Thursday, 17 September 2020

'भावश्री' की अतिलघु समीक्षा

 


भूमिका

 

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक इस संस्कृत काव्य-रचना की परम्परा में प्रतिदिन नया कार्य किया जा रहा है संस्कृत का साहित्य महर्षि वाल्मीकि, जो कि आदि कवि थे, उनसे लेकर के आज तक भी एक नई ताजगी को लेकर प्रवाहमान देखा जा रहा है  कवि-कुलगुरू कालिदास, बाणभट्ट, भारवि,ण्डी, भास आदि कवियों से प्रवाहित होती हुई यह काव्य की धारा आज भी उसी प्रकार से सतत, अक्षुण्ण , निर्मल बहती जा रही है आज भी पद्मश्री अभिराज-राजेंद्र मिश्र, पद्मश्री रमाकान्त शुक्ल, डॉ.निरंजन मिश्र, जैसे अनेक संस्कृत कवियों द्वारा अनेक काव्य-रचनाओं के द्वारा संस्कृत साहित्य में नई अभिवृद्धि की जा रही है

इसी आधुनिक कवि परम्परा में विशिष्ट काव्यप्रतिभा को धारण करने वाले संस्कृत कवि हिमांशु गौड़ भी हैं । इन्होंने सैंकड़ों संस्कृत कविताएं लिखी हैं, लगभग २५ संस्कृत काव्य ग्रन्थ लिखें हैं, जिनमें से दस संस्कृत काव्य ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके हैं और शेष प्रकाशनाधीन हैं । इनके - भावश्रीः, वन्द्यश्रीः, काव्यश्रीः , बाबागुरुशतकम् , पितृशतकम् ,गणेशशतकम् , सूर्यशतकम् , कल्पनाकारशतकम् , दिव्यन्धरशतकम् , नरवरभूमिः – ये दस काव्य प्रकाशित हो चुके हैं । एवं मित्रशतकम् , नरवरगाथा , भारतं भव्यभूमिः , दूर्वाशतकम् , नारवरी इत्यादि काव्य प्रकाशनाधीन हैं । यहां शोधकर्ता के द्वारा चुना गया विषय इन्हीं कवि का पत्रसङ्ग्रहात्मक काव्य भावश्री है ।  इसमें ८११ श्लोक हैं । इनके रचित श्लोकों में एक नयापन अनुभव होता है, शास्त्रों क प्रगल्भता घोषित होती है, विज्ञ-पुरुषों के मन संतुष्ट होते हैं तथा कविता की प्राञ्जुलता देखी जाती है प्रस्तुत भावश्री काव्य में कहीं प्रकृति का वर्णन, कहीं संसार की दशा का निदर्शन, कहीं पर पीड़ा का ज्ञापन, कहीं संसार को लेकर कवि की दार्शनिक दृष्टि, कहीं शास्त्रीय-पक्षों का निरूपण, कहीं आत्म-स्वरूप का चिंतन, कहीं मन में उदित भावों का सम्यक्तया प्रतिपादन और कहीं कल्पनाओं का विचित्र्य है इनके काव्यों में भावश्री जो ग्रंथ है वह विभिन्न विद्वानों, मित्रों, कवियों और परिचितों के लिए लिखे हुए भावपूर्ण-पत्रों का सङ्कलन है किंतु पत्र यहां यह निर्देश तो सिर्फ नाम मात्र के लिए ही है, वास्तव में तो पत्र के बहाने प्रतिपद कवि ने यहां अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है अपने कल्पनाओं की उत्कृष्टता को दिखाया है अपने शास्त्री एवं लौकिक पौराणिक और का काव्यादि से संबंधित ज्ञान के वैशिष्ट्य को दक्षतापूर्वक विभिन्न छन्दों में बन्धें हुए श्लोकों के द्वारा प्रदर्शित किया है इस ग्रंथ में कवि ने बहुत स्थलों पर अपने अध्ययन-स्थल नरवर का भी वर्णन किया है और वहां की विद्वत्ता भी चर्चा की है । यहां हम इस ग्रन्थ में प्रतिपादित विषयों के संदर्भ में हम कुछ अवलोकन करते हैं

 

भावश्री काव्यग्रंथ में छन्दों का प्रयोग -

चदि आह्लादे[1] इस धातु से चन्देरादेश्च छः[2]  इस उणाि सूत्र से असुन् प्रत्यय करने पर और को आदेश करने पर छन्द शब्द की निष्पत्ति होती है अर्थात् दिसके पठन से आह्लाद प्राप्त हो । अथवा कुछ शास्त्रियों के शब्दों में - छादनाच्छन्द इत्याहुः - जो शब्दों को आवृत कर ले, उस छंद कहते हैं इस ग्रन्थ में अनुष्टुप् ,वसन्ततिलका , मालिनी, इन्द्रवज्रा, उपजाति , शिखरिणी,  द्रुतविलम्बित, भुजङ्गप्रयात, पञ्चचामर, स्रग्विणी, स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित – इन बारह छन्दों का प्रयोग किया है ।

इससे कवि क अनेक छन्दों में रचना क निपुणता ज्ञात होती है । यहां पर हम कुछ छन्दों के लक्षण और भावश्री ग्रन्थ से उनके उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं -

अनुप्रास अलंकार

इस अलङ्कार में श्लोक में छठ अक्षर हमेशा गुरु रहता है, और चारों पादों में पांचवा अक्षर हमेशा लघु रहता है इसी प्रकार दूसर और  चौथे पाद में सातवां अक्षर हृस्व रहता है किन्तु पहले और तीसरे पाद में वही सातवां अक्षर दीर्घ रहता है इसका उदाहरण -

लक्षण - श्लोके षष्ठं गुरुं ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् । द्विचतुष्पादयोर्हृस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।। उदाहरण -

कीर्तिकञ्चनकामिन्याशानां पाशैस्समाकुलाः।

बद्धाः धावन्ति सर्वत्र दृष्टं कौतूहलं महत् ।।२०।।[3]

वसन्ततिलका छन्द

इस छन्द के प्रत्येक पाद में १४ अक्षर होते हैं । इसमें भगण, भगण, जगण,जगण और अंतिम दो गुरु रहते हैं।

वसन्ततिलका- लक्षण – उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः । उदाहरण -

कुत्र भ्रमानि मुहुरेव किमुत्सृजानि , किं शब्दरूप इव वा करवाणि वायौ

भ्रान्तोऽप्यदृश्य इव वा मनसां विरूपैः, संलोकते क्वचिदनाप्तसुवर्णलोकान्।।४।।[4]

मालिनी छन्द

इस छन्द में एक पाद में १५ अक्षर  होते हैं नगण नगण मगण यगण यगण ।

मालिनी- लक्षण - ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः । उदाहरण -

सुरवरशुभभाले शोभमानाद्धिमांशो:, विगलितकररूपैश्श्रीशिवप्रीतिभाजां

द्विजकुलपदनिष्ठप्राप्तकाव्यैकभावो, जनित इव विबोध्यो गौड एवं हिमांशु:।।३।।[5]

इन्द्रवज्रा छन्द

इस छन्द में ११ अक्षर होते हैं । तगण तगण जगण गुरु गुरु ।

इन्द्रवज्रा – लक्षण – स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः । उदाहरण -

श्रीशङ्कराचार्य! गुरोऽस्मदीयं, हृज्जातभावं च भवान् शृणोतु

धर्मस्य चर्चां च करोमि काञ्चिच्चाधर्मरूपाण्यपि संसृतानि।।१।।[6]

उपजाति लक्षण –

इसका लक्षण प्रायः इन्द्रवज्रा छन्द की तरह ही है, लेकिन इन्द्रवज्रा में शुरआती अक्षर चारों पादों में दीर्घ होता है , उसी प्रकार उपेन्द्रवज्रा छन्द में चारों पादों में शुरूआती अक्षर हृस्व होता है, किन्तु जब चारों पादों में शुरआती अक्षर कहीं हृस्व हो , और कहीं दीर्घ हो , तब यह उपजाति बनता है । मतलब इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा का मिलाजुला स्वरूप उपजाति है

