मृत्युञ्जयमन्त्रस्य जप:
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(हिन्दी भावार्थ सहित)
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१) रात्रौ यदा सर्वे शेरते, तदैकाकी होत्थाय जपेद् -
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
[अनुपवीतो न जपेद्, वैदिकत्वाद्रात्रावपि न, उपर्युक्तवचनं भावरहस्यदर्शनार्थमेव केवलम्।]
२) यदा मृत्युरिव कश्चित्कष्ट आपद्वोद्भवेत्, तदोत्थाय जपेद् -
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
३) यदा सर्वैस्त्यक्तो दीनो हीन इवानुभवेत्तदा सावधानो जपेद्-
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
४) यदा हृदयं दु:खितं संसारिभिर्,न कश्चिन्मार्गश्च, जपेद्-
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
५) दमनमिच्छेद्रिपूणां चेदेकान्ते गत्वा, जपेद्-
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
६) आत्महत्याविचारास्त्वामावृण्वन्ति चेद्, आत्मानं संयम्य जपेद्-
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
७) ऋणित्वादात्मजिघांसुरिव चिकर्षतीव व्यवहर्तुं, निरुध्येतस्स्वं, जपेद्-
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
८) एतास्तान्त्रिकक्रिया रिपुकृता: निष्फलीकर्तुं, जपेद्-
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
९) अनुक्त्वैव कञ्चिदपि, मौनीभूय सर्वविरक्त इव, मङ्गलेप्सुर्जीवनस्य, जपेद्-
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
१०) साफल्यमाप्तुं, हर्तुं दौर्भाग्यदिनानि, गुप्तीभूय जपेद्-
ओं त्र्यम्बकं यजामह इति!
मृत्युञ्जय मन्त्र का जप
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१) रात में जब सब सो जाएं, तब तुम उठकर अकेले ही जाप करना-
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
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[मृत्युंजय मंत्र एक वैदिक मंत्र है और इसका जाप करने का अधिकार भी उसको है, जो इसका शास्त्रोक्त अधिकारी है । रात में इसका जाप नहीं किया जाता। (उपर्युक्त वाक्य सिर्फ भावरहस्यार्थ है।) विशिष्ट स्थिति की बात अलग है, जैसे कोई भयंकर संकट उपस्थित हो जाए, तब दिन-रात का विचार छोड़कर पंडित लोग इसका जाप करते हैं।]
२) जब मौत के समान कोई भयंकर कष्ट या आपत्ति या पड़े तब चुपचाप उठकर जाप करना-
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
३) जब सब लोग तुम्हें त्याग दें, नजरअंदाज करें, और तुम दीन-हीन की तरह खुद को अनुभव करने लग जाओ, तो सावधान होकर जाप करना-
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
४) जब इस दुनिया के लोग दिल दुखाते कोई रास्ता ना बचे तब एकांत में जाप करना-
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
५) दुश्मनों का दमन करने की चाह रखते हो तो जाप करना-
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
६) अगर आत्महत्या करने की विचार तुम्हें घेर रहे हों, तो संयम बरतना और जाप करना-
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
७) अत्यधिक कर्ज लेने के कारण मरना चाहते हो ऐसा व्यवहार करते हो खुद को रोकना और जाप करना-
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
८) अपनी बैरियों द्वारा की हुई तांत्रिक क्रियाओं को निष्फल करना चाहते हो तो जाप करना-
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
९) किसी को बताना मत, बिल्कुल मौनी होकर, सब से विरक्त होकर जीवन की मंगलकामना चाहते हो, तो जाप करना -
