Sunday, 5 September 2021

 



।। पितृशतकम् ।।

प्रणेताऽनुवादकश्च

आचार्यो हिमाँशुगौडः

व्याकरणाचार्यः,शिक्षाशास्त्री(B.Ed.),विद्यावारिधिः(Ph.D.)

 

ISBN 978-81-943558-4-7

सर्वाधिकारः प्रकाशकाधीनः

प्रथम-संस्करणम्

२०० प्रतयः

 

।। पितरं प्रति श्रद्धां कृतज्ञतां च व्यक्तीकुर्वत् शतश्लोकात्मकं काव्यम् ।।

 

 

Publisher:

True Humanity Foundation

Non-Governmental Organization



PitriShatkam

 

Author and Translator :

 

Acharya Himanshu Gaur

Vyakarnacharya, B.Ed., Ph.D.

 

 

ISBN 978-81-943558-4-7

All rights reserved

 

First Edition January 2020

 

200 Copes

 

Poetry of hundred verses expressing reverence and gratitude for father.

 

 

Publisher:

True Humanity Foundation

Non-Governmental Organization




 

।। भूमिका ।।

 

माता-पिता के माध्यम से ही कोई भी जीव इस संसार में आता है। जिस तरह माता जन्म देने का कार्य करती है, उसी तरह पिता पालन-पोषण करने का कार्य करते हैं । एक बालक के जीवन में  पिता का बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान है । हजारों कठिनाइयाँ, दुख, परेशानियां सहन करके भी एक पिता अपने बच्चों को योग्य बनाता है और उनके जीवन में खुशहाली भरता है । शास्त्रों के अनुसार माता, पिता और गुरु का संसार में बहुत उच्चस्थान है । शास्त्रों में कहा है कि अगर माता-पिता एवं गुरु को खुश कर दिया, तो मनुष्य को किसी तीर्थ पर जाने की जरूरत नहीं, कोई तपस्या करने की जरूरत नहीं – त्रिषु चैतेषु तुष्टेषु तपस्सर्वं समाप्यते । कहते हैं कि पिता यदि प्रसन्न हों तो देवलोक की प्राप्ति होती है । इस तरह अनेक शास्त्रों में अनेक तरह की बातें , अनेक तरह के श्लोक , पिता के महत्व को बताते हैं ।

पिता के प्रति श्रद्धा के रूप में ही यह सौ श्लोकों का काव्य मैंने लिखा है , इसे आप अभिनंदन-परक काव्य ही मानें । फिर भी इस काव्य में अनेक शास्त्रगत तथ्य लक्षित होते हैं । इसमें शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, अनुष्टुप्, स्रग्विणी इत्यादि छन्दों का प्रयोग हुआ है । अनेक अलंकारों और श्रद्धा भक्ति-रूपी अनल्प रस से ओतप्रोत यह काव्य है ! अतः रसिक लोग, इस काव्य को पढ़ें और पितृश्रद्धा रूपी आनंद के सागर में गोते लगाएं ।  यह काव्य मैंने २०१५ में लिखा था, और अभी जनवरी २०२० चल रहा हैअतः उस समय की और इस समय की मेरी लेखनशैली में भी काफी अंतर आ गया है । लेखन के समय मानव स्वभाव के कारण कोई त्रुटि रह गई हो, भ्रान्तिवशात् या अज्ञान के कारण कोई दोष रह गया हो , तो विद्वान् लोग सूचित करें, जिससे आगामी संस्करण में उसका संशोधन किया जा सके । हर हर महादेव ।

  -----

 

 

 

 

 

 

 

।। पितृशतकम् ।।

✾✾✾✾✾✾✾✾✾✾✾✾✾✾✾✾

 

जीवनस्यास्य हेतुर्यस्तुष्टिपुष्टिप्रदश्च यः ।

त्राता शिक्षाप्रदाता च पिता नम्यस्सदा सुतैः[1] ।।१।।

 

पिता ही बालक के जीवन के कारण, तुष्टि-पुष्टि प्रदायक, रक्षक एवं शिक्षक होतें हैं, अतः वे पुत्रों के द्वारा सदा प्रणम्य हैं ।।

 

वाणी यस्य सदा ममोद्धृतिकरी प्रत्येकवाक्यं श्रुतिः

श्वासाः यस्य चलन्ति मे प्रतिपलं यो मे हितं चिन्तयेत्

यो क्रुध्दोऽप्युपकारमेव तनुते दण्डेन वा भर्त्सया

जीव्ये नैव च विस्मरामि पितरं सोऽस्मत्प्रियस्सर्वदा।।२।।

 

जिन की वाणी सदा ही मेरी उन्नति करने वाली है, जिनका कहा हुआ प्रत्येक वाक्य मेरे लिए वेद-वाक्य है । जिनकी सांसे हर पल, मेरे लिए ही चल रही हैं । जो हर पल मेरा ही हित सोचते रहते हैं । जो गुस्से में भी मेरा हित ही करते हैं । चाहे मुझे दण्डित करें, चाहे मुझ डाँटे , वह भी मेरे हित के लिए ही होता है । सम्पूर्ण जीवन में कभी, मैं उन पिताजी को कभी भूल नहीं सकता । वे मेरे सर्वदा प्रिय हैं ।

 

श्रुत्त्वा यस्य वचः क्वचिच्च मनसस्ताराश्च मे झङ्कृताः

दृष्ट्वा यं हृदयेऽनुराग इव वा जायेत नव्यः क्वचित्

गम्भीरोऽपि सदा प्रमोदकरणः जीवन् विशिष्टार्थनैः

सन्त्वापत्तिभयानि नैव भयगो रक्षाकरो मे पिता।।३।।

 

जिनकी वाणी सुनकर कभी मेरे मन के तार झङ्कृत हो उठते हैं । जिनको देखकर हृदय में एक नया अनुराग सा पैदा होता है । जो गम्भीर होते हुए भी, सदा प्रमोदकारी (आनंदकारी) ही हैं , वे  विशिष्ट अर्थों में अपने जीवन को जीते हैं । मेरे ऊपर कितनी भी आपत्तियां और भय आ जाएं, लेकिन मैं कभी डरता नहीं हूं, क्योंकि मेरी रक्षा करने वाले मेरे पिता हैं ।

 

चायं यश्च पिबन् प्रभातसमये पत्रे पठेत्सूचनाः

कार्यार्थं च ततः प्रयाति सदनात्सायन्तने चाऽऽव्रजेत्

गेहं, चानयतीह मे बहुविधं क्रीड्यं फलं तुष्टये

सौख्यैरुल्लसिता गता मम समा पित्राशिषा बालता ।।४।।

 

मेरे पिता सुबह के समय चाय पीते हुए अखबार में सूचनाएँ पढ़ते हैं । फिर घर से अपने काम के लिए जाते हैं और शाम को लौटते हैं । (लौटते समय)  मेरी प्रसन्नता के लिए खिलौने और फल भी लाते हैं । उन पिता के आशीर्वाद से मेरा बचपन सुखों से उल्लासपूर्ण बीता ।

 

तं दृष्ट्वा मम जीवनं प्रचलति श्रुत्त्वा च तद्भर्त्सनाः

आपत्तौ पतितं च मां स झटिति प्रोद्धारितुं सक्षमः

जीव्यस्याऽऽहवगो बिभेमि न गुरो त्वं मेऽसि संरक्षकः

यो हत्त्वा रिपुसङ्घमाशुरथ मे सौख्यं दधासि प्रभो ।।५।।

 

उनको दर्शन करते हुए और उनकी डाँट-फटकार सुनकर ही मेरा जीवन चल रहा है । जो मेरे पिता, मुसीबत में पड़े हुए मुझको तत्काल उबारने में सक्षम हैं । हे पिता, मैं इस जीवन के युद्ध में जाकर कभी डरता नहीं हूं क्योंकि तुम ही मेरे संरक्षक हो । हे प्रभो! मुझे पता है, कि तुम मेरे सारे (उन्नतिरोधी) शत्रुओं को मारकर मुझे सुखी कर सकते हो ।

 

त्वद्धस्तं परिगृह्य मे गतिरहो जीव्यस्य भीष्माऽऽहवे

त्वन्नाम्नैव मदीयनाम सकलाः जानन्ति चैवादरात्

त्वत्प्रेमाम्बुनिमग्नजीवनगतिर्मूलाऽस्ति ते संस्थितिः

स्वप्नेऽप्येष जनो न तेऽत्र विरहाच्छक्तोऽस्ति सञ्जीवितुम्।।६।।

 

तुम्हारा हाथ पकड़कर ही मैं, जीवन के इस भयङ्कर युद्ध में सुरक्षित हूं एवं मेरे जीवन की गति है । तुम्हारे नाम से ही मुझे आदरपूर्वक सब जानते हैं । तुम्हारे प्रेमरूपी जल में डूबी हुई, मेरे जीवन की गति में , तुम्हारा होना ही मूल कारण है । सपने में भी, मैं आपके बिना जीवित नहीं रह सकता ।

 

चेद्वृध्दत्त्वमुपागतोऽसि भगवन्मेऽसि त्वमेवाश्रयः

त्वद्धास्यं स्मितयुक्तमाननमहो मत्पुण्यसंवर्धकम्

आशीर्वै तव, मत्प्रवृध्दिकरणे हेतुर्न चान्यः क्वचित्

चित्ते चैव विचार्य याहि न कदापीमं विहायात्मजम् ।।७।।

 

हे भगवन् ! अगर आप वृद्ध हो गए हो, फिर भी आप ही मेरा आश्रय हैं । आपका हास्य और मुस्कुराहट युक्त चेहरा देखकर, मेरे पुण्य बढ़ जाते हैं । तुम्हारा आशीर्वाद ही मेरी उन्नति में कारण है, और कोई दूसरा कारण नहीं है । ऐसा आप अपने मन में मानिए (विचारकर या मानकर ), और कभी भी अपने बेटे को छोड़कर मत जाइए ।

 

गाम्भीर्यं तव मत्समृध्दिकरणं हास्यं मनोमोदकम्

वाक्यं जीवनमार्गदर्शकमहो मौनं रहस्यास्पदं

चेष्टा सर्वविपत्तिमूलहरिणी सर्वाः क्रियास्सौख्यदाः

त्वं चेज्जीवननावि नैव भवतात् सत्यं निमङ्क्ष्याम्यहम् ।।८।।

 