उपजाति  – लक्षण - अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः । इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु वदन्ति जातिष्विदमेव नाम ।। उदाहरण -

आदौ भवत्पादसरोजसक्त:,  प्रणम्य भक्त्या भुवि भक्तवृन्दम् ।

श्रीभारतस्याऽखिलधर्मविभ्राड् ,भवान् जनेभ्यश्शिवदो विभाति।।२।।[7]

शिखरिणी छन्द

इसमें एक पाद में १७ अक्षर होते हैं यगण, मगण, नगण, सगण, भगण, लघु, गुरु

शिखरिणी- लक्षण – रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागा शिखरिणी । उदाहरण -

तदा मत्काव्यानि श्रुतिनतिपराणीह भवता, विलोक्यावोच्येतन्मम शुभभविष्यैषणमपि

मयाऽर्कस्य श्रीमत्कमलपतिसूर्यस्य शतकं, श्रितं यत्तच्चाद्य प्रणतिपरवाचा विरचितम् ।।५।।[8]

द्रुतविलम्बिछन्द

इसमें एक पा में १२ अक्षर होते हैं  नगण, भगण, भगण, रगण

द्रुतविलम्बित - लक्षण - द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ । उदाहरण -

अलिकुला सुमनोल्लसिता लता विहगरावरतं नवलं वनम्

मधुमये मधुवर्षिसुहर्षिणी जलझरी सुसरो जलजैर्युतम्।।५।।[9]

भुजङ्गप्रयात छन्द

इसके एक पाद में बारह अक्षर होते हैं तथा यह छन्द चार यगण से बनता हैं

भुजङ्गप्रयातम् - लक्षण – भुजङ्गप्रयातं चतुर्भिर्यकारैः । उदाहरण -

अहो क्षुद्रजीव्यं तथा नैकदृष्टिः पुनश्श्वासविप्रत्ययस्यात्र यात्रा

वृथा क्रोधकामाकुलः लोभकारी निपत्यापि कूपे विनश्येच्च नैजम् ।।१७।।[10]

पञ्चचामर छन्द

इसमें एक पाद में सोलह अक्षर होते हैं जगण,रगण, जगण,रगण, जगण, गुरु

पञ्चचामर- लक्षण -जराजराजगाविदं वदन्ति पञ्चचामरम् । उदाहरण -

अतो विवस्वतश्शती कृता मया नतेस्ततिः,प्रसादमाप्य मत्प्रभां प्रवर्धयेच्च भास्करः ।

मुदाऽर्चनैकपद्धतिस्सृता कवित्त्वसंश्रिता, प्रिया हि मालिनीनिबद्धचेतसा सुमङ्गला ।।७।।[11]

स्रग्विणी छन्द

इसमें एक पाद में बारह अक्षर होते हैं रगण रगण रगण रगण

स्रग्विणी- लक्षण – रैश्चतुर्भिर्युता स्रग्विणी सम्मता । उदाहरण -

सर्वनीतिं निशायां दिवायां च वा,चर्चयन् मोदमाप्तो हिमांशुर्हि यो

तुभ्यमद्यास्ति पद्यार्पणे संरतः,तान्यहान्यद्य सुस्मारयेत्सोऽत्र वै।।१३।।[12]

स्रग्धरा छन्द

इसमें एक पाद में २१ अक्षर होते हैं मगण,रगण,भगण, नगण, यगण, गुरु

स्रग्धरा- लक्षण – म्रभ्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम् । उदाहरण -

लालित्यैरक्षरैश्च प्रतिपदमनिशं मोहभङ्गैकनिष्ठै:

ताराम्बायास्स्तवोऽहो लसति नवपदस्थापितश्रद्धया च

यात्राभिर्दर्शनाद्यैर्विविधकलनदक्षस्य चित्तानुसारी

सद्भावानां प्रथापि प्रवहति बहुधा त्र्यकम्बकस्य प्रभावात्।।१।।[13]

शार्दूलविक्रीडित छन्द

इसमें एक पाद में उन्नीस अक्षर होते हैं मगण,सगण,जगण,सगण,तगण,तगण, गुरु

शार्दूलविक्रीडित – लक्षण - सूर्याश्वैर्मसजास्ततस्सगुरवश्शार्दूलविक्रीडितम् । उदाहरण -

यातानीव दिनानि शीघ्रगतिभिर्वर्षत्रयस्यात्र वै

अद्यापीव तुदेत् सुखस्मृतिरहो विद्युच्चले जीवने

शोधच्छात्रतया त्वया च मयका कालश्शुभैर्यापित:

सङ्गीतादिकसक्तकाव्यरसिकैश्श्रीशैलजापूजया।।१३।।[14]

इस प्रकार हमने देखा कि भावश्री ग्रन्थ में छन्दों का बहुत ही निपुणतापूर्वक प्रयोग किया गया है

 

प्रस्तुत ग्रंथ में प्रयुक्त अलंकारों का विवेचन -

जो शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म होते हैं, और जिनके द्वारा उनकी शोभा बढ़ती है,रस आदि को जो अलंकृत करते हैं, वही अलंकार कह जाते हैं - ऐसा साहित्यदर्पण के रसनिरूपण अध्याय में कहा गया है इसी प्रकार अलंकारों का काव्य में बहुत महत्व होता है । चूंकि यह काव्यग्रन्थ कलेवर में काफी विशाल है , इसलिए इसमें  अलंकारों की काफी मात्रा में हैं अनुप्रास अलंकार की छटा देखिए

राधामाराधते बाधानाशिनीं यो बुधोऽधुना । तं राधावल्लभं वन्दे राधावल्लभसुप्रियम्।।१।।[15]

यहां पर रकार और कार क बार-बार आवृत्ति हुई है इसलिए यहां अनुप्रास अलङ्कार है इसी तरह दूसरे श्लोक में यमक अलंकार देखिए 

हिमांशुभालप्रिय एष विप्रो हिमांशुगौडस्त्विति यो विधेयः।

हिमांशुरश्मिश्रितनव्यकाव्यं हिमांशुगुण्यस्तनुते हिमाभम्।।२।।[16]

यहां पर हिमांशु यह समा में स्थित शब्द बार-बार श्लोक में आया है , लेकिन समासवशात् सब जगह अलग ही अर्थ को कह रहा है, इसलिए यहां पर यमक अलंकार है उसी तरह स्वभावोक्ति अलंकार का चित्रण देखिए

श्वानो भ्रमन्ति परितोपि गृहाणि चान्नं, जग्धुं शनैश्चरदिनेषु च कृष्णवर्णाः ।[17]

इस श्लोक में कवि कह रहे हैं कि यहां घर  के चारों तरफ कुत्ते घूमते रहते हैं ,जो कहीं से खाने के लिए रोटी के टुकड़े की आशा करते हैं  । चूंकि संस्कृत में श्वान् शब्द कुत्ते का वाचक है , जोकि श्वि गतौ[18] धातु से श्वन्नुक्षन्पूषन्.[19] इस उणादि से बना है, अससे यह सिद्ध होता है कि पूरे दिन गतिशील रहना (या इधर-उधर घूमना) कुत्ते की स्वाभाविक क्रिया है।  इस तरह यहां कुत्ते का स्वभाविक चित्रण है, अतः यहां स्वभावोक्ति अलंकार है उसी प्रकार नीचे लिखे श्लोक में उपमा और रूपक अलंकार की झलक मिलती है

किन्त्वत्र मे न रमते मनसां मयूरो, ग्राम्ये रमेत परिनृत्यति मेघलोकैः ।

अम्बूज्झरीव झरति श्रुतिभाववारां, वायुप्रवाह इव शैवविचारकल्पः ।।१५।।[20]