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
१०) सफलता प्राप्त करने के लिए दुर्भाग्य का नाश करने के लिए गुप्त तरीके से किसी को बिना बताए जाप करना -
ओं त्र्यम्बकं यजामहे - इस मन्त्र का।
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हिमांशु गौड़
०९:३४
२१/०१/२०२२
((२))
|| सूक्तिदोहावली ||
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काशीवासी सुखयुतश्- शिवत्वयुक्तस्यात्
काशी पुण्यकरी सदा विद्वद्भिश्शृणुयात्
प्रेमपथस्त्वतिदुर्गमो धीरश्शनैश्चलेत्
असिधाराचलनं मतं क्वापि पदं स्खलेत्
काव्यं मनोऽनुरञ्जकं दु:खहरं सुखदं
अमृतमिव प्रवहेदहो लोके को न पिबेत्
विद्वान्सोऽपि कुभाग्यतस्सीदन्तीह सदा
मूर्खाश्चापि सुभाग्यतो घृतं पिबन्ति मुदा
विद्या वन्ध्या जायते क्लीबस्यैव च नु:
प्रगल्भताशरणस्य नो, तस्माद्वीर! धर
फलन्ति नूनं सेविता: वृद्धा: सुरा: गिरा:
ज्वलन्ति शास्त्रतपस्यया लोके दीप्तिकरा:
वृक्षारोपणमेव वै पृथ्व्यै शोभनदं
श्वासा क्षीयन्ते नृणामतरुपुरीवसतां
शास्त्रे श्रद्धां श्रयति यो वेदयज्ञशरणो
लोकद्वये सुखं व्रजेत् जनक्लेशहरण:
ददति वचो न च पालयन्त्यधुना केऽपि जना:
सम्पाल्यं च वदन्ति ये, ते वै बुद्धियुता:
((३))
सैकड़ों वर्ष बाद भी जब कोई नई तरंग से तरंगित व्यक्ति बारिश के मौसम में लाइब्रेरी में दबी हुई किताबों के बीच मेरी किताबों को देखें , मेरी कविताओं को पढ़कर उस बारिश के मौसम को अनुभव कर पाए, - "वाह क्या लिखा है!" उसके मुंह से निकले हुए ये शब्द! उसका वह आनंद ही मेरी आत्मा के लिए तर्पण होगा! मैं चाहे किसी अज्ञात लोक में होऊं,
आज से सौ साल बाद जब पीएचडी में प्रवेश लेने हेतु व्यक्ति "कौन सा काव्य चुनूं" ऐसा सोच कर साहित्य विभागाध्यक्ष के पास जाए, तो वह मेरी किताब सजेस्ट करें,
हजारों पुस्तकों के बीच हरे रंग के कवर वाली "भावश्री:", या पहाड़ों के कवर वाली "काव्यश्री:", या झील के कवर वाली "वन्द्यश्री:" पर उस शोधार्थी या विद्यार्थी या काव्यरसिक व्यक्ति की नजर पड़ेगी, (जैसे लाइब्रेरी में मेरी नज़र प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त कुछ गुमनाम लेखकों पर पड़ती है),
उत्सुकतावश उसने वह पुस्तक उठाई और खिड़कियों से आती हुई बरसाती मौसम के कारण ठंडी हवाओं के झोंकों में बसन्ततिलकादि छन्दों में बंधी हुई कविताओं को पढ़ने लगा ! जब कोई किसी की कविताओं को पढ़ता हुआ आनंदित होता है, तो लिखने और पढ़ने वाले की आत्मा एक ही हो जाती है । वह एकात्मता का अनुभव करता है । वेद और शास्त्रों में एक आत्मा होने का बहुत वर्णन आया है । वेद के मंत्रों में प्रार्थना की गई है , कि हम एक आत्मा वाले हो जाएं। तब वह शारीरिक रूप से मरा हुआ जो कवि है,वह भी उस आनंद से आनंदित होता है, हमारे किए हुए अच्छे बुरे काम जब तक इस संसार के प्राणियों को दुख या आनंद का अनुभव करवाते हैं, तब तक हम जिस किसी भी रूप में संसार (सारे लोक संसार कहलाते हैं - आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं) में हैं , हम दुख और आनंद का अनुभव करते हैं , ऐसा मेरा विचार है। क्योंकि बात वही है एकात्मता की।
तब वह उसकी कविताओं को पढ़ने का आनंद, अज्ञात लोकों में बैठे हुए , दूर संसारों में विचरण करते हुए, हवाओं के स्वरूप हो चुके, शब्द मात्र हो चुके, शब्दसाधक (सत्कृतिमान्), आनंदित होते हैं, जागृत होते हैं,
आप क्या समझते हैं, जब-जब आप अग्निपथ पढ़ते हैं, मधुशाला पढ़ते हैं, उसी समय उसको पढ़ते समय आपका जो आनंद है , वह हरिवंश