आपकी गम्भीरता मेरे लिए समृद्धिकारक है । आपका हास्य, मेरे मन को आनन्दित करने वाला है। आपका प्रत्येक वाक्य, मेरे जीवन का मार्गदर्शक है । आपका मौन, अर्थात चुप रहना, बड़ा ही रहस्यास्पद है (रहस्यपूर्ण है) । आपकी प्रत्येक चेष्टा, सभी आपत्तियों को जड़ से खत्म करने वाली है । आपकी सारी क्रियाएं बड़ी ही सुख देने वाली हैं । अगर मेरी जीवनरूपी नाव में आप नहीं होते , तो यह बात बिल्कुल सच है कि मैं इस संसाररूपी सागर में डूब ही जाता ।

 

मत्पुत्रोऽयमिति त्वया निगदितं यत्राऽपि पुंसु क्वचित्

त्वं जानासि न भाव एव हृदये कीदृक्सुखोत्पादको[2]

जातो, गौरवमादधासि भगवंस्त्वं मद्युवत्त्वेन यत्

साक्षात्त्वद्वदहं न कश्चिदिह वा भेदस्समालक्ष्यते।।९।।

 

ये मेरा पुत्र है – जब लोगों के बीच (भरी सभा में) आपने यह कहा था, तब आप नहीं जानते कि मेरे दिल में कितनी खुशी पैदा करने वाला एक अलग ही भाव उत्पन्न हुआ था । हे भगवन् , आप मेरे युवत्त्व से (मेरे जवान होने से) जिस गौरव को (स्वाभिमान को) धारण करते हैं , उससे मैं यही मानता हूं , कि मैं भी बिल्कुल आपके जैसा हूं । आप में और मुझ में कोई भी भेद नहीं (लक्षित होता) है।

 

मन्ये तद्धि दिनं ह्यमङ्गलमिवोत्पद्येत वै पापिनां

येषां स्याद्विरहस्स्वपितृपुरुषात्साक्षादिवेशाच्छिवात्

दुर्भाग्यं महदेव तत्र भवतात् पुण्यैश्च तन्नश्यतु

चेत्पार्श्वेऽस्ति सुसेवयाऽद्य पुरुष! श्रीमान् पिता दुर्लभः ।।१०।।

 

अरे! निश्चय ही पापियों के अमङ्गल की तरह वह (दुःख का) दिन उदय होता है, जिनका साक्षात् शिव के समान अपने पिता से वियोग होता है । यह पितृवियोग, अत्यन्त दुर्भाग्य के कारण होता है । अरे लोगों ! पुण्यों द्वारा इस दुर्भाग्य को नष्ट करो ।और अगर आपके पास आपके पिताजी हैं, तो उनकी हर तरह से सेवा करो , क्योंकि ये श्रीमान् पिताजी बड़े दुर्लभ हैं ।

 

प्रेम्णा वा मां मधुरगिरया भर्त्सया वापि शान्त्या

लक्ष्यप्राप्त्यै प्रविदितपथा यो हितैषी श्रियै मे

मद्धेतुर्यो जगति सकलानां जनानां रिपुस्स्यात्

ईशाच्छ्रेष्ठाय च शतनतीर्वाऽऽर्पयामीह तस्मै ।।११।।

 

प्यार से, मधुर वाणी से, डांट-फटकार से, या फिर शान्ति से, जो रास्ते के जानकार हैं , वे मेरे पिता मुझे हमेशा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए और मेरी समृद्धि के लिए प्रेरित करते रहते हैं । मेरे लिए जो सारे संसार के लोगों के दुश्मन बन सकते हैं , वे भगवान से भी श्रेष्ठ मेरे पिता हैं । मैं उन्हें सैकड़ों बार नमस्कार करता हूं और अपना जीवन भी उनके लिए समर्पित करता हूं ।

 

जागर्ति रात्रिषु मदीयहितस्य चिन्ता-

सक्तस्सदैव मम सौख्यकरः क्रियाभिः ।

सम्बन्ध एष इह सर्वदृढो मतो यः

 पुत्रस्य चैव पितुरस्ति न केन तुल्यः ।।१२।।

 

जो मेरा हित चिंतन करते हुए, कई-कई रात तक जागते रहते हैं । अपना हर एक कार्य मेरी खुशी के लिए करते हैं - ऐसे मेरे पिता का मुझसे जो संबंध है , यह सबसे ज्यादा मजबूत है। बाप-बेटे के रिश्ते की तुलना किसी से नहीं की जा सकती।

 

श्रुत्त्वा मदीयवचसां क्षणमात्रलासो

 यद्धार्दिकीं परिदशां परियाति सोऽसौ ।

काव्यैश्शतैर्न कविराडपि वक्तुमर्हः

 किञ्चास्य मूढजनकाव्यविजल्पनस्य।।१३।।

 

क्षण-मात्र भी मेरी वाणी का विलास सुनकर, मेरे पिता जिस हार्दिक परिदशा (सुखादि भावमिश्रित दशा) में पहुंच जाते हैं, कविराज अपने सैकड़ों काव्यों से भी उसका वर्णन नहीं कर सकता, फिर इस मूढ-जन के काव्य का तो कहना ही क्या !

 

नष्टं स्वजीवनमहो मम कारणेन

रात्रिन्दिवा हितमिवाऽऽचरणेन सौख्यम् ।

दातुं च कोटिपरियत्नकरस्स देवस्-

तुल्यो न कोऽपि, जनको जगतीश्वरो वै।।१४।।

 

 

जिन्होंने अपनी जिंदगी, मेरे लिए ही नष्ट कर डाली ! वे देवता, रात-दिन मेरे कल्याण के लिए आचरण करने से, मुझे सुख-प्रदान करने के लिए सब ओर से, करोड़ों प्रयास करते हैं, उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती, वास्तव में संसार का ईश्वर, पिता ही है ।

 

मद्धेतुरेव सकलं च जगद्दहेद्यो

मद्धेतुरेव सकलं विषमापिबेद्यः।

मद्धेतुरेव सकलं हि तपश्चरेद्वा-

ऽहो देवदेव इव मेऽस्ति पिता सुपूज्यः।।१५।।

 

जो मेरे लिए पूरी दुनिया को जला सकते हैं, मेरे लिए ही हर तरह का ज़हर भी पी सकते हैं , मेरे लिए ही जिनके जीवन की सारी तपस्या है, वे देवों के भी देव, महादेव के समान, मेरे पिता बड़े ही पूज्य हैं ।

 

 

त्यक्तानि येन निखिलानि सुखानि तानि

 मद्धेतुरेव विपदाब्धिषु यो न्यमज्जत् ।

वोढुं च तत्पर इवोद्यत एव भारान्

कर्तव्यकोटिनगशीर्षधृरो पिता मे ।।१६।।

 

जिन्होंने मेरे लिए अपनी जिंदगी की सारी खुशियों को त्याग दिया, मेरे लिए ही जो आपत्ति के समुद्र में डूब गये, मेरे लिए ही हर तरह का भार ढ़ोनें के लिए, जो सदा तैयार रहते हैं - वे कर्तव्य-रूपी करोड़ों पहाड़ों को अपने सिर पर धारण करने वाले मेरे पिता हैं ।

 

श्रीरस्ति तस्य वदने वचसां विलासे

 साक्षाच्च शुक्लवसना वसतीव पद्मे ।

शम्भुस्तथैव च वसेद्धितचिन्तनेऽपि

 कल्याणमस्ति सततं परितो नमस्ते ।।१७।।

 

उनके मुख रूपी कमल में लक्ष्मी रहती है (पिता की सम्यक्-निर्देश-वाणी पुत्र की समृद्धि का मार्ग तय करती है, इसलिए कवि का यह वचन है।), उनकी वाणी में साक्षात् सरस्वती का निवास है, (क्योंकि पुत्र-हित-निर्देश में उनकी वाणी सत्य ही सिद्ध होती है ।), उसी तरह (अपने पुत्र का) हित-चिंतन करते समय कल्याणस्वरूप-शिव ही उनके चिंतन में निवास करते हैं, इस प्रकार के पिता को बार-बार, हर तरफ से नमस्कार है ।

 

दृष्टाश्च दुष्टदिवसाः मम कारणेन

 सोढ्वा च दुःखततिमत्र निपीय पीडाम् ।

मद्धेतुरेव चरितानि समानि कार्या-

ण्यस्यर्णमेष पुरुषो न हि दातुमर्हः ।।१८।।

 

जिन्होंने मेरे कारण बहुत बुरे दिन देखे । मेरे कारण ही अत्यन्त दुःखों को सहा, फिर भी अपनी वेदना को पीकर मेरे लिए ही सारे कार्य किए । इनका ऋण यह पुरुष (पुत्र), कभी भी चुका नहीं सकता ।

 

कृत्त्वा शतानि विविधानि नृणां च कार्या-

ण्यर्थाय यश्च सकले न विलोक्य सौख्यम् ।

जीव्ये च यस्तनयसुस्मितकाङ्क्षिचित्तः[3]

श्रीमान् पिता हि सकलेषु सुरेषु पूज्यः।।१९।।

 

पूरी जिंदगी जिन्होंने खुशी का मुंह देखे बिना (मेरे हितार्थ) धन कमाने के लिए, लोगों के सैकड़ों काम किए इनका उद्देश्य सिर्फ यही था कि मेरे पुत्र हमेशा मुस्कुराते रहें - ऐसे शोभा-संपन्न मेरे पिता, मेरे लिए सभी देवताओं में सर्वाधिक पूज्य हैं ।

 

नैवं तपन्ति विपिनेषु तपस्विवृन्दाः

नैवं द्विजाः गुरुकुलेषु तपन्ति वेदृक् ।

सन्यासिनो न विविधैश्च तपोभिरन्यैर्-

यादृक्पिता तपति मे सदने मदर्थम् ।।२०।।

 

इस प्रकार से जंगलों में तपस्वी लोग भी तपस्या नहीं करते । गुरुकुल में ब्राह्मण, ब्रह्मचारी , विद्यार्थी लोग भी तपस्या नहीं करते, अन्य विविध प्रकार के तपों से सन्यासी लोग भी ऐसी तपस्या नहीं करते हैं, जिस तरह, घर में मेरे पिता मेरे लिए तपस्या करते हैं ।

 