इस श्लोक में कवि ने कहा है कि "यहां नगर में मेरा मन-मयूर नहीं रमता ! अपितु वह ग्राम में ही बादलों को देखने से प्रसन्न होता है। और मेरे मन में श्रुति (वेद) का भावरूपी झरना हमेशा झरता रहता है , और कल्याणमय (शैव) विचारों का कल्प , वायु के प्रवाह की तरह बहता रहता है । इसी प्रकार इसमें मन का, मयूर में अभेद आरोप है , अतः यह रूपक की पुष्टि करता है । इसी तरह श्रुति के भाव रूपी जो जल हैं, उनकी उपमा झरने से कर दी है , इसलिए यहां पर भी उपमा अलंकार है चौथे पाद में भी कल्याणमय विचारों के कल्प को वायु के प्रवाह की तरह बताया है, अतः यहां भी उपमा ही है

 

प्रस्तुत काव्य में निहित रसों का विवेचन -

वाक्यं रसात्मकं काव्यमिति[21]  रसपूर्ण वाक्य ही काव्य है आचार्य विश्वनाथ ने ऐसा काव्य का लक्षण अपने ग्रंथ साहित्य दर्पण में किया है । तथा रस का लक्षण - विभावेनानुभावेन व्यक्तः सञ्चारिणा तथा । रसतामेति रत्यादिः स्थायिभावः सचेतसाम् ।[22]  इस प्रकार दिया है । इसका ही अनुसरण करते हुए हम इस काव्य में रस का अनुशीलन करेंगे ।  यद्यपि यह ग्रन्थ पत्रकाव्य-सङ्ग्रहात्मक है , कवि-चिन्तदर्शी है , अनेक विषय, देश-दशा , स्थान-दशासंसार की घटनाएं आदि इसमें पाई जाती हैं, तथा शास्त्रों का विविध-स्वरूप इसमें देखा जाता है।  यद्यपि इसमें महाकाव्य, कथा, नाटकादि की तरह एक ही व्यक्ति या विशेष विषय को लेकर के नहीं लिखा गया है फिर भी कहीं कहीं किसी घटना के विवेचन के अवसर पर किसी रस का वैशिष्ट्य प्रकट होता ही है , उसी को शोधकर्ता यहां प्रकट करेगा

वीर रस - त्र्यंबकेश्वरचैतन्य महाराज के लिए लिखित पत्र में कवि ने यज्ञ स्थल पर किञ्चित् युद्ध का वर्णन किया है -

पात्राणां क्षालने सर्वे रक्तास्ते कृतभोजनाः । अन्यस्थलस्य दुष्टेन साङ्गवेदिकृशद्विजः।।९।।

पीडितो बलमत्तेन कटारा रुष्टवांस्तदा । एकेनापि हि वीरेण शतशः ताडिताः मुहुः।।१०।।

कटारेति कटारेति नाम गुञ्जितवत्तदा । यज्ञक्षेत्रे च सर्वत्र भीतास्तेनाऽन्यदुर्जनाः।।११।।[23]

यहां कटारा नाम का कोई नरवरीय ब्राह्मण है जब यज्ञ स्थल पर हजारों ब्राह्मणों में साङ्गवेद-संस्कृत-विद्यालय का कोई कमजोर ब्राह्मण किसी अन्य स्थान के बल से उन्मत्त व्यक्ति द्वारा पीड़ित हुआ तब उसकी पीड़ा को देखकर कटारा को महान क्रोध हुआ और उसने अकेले ने ही सैकड़ों को पीट डाला । उसी का वर्णन यहां कवि ने किया है । यहां पर पीड़ित व्यक्ति उद्दीपक है, उसको देख कर कटारा की आंखों का लाल हो जाना, होंठ कंपकंपाने लगना, संचारी भाव हैं । फिर युद्ध के लिए उद्यत होना, गर्जना करना, यह अनुभाव और विभाव हैं, और फिर युद्ध में सैकड़ों लोगों को पीट डालना, यहां वीर रस की उत्पत्ति करते हैं

करुण रस -

साकं मृतस्य निलये जपितुं च शान्त्यै, यद्वा त्रयोदशदिनेष्ववसं च मूढः

बाबूगढे मृतगृहे ह्यपि सूतके च, स्त्रीणां च रोदनमये विलपत्सु पुंसु ।।[24]

इस श्रीज्ञानेन्द्रपाठक के लिए लिखित पत्र में कवि ने मृतक के घर का वर्णन किया है । यहां पर मृतक उद्दीपक है, उसकी मृत्यु के स्मरण के द्वारा रोमांच उत्पन्न होना, शरीर का कांपना आदि संचारी भाव हैं, इधर-उधर हाथ-पैर फेंकना, अनुभाव-विभाव हैं, और उसके फिर विलाप या रुदन करना, करुण रस को उत्पन्न करते हैं

 

इसी तरह भोपाल परिसर के प्राचार्य के लिए लिखित पत्र में कवि ने कुछ युवतियों का भी वर्णन किया है, तब शृङ्गार रस की उत्पत्ति होती है - 

नैवाङ्गना इह च सज्जनपङ्क्तिगण्यास्ता वै सदा स्मरकलाकलनेषु दक्षाः

एकेन साकमपि नो, बहुभिस्स्मरार्तैरेकान्तकक्षगमनं रमणं चरन्ति ।।३०।।[25]

यहां युवतियों का एकान्त कक्ष में जाना और अनेक कामियों के साथ, एक साथ रमण करना, साक्षात् सम्भोग शृङ्गार की पुष्टि करते हैं यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि कवि ने यहां कोई पारंपरिक रीति से रस का उपस्थापन नहीं किया, अपितु घटनाओं का अंगुली-निर्देश मात्र किया है , जिससे पूर्ण रूप से चेष्टा आदि के वर्णन का अभाव होने के कारण, साहित्य शास्त्र में कही गई रीति के अनुसार रस सिद्धि करना पूरी तरह से संभव नहीं है

 

भावश्री काव्यग्रन्थ में सामाजिक चिन्तन -

 

इस ग्रन्थ में कवि ने बहुत्र आजकल के समाज के विषय में अपने विचार प्रकट किए हैं बहुत से स्थलों पर सामाजिक-विडम्बनाओं के सन्दर्भ में चिन्ता भी प्रदर्शित की गई है जैसे अधोलिखित श्लोक में देखिए -

गुरुशिष्यसुसम्बन्धो नष्टो, मैत्री परस्परम् । वित्तमाश्रित्य जायन्ते विवाहा:, न गुणाश्रिताः ।।१७।।

सुशीलोऽपि युवा विद्वान् सुन्दरश्च गुणान्वित: अनूढस्सीदतीवाद्य अल्पवित्तश्च चेद्भवेत्।।१९।।[26]

उपर्युक्त श्लोक में आजकल खत्म होते हुए गुरु-शिष्य के सम्बन्ध को दिखाया है । मित्रता की गरिमा किस तरह कम हुई है, वह बताया है । आज व्यक्ति के विवाह को भी धन के ही आश्रित बताया है , न कि गुणों के । इस प्रकार इस ग्रंथ में बहुत स्थलों पर सामाजिक चिंतन किया गया है।

 

प्रस्तुत काव्य में धार्मिक तथ्यों का प्रतिपादन

 

भावश्री ग्रन्थ में धार्मिक तथ्यों का जगह-जगह पर प्रतिपादन किया गया है जैसे नीचे लिखे श्लोक में -

यज्ञोपवीतपरिवर्तनपूर्वकञ्च , गायत्र्यममुं जप जन त्रिदिनेष्वभोजी

गङ्गाजलैरपि च गोमयलेपनैश्च , स्नाहि प्रभातसमये दिवसान्तकाले ।।६।।

बाबागुरुस्त्वपि विधिप्रतिबोधनेन , रुद्रस्य सूक्तमथ रे जप चेत्यवोचीत्

श्रीजाह्नवी निखिलपातकनाशिनी वै ,तत्सेवनैर्न शुचितां प्रतियाति को वा ।।७।।[27]

