रयोग से वंचित रह जाते हैं। अब भू , वर्ध, कृ , गम् , खाद् , क्रीड , चल , इन सामान्य धातुओं , जिनमें विशेष प्रत्यय प्रयोग की आवश्यकता होती नहीं , उनको ही रट्टा मार कर और "भयंकर संस्कृत बोलने वाले" कहलाते हैं ।
वैसे मैं यह नहीं कह रहा कि हर जगह विधिलिङ् लकार या भूतकाल में लङ् या लुङ् का ही प्रयोग होना चाहिए।
यह सब वस्तुतः औचित्य,परिस्थिति और साहित्य के अनुसार होता है । किस जगह कृदन्त प्रत्यय का प्रयोग करना है और किस जगह तिङन्त का, इस बात का विवेक, यदि वक्ता या लेखक अपने भाषा या लेखन में कर लें, तो भाषा बड़ी रोचक हो जाती है। और अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहती है ।
वैसे कवि लोग ऐसे भी प्रयोग करते हैं कि कहीं-कहीं तिङन्तों की ही भरमार, और कहीं कृदन्तो की भरमार!
लेकिन वह चीज अलग है , वह कवि भाषा में रोचकता उत्पन्न करने के लिए कभी सर्दी ही सर्दी , कभी गर्मी ही गर्मी, और कभी बरसात ही बरसात की तरह प्रयोग करते हैं। वह कवि के विचार वैशिष्ट्य को दर्शाती है , वह कवि के कौशल को दर्शाती है ।
लेकिन यह बात आधुनिक संस्कृतज्ञों हेतु है कि हम किसी भी चीज के यदि सिर्फ एक ही अङ्ग का प्रयोग करें , दूसरे अङ्ग को बिल्कुल ही छोड़ दें , या किंचित् मात्र ग्रहण करें, तो फिर वह उसके स्वरूप के साथ न्याय नहीं है।
मुझे लगता है , सामान्य जो लोग हैं , उनको संस्कृत के प्रति उत्सुक करने के लिए तो यह सब ठीक है , किंतु जो संस्कृत के मूल, पारंपारिक विद्यार्थी हैं , उनको इतने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए ।
अपितु धातुओं की सूत्रों के द्वारा जो प्रक्रिया है , उसका ज्ञान कर उसको दिमाग में बैठा कर , यदि संस्कृत का लेखन या वाचन करें, तो वास्तव में संस्कृत के मूल स्वरूप को पकड़े रहेंगे , अन्यथा पल्लवग्राही ज्ञान में अटकना ज्यादा उचित नहीं।
भ्वादि में क्रादि नियम, सेट्-अनिट्त्व को ठीक से मस्तिष्क में बिठाना।
(जब हमने शुरुआती दौर (२००५-६, उत्तरप्रथम) में तिङन्त पढ़ना शुरू किया , तो "अच एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि" सूत्र को प्रायः भूल जाते थे। लेकिन फिर गुरुदिष्टावधान से एकचित्तता आई)
अदादि की प्रक्रियाओं को समझना।
(असलियत बताऊं, तो मैंने अदादि, जुहोत्यादि, तनादि, स्वादि को कभी ठीक से पढ़ा ही नहीं , या तो वाचम्-वाची की है, या दो-चार बार नजर ही घुमाई है , सिर्फ सिद्धान्तकौमुदी में।
क्योंकि पूरा साल सिर्फ भ्वादि पढ़ने में ही निकल गया।
उसका एक-एक शब्द हमारे इस तरह याद है ,जैसे पानी किसी भी बात को हजारों वर्षों तक याद रखता है । इसीलिए हम संकल्प करते समय हाथ में जल लेते हैं , क्योंकि जल हमारे संकल्प को याद रखेगा हमेशा ! और अगर हम संकल्प से हटें, तो वे वरुण देव कुपित हो सकते हैं)
लेकिन एक प्रकरण की भी प्रक्रिया को ठीक से यदि पढ़ लिया जाए,
तो अन्य प्रकरण समझने में आसानी होती है।
इसलिए जुहोत्यादि दिवादि में तो विशेष जगड्वाल नहीं।
चुरादि के णिच् का मन में बिठाना बड़ा
जरूरी है।
वैसे सिद्धान्तकौमुदी का एक भी अक्षर ऐसा छूटा नहीं , जो हमने गुरु मुख से ना पढ़ा हो (चाहे सामान्य निर्देश द्वारा हो)
सन्, क्यच् , काम्यच्, क्यङ् , क्यष् , णिच्-णिङ्, यङ्, यङ्लुक् और इनके ही अन्तर्गत कहीं होने और कहीं न होने वाले ईत्व का ध्यान रखना। कहीं अभ्यास, द्वित्व, गुणावादेश (बोभवीति,बोभोति (यङ्लुक्)) । सिर्फ यक् में बोभूयते। सन् में बुभूषति। णिच् भावयति।
इसी तरह नामधातु जो कि न जाने कितने काम बनाती है।
उसका अभ्यास हो जाए तो कहना ही क्या ! लेकिन सूत्रों की प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति का ध्यान रखना जरूरी है। सूत्रबाध, (पूर्वत्रासिद्धम्), यह बड़ा मुख्य है पूरे ही व्याकरण शास्त्र में इस के ज्ञान के बिना बड़े-बड़े शास्त्री भी कभी-कभी धोखा खा जाते हैं।
सूत्रों के अर्थ का ठीक-ठीक ज्ञान होना और प्रयोग करने से पहले उसे घटा लेना वैयाकरण को निर्भ्रान्त और वीर बनाते हैं।
अन्यथा कभी-कभी नवोदित (अपटु) काव्यकारों के समस्त,सन्धियुत,या कहीं कहीं णिनि,अच्,क्यप् आदि संबंधी भ्रान्ति को पकड़ कर (सभ्य)शाब्दिक लोग एकांत में, और क्वचित् (धृष्टशाब्दिक) सभा में , बहुत हंसते हैं।
स्त्री प्रत्यय जहां जाते हैं वहां ङीप् , ङीष् , ङीन् का विचार, टाप् , डाप् , चाप् का विचार तैयार रखना, किसी भी संस्कृत भाषी के लिए बड़ा जरूरी है , अन्यथा अध्ययन अध्यापन या भाषा प्रयोग में लोग, मात खा जाते हैं।
और सबसे जरूरी चीज तो कारक है !
प्रातिपदिक से लेकर अधिकरण तक, सबका यदि विचार दिमाग में ना हो, तो आधुनिक कवियों से तो विशेष रूप से बहुत भयंकर चूकें हो सकती हैं!
और कवियों से ही क्यों , कोई भी संस्कृत प्रयोग करने वाला हो , किसी से भी चूकें (त्रुटियां, (शब्दपतन)) हो सकती हैं ।
इसलिए पास बैठे वैयाकरण को चाहिए , कि उसके कान में उसका सही प्रयोग बता दे , और कारक का स्वरूप उसे समझा दे । तभी उसके शास्त्र पढ़ने की सफलता है , अन्यथा अशुद्ध संस्कृत का फैलाव, शाब्दिक लोगों की बड़ी विफलता है।
अतः यह शब्दशास्त्र सभी शास्त्रों का नाना है
इससे बचना आलसियों का मात्र बहाना है
संकल्प करो , अब व्याकरण पढ़ना और पढ़ाना है
और भारतवर्ष के विद्यार्थियों का आगे बढ़ाना है ।।
****
हिमांशु गौड़
१२:०३ मध्याह्ने। १६/०७/२०२० गाजियाबाद।
No comments:
Post a Comment