यस्य प्रलोक्य निखिलं सुजनस्य जीव्यं

सञ्चिन्तनं भवति मे मनसि प्रभावः।

आश्चर्यमेमि परितोऽपि विलोक्य चास्य

 सङ्घर्षमस्तु सततं गुरवे नमस्ते ।।२१।।

 

जिनकी पूरे जीवन और उनके संघर्षों को देखकर मेरे मन में बड़ा ही चिन्तन उठता है और बड़ा ही मेरे मन पर प्रभाव पड़ता है, मैं इनका संघर्ष देखकर आश्चर्यचकित भी होता हूं इन गुरु तुल्य पिता के लिए निरन्तर, सब तरफ से नमस्कार है ।

 

वेदैरपीह जनकश्शिवरूप उक्तः

 स्मृत्यादिभागघटकैस्सुखताभिलब्ध्यै[4]

तत्तोषणेन जगतोऽप्युत देवलोके

सौख्यं प्रयासरहितोऽपि सदाप्नुते वै ।।२२।।

 

इस संसार में स्मृति आदि भागों के घटकीभूत वेदों द्वारा भी सुख की सभी तरह से प्राप्ति के लिए पिता शिवरूप कहा गया है । उसको (पिता को) सन्तुष्ट करने से बिना प्रयास के, मनुष्य निश्चित ही इस संसार के सुख और देवलोक में भी सुख सदा प्राप्त करता है।

 

केचिद्वदन्ति सततं गुरवे नमस्ते

श्रध्दाभृतो नरवराश्च नमोऽस्तु पित्रे

तस्मै शिवाय जगदेकविमूलकाय

 त्रिभ्यो नमामि सततं शिवमूर्तिमद्भ्यः।।२३।।

 

कोई-कोई निरन्तर गुरु के लिए नमस्कार करते हैं । मनुष्यों में श्रेष्ठ, श्रद्धा भरे हुए लोग, पिता के लिए नमस्कार करते हैं और कोई इस संसार के मूल-स्वरूप शिव के लिए नमस्कार करते हैं । मैं तो इन तीनों ही कल्याण-मूर्तियों के लिए नमस्कार करता हूं ।

 

शास्त्राणि चैव पठितानि मतानि तानि

 सूपासितानि विधिवत्परिचिन्तितानि

विस्मृत्य चैकमपि तथ्यमहो विनष्टः

पूज्यः पितेति च सुतेन मतो ह्यखण्डि ।।२४।।

 

यद्यपि आपने सभी शास्त्रों को खूब पढ़ा हो, माना हो , उनकी उपासना की हो, विधिपूर्वक चिन्तन भी किया हो, लेकिन यदि आपने (पुत्र ने)  "पिता पूज्य हैं " इस एक ही तथ्य को भुला दिया, या इस मत का खंडन कर दिया तो आप समझो विनष्ट हो गए ।

 

कं वा व्रजेम इति नैव मनोऽनुशास्ति

त्वां संविहाय पितरं मम देवतुल्यम् ।

श्रीदोऽसि मे निखिलतापहरोऽसि मन्ये

चास्मिँश्छलाश्रितजगत्यमुमत्र पाहि ।।२५।।

 

देवता तुल्य आपको छोड़ कर हम लोग कहां जाएं - ये हमारा मन अनुशासन (निश्चय) नहीं कर पाता । आप ही हमारे सम्पूर्ण तापों को हरने वाले हैं , आप ही समृद्धि देने वाले हैं , ऐसा मैं मानता हूं । कपटी लोगों वाले इस संसार में हमारी रक्षा करो ।

 

त्वां वै वदन्ति निखिलाः बहुभिश्च वाऽऽख्यैः

 डैडीति फादर इति प्रवदन्ति पापा ।

बाबूजि केचिदपि सभ्यजनाः पिताजी

 सर्वेषु भावभरितोऽस्यसुमाँस्त्वमेव ।।२६।।

 

पुत्र आपको अनेक नामों से पुकारते है - डेडी,फादर,पापा, बाबूजी । और सभ्य लोग कहते हैं - पिताजी ! इन सभी नामों में, भावपूर्ण ढंग से आप ही प्राण स्वरूप बसे हुए हैं ।

 

तू-तूच्चरन्ति पितरं च तुमोच्चरन्ति

 आपेति सभ्यदिशयापि सुताः वदन्ति

तद्वै प्रदेशगतभाषितरूपमस्ति

 भावाश्च भक्तिभरिताः यदि तत्किमन्यैः ।।२७।।

 

किसी-किसी स्थान पर अपने पिता को बहुत से लोग, तू-तू कह कर बोलते हैं । बहुत सी जगह पर तुम कह कर बोलते हैं, एवं बहुत से पुत्र अपने पिता को आप कह कर सम्बोधित करते हैं  । वह तो स्थान-गत, भाषा का बोलने वाला स्वरूप है । यदि भक्ति-पूर्ण भाव है, तो अन्य किसी बात से क्या लेना !

 

दुष्टाश्च ये स्वपितरं परितर्जयन्ति

 नानाकुवाक्यकथनैर्हृदयं दहन्ति

ते पुण्यराशिमिव चात्मविनाशसक्ताः

घोरे पतन्ति नरके यमपीडितास्स्युः ।।२८।।

 

और जो दुष्ट अपने पिता को डाँटते-फटकारते हैं, मारते-पीटते हैं, अनेक बुरे वाक्य बोलकर उनका दिल जलाते हैं, वे अपनी पुण्यराशि को विनष्ट करके, घोर-नरक में पड़ते हैं और यमराज से कष्ट पाते हैं ।

 

त्रायेत नो[5] यमगणात्सुकृतौघराशिर्-

 नानाविधैर्मखजपैः परिसञ्चिता या

किन्तु प्रयत्नशतकैर्यदि ते प्रसन्नाः

माता पिता गुरुजनाश्च किमन्यपुण्यैः ।।२९।।

 

एक बार को, ऐसे दुष्टों को यमराज से , अनेक प्रकार के यज्ञ जाप आदि करके सञ्चित की हुई पुण्य की राशि भी नहीं बचा सकती, किन्तु यदि सैकड़ो प्रयत्नों से भी आपके माता-पिता और गुरु प्रसन्न हैं, तो और पुण्य करने से क्या मतलब !

 

श्रीदानि यानि शुभदानि समानि कार्या-

ण्यर्थप्रदानि सकलागमनन्दितानि

तेष्वेकमेव सुकृतं फलदायि शीघ्रं

यत्त्वं स्वपितृचरणौ हृदये निधत्स्व ।।३०।।

 

इस संसार में वेद-शास्त्र आदि के द्वारा प्रसन्न और समर्थित बहुत सारे शुभ-कर्म हैं, लेकिन उनमें यह एक पुण्य, बहुत जल्दी फल देने वाला है कि तुम अपने पिता के चरणों में ही अपना हृदय लगा लो।

 

देवास्तु सर्वजगतां हितचिन्तकाश्च

पूजासुतुष्टगतयो हि फलं प्रदद्युः ।

किन्तु त्वमेव सकलं श्वसनस्य हेतुर्-

 यस्य त्यजेः कथमिव स्वपितैकदेवम् ।।३१।।

 

अरे भाई, देवता तो इस सारे संसार की भलाई सोचने वाले हैं । और देवता लोग तो जब पूजा से संतुष्ट हो जाते हैं , तभी फल प्रदान करते हैं,  किंतु तुम ही हो एकमात्र सांसो का सहारा जिसके, ऐसे अपने पिता-रूपी देवता को आप क्यों छोड़ रहे हो ?

 

यद्वा विलोक्य पितरं परिनन्दितो यस्-

सेवारतोऽपि मनसेऽथ विबुध्य भावान्

अन्वाचरेत्स्वजनकं परितोषयेच्चेज्-

जीव्यस्य तेन सकलं सुफलं सुवाप्तम् ।।३२।।

 

और जो अपने पिता को देखकर बहुत खुश हो जाता है, उनकी सेवा में लगा रहता है, उनके भावों को अपने मन से ही जान जाता है, उनकी सेवा ठीक प्रकार से करता है और अपने पिता को सन्तुष्ट कर देता है, उसका ही जीवन सफल है, उसने ही इस संसार में आने का फल प्राप्त कर लिया है ।

 

जीव्यस्य दुस्तरनदीं यदि तर्तुमिच्छेत्

 खेलेन चात्मबलतः परिमोदमानो

दुःखम्भरेऽपि सुखमेति नरः क्षणाच्चेत्

पित्राज्ञया प्रतिदिनं परिजीवमानः ।।३३।।

 

इस जीवन की दुस्तर-नदी को अगर खिलवाड़ में ही अपनी ताकत से, आनन्दित होते हुए , तैरकर पार करने की इच्छा रखते हो, और इस दुख-मात्र भरे हुए संसार में भी एक क्षण में (तत्काल) सुख को पाना चाहते हो, तो प्रतिदिन अपने पिता की आज्ञा से ही जीवन जियो !