यहां सूतकापन्न घर में भोजन कर लेने पर या अशौच की स्थिति पैदा हो जाने पर क्या करना चाहिए, यह बता रहे हैं कि अपना यज्ञोपवीत बदलना चाहिए । तीन दिन तक लगातार बिना भोजन किए गायत्री का जाप करना चाहिए और सुबह-शाम दोनों समय गंगाजल और गाय के गोबर का लेप करके स्नान करना चाहिए रूद्र-सूक्त का जप भी शुद्धि प्रदान करता है और गंगा समस्त पापों का नाश करने वाली है - इन दोनों के सेवन से ऐसा कौन सा अशौच है जो विनष्ट नहीं होता और भी नीचे लिखे श्लोक को देखिए -

हरिभक्तौ मनो यस्य संसारे नैव मज्जति । इन्द्रियार्थप्रसक्तो वै मज्जन्सन्नपि लज्जते ।।९।।

वृद्धत्त्वे हरिनामैकं सर्वसारं विबुध्य च । त्यक्त्वा मोहं कुटुम्बस्य भजेच्चेत् सौख्यमाप्नुयात् ।।११।।[28]

श्लोकों में हरिभक्ति की महिमा बताई गई है । इसमें कहा है कि जो इंद्रिय के अर्थों में ही आसक्त रहता है, वह इस संसार-सागर में डूब जाता हैलेकिन फिर भी स्वयं को लज्जित महसूस नहीं करता किन्तु जो हरिभक्ति रूपी आनन्द में मग्न हो जाता है, वह इस संसार में नहीं डूबता इस प्रकार प्रस्तुत काव्य में अनेक-स्थलों पर धार्मिक तथ्यों का प्रदर्शन किया गया है

 

भावश्री ग्रंथ में तन्त्रगत तथ्यों का अनुशीलन

प्रस्तुत ग्रंथ में कवि ने आचार्य जीतू के लिए लिखित पत्र में तंत्र संबंधी तथ्यों की चर्चा की है । कवि का तन्त्रशास्त्र संबंधी ज्ञान इस पत्र में प्राप्त होता है  नीचे लिखे श्लोक में यक्षिणी साधन के विषय में बताया गया है । यहां किसी यक्षी का स्वरूप वर्णन करते हैं -

अश्वत्थलम्बवपुषा प्रकटीभवेच्चेद् ,रक्ताम्बरेण परिवेष्टितमस्तका सा

नृत्यन्त्यथोच्चरवरोदनभीतिहासा, हिंस्रैश्च जन्तुभिरहो क्वचिदावृताऽपि ।।१३।।[29]

इसी प्रकार किसी दूसरे विद्वान के लिए लिखे हुए पत्र में डाकिनी के विषय में कहते हैं -

चेड्डाकिनी भ्रमति खे तव कक्षपार्श्वे, कूपे वसन्त्यपि च या बहुवत्सरैश्च ।

विप्रैरहो विविधरूपधरी विलोक्या, तस्यास्सुरक्षय निजं कपिचिन्तनेन ।।१३।।[30]

ऊपर दिए गए इस श्लोक में श्रीओम शर्मा के लिए लिखे हुए पत्र में तन्त्रशास्त्र में वर्णित डाकिनी का चित्रण किया गया है उसी प्रकार तन्त्रविद्या से समर्थित भूत का भय नष्ट करने के लिए हनुमान जी का चिन्तन बताया गया है। इसी प्रकार दस महाविद्याओं में एक तारा देवी का भी जिक्र कवि ने श्री त्र्यम्बकेश्वर चैतन्य महाराज के लिए लिखे हुए पत्र में किया है -

ताराम्बा बत तान्त्रिकैर्दशमहाविद्यासु सङ्गीयते

वामाचारिपरम्परापृतजनैस्तद्वत्पृथक् साऽर्च्यते[31]

इस प्रकार हमने देखा कि प्रस्तुत काव्य में बहुत से तन्त्रगतथ्यों का उल्लेख है

 

भावश्री ग्रंथ में प्रकृति संबंधी चिंतन -

वि ने इस काव्य में अनेकों बार प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया है तथा कहीं-कहीं वृक्ष, नदी आदि को बचाने की भी बात की है । नीचे दिए हुए श्लोक में देखिए , रात्रि का मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं -

चान्द्रीकला वितरतीह सुधां निशासु , तारागणैर्नभसि रम्यसुचित्रकल्पः।

तादृक्सुखप्रदसुदृश्यमहोऽत्र लभ्यं, ग्राम्यं न कैस्सहृदयैरपि हातुमिष्टम् ।।९।।[32]

प्रकृति के विनाश को देखकर कवि का हृदय द्रवित हो गया उसके विषय में चिंता प्रकट करते हैं -

भूजलस्तरहानिश्च तापमानाभिवर्धनम् । हिमखण्डा: गलन्तीव नद्यो नश्यन्ति भारते।।२१।।

गङ्गा गोदावरी नष्टा कालिन्दी च सरस्वती । धर्मकर्माणि नष्टानि जनानां हृदयानि च ।।२९।।[33]

इस तरह हमने देखा कि प्रस्तुत शोद्धव्य ग्रन्थ भावश्री में बहुत्र प्रकृति-संबंधी विचार प्रस्तुत किए गए हैं

 

भावश्री ग्रन्थ में विभिन्न नगरों का चित्रण

 

भोपाल का चित्रण - प्रोफेसर प्रकाश पाण्डेय के लिए लिखे हुए पत्र में, भोपाल छोड़ दिल्ली आया हुआ कवि, अपने भोपाल के निवास के दिनों को स्मरण करता हुआ भोपाल की प्रकृति का चित्रण करता है , और पूछता है -

किन्तानि नीरददिनानि तथैव चाद्य, हृद्यानि यौवनविलाससमुत्सुकानि

भोपालदेशखगतानि वयांसि वापि,दृश्यन्त आगतजनैरिह नीरजानि ।।१।।[34]

दिल्ली का उल्लेख - ग्रामीण प्रकृति का प्रेमी होने के कारण, दिल्ली के नगरीय वातावरण में कवि का मन कभी भी नहीं लगा, उसका ही निरूपण नीचे लिए श्लोक में करते हैं -

प्रदुष्टोत्र वायुः नृणां वा मनांसि न कस्यापि कोपीह वर्तेत मित्रम्

कुदिल्लीप्रदेशो न मे रोचते वै यदा धावतां वीक्ष्य लब्धुं च वित्तम् ।।९।।[35]

नरौरा का उल्लेख - इस श्लोक में कवि अपने अध्ययन स्थल नरौरा का स्मरण करता है -

हे बुध श्रीजलक्षालिते सत्तटे, तन्नरौरापुरस्थेऽस्ति विद्वत्पुरः[36]

प्रयाग का चित्रण - कवि, किसी कार्यवशात् प्रयाग पहुंचे और वहां कुंभ पर्व को देखकर, (आचार्य वाचस्पति मिश्र के लिए लिखे हुए पत्र में) अपने मन के भाव प्रकट करते हैं -

 कार्यार्थं गतवान् प्रयागनगरे कुम्भोत्सवे श्रीजले

स्नातुं, तत्र विराजितश्शतमखैर्युक्तो महामण्डप:[37]

इस प्रकार हम देखते हैं , कि इस काव्य में बहुत से नगरों का उल्लेख और चित्रण कवि ने किया है । कहीं पर वहां की प्रकृति का भी वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण रूप से यहां वह सब नहीं उल्लेख किया जा सकता अतः शोध प्रबंध में ही वह समीक्षणीय है

 

प्रस्तुत ग्रंथ में संस्कृत संबंधी चिन्त

यहां वाचस्पति मिश्र के लिए लिखे हुए पत्र में संस्कृत के उद्धार, प्रचार-प्रसार आदि विषय में कवि चिन्तन करता है, देखिए श्लोक -