 

को वा स्वसौख्यमपि चैव जहाति निद्रां

 कस्य प्रतिक्षणमुत प्रभवेत्सुतेभ्यः ।

स्वार्थाश्रितेऽपि जगतीव परोपकारी

चैकः पिता स सुरराडिव मेऽभिवन्द्यः ।।३४।।

 

ऐसा इस स्वार्थी संसार में कौन है जो अपना सुख-चैन छोड़कर, अपनी नींद छोड़कर, हर पल अपने पुत्रों के पालन में ही लगा रहता है – वो ही एकमात्र पिता हैं , जो देवराज के समान अभिनन्दनीय हैं ।

 

आज्ञा मया तु बहुधाऽपि च खण्डिता या

 तस्यैव दुष्फलमिवार्थविहीनताऽस्ति ।

सर्वापराधसहनो मयि यो दयार्द्रो

ह्येकः पिता स शिववन्निखिलाभिवन्द्यः ।।३५।।

 

यद्यपि मैंने भी बहुत बार उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है, और उसका ही फल है कि मैं आज निर्धन और अज्ञानी हूं, फिर भी सभी अपराधों को सहन कर लेने वाले, जो मेरे प्रति अत्यंत दयालु हैं, वे एकमात्र पिता, शिव की तरह ही संसार के समस्त मनुष्यों से पूज्य हैं ।

 

स्वेच्छाचरोऽहमभवं बत जीवनेऽस्मिन्

पित्राऽनुदिष्टगतिको न सृतं वचस्तत् ।

तस्यैव शूल इव मे विदहेच्च चित्तं

तस्मात्त्यजेन्न पुरुषस्स्वपितुर्वचांसि ।।३६।।

 

मैं अपने जीवन में बड़ा ही स्वेच्छाचारी रहा,  तथा अपने पिता की बताई हुई बातों और निर्देशों का अनुपालन नहीं किया, उसका ही शूल, आज मेरे मन को जला रहा है । इसलिए मैं हमेशा ही ये कहता हूं कि कोई भी मनुष्य अपने पिता के वचनों को ना छोड़े, उनका अवश्य पालन करे ।

 

पित्रोक्तवाक्यमथ यो चरितार्थयेच्चेत्

 सौख्यं ददाति वदने स्मिततां पितुश्च ।

कार्यैः प्रसन्नहृदयो जनको भवेच्चेत्

सौभाग्यशालिपुरुषस्स मयाऽभिवन्द्यः ।।३७।।

 

जो अपने पिता के कहे हुए वाक्य को चरितार्थ कर देता है, उनको सुख देता है, उनके चेहरे पर प्रसन्नता लाता है, और यदि उसके कार्य से उसके पिता प्रसन्न हृदय वाले हो जाते हैं, वह सौभाग्यशाली पुरुष मेरे द्वारा भी प्रणाम योग्य है ।

 

हृष्टस्स्वकीयजनकं च विलोक्य पार्श्वे ,

 लुप्ते निराशवदनोऽन्विषति स्वनेत्रैः[6]  ।

सन्मङ्गलं परितनोति पितैव तस्य

 धन्यस्स एव लभते भुवि हेमपुष्पम्[7] ।।३८।।

 

जो अपने पिता को पास में देखकर बहुत ही हर्षित हो जाता है, न देखने पर बहुत निराश हो जाता है, और अपने अन्वेषण-पूर्ण नेत्रों से उन्हें खोजता है, उस (पुत्र) का हर तरह का मंगल, उसके पिता ही कर निश्चित करते हैं । वह पुत्र इस धरती पर सोने के फूलों को प्राप्त करता है या इस स्वर्णपुष्पा धरती का उपभोग करता है ।

 

तीर्थं गतो बहुविधं, हुतवान् मखेषु

 सर्वत्र दीनमनुजा अपि भोजितास्स्युः ।

वित्तानि विप्रचरणेषु समर्पितानि

किन्त्वप्रसन्नजनकस्य भवेन्न पुण्यम् ।।३९।।

 

यद्यपि तुम बहुत तरह की तीर्थों में गए हो, बहुत यज्ञों में हवन किए हो, बहुत गरीब, भूखे-नंगे लोगों को भोजन करवाया हो, ब्राह्मणों के चरणों में बहुत सा धन समर्पित किया हो, लेकिन यदि आपके पिता आपसे प्रसन्न नहीं हैं, तो कोई पुण्य नहीं होगा ।

 

नेत्रे सदैव मम जीवनदर्शनेन

साधुः ह्यसाधुरिति चैव समीक्षणेन ।

दुर्मार्गवारणरतो विनियुज्य शैवे,

 तस्मात्सुतस्य जनकोऽस्ति विपत्तिहारि ।।४०।।

 

जिनके नेत्र सदा ही मेरे जीवन का दर्शन करने से, क्या गलत है, क्या सही है, इसका समीक्षण करने के द्वारा, मेरे गलत रास्ते का निवारण करने वाले, कल्याणरूपी मार्ग में (नियुक्त करने वाले) लगाने वाले, सभी प्रकार से अपने पुत्र की विपत्तियों का हरण करने वाले होते हैं ।

 

यावत्पिता च सदने परिजीवितोऽस्ति

 किञ्चिद्भयं न जगति प्रतिबाधनं वा ।

वेद्मीह यद्विकटसङ्कटसंयुताय

विक्रीय नैजमपि मां परिरक्षयेद्वै ।।४१।।

 

जब तक मेरे घर में मेरे पिता जीवित हैं, तब तक इस संसार में मुझे कोई बाधा या कोई डर नहीं है, क्योंकि मैं जानता हूं कि अत्यंत संकट आने पर,वे खुद को बेच कर भी मेरी रक्षा कर सकते हैं।

 

दृष्ट्वा च कण्टकमपि प्रतियाति दुःखं

यन्मां तुदेत् क्षणमसौ परिणाशदक्षः ।

तं चेदृशं च पितरं व्यथयेज्जनो यस्-

सत्यं वदामि सकलं कुजनं निहन्मि ।।४२।।

 

यदि मुझे दुख-देने वाला कोई कांटा भी है , उसको देखकर भी मेरे पिता बड़े दुखी होते हैं और तुरंत उसको नष्ट करने में निपुण हैं, ऐसे मेरे पिता को, जो कोई जरा सा भी कष्ट पहुंचाएगा, तो यह बिल्कुल सत्य है, कि मैं उस दुष्ट को सम्पूर्णतया मार दूंगा ।

 

अश्रूणि मे परिविमोच्य सुखं प्रदत्तं

 हास्यं भृतं मम समस्तनिशादिवासु ।

दुःखं सहेत नहि मे क्षणमात्रमेषः

तं यस्तुदेत्कुपुरुषो सकलं निहन्मि ।।४३।।

 

मेरे आंसू पोंछकर मुझे हंसी दी, मेरी रातों और दिनों को ख़ुशी से भर दिया, जो एक क्षण के लिए मेरा दुख सहन नहीं कर सकते, उनको जो दुष्ट थोड़ा अभी परेशान करेगा, मैं उसको सम्पूर्णतया नष्ट कर दूंगा ।

 

शृण्वन्तु सर्वजगतां सकलाः जनाश्च

 लेशं न दुःखमधुना स्वपितुस्सहेऽहम् ।

विस्मृत्य चावमतिकृत् कुजनो, ध्रुवं तं

 रोषेण शत्रुमथवा सकलं निहन्मि ।।४४।।

 

इस संसार के सभी लोग सुन लें, कि मैं अपने पिता का लेश मात्र भी दुख, बर्दाश्त नहीं कर सकता । जो बुरा आदमी, इस बात को भूल कर मेरे पिता का अपमान करेगा, मैं अपने क्रोध से उस शत्रु को सम्पूर्णतया नष्ट कर दूंगा।

 

भ्राता तथैव भगिनी जननी मदीया

 सर्वे मधुम्भृतिगिरश्च निबोधकाश्च ।

संसारयुद्धकरणे मम यस्सहायः

सोऽस्मत्पिता शिव इवाऽस्ति समैश्च वन्द्यः[8] ।।४५।।

 

मेरे भाई, बहन, माता आदि सभी मीठी वाणी वाले और पथ-प्रदर्शक हैं, लेकिन इस संसार-रूपी युद्ध को करने में, जो मेरे एकमात्र सहायक हैं, वे मेरे पिता शिव के समान ही मेरे लिए पूजनीय हैं ।

 

नूनं हि तच्चरणयोश्च समस्तशास्त्रं

तत्त्वं च धर्मपरकं च शुभं धनानि ।

दुःखं प्रदाय सुरराडपि नैव रक्षेत्

 तं वै नराधममतः तनुतां सुखानि[9] ।।४६।।

 

निश्चित-रूप से उनके चरणों में सारे शास्त्र हैं, धर्म का तत्त्व है, सभी शुभ हैं, और सभी प्रकार की संपदा है । जो ऐसे पिता को दुख पहुंचाता है, उसको देवराज इन्द्र भी नहीं बचा सकते, इसलिए पिता को सुखी कर अपने सुखों का विस्तार करो ।

 

 

कृत्त्वा घोरपरिश्रमं प्रतिदिनं सङ्गृह्य चान्नं पयः

स्वीयेभ्यः प्रददाति पुत्रतनयाभ्यो यः क्षुधालुस्स्वयम्

दुःखाब्धौ हि निमज्जति , स्वतनुजेभ्यश्चैव सौख्यालयं

तन्वन् वित्तयशांसि किं न कुरुते , पित्रेऽस्तु तस्मै नमः ।।४७।।

 

जो प्रतिदिन घोर परिश्रम करके अनाज-पानी इकट्ठा करके अपने पुत्र-पुत्री को देता है । खुद दुःख के समुद्र में डूबकर भी, अपनी सन्तान के लिए सुखों का स्वर्ग खोल देता है । अपनी संतान के लिए धन और यश इकट्ठा करता है ,वह अपनी सन्तान के लिए क्या क्या नहीं करता ! उस पिता के लिए नमस्कार है ।

 

प्रेरको मे सदा शिक्षको मे सदा

 मार्गदर्शी प्रियो मोदकृद्वा सुहृत् ।

सर्वदस्सत्पथे वर्धयंश्चैव मां

सोऽस्मदीयो गुरुश्चास्ति लोकोत्तरः ।।४८।।

 

सदा आप मेरे प्रेरक, शिक्षक, मार्गदर्शक, आनंद करने वाले या दोस्त भी हैं । सब कुछ देने वाले, सही रास्ते पर मुझे बढ़ाने वाले, वे पिता सदा ही इस संसार से बढ़कर हैं ।

 

यस्य चाकर्ण्य वाणीं जगज्जीवति

 चाननं यस्य वीक्ष्यापि धन्यं जगत् ।

भर्त्सना लालना यस्य नाकोत्तरा

 जीवनोद्यानगश्श्रीप्रमोदम्भरः[10] ।।४९।।

 

जिन की आवाज सुनकर यह सारा संसार जी रहा है, जिनका चेहरा देखकर यह जगत् धन्य है,  जिनकी डाँट-फटकार और प्रेम भाव स्वर्ग से भी बढ़कर है, वे पिता इस जीवन रूपी बगिया मे आकर खुशियों को भर देते हैं ।

 

हर्षदश्शोकहा सद्विचारप्रदो

 नैकसम्प्रेरणैः कान्तिशान्तिप्रदो

लौकिकीं दक्षतां शैविकीं निष्ठतां

स्वीयवाक्यैर्ददाति स्वपुत्राय यः ।।५०।।

 

हर्ष देने वाले, ताप हरने वाले, सद्विचार प्रदान करने वाले, अनेक तरह की प्रेरणा देने वाले, कान्ति और शान्ति देने वाले, लौकिक-दक्षता और शैवी-निष्ठता अपने वाक्यों से पुत्र को प्रदान करने वाले, वे पिताश्री हैं ।

 

तद्दयासिन्धुरीयान्न वै रिक्ततां

 वीक्ष्य पुत्रान् तरङ्गास्समान्दोलिताः ।

तत्कृपा तद्दया जीवनोद्धारिणी

मद्गतिः पादयोस्तस्य भूयाच्छ्रितिः ।।५१।।

 

उनका दया-रूपी समुद्र कभी खाली नहीं होता, पुत्रों को देखकर उनके दया के सागर में हिलोरें उठने लगती हैं । उनकी कृपा उनकी दया ही इस जीवन का उद्धार करने वाली है उनके चरणों में ही हमारी गति है, और उनके चरण ही हमारी शरण हैं ।

 

वीक्ष्य चाश्रूणि मौनं समालम्बते

 दुःखपङ्के निमग्ने पितुर्यस्सुतः ।

तस्य किं जीवनेनापि धिग्भागिनः

 सोऽत्र जीवन्मृतः प्रोच्यते मानुषैः ।।५२।।

 

जो अपने पिता के दुख-रूपी कीचड़ में फँस जाने पर, एवं उसके आँसुओं को देख कर भी चुप ही बैठा रहता है, उस पुत्र के जीवन से ही क्या उसे तो धिक्कार है । वह जीता हुआ भी, मरा हुआ है – ऐसा लोग कहते हैं ।

 

सिंहवद्गर्जति स्वापमानेन यो

 वह्निवत्क्रुद्धशौर्यो निहन्याद्रिपून् ।

तत्पिता दुःखपङ्के निमग्नश्च चेत्

क्लीब एवास्ति वा दुर्दिनग्रस्तधीः[11] ।।५३।।

 

जो व्यक्ति अपने अपमान से (क्रोधित होकर), शेर की तरह गरजता है, जिसका क्रोधित पराक्रम जलती हुई आग के समान है, और जो अपने शत्रु को नष्ट करने की क्षमता रखता है, उसका पिता  यदि दुखों में फंस रहा है, तो उसके दो ही मतलब हैं -  या तो वह स्वयं आपत्तिग्रस्त हो गया है, या फिर वह नपुंसक हो गया है ।

 

नैवं क्षणं जगदिदं परितिष्ठते वै

कारुण्यमूर्तिरिह चेन्न पितृप्रतिष्ठः ।

तेनैव मङ्गलमिह, प्रभवन्ति नित्यं

 हर्षाणि चोन्नतिकराणि शुभानि लोके ।।५४।।

 

यह संसार एक क्षण के लिए भी रुक नहीं सकता, अगर यहाँ करुणा की मूर्ति, पिता की प्रतिष्ठा न हो । उस पिता के द्वारा ही इस संसार में नित्य नए मङ्गल होते हैं, खुशियां होती हैं , शुभ-कार्य होते हैं, जिससे नई उन्नतियां आती हैं ।

 

नेमं[12] हि पञ्चपदकैः परिनिर्मितं चा-

ऽऽप्यात्मा शरीर इह तिष्ठति शम्भुरूपः ।

धात्रा स्वयं शिवकरं स्वसुताय दत्तं

 तस्माच्छिवोऽयमिति शास्त्रिजनाः वदन्ति ।।५५।।

 

इस (पिता) को आप सिर्फ पञ्च-भूतों से बना हुआ एक शरीर-मात्र मत मानो, इसमें जो आत्मा रहती है, वह शिव-रूप ही है , विधाता ने स्वयं कल्याण-स्वरूप पिता को, अपने पुत्र के लिए  प्रदान किया है । इसीलिए पिता ही शिव है - ऐसा शास्त्री लोग कहते हैं ।

 

केचिद्धनाय पितरं परितर्जयन्ति

 भूम्यै विवादमनसा व्यथयन्ति चित्तम् ।

केचिद्विचारविषमत्त्वगतास्त्यजन्ति

निन्द्यं सदा निगदितं श्रुतिशास्त्रविद्भिः ।।५६।।

 

कुछ लोग पैसे के लिए अपने पिता के साथ मारपीट करते हैं, कुछ भूमि-संबंधी विवाद के कारण, उनका मन दुखी करते हैं । और कुछ लोग, विचारों की विषमता के कारण अपने पिता को छोड़ देते हैं, ये सब बातें ही वेद-शास्त्रों के जानकार लोगों ने निन्दनीय बताई हैं।

 

साक्षात्पिता शिव इवास्ति तवालये भोः

किं वा वृथा स्तुतिरताः सुरमन्दिरेषु ।

चेत्सेवितोऽस्ति भगवान् परिमोदितश्च

 सर्वे सुराः प्रमुदिताः ध्रुवमेव तस्य ।।५७।।

 

अरे, तुम व्यर्थ में ही क्यों मन्दिरों में पूजा-पाठ में लग रहे हो, जब साक्षात् शिव ही पिता के रूप में आपके घर में विराजमान हैं । जिसने उनकी पूजा कर ली और उन्हें ही प्रसन्न कर लिया, तो सारे देवता तो निश्चित रूप से ही उस व्यक्ति से प्रसन्न हो जाएंगे ।

 

चेन्नाननं तव पितः! निलयेऽहमीक्षे

 तन्मे निराशमनसा वनवद्विभाति ।

तथ्यं हि मङ्गलकरं शुभदर्शनं यत्

त्यक्त्वा न मां जनक भोः निरियाच्च गेहात् ।।५८।।

 

पिताजी, यदि मैं घर में आपका चेहरा नहीं देख पाता (अर्थात घर में अगर आप ना हों), तो मेरा मन बड़ा निराश हो जाता है । और वह घर मुझे जंगल की तरह (जन-विहीन) लगता है, ये बात बिल्कुल तथ्य- पूर्ण है की आपका शुभ-दर्शन बड़ा ही मङ्गलकारी है, इसलिए मुझे छोड़कर आप कभी भी घर से मत जाना (निकलना) !

 

भावान्न वेत्ति जनकस्य सुतो य एवं

 नेत्रे विलोक्य परिगच्छति नैव चिन्त्यम् ।

नैवेङ्गितं न वचसां विनिगूढतत्त्वं

व्यर्था हि तस्य सुतता नयविद्भिरुक्ता ।।५९।।

 

जो बेटा अपने पिता की भावनाओं को ना समझ पाए, और उनकी आंखें देखकर ही उनके विचार को ना जान पाए, न उन के इशारों को, न उनके वाणी में छिपे गूढ़-तत्त्व को समझ पाए, तो ऐसे बेटा होना व्यर्थ है – ऐसा नीतिशास्त्र के विद्वानों ने कहा है !

 

पित्राशिषा हि फलतीह सुखैकवृक्षस्-

 सौभाग्यनूतनफलं लभते च यस्मात् ।

मूलं पितुर्वचनपालनमित्यवैहि

तद्रक्षयेद्यदि पुमान् रसपस्समन्तात्[13] ।।६०।।

 

पिता के आशीर्वाद से ही सुखों का वृक्ष फलदायक होता है, जिससे सौभाग्य के नए-नए फल प्राप्त होते हैं ,और उस वृक्ष की जड़ है -पिता के वचन का पालन करना ! अगर उस जड़ (मूल) की ही आदमी रक्षा करे, तो वह सब तरह से उन सुख-सौभाग्य-रूपी फलों का रस पीता है - यह निश्चित जानो !

 

किं वाञ्छतीति सुजनोऽभिलभेत[14] तथ्यं

कार्याणि तद्वचनरूपपराणि धैर्यैः ।

आरोहयेच्छतसुखोन्नतिपर्वताँश्च

पित्राननस्मितकरो भवतात्सुपुत्रः ।।६१।।

 

पिताजी क्या चाहते हैं - पुत्र इस तथ्य को सदा ही जानता रहे । उनके वचनों के अनुरूप ही धैर्य-पूर्वक सारे कार्यों को करे । पिता को सैकड़ों सुखों के उन्नतियुक्त पर्वतों पर आरूढ कराए अर्थात् बैठाए, एवं अपने पिता के चेहरे पर मुस्कुराहट लाए , वही सुपुत्र है ।

 

नालोकयन्त्वनुचितं न तथोचितं वा

रात्रिं दिनं न, पितुरेव वचस्सरन्तु ।

पित्राज्ञयैव सकलं च तपश्चरन्तु

 जीवन्तु चेन्न विपदां तव सन्निकाशः ।।६२।।

 

उचित-अनुचित को मत देखो, रात या दिन को मत देखो, केवल पिता के वचन का पालन करो, पिता की आज्ञा से ही सारा तप करो, और इस तरह से यदि तुम जियोगे, तो तुम्हारे पास आपत्तियां नहीं फटकेंगी ।

 

सम्प्रत्ययं कुरु सदा प्रतिवाक्यसारी

भूत्त्वा विचार्य गुरुमेव विहाय सर्वान् ।

शम्भुं निधाय हृदये पितरं च नत्त्वा

चेज्जीवनं परिचरेः[15] सुलभेस्सुखानि ।।६३।।

 

उनके प्रत्येक वाक्य का अनुसरण करते हुए उन पर सदा विश्वास करो और सब को छोड़कर गुरु (पिता) को शिव-स्वरूप मानकर अपने हृदय में धारण करो, और पिता को नमस्कार करके अगर अपना जीवन जियो, तो निश्चित ही सुखों को प्राप्त करोगे ।

 

वृद्धोऽस्ति बुद्धिरपि चास्य गतेव जैर्ण्यं,

 जानाति नूतनयुगं जनको न मे वा ।

एतद्विचिन्त्य कृतवान्न वचोऽनुसारं,

 यायात्स दुःखपतनं नहि चात्र शङ्का ।।६४।।

 

ये तो बुड्ढा हो चुका है, इसकी बुद्धि भी जीर्ण (कमजोर) हो चुकी है, यह नए युग को जानता नहीं है - ऐसा सोचकर जो अपने पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता, उनका कहना नहीं मानता, वह दुखों के गहरे पतन को प्राप्त करता है - इसमें जरा भी सन्देह नहीं ।

 

अस्मन्मनांसि न च वेत्ति मनोऽनुसारी

 वृद्धोऽयमद्य मम यूनि न वा हितङ्कृत् ।

एतद्विचिन्त्य परिहाय गृहान्निरेति

यो वै सुतो ध्रुवमहो परिणाशमेति ।।६५।।

 