कुत्रचित्पाठनं कुर्याच्छोभायात्रा क्वचिच्चरेत् । पठेयुस्संस्कृतं सर्वे ध्येय इत्येव नापरः।।७।।

गृहे गृहे गिरा दैवी स्याल्लक्ष्यं हृदि संधरेत् । सर्वदा संस्कृतेनैव भाष्यतां हास्यतां जनैः।।८।।[38]

इसी तरह बहुत जगह भावश्री में संस्कृत-कल्याण संबंधी चर्चा की गई है

 

भावश्री ग्रंथ में विभिन्न शास्त्रीय तथ्यों की चर्चा

व्याकरणशास्त्र की चर्चा - आधुनिक जो शाब्दिक व्याकरण को पढ़कर, उसका लौकिक प्रयोग और वैदिक अर्थों को जानने में उसका प्रयोग नहीं करते , उनके विषय में यहां कवि ने  कहा है -

शब्दप्रसाधनरता उत शाब्दिका ये,  सूत्रैश्च पाणिनिकृतैर्घटयन्ति चित्ते

काव्यादितत्त्वपरिभाषणशून्यचित्ता:, अर्थान् विदन्ति नहि मूलतया श्रुतीनाम्।।९।।[39]

कर्मकाण्ड सम्बन्धी तथ्यों की चर्चा -

इस भावश्री ग्रंथ में धार्मिक-कर्मकाण्ड के संदर्भ में भी बहुत्र चर्चा की गई है, जैसे -

बहून्याचमनान्येवं विनियोगाः पुनः पुनः। सङ्कल्पाश्चैव मन्त्राश्च चरन्तो जाह्नवीतटे ।।८।।[40]

इस श्लोक में श्रावणी पर्व का आचरण करते हुए ब्राह्मणों का दृश्य उपस्थित किया गया है , और उनके द्वारा किए हुए कर्म भी इन्हीं आग्रिम श्लोकों में वर्णित किए जाएंगे

 

अनेक शास्त्र संबंधी चर्चा

ज्योतिषे निपुणाः केचिन्नक्षत्रसूचकाश्च ये । कर्मकाण्डे समे विप्रा रता नानापुरेषु वै ।।५०।।

स्वरं वापि समासं वा सन्धीन् कृत्तद्धितानपि । यङ्सन्क्यच्प्रत्ययान्वापि विदन्तीह जना न ये ।।५३।।

अहो सीदन्ति सर्वत्र पौरोहित्यादिदर्शने । साहित्ये वापि पठने शब्दार्थस्य विनिर्णये ।।५४।।[41]

जैनेन्द्र भारद्वाज के लिए लिखे हुए इस पत्र में कवि ने बहुत से विषयों की चर्चा की है । यहां किसी विद्वत्स्थल का वर्णन करते हुए बताया गया है, कि कुछ लोग यहां ज्योतिष में निपुण हैं , कुछ कर्मकाण्ड में, तथा कुछ वैयाकरण लोग हैं, और कुछ साहित्य पढ़ने वाले हैं । इसी प्रकार इसी पत्र में आगे, उनके सन्दर्भ में विशेष विवेचन भी है

स्वर शास्त्र संबंधी चर्चा -

यहां पर व्याकरण शास्त्र के अन्तर्गत जो उदात्त,अनुदात्त,स्वरितादि विषयक स्वरशास्त्र है , उसकी ही चर्चा कवि यहां करता है -

चितश्चान्तोदात्तो भवति तु तितस्ते स्वरितता, सदैवान्तोदात्तो गदितमथ धातोः प्रथमतः

समासस्याप्यन्तो व्रजति च मुदोदात्तपदवीम् ,उदात्तादिर्वै प्रत्ययगतविधिः पाणिनिमुखात् ।।८।।[42]

ज्योतिष संबंधी चर्चा

तुला राशि पर स्थित सूर्य का नीच भाव में होना, कवि ने अधोलिखित श्लोक में दर्शाया है -

तुलास्थांशुमान् पञ्चमस्थो निदृष्टो, बुधश्वेतयुक्तोऽस्ति मज्जन्मपत्रे ।।[43]

इस प्रकार हमने देखा कि इस काव्य में बहुत से शास्त्रों से संबंधित तथ्य प्राप्त होते हैं

 

भावश्री ग्रन्थ में संस्कृत विद्वानों का अभिनन्दन -

इस ग्रन्थ का यह वैशिष्ट्य है कि यहां अनेक स्थलों पर संस्कृत के विद्वानों का अभिनंदन और उनकी प्रशंसा की गई हैूंिवि इस ग्रंथ में अपने गुरुओं, कवियों और विद्वानों के लिए पत्र लिख रहा है , इसलिए पत्र के आरम्भ में वह उसकी विशेषता बताता है । शिष्ट व्यवहार होने से कवि, पत्र के प्रारम्भ में उनक अभिनन्दन भी करता है । और बीच-बीच में भी बहुत से शास्त्रवेत्ताओं  की प्रशस्ति, इस काव्य में देखी जाती है

प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी के लिए लिखित पत्र में अधोलिखित पद्य में कवि अपने गुरु की प्रशंसा करता हुआ उनको प्रणाम करता है -

धर्मैकजीवितशिवो द्विजपालनश्श्री-बाबागुरुस्त्विति पदाख्यगुरुं नमामः।।१२।।[44]

इसी प्रकार नीचे लिखे पद्य में कवि, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति, पद्मश्री पुरस्कार से विभूषित अभिराज राजेन्द्र मिश्र के लिए लिखे हुए पत्र में उनकी प्रशंसा करते हैं -

केचिद्वदन्ति कवयेदभिराजमिश्रस्तेजस्विभाषणपरः प्रवदन्ति चान्ये ।

शास्त्रेषु तीक्ष्णमतिरित्यपरे निशम्य धन्यो भवानिति वदामि हिमांशुगौडः।।९।।[45]

उसी प्रकार "भाति मे भारतम्" ग्रंथ के लेखक पद्मश्रीविभूषित पंडित रमाकांत शुक्ल के लिए भी कवि ने पत्र लिखा, जो कि इस ग्रंथ में निहित है । उसकी शुरुआत में कवि उनका स्तवन करते हैं -

काव्यकान्तं नुमस्सत्सु भान्तं नुमो भारतीभाविधानप्रधानं नुम:

राजधानीनिवासं प्रमोदं सतां श्रीरमाकान्तशुक्लं नुमश्श्रद्धया।।१।।[46]

इसी प्रकार राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के भूतपर्व कुलपति प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी के लिए लिखे हुए पत्र में  आरम्भ में उनका अभिनंदन करते हैं -

राधामाराधते बाधानाशिनीं यो बुधोऽधुना । तं राधावल्लभं वन्दे राधावल्लभसुप्रियम्।।१।।[47]

इस प्रकार हमने देखा कि प्रस्तुत काव्य ग्रंथ में बहुत से संस्कृत विद्वानों का अभिनन्दन और उनके गुणों का वर्णन प्राप्त होता है।

 

भावश्री ग्रंथ में विविध देवताओं की स्तुति का निरूपण

अधोलिखित पद्य इस ग्रन्थ का प्रथम श्लोक है यहां भगवान गणेश की प्रार्थनापूर्वक, शिव के नाम का भी उच्चारण किया गया है  -

कृत्वा प्रणाममथ शैलसुतासुतं तं,श्रीमच्छिवस्य तनयं शुभदं गणेशम् [48]

इसी प्रकार अन्य पत्र में व भगवान हनुमान जी की भी प्रशंसा करते हैं

श्रीमत्कपीशचरितं हृदये निधाय, भक्त्या गतो हि परिनिष्ठितपूजया च ।[49]

इसी प्रकार इस ग्रन्थ में अनेकों जगह शिव, सूर्य, देवी आदि अनेक देवताओं की स्तुति, विविध छंदों में प्राप्त होती है

 

प्रस्तुत ग्रन्थ में नरवर स्थल के विषय में चर्चा

इस काव्य में बहुत स्थलों पर कवि ने अपने गुरुस्थान और छात्रजीवन के निवासस्थान नरवर का उल्लेख किया है, जैसे -

तस्मादहं नरवरादिति विज्ञभूमेः, गङ्गातटस्थितविभिन्नशिवालयाच्च।[50]

इसी प्रकार प्रो.हंसधर झा के लिए लिखे हुए पत्र में अपने को नरवर का छात्र ख्यापित करते हुए कहते हैं - 

विप्रोयन्तु सदा मुदा नरवरे गङ्गावगाहे रतः[51]

इस प्रकार हमने देखा कि इस ग्रंथ में बहुत स्थलों पर नरवर की चर्चा की गई है ।

 

भावश्री ग्रंथ में भोपाल परिसर का वर्णन

इस ग्रंथ में कवि ने "केन्द्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय भोपाल परिसर" का शोधछात्र रहते हुए, वहीं के छात्रावास में निवास करते हुए, उस काल की ही परिस्थितियों का , उस समय क ही स्थान-संबंधी घटित गतिविधियों का वर्णन भी किया है । यह वर्णन कवि ने तात्कालिक प्रधानाचार्य प्रो.एम.चंद्रशेखर के लिए , ७८ श्लोकों में लिखे हुए पत्र में किया है , जिसमें सम्पूर्ण रूप से भोपाल परिसर का ही वर्णन है

श्रीचन्द्रशेखरबुधाऽत्र भवत्सकाशे संस्थानसंस्कृतशुभप्रथितप्रदेशे ।

भोपालरम्यनगरे सुखदे धनाद्यैश्छात्राः नवाशमनसा पठनेषु रक्ताः ।।१।।[52]

 

भावश्री काव्य में कल्पनाओं की विचित्रता -

कवि ने इस ग्रंथ में अनेक स्थलों पर बहुत ही विचित्र तरह की कल्पनाएँ की हैं, जोकि उनकी मौलिक प्रतिभा को प्रदर्शित करती हैं । जैसे श्रीचांदकिरण सलूजा के लिए लिखे हुए पत्र में व अपने मन की कल्पनाओं का, और अपने विचित्र स्वप्नों का वर्णन करते हैं -

किं वा वदानि मतिमन्! निजचित्तकल्पां, सम्यग्भ्रमेन्मम मनो विविधार्थवत्सु ।

लोकेषु शैवपितृलोकनिदर्शनेषु, ताम्रेषु हेमनगरेष्वपि राजतेषु ।। २३।।[53]

इसी प्रकार बेलपत्र के रस की सुगन्धि से कवि किसी विशेष हर्ष-दशा को प्राप्त करते हैं, उसी विचित्र कल्पना का वर्णन करते हैं, देखिए -

अस्मच्चित्तेषु कोऽयं नश्शिवो भूत्त्वा प्रवेगवान् । बिल्वपत्ररसोद्गन्धीभूय भूयोऽनुधावति ।।२७।।[54]

हमारे मन में यह कौन तत्व है , जो वेगवान् कल्याणमय (विचारों) की तरह बेलपत्र के रस की उत्कृष्ट गन्ध बनकर बार-बार दौड़ रहा है इससे कवि का बिल्वपत्र के साथ संबंध भी देखा जाता है, क्योंकि शिवभक्त बेलपत्र आदि से ही शिव की पूजा करते हैं। इसके द्वारा ही यह विचित्र कल्पना जागृत हुई,ऐसा मालूम पड़ता है।

 

भाश्री काव्य में प्रयुक्त सूक्तियों का विवेचन-

शोभना उक्तिः सूक्तिः अर्थात् सुन्दर उक्ति या कहावत । सूक्ति वे होती हैं , जिनके द्वारा मनुष्य उस प्रेरणा प्राप्त करता है , जो किसी विशेष तथ्य को प्रकट करती हैं जो छोटी होती हुई भी पूरे जीवन के सर को बताती हैं जिनके द्वारा अल्पकाल में ही तत्काल ही विशिष्ट तथ्य की प्राप्ति होती है भावश्री नामक ग्रंथ में सूक्तियों का बाहुल्य है उनमें से कुछ यहां प्रदर्शित की जा रही हैं -

 

१.प्रत्ययस्ते शिवेऽहो प्रभावङ्गतस्त्वत्सुभावोऽद्य साफल्ययुग्दृश्यते[55] 

इस उक्ति में विश्वास का महत्व बताया गया है और सद्भाव से शुभ फल की प्राप्ति निर्दिष्ट की गई है

२. नो नागरैश्च सुलभं प्रकृतेस्सुचित्रम्[56]  -  इस सूक्ति में नगरवासियों की अपेक्षा ग्रामीणों को अधिक प्रकृति का लाभ प्राप्तकर्ता बताया गया है ।

३.यथा तमांसि सूर्यराट् निहन्ति वै निराशतां,तथैव हृज्जदुःखमेव काव्यभाः विनश्यति[57] -

इस सूक्ति से काव्य की महत्ता पता चलती है । इसमें कहा है, जिस तरह से सूरज अंधेरे को और निराशता को नष्ट करता है , उसी तरह से काव्य का प्रकाश भी हृदय में पैदा हुए दुख को नष्ट कर देता है।

४. सङ्घेऽस्ति शक्तिरिति वृद्धजना वदन्ति[58] भावश्री के पहले ही पत्र में यह सूक्ति प्राप्त होती है जो हमें समूह की महत्ता बताती है इस प्रकार हमने देखा कि सैकड़ों सूक्तियां भावश्री ग्रंथ में निहित हैं

 

प्रस्तुत शोध का उद्देश्य

 

प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोपि न प्रवर्तते  अर्थात् बिना प्रयोजन के कोई मंद व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता - इस उक्ति के अनुसार किसी भी शोध का कोई विशेष उद्देश्य होता है,इसी प्रकार हमारे भी शोध का उद्देश्य है आधुनिक समाज में आधुनिक संस्कृत काव्य पढ़ने की रुचि का जागरण करना । संस्कृत के आधुनिक साहित्य में भी सामाजिक, प्राकृतिक, नगरीय और शास्त्रीय चिन्तन होता है यह समाज में विज्ञापित करना आज आधुनिक समय में भी संस्कृत भाषा में ऐसी काव्य लिखे जा रहे हैं जिनके द्वारा यह सारा समाज प्रेरणा प्राप्त करें विद्यार्थी नई दिशाओं को प्राप्त करें और साहित्य के क्षेत्र में भी आजकल विभिन्न-चिन्त-सम्पन्न, समाज की चिंता करने वाले, शास्त्रों का ज्ञान रखने वाले कार्य कर रहे हैं - यह भी सामाजिक रूप से ज्ञात हो, यह भी हमारे शोध का उद्देश्य है उसी प्रकार हमारे शोध का प्रमुख उद्देश्य यह भी है कि संस्कृत विभाग के छात्र भी आधुनिक संस्कृत कार्यों को पढ़ने के लिए प्रेरित हों , और जानें कि संस्कृत-काव्य, केवल पारम्परिक रूप से रस, छंद,अलंकार मात्र के अन्वेषण करने के लिए ही नहीं हैं, अपितु यहां आज भी लोकहित-चिंतन वर्तमान परिस्थितियों का विचार और विभिन्न शास्त्रीय चिंतन होता है।

 

प्रस्तुत शोध का औचित्य

 

आधुनिक काल में जो शोध-छात्र महाकाव्य, खण्डकाव्य आदि क शोधविषय के रूप में चुनाव करते हैं, उसके बाद उसके रस, छंद, अलंकार आदि का अन्वेषण करके साहित्य-शास्त्र में स्वयं क दक्षता प्रस्तुत करते हैं, ऐसे शोद्धाओं हेतु यह शोध अत्यन्त औचित्यपूर्ण है । उसी प्रकार आधुनिक समय में संस्कृत से दूर हो रहे छात्र-समूह के लिए भी संस्कृत काव्य को पढ़ने की प्रेरणा बहुत आवश्यक है , जो कि इस शोध की मूल उद्भावना भी है । उसी प्रकार आधुनिक काल में लिखित काव्य में होने वाले इस शोध से, छात्र आधुनिक जगत् की स्थिति, वर्तमान काल की घटनाओं को भी संस्कृत-साहित्य की दृष्टि से और शोधपूर्ण मार्ग से जानेंगे, इसलिए हमारे इस शोध का औचित्य, पूर्णतः स्पष्ट एवं संस्कृत-जगत् के साथ-साथ लोकोपकारी भी है

 

प्रस्तुत शोध की सीमा का निर्धारण

 

इस शोध में शोधकर्ता सिर्फ उन्हीं तथ्यों के विषय में चर्चा करेगा, जिनका उल्लेख उसने अध्याय-विभाजन में किया है उसी प्रकार एक ही विषय यदि दो बार आएगा और वहां किसी विशिष्ट तथ्य का अभाव होगा, तो उसका पुनः व्याख्यान या समीक्षा शोधकर्ता के द्वारा नहीं किया जाएगा यहां इस शोध में केवल उन्हीं श्लोकों की समीक्षा की जाएगी , जिनके विषय में अध्याय-विभाग क बिन्दू ग्रहण किए गए हैं ।

 

शोध से संबंधित सामग्री का चयन

 

१.शोधकर्ता गृहीत विषय का बार-बार साहित्यिक-अनुशीलन करके और अन्य काव्य-ग्रंथों का भी परिशीलन करके अपने शोध की प्रगति को संपन्न करेगा ।

२.अनुसंधानकर्ता विभिन्न ग्रंथालयों में जाकर शोध-संबंधी काव्य के तथ्यों और अन्य शोध-प्रबन्धों का भी अध्ययन करेगा

३.स्वीकृत शोध संबंध के विषय में अनेक साहित्य एवं शोध विशेषज्ञ विद्वानों का परामर्श प्राप्त किया जाएगा

४.प्रस्तुत शोध में प्राप्त बाधाओं को दूर करने हेतु साहित्य के विशेषज्ञों और काव्य के समीक्षकों की सहायता ग्रहण की जाएगी

५.शोध संबंधी काव्य का विशिष्ट तात्पर्य ज्ञात करने हेतु काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण आदि ग्रंथों की सहायता प्राप्त की जाएगी

६.प्रस्तुत शोध के सम्बन्ध में संस्कृत की साहित्यिक-पत्रिकाओं की सहायता ग्रहण की जाएगी ।

७.प्रस्तुत काव्य क समीक्षा प्राचीन और पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा प्रकट किए हुए सिद्धान्तों के आलोक में ही संपन्न क जाएगी।

 

अध्याय विभाजन

 

प्रथम अध्याय

प्रस्तावना

१.१.भावश्री ग्रन्थ का सामान्य परिचय

१.२.भावश्री ग्रंथ के रचयिता का सामान्य परिचय

१.३.संस्कृत साहित्य में भावश्री काव्य का महत्व

१.४.आधुनिक काल में प्रस्तुत काव्य का औचित्य निरूपण

१.५.संस्कृत साहित्य का इतिहास (सामान्य आलोक में)

 

द्वितीय अध्याय

प्रस्तावना

२.१.भावश्री काव्यग्रन्थ में प्रयुक्त छन्दों का समीक्ष

२.२.भावश्री काव्यग्रन्थ में समागत अलङ्कारों का समीक्ष

२.३.प्रस्तुत काव्य में निहित रसों का विवेचन

 

तृतीय अध्याय

प्रस्तावना

३.१.भावश्री काव्यग्रंथ में सामाजिक उद्भावना

३.२.प्रस्तुत काव्य में धार्मिक तथ्यों का प्रतिपादन

३.३.भावश्री ग्रंथ में तांत्रिक तथ्यों का समीक्षण

३.४.प्रस्तुत काव्य में प्राकृतिक-सौंदर्य-चित्र

३.५.भावश्री ग्रंथ में विभिन्न नगरों का चित्रण

 

चतुर्थ अध्याय

प्रस्तावना

४.१.भावश्री ग्रंथ में संस्कृत संवर्धन की भावना

४.२.भावश्री ग्रंथ में विभिन्न शास्त्रीय तथ्यों की चर्चा

४.३.भावश्री ग्रंथ में संस्कृत विद्वानों का अभिनंदन

४.४.प्रस्तुत काव्य में विविध देवताओं की स्तुति-निरूपण

४.५.प्रस्तुत ग्रंथ में नरवर-स्थल के विषय में चर्चा

 

ञ्चम अध्याय

प्रस्तावना

५.१.भावश्री काव्य में भोपाल परिसर का वर्णन

५.२.प्रस्तुत ग्रंथ में कल्पनाओं की विचित्रता

५.३.भावश्री काव्य में प्रयुक्त सूक्तियों का विवेचन 

 

उपसंहार

संकेतशब्द विवरण

न्दर्भग्रन्थ-सूची

1.    अमरकोशः,अमरसिंहः,चौखम्बाकृष्णदासअकादमी,वाराणसी,तृतीयसंस्करणम्,2010

2.    अलङ्कारकौस्तुभम्, स्वोपज्ञटीकासहितम्, आचार्यविश्वेश्वरपाण्डेयः, निर्णयसागरप्रेस, मुम्बई,1898

3.    औचित्यविचारचर्चा, क्षेमेन्द्रः, चौखम्बाकृष्णदास अकादमी, वाराणसी, तृतीयसंस्करणम्, 2010

4.    काव्यप्रकाशः,मम्मटः, व्याख्याकार वामनझलकीकरः, परिमल पब्लिकेशन, नवदेहली, पुनर्मुद्रितसंस्करणम्,2008

5.    काव्यादर्शः, आचार्यदण्डी,नागपब्लिकेशन,देहली, प्रथमसंस्करणम्1999

6.    काव्यालङ्कारः,भामहाचार्यः,चौखम्बासंस्कृतभवनम्, चतुर्थसंस्करणम् 2009

7.    काव्यालङ्कारः, रुद्रटाचार्यः, वासुदेवप्रकाशन,देहली,प्रथमसंस्करणम्,1965

8.    काव्यालङ्कारसूत्राणि, वामनः, चौखमबासुरभारतीप्रकाशनम्,वाराणसी, पुनर्मुद्रितसंस्करणम्,2002

9.    चन्द्रालोकः, जयदेवः,चौखम्बासुरभारतीप्रकाशनम्,वाराणसी,पुनर्मुद्रितसंस्करणम्,2000

10. दशरूपकम्, धनञ्जयः,चौखम्बासंस्कृतविद्याभवनम्,वाराणसी,पञ्चमसंस्करणम्,1976

11. ध्वन्यालोकः,आनन्दवर्धनः,विद्याभारतीसंस्कृतग्रन्थमाला,पुनर्मुद्रितसंस्करणम्,2009

12. नाट्यशास्त्रम्, भरतमुनिः,सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविद्यालयः,वाराणसी,प्रथमसंस्करणम्,2001

13. भावश्रीः (पत्रकाव्यसङ्ग्रहः) – डॉ.हिमांशुगौडः/True Humanity Foundation,Ghaziabad,2020

14. रघुवंशमहाकाव्यम्,कालिदासः,रा.सं.संस्थानम्,पुनर्मुद्रितसंस्करणम्2011

15. रसगङ्गाधरः,पं.राजजगन्नाथाचार्यः,चौखम्बाविद्याभवनम्,पुनर्मुद्रितसंस्करणम्,2008

16. रसविमर्शः,डॉ.राममूर्तित्रिपाठी,विद्यामन्दिर,वाराणसी,प्रथमसंस्करणम्,1965

17. लघुसिद्धान्तकौमुदी,वरदराजाचार्यः,गीताप्रेसगोरखपुर,त्रिंशत्संस्करणम्,वि.सं.-2060