अरे यह हमारे मन को नहीं जानता यह हमारे मन के अनुसार नहीं है चलता यह बुड्ढा मेरी जवानी में मेरे लिए हितकर नहीं है ऐसा सोचकर जो बेटा अपने घर से निकलता है (जाता है) वह निश्चित ही विनाश को प्राप्त करता है ।

 

त्वं वै ददासि भगवन्! स्वसुतेभ्य एवं

जीव्यं सुखं च सरल! स्वधनानि वाऽपि ।

वेत्तीति यो न कुजनस्स कृतघ्न एव

 स्वर्ग्यं न चैहिकसुखं लभते स पुत्रः ।।६६।।

 

हे भगवन्,आप सरल-स्वभाव वाले हैं । आप अपनी संतान के लिए अपना जीवन, अपनी खुशियाँ, अपनी धन-सम्पत्ति, सब कुछ दे डालते हैं, और इस बात को जो दुष्ट नहीं जानता या मानता, वह कृतघ्न पुत्र न तो स्वर्ग प्राप्त करता है, और न ही इहलोक का सुख प्राप्त करता है।

 

त्वं यं दयार्द्रनयनैः परिलोक्यमानः

खेलेन वा स्खलितवाक् शुभतां युनङ्क्षि ।

तस्य श्रियं क इह रोद्धुमहो समर्थो

 यस्याशिषा चिरवयस्त्विति चेत्त्वयोक्तः ।।६७।।

 

हे पिता ! तुम दयार्द्र नेत्रों से देखते हुए खिलवाड़ में (या अचानक कही हुई) स्खलित हुई वाणी से भी अगर अपने पुत्र के लिए शुभकामना दे दें, तो फिर उसकी समृद्धि को कौन रोक सकता है  जिसके लिए आपने अपने आशीर्वाद में चिरञ्जीव हो ऐसा कर कह दिया तो वह श्रीमान् और दीर्घायु  होता है ।

 

ते च ध्रुवं भुवि समर्थपदाः भवन्ति

विद्वान्स एव बलिनो धनिनो भवन्ति ।

काव्यैर्लसन्ति शिवभक्तियुताः भवन्ति

 येषां प्रसन्नवदनाः पितरो विभान्ति ।।६८।।

 

वे ही इस धरती पर समर्थ पद वाले होते हैं, शक्तिशाली होते हैं, विद्वान् होते हैं, बलवान होते हैं और धनी होते हैं । वे ही कवि होते हैं, शिव-भक्त होते हैं, जिनके प्रसन्न-मुख वाले पिता शोभायमान रहते हैं, अर्थात् जिनके पिता हमेशा जिनसे प्रसन्न रहते हैं ।

 

ते वै रुदन्ति विपदः परिवाप्य दुःखं,

 बुद्धिर्विनश्यति ततः प्रभवेच्च वैरः ।

वित्तक्षयो, न मनुजाः रमणीर्लभन्ते

येषां निराशवदनाः पितरस्तुदन्ति ।।६९।।

 

वे ही लोग विपत्तियों से घिरे रहते हैं, दुःख प्राप्त करते हैं, उनकी ही बुद्धि नष्ट हो जाती है , उनकी ही दुश्मनी फैलती है , उनका ही धन-नाश होता है, वे ही रमणी-प्राप्ति नहीं कर पाते, जिनके घर में वृद्धजन (माता-पिता आदि)  परेशान (दुखी) रहते हैं !

 

जनित्त्वं विद्वत्त्वं बहुमतिधरत्त्वं सुगुणता

कवित्त्वं गानत्त्वं शिवसृतिसरत्त्वं निपुणता

पितस्ते पुण्यानां फलमिव निविष्टं मयि समे

यशोराशिश्चाशीर्भिरथ मम वर्धेत धनता ।।७०।।[16]

 

मेरा यह जन्म, ये विद्वत्ता, अनेक प्रकार की बुद्धियों को धारण करना, सद्गुणयुक्त होना,कवित्त्व, गायनकौशल,शिव के मार्ग का अनुसरण करना, निपुणता – ये सब चीजें , हे पिता, आपके पुण्यों के फल की तरह मुझमें प्रविष्ट हो गए हैं । और मेरा यश तथा धनवत्ता भी आपके आशीर्वाद से खूब बढ़ता है ।

 

अथ क्रोधी लोभी मदनहतचित्तो मदरतः

यदि स्यान्मोही वा विगतसुकृतश्शास्त्रविरतः

विरुद्धं चेत्सर्वं जगदिदमहो तस्य भवति

तथापि त्वं पुत्र श्रितजनकपादस्तदनुपः[17] ।।७१।।

 

यदि तुम्हारा पिता, क्रोधी , लोभी , कामी, नशेड़ीमोही, नष्टपुण्य, शास्त्रों से विरत, भी हो, और यह सारा संसार उसके विरोध में खड़ा हो जाए ! फिर भी, हे पुत्र ! तुम उनके पैर छुओ और उनकी रक्षा करो ।

 

न दोषस्संलोक्यः त्रुटिमपि पितुर्नैव गणयन्

न मात्सर्यं धेयं कथमपि न वैरं च चरतात्

कथञ्चिन्नावज्ञामपयश उतास्य प्रसरतु

तदा पित्राशीर्भिस्सुखसफलकामोऽपि भवतु ।।७२।।

 

अपने पिता का दोष नहीं देखना चाहिए ! उनकी कोई गलती गिननी नहीं चाहिए , उनसे मत्सर-भाव मत रखो ! उन से दुश्मनी मत रखो ! उनकी अवज्ञा मत करो, और उनकी ब़दनामी (अपयश) मत फैलाओ। अगर तुम ऐसे हो, तब पिता के आशीर्वाद से सुखी और सफल कामना वाले हो जाओगे - यह निश्चित है ।

 

यस्मिन् क्षणं न मनुजो न धनं जलं वा

 कस्मैचिदत्र जगति प्रददाति नान्नम् ।

तस्मिँस्त्वमेव भगवन् स्वसुताय सर्वं

 प्राणान् ददासि सुरराडपि नैव तुल्यः ।।७३।।

 

हे भगवन् , इस संसार में आजकल कोई मनुष्य किसी के लिए धन, जल, अन्न और क्षण (समय) भी नहीं देता उस समय में आप, अपने पुत्र के लिए सब कुछ दे डालते हो, प्राण भी दे देते हो । हमारे लिए, देवराज इन्द्र भी आपके समान नहीं है ।

 

विक्षिप्तस्स्याद्यदि च कुटिलः पङ्गुरन्धो जडो वा

काणः खञ्जोऽकर उत वा रोगयुक्तोऽपि दुष्टः

पुत्रं स्वीयं त्यजति न पिता प्रेमबद्धो जगत्याम्

इत्थं देवैरपि नतपदं केऽत्र दुष्टास्त्यजन्ति ।।७४।।

 

पागल, कुटिल,पंगू,जड़,काणा, लंगड़ा, लूला, रोगी, दुष्ट, भी यदि पुत्र हो, फिर भी प्रेम-पाश में बन्धा हुआ पिता, कभी उसे छोड़ता नहीं है – देवताओं द्वारा नमस्कृत ऐसे पिता को, संसार में, वे कौन दुष्ट है जो  छोड़ देते हैं ?

 

अनुभूतेश्च विषयस्सौहार्देन च रञ्जितः ।

पितुः पुत्रस्य सम्बन्धो वाण्या  वक्तुं न शक्यते ।।७५।।

 

ये जो बाप बेटे का सम्बन्ध है, ये अनुभूति का विषय है, सौहार्द से रञ्जित (रंगा हुआ, प्रसन्नतापन्न) है, यह वाणी से नहीं कहा जा सकता ।

 

आत्मा वै जायते पुत्रश्श्रुतिरेषा सनातनी ।

तस्मात्केनापि द्वावेतौ पृथक्कर्तुं न शक्यते ।।७६।।

 

पुत्र के रूप में पिता स्वयं ही प्रकट हो जाता है - ऐसा सनातन वेद-वाक्य है, इसलिए इन दोनों को कोई अलग नहीं कर सकता ।

 

पितुश्च जीवनं पुत्रः पुत्रस्य जीवनं पिता ।

उभौ यौ चाप्यसंयुक्तौ मृतवच्च तयोस्स्थितिः ।।७७।।

 

पिता का जीवन पुत्र और पुत्र का जीवन पिता है । और जो बाप-बेटे अलग होकर रहते हैं , उन दोनों की मृतक के समान हालत (स्थिति) हो जाती है ।

 

दूरः पुत्रः पिता स्यातां शरीरान्न हृदाऽप्युभौ ।

भावनायाश्च संयोगाद्देशादिर्न विगण्यते ।।७८।।

 

यदि बाप-बेटे शरीर से दूर भी हों, तो भी ह्रदय से दूर नहीं होते, क्योंकि भावनाओं का संयोग होने पर स्थान आदि दूरी को नहीं गिना जाता ।

 

सुन्दराकृतिमानेतुं दण्डेन पीड्यते घटः ।

अन्तःकरबलेनापि रक्षयेत्तं न भिद्यते ।।७९।।

 

घड़े की सुन्दर-आकृति बनाने के लिए, उसे डण्डे से थपकी दी जाती है, और अंदर हाथ से सहारा देकर उसको फूटने से बचाया भी जाता है ।

 

अग्नौ निपात्य कुरुते तं घटं गुणसंयुतम् ।

एवं पिता स्वपुत्रं च निर्मिमीते कुलालवत् ।।८०।।

 

और कुम्हार उसे आग में डालकर बहुमूल्य तथा गुणवान् बनाता है, कुम्हार की तरह पिता भी अपने पुत्र को (प्यार और डाँट आदि से) एक सुन्दर और महान् व्यक्ति बनाता है ।

 

नैकाः रणाश्च विजिताः बहुधा मयाऽपि

 रङ्गानि चैव जगतः परिलोकितानि ।

आपत्समुद्रतरणे कुशलस्तथापि

तेऽहं पितेत्यवसरे जनकेन सिद्धः ।।८१।।

वैसे तो मैंने भी बहुत से युद्ध जीते हैं, इस संसार के बहुत से रंग देखे हैं, आपत्तियों के समुद्र में तैरने में, मैं भी बहुत कुशल हूं, लेकिन मौका पड़ने पर "मैं तेरा बाप हूं " ऐसा पिता ने सिद्ध कर ही दिया है ।

 

चिन्तया बाधिते शोकचित्ते क्वचित्

साहसं धैर्यशक्तिं प्रयच्छेत्पिता ।

सर्वसौख्यैकहेतुश्च माङ्गल्यदश्-

चेत् पिता नैव गेहे भवेच्छून्यता ।।८२।।

 

चिंता के द्वारा बाधित होने पर, मन के शोक से आक्रान्त होने पर, साहस, धैर्य और शक्ति देने वाला पिता है । सभी सुखों का कारण है, माङ्गल्य प्रदान करने वाला है, अगर वह घर में नहीं रहते, तो वह घर शून्य ही हैं ।

 

वीक्ष्यैवाननमस्य चैव तनयस्यान्तर्मनः प्राविशन्[18]

भावज्ञस्स पिता च पृच्छति कथं नैराश्ययुक्तोऽस्यरे

कष्टाद्यं न निवदयेत् स तनयो, न स्यात् पिता बाधितः,

नोक्तेऽप्येष सुतं विलोक्य बहुधा जानाति सर्वं पिता ।।८३।।

 

वह पिता अपने पुत्र का चेहरा देखते ही उसके अंतर्मन में प्रवेश कर जाता है और भावों को जानने वाला वह पिता पूछता है – अरे, आज तुम निराश क्यों हो पुत्र यद्यपि ( मेरे पिता व्यर्थ में बाधित न हों इसलिए ) अपने कष्ट आदि को कहना नहीं चाहता, किन्तु न बताने पर भी अपने पुत्र को देखने मात्र से, प्रायः पिता सब कुछ जानते हैं ।

 

दुःखं सौख्यमथापि चास्य सकलं सित्रैस्सहानन्दनम्

आनन्दं प्रियया तथैव किमपि स्वस्यापि यन्मोदनम्

क्वाऽप्युद्भावितवान् क्व भाषणमदात् नाऽस्योद्भवेद्वञ्चनम्

काङ्क्षन् सर्वविधं सुतस्य सुखतां जानाति सर्वं पिता ।।८४।।

 

यह दुखी है या सुखी है, मित्रों के साथ कैसा का आनंद प्राप्त करता है, प्रिया (स्त्री,पत्नी) के साथ सुख, कहां इसने क्या कहा  - ये सब कुछ ! यह कहीं ठगा ना जाए , इस तरह की इच्छा रखता हुआ , पुत्र का सब तरह से सुख चाहने वाला, पिता सब कुछ जानता है ।

 

चेन्मित्रैरपि वञ्च्यते न लभते पुत्रः क्वचिल्लक्ष्यतां

पत्न्या त्यक्तपतिश्च वित्तरहितः दुःखी भवेत्सर्वतः

बन्धुभ्यो विरहस्सदैव विमुखास्स्युस्स्वार्थिनो भ्रातरः

यावज्जीवति न त्यजेत्स्वतनयं तादृक्पिता कथ्यते ।।८५।।

 

यदि मनुष्य मित्रों द्वारा ठगा जाता हो, चाहे वह अपना लक्ष्य भी प्राप्त न कर पाए, चाहे उसकी पत्नी ने उसे छोड़ दिया हो, चाहे धन-हीन हो, चाहे सभी प्रकार से दुखी हो, बन्धु-बान्धवों ने उसे छोड़ दिया हो, या बंधुओं से उसका विरह हो , और सभी भाई स्वार्थी बनकर विमुख हो गए हों, फिर भी जब तक जीवित रहता है, पिता अपने पुत्र को कभी नहीं छोड़ता ।

 

क्रुद्धो भर्त्सयतीति निन्दयति चेत्पुत्रं कदाचित्पिता

पश्चात्तापमियाच्च पृच्छति शमं रुष्टे तथान्यं जनम् ।

प्रेम स्यादुभयोरवाच्यमपि यत्तत्तोलने कः क्षमः

एवं देवसुदुर्लभं च पितरं सौभाग्यवान् प्राप्नुते ।।८६।।

 

कभी क्रोधित होकर पिता अपने पुत्र को डाँटता और उसकी निंदा करता है, लेकिन बाद में उसे पश्चात्ताप होता है । वह नाराज तो होता है, पर दूसरे आदमी से अपने पुत्र की राजी-खुशी पूछता है । पिता और पुत्र के बीच में जो अवाच्य-प्रेम होता है, उसको तोलने में कोई भी सक्षम नहीं है । इस तरह देवताओं से भी दुर्लभ पिता को सौभाग्यशाली मनुष्य ही प्राप्त करता है ।

 

 

पूर्वं क्रुध्यति दुःखमानसवशात् पश्चात्तमालिङ्गति

गेहाद् याहि च वक्ति रोदिति ततोऽन्विष्याऽऽनयेद् यो गृहम्

भोज्यं मा कुरु यो निगद्य सहसा केनापि तं भोजयेत्

वाण्या कोऽपि न वक्तुमर्हति पितुर्भावं च तं भावुकः ।।८७।।

 

पहले तो दुखी होने के कारण गुस्सा करता है,

फिर बाद में उसे गले भी लगा लेता है । "घर से निकल जा" - ऐसा कहता है, बाद में रोता है । फिर उसे ढूंढ-कर दोबारा घर लिवा लाता है । गुस्से में "रोटी मत खा" ऐसा कहकर बाद में प्रेमवशात् किसी और से उसे भोजन करवा देता है । वास्तव में पिता के भावों को कोई भावुक भी वाणी द्वारा कहने में सक्षम नहीं है ।

 

बाह्यः कठोररूपस्स्यात् हृदये रससंयुतः ।

पुत्रस्य हितकाङ्क्षी यो नारिकेलफलः पिता ।।८८।।

 

बाहर से बहुत कठोर और (अंदर से) हृदय में बहुत (कोमल) रसपूर्ण , पुत्र का सदा हित चाहने वाला, वह पिता नारियल के फल के समान है ।

 

श्रुत्त्वा यो जनकस्य भर्त्सनवचः गेहाद्गतो दुःखितः

जानात्येव न , रोदिति स्वतनयस्यैवं गते भावुकः

क्रुद्धो यद्यपि वक्ति नैव पुरुषः पुत्राय यत् स्निह्यति

यो भावः पितुरात्मजे कथमिवाश्रीयेत को भूतले ।।८९।।

 

पिता की डांट सुनकर जो पुत्र घर से दुखी होकर चला गया,वह नहीं जानता कि उसके जाने पर वह भावुक पिता कितना रोया है । वह पिता क्रोधित होता है, लेकिन कभी पुत्र से बताता नहीं कि वह उससे कितना प्रेम करता है । पिता का जैसा भाव अपने पुत्र के प्रति रहता है, उसे इस संसार में कोई भी आश्रयण नहीं कर सकता (अर्थात् कोई अन्य सम्बन्धी इस तरह का

सुन्दर और सशक्त भाव आपस में नहीं रख सकता) ।

 

पितुः पुत्रस्य सम्बन्धो नानारूपेण दृश्यते ।

क्वचिद्रुक्षो क्वचित्स्निग्धो मित्रतापूर्ण एव वा ।।९०।।

 

पिता और पुत्र का सम्बन्ध अनेक रूपों में देखा जाता है – कहीं-कहीं रूखा, कहीं स्नेह-पूर्ण और कहीं मित्रता-पूर्ण।

 

गाम्भीर्यपूर्णमेवापि  हास्यपूर्णं क्वचित्क्वचित् ।

मर्यादापूर्णमथवोच्छृङ्खलतासमन्वितम् ।।९१।।

 

कहीं यह सम्बन्ध गम्भीरतापूर्ण होता है, कहीं हास्य से भरा हुआ होता है, कहीं मर्यादापूर्ण होता है, कहीं-कहीं उच्छृङ्खलता भी इस सम्बन्ध में देखी जाती है ।

 

मर्यादायुक्तमेवाहो भावयुक्तं रसैर्भृतम् ।

आदर्शरूपमत्रैव भारते लोक्यते जनैः ।।९२।।

 

और मर्यादा-युक्त, भावपूर्ण, रसों से भरा हुआ, यह पिता-पुत्र के सम्बन्ध का आदर्श रूप भारत में देखा जाता है ।

 

आङ्ग्लानां दुष्टदेशेषु भावाः नष्टास्तथादरः ।

पितुः पुत्रस्य हार्दं तद्भावं नश्यति सर्वथा ।।९३।।

 

अङ्ग्रेजों के दूषित देशों में पिता-पुत्र में आदर तथा भावुकता नष्ट हो गई है, इसलिए इस सम्बन्ध में जो हार्दिक वह विशिष्ट भाव है , वह सर्वथा नष्ट हो रहा है ।

 

सूर्यवंशं सदाऽऽलोक्यं पुत्रैश्चैव तथाऽपने ।

एकरिश्ता सलाखें च जिद्द्यादयो विशेषतः ।।९४।।

 

बाप-बेटे के रिश्ते को सुन्दर बनाने के लिए पुत्र को चाहिए कि वह सूर्यवंशम् , अपने , एक रिश्तासलाखें, जिद्दी इत्यादि फिल्मों को विशेष रूप से देखें ।

 

एषु बच्चनसन्न्याद्यैः[19] कृतं नाट्यं सुतस्य यत् ।

तद्वै चादर्शरूपं स्याच्चलच्चित्रेषु लोक्यताम्[20] ।।९५।।

 

इन फिल्मों में अमिताभ बच्चन, सनी देओल, अक्षय कुमार इत्यादि ने पुत्र का जो अभिनय किया है - वह इस सम्बन्ध का आदर्श रूप है, एतदर्थ वे फिल्म दृष्टव्य हैं ।

 

दुर्गुणो योऽस्ति मे नैव चर्यस्त्वया

 सद्गुणा एव मान्याश्च धार्या अपि ।

मङ्गलोद्भावनाभावितो यः पिता

 पुत्रजीव्यं गुणैर्निमिमीते शुभम् ।।९६।।

 

अरे पुत्र, मेरे दुर्गुणों को तू मत अपनाना । मेरे सद्गुणों को ही सदा धारण कर । इस तरह की एवं अनेक मङ्गल उद्भावनाओं से भावित वह पिता, अनेक गुणों द्वारा पुत्र के जीवन को शुभतायुक्त बनाता है ।

 

धूम्रपानं सुरापानमेवास्तु वा

 स्यात्तमालादिपत्रस्य वा भक्षणम् ।

द्यूतपाशोऽथवाऽन्यो भवेद्दुर्गुणश्-

चेत्पिता ते करोति त्वया न क्वचित् ।।९७।।

 