18.  वक्रोक्तिजीवतम्, कुन्तकः,चौखमबा-सुरभारती-प्रकाशनम्,पुनर्मुद्रितसंस्करणम्,2011

19. वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी(मूलमात्रम्)-भट्टोजिदीक्षित/वासुदेवशर्मा, 2010-चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी ।

20. शृङ्गारप्रकाशः, भोजराजः, प्रकाशकौ - इन्दिरागाँधीराष्ट्रियकलाकेन्द्रम्, कालिदाससंस्कृतसंस्थानञ्चेत्युभौ, प्रथमसंस्करणम्,2006

21. संस्कृतकाव्यशास्त्र का इतिहास,डॉ.पी.वी.काणे,पञ्चमपुनर्मुद्रण,देहली,2015

22. संस्कृतसाहित्य का बृहद् इतिहास, प्रो.गजाननशास्त्री मुसलगांवकर,उ.प्र.सं.सं.लखनऊ,1999

23. साहित्यदर्पण,विश्वनाथाचार्यः,चौखम्बाकृष्णदासअकादमी,वाराणसी,द्वादशसंस्करणम्,2007

 



[1] वै.सि.कौ.भ्वा.धातु.८१४

[2] वै.सि.कौ.मू.मा. उणा.प्र.४-२१८

[3] भावश्रीः ८५ पृ. (आचार्यजैनेन्द्रभारद्वाज के लिए लिखित पत्र में)

[4] वहीं १२३ पृ. (वाचस्पतिमिश्र के लिए लिखित पत्र में)

[5] वहीं १५७ पृ. (श्रीमहेशझा के लिए लिखित पत्र में)

[6] वहीं १४१ पृ. (श्रीस्वरूपानन्दसरस्वती के लिए लिखित पत्र में)

[7] वहीं १४१ पृ. (श्रीस्वरूपानन्दसरस्वती के लिए लिखितपत्र में)

[8] वहीं ९६ पृ. (प्रो.जनार्दनमणिपाण्डेय के लिए लिखित पत्र में)

[9] भावश्रीः १०१ पृ. (सन्दीप उनियाल के लिए लिखित पत्र में)

[10] भावश्रीः ८० पृ. (नवीनतिवारी के लिए लिखित पत्र में)

[11] वहीं ९६ पृ. (प्रो.जनार्दनमणिपाण्डेय के लिए लिखित पत्र में)

[12] वहीं १०७ पृ. (अखिलेशत्रिपाठी के लिए लिखित पत्र में)

[13] भावश्रीः ९८ पृ. (स्वामित्र्यम्बकेश्वरचैतन्य के लिए लिखित पत्र में)

[14] भावश्रीः ११० पृ. (योगेशकुमार के लिए लिखित पत्र में)

[15] भावश्रीः ११९ पृ. (राधावल्लभत्रिपाठी के लिए लिखित पत्र में)

[16] भावश्रीः ११९ पृ. (राधावल्लभत्रिपाठी के लिए लिखित पत्र में)

[17] वहीं ११७ पृ. (चान्दकिरणसलूजा के लिए लिखित पत्र में)

[18] वै.सि.कौ.मू.मा.भ्वा.धातु-१०८५

[19] वहीं उणा.सू. १-१५८

[20] वहीं ११६ पृ. (चान्दकिरणसलूजा के लिए लिखित पत्र में)

[21] साहि.दर्प.प्र.परि.कारि.-३

[22] साहि.दर्प. तृ.परि.

[23] भावश्रीः ७६-७७ पृ.(श्रीमत्त्र्यम्बकेश्वरचैतन्य के लिए लिखित पत्र में)

[24] वहीं ६२ पृ. (श्रीज्ञानेन्द्रपाठक के लिए लिखित पत्र में)

[25] भावश्रीः ४१ पृ. (प्रो.एम्.चन्द्रशेखर के लिए लिखित पत्र में)

[26] भावश्रीः १२६ पृ. (वाचस्पतिमिश्र के लिए लिखित पत्र में)

[27] भावश्रीः ६३ पृ. (श्रीज्ञानेन्द्रपाठक के लिए लिखित पत्र में)

[28] भावश्रीः ५२-५३ पृ. (श्रीखेमचन्द के लिए लिखित पत्र में)

[29] भावश्रीः २० पृ (आचार्यजीतू के लिए लिखित पत्र में)

[30] भावश्रीः २५ पृ. (श्रीओमशर्मा के लिए लिखित पत्र में)

[31] वहीं ९८ पृ. (स्वामित्र्यम्बकेश्वरचैतन्य के लिए लिखित पत्र में)

[32] वहीं ११५ पृ. (चान्दकिरणसलूजामहोदय के लिए लिखित पत्र में)

[33] वहीं १२६ पृ. (वाचस्पतिमिश्र के लिए लिखित पत्र में)

[34] वहीं ५८ पृ. (प्रो.प्रकाशपाण्डेय के लिए लिखित पत्र में)

[35] वहीं ६८ (दीपकहरिदत्तशर्मा के लिए लिखित पत्र में)

[36]  वहीं १२१ पृ. (राधावल्लभत्रिपाठी के लिए लिखित पत्र में)

[37] वहीं १२४ पृ. (वाचस्पतिमिश्र के लिए लिखित पत्र में)

[38] वहीं १२३-१२४ पृ.

[39] वहीं १२९-१३० पृ. (श्रीनिवासबरखेड़िमहोदय के लिए लिखित पत्र में)

[40] वहीं १३६ पृ. (आचार्यदिवाकरवशिष्ठ के लिए लिखित पत्र में)

[41] वहीं ८८ पृ. (जैनेन्द्रभारद्वाज के लिए लिखित पत्र में)

[42] वहीं ५५-५६ पृ. (श्रीकैलासचन्द्रदाश के लिए लिखित पत्र में)

[43] भावश्रीः ९६ पृ. (प्रो.जनार्दनमणिपाण्डेय के लिए लिखित पत्र में)

[44] वहीं १२१ पृ. (राधावल्लभत्रिपाठी के लिए लिखित पत्र में)

[45] वहीं ३३-३४ पृ. (पद्मश्री-अभिराजराजेन्द्रमिश्र के लिए लिखित पत्र में)

[46] वहीं १३२ पृ. (श्रीरमाकान्तशुक्ल के लिए लिखित पत्र में)

[47] वहीं ११९ पृ. (राधावल्लभत्रिपाठी के लिए लिखित पत्र में)

[48]  वहीं ६ पृ. (श्रीबाबागुरु के लिए लिखित पत्र में)

[49]  वहीं १०४ पृ. (कौस्तुभमिश्र के लिए लिखित पत्र में)

[50] वहीं ४५ पृ. (प्रो.एम.चन्द्रशेखरमहोदय के लिए लिखित पत्र में)

[51] वहीं ३१ पृ. (प्रो.हंसधरझा के लिए लिखित पत्र में)

[52] भावश्रीः ३४ पृ. (प्रो.एम्.चन्द्रशेखर के लिए लिखित पत्र में)

[53] भावश्रीः ११८ पृ. (चान्दकिरणसलूजामहोदय के लिए लिखित पत्र में)

[54] वहीं ७४-७५ पृ. (आचार्यजैनेन्द्रभारद्वाज के लिए लिखित पत्र में)

[55] भावश्रीः १०८ पृ. (अखिलेशत्रिपाठी के लिए लिखितपत्र में)

[56] वहीं ११४ पृ. (चान्दकिरणसलूजा के लिए लिखितपत्र में)

[57] वहीं १२० पृ. (राधावल्लभत्रिपाठी के लिए लिखितपत्र में)

[58] वहीं १३ पृ. (श्रीबाबागुरु के लिए लिखित पत्र में)




विशेष - इस शोधलेख के सम्पूर्ण अधिकार लेखक के पास पूर्णतः सुरक्षित हैं । अतः कॉपी  न करें ।

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