हे पुत्र! धूम्रपान, शराब पीना, तम्बाकू खाना, जुआ खेलना, या अन्य कोई दुर्गुण यदि तुम्हारे पिता में है, तो उस दुर्गुण को तुम मत (अपनाओ) करो ।

 

कुत्र पुत्रः प्रयातीति संलोकयन्

किं च कार्यं करोतीति जानँश्च यः ।

क्षेमदुःखे च के सर्वदा चिन्तयन्

पुण्यचारीव लोके स सञ्जीवति ।।९८।।

 

"मेरा पुत्र कहां जा रहा है" यह देखता हुआ, "क्या काम कर रहा है" यह जानता हुआ, "यह सुखी है या दुखी" यह सोचता हुआ और देखता हुआ, एक पुण्याचारी मनुष्य की भांति, पिता इस संसार में जीवित रहता है ।

 

आगतस्त्वं कुतो यासि  च क्वाद्य भोः

पृच्छता येन पित्रा सुतो बोधितः

कुत्रचित्पुत्रवर्गश्च रुष्टो भवेन्-

नैव जानाति हार्दं पितुस्स ध्रुवम् ।।९९।।

 

"तुम कहां जा रहे हो", "कहां से आ रहे हो", "क्या कर रहे हो", "इस समय कहां हो" - इस तरह पुत्र से पूछने के द्वारा वह पिता अपने पुत्र को सदा ही बोध (ज्ञान) देता रहता है । इन बातों से कभी-कभी पुत्र रुष्ट irritate भी होता है, (कि ये तो हमेशा ही डिस्टर्ब करते रहते हैं), लेकिन वह नहीं जानता कि यह पिता का उसके प्रति एक हार्दिक लगाव है ।  (अर्थात् पिता, पुत्र की बहुत देखभाल करता है । )

 

जीवने तर्पयेन्नैव मृत्योः पश्चाज्जलप्रदः ।

पुत्रत्त्वस्य च माहात्म्यं नष्टं स्यात्तद्विधैः जनैः ।।१००।।

 

जो पुत्र, पिता के जीवित रहते हुए उन्हें तृप्त न कर पाए और फिर मृत्यु के बाद जल से तर्पण करता फिरे, ऐसे पुत्रों ने पुत्र होने की महिमा को नष्ट कर दिया है ! धिक्कार है उन्हें !

 

पितृश्रद्धाश्रितं काव्यं पित्रनुग्रहकाङ्क्षया ।

पितृपक्षे प्रकुर्वेऽहं श्रीप्रमोदगुणङ्गतः ।।१०१।।

 

यह पिता के लिए श्रद्धा से भरा हुआ काव्य, पिता की कृपा प्राप्त करने की इच्छा से , मैंने आनन्दरूपी गुणों को प्राप्त करते हुए (या अपने प्रमोद नामक पिता के गुणों को प्राप्त करते हुए ) पितृ-पक्ष में लिखा है ।

-----

।। इति पण्डितटीकारामशास्त्रिपौत्रेण श्रीप्रमोदशर्मात्मजेन श्रीबाबागुरुशिष्येणाचार्यहिमांशुगौडेन प्रणीतं पितृशतकम् सम्पूर्णम् ।।

-----

।। यह पण्डित टीकाराम शास्त्री के पौत्र, श्रीप्रमोदशर्मा के पुत्र, श्रीबाबागुरुजी के शिष्य, आचार्यहिमांशुगौड द्वारा विरचित पितृशतक सम्पूर्ण हुआ ।।

----

 

 

 

।। डॉ.हिमांशुगौडस्य संस्कृतकाव्यरचनाः ।।

श्रीगणेशशतकम्

(गणेशभक्तिभृतं काव्यम्)

सूर्यशतकम्

(सूर्यवन्दनपरं काव्यम् )

पितृशतकम्

(पितृश्रद्धानिरूपकं काव्यम्)

मित्रशतकम्

( मित्रसम्बन्धे विविधभावसमन्वितं काव्यम् )

श्रीबाबागुरुशतकम्

(श्रीबाबागुरुगुणवन्दनपरं शतश्लोकात्मकं काव्यम्)

भावश्रीः

( पत्रकाव्यसङ्ग्रहः )

वन्द्यश्रीः

 (वन्दनाभिनन्दनादिकाव्यसङ्ग्रहः)

काव्यश्रीः

(बहुविधकवितासङ्ग्रहः)

भारतं भव्यभूमिः

( भारतभक्तिसंयुतं काव्यम् )

१०

दूर्वाशतकम्

(दूर्वामाश्रित्य विविधविचारसंवलितं शतश्लोकात्मकं काव्यम्)

११

नरवरभूमिः

(नरवरभूमिमहिमख्यापकं खण्डकाव्यम्)

१२

नरवरगाथा

(पञ्चकाण्डान्वितं काव्यम्)

१३

नारवरी

(नरवरस्य विविधदृश्यविचारवर्णकं काव्यम् )

१४

दिव्यन्धरशतकम्

(काल्पनिकनायकस्य गुणौजस्समन्वितं काव्यम्)

१५

कल्पनाकारशतकम्

(कल्पनाकारचित्रकल्पनामोदवर्णकम्)

१६

कलिकामकेलिः

(कलौ कामनृत्यवर्णकं काव्यम्)

 



[1] बाल्ये येन सदा मदीयमनसोऽहो रञ्जनायाऽयति

यद्यद्वांछितवान् तदेव सततं शक्त्या तदोपस्थितं

मिष्ठान्नं फलमस्तु चापि गुड़िया खेलाय यो दत्तवान्

नैवं तन्महिमानमस्मि वचसा वक्तुं तथा मे पिता।।१।। पूर्वमादिश्लोकत्त्वेनैतद्रचितमासीत् ।

जिसने बचपन में हर प्रकार से मेरे मनोरञ्जन करने का प्रयत्न किया, जो-जो मैंने इच्छा की, वह तुरन्त ही यथाशक्ति उपस्थित कर दिया । चाहे मिठाई हो, चाहे फल हो, चाहे गुड़िया हो, सब कुछ मेरे खेलने के लिए लाए । उन पिता की महिमा, मैं अपनी वाणी द्वारा वर्णन करने में समर्थ नहीं हूं ।

 

[2] जाने नामृतपानवच्च हृदये भावो मुदा जागृतः इति पाठा.

 

[3]  तनयस्य सुस्मितं (प्रसन्नतां) काङ्क्षयितुं तच्छीलः यस्य चित्तस्य स तनयस्मितकाङ्क्षिचित्तः ।

[4]  सुखतायाः अभिलब्ध्यै सुखताभिलब्ध्यै । स्मृत्यादयो भागाः घटकाः येषां, (वेदानां) तैः ।

[5]  निषेधार्थकः ।

[6] स्वनेत्रैः जनकं अन्विषति पितुरदृष्टे सति स्वनेत्रैः , स्व- अत्मीयैर्भावादिभिर्नेत्रैरित्यर्थः अथवा -

नहि 'मम पिता न जाने क्व गतो गृहं विहाय इति सामाजिकतानिर्वहणाय परैः अन्वेषयति, अपितु स्वयमेव प्रेमतया तदन्वेषणाय जागृततया व्याकुलतया च तमन्विषति इति स्वनेत्रैरित्यस्याभिप्रायः ।

[7] धन्यश्चिनोति भुवि चात्र सुवर्णपुष्पम् इति पा.

[8] कस्यापि नैव तुलना पितुरस्ति शक्या इति पा. इह पितुरिति पञ्चमी बोध्या ।

[9] तस्य पितुः सुखानि तनुतामित्यर्थः ।

[10]  जीवनरूपम् उद्यानं गच्छतीति जीवनोद्यानगः (गमेर्डः) । श्रीरूप-प्रमोदं बिभर्त्तीति श्रीप्रमोदम्भरः अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम् इति मुम् ।

[11] दुर्दिनैः दुर्दिनेषु वा ग्रस्ता धीर्यस्य ।

[12]  न इमं (पितरं), पञ्चभतनिर्मितमात्रम् अवैहि , यतो हि अत्र पितृशरीरे शिवस्वरूप आत्मापि तिष्ठतीति भावार्थः ।

[13]  तत् पितृवचनपालनरूपिमूलं यदि रक्षयेत् तर्हि स समन्तात् (सर्वदिशाभिः) रसपः (सकलेन्द्रियसौख्यरूपि-रसं पिबतीति) भवति ।

[14]  सुजनः पुत्रः।

[15]  परिचरेः परितः चरेः । चेत् स्वजीवनं परिचरेः (सेवेथाः) तर्हि सुखानि सुलभेः।

[16] सुरापी च स्तेनश्शतजननिहन्ता तव पिता,भवेद्भ्रष्टाचारी परगृहविहारी शठमतिः ।

कुमार्गो दुश्शीलः कटुवचनभाषी यदि पिता,तथापि त्वन्नम्यस्सुर इव न शङ्कां कुरु सुत ।।७०।। शराबी , चोर, कातिल, भ्रष्टाचारी, दूसरों के घर में विहार करने वाला, शठ-बुद्धि वाला, कुमार्गी, कुशील, कटु-वचन बोलने वाला, भी अगर तुम्हारा पिता है, फिर भी तुम्हारे लिए वह देवताओं की तरह पूजनीय हैं, इसमें जरा भी शङ्का मत करो । - पूर्वमेतत्पद्यं सप्ततितमं कल्पितमासीत् । किन्तु पश्चादनुभूतं यदेतत्तु भावातिरेकमात्रमेव । वस्तुतः  दोषवांसतु सर्वत्र हेय अव भवति । प्रह्लादेन स्वपिता हिरण्यकशिपुर्यथा त्यक्तः।

 

[17] तदनुपः तम् अनु पश्चात् पातीति । श्रितौ जनकपादौ येन ।

[18] प्र आ विश शतृ । अन्तर्मनः इति विश्-धातुप्रयोगे द्वितीया ।

[19] अमिताभबच्चनसन्नीदेवलाद्यैः इत्यर्थः ।

[20] चलच्चित्रैर्व्रजेच्छिक्षां या वै भावविर्धिनी । तेषु ये दुर्गुणाश्चोक्तास्त्यक्तव्यास्ते तु सर्वदा ।।











No comments:

Post a Comment

संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक

 ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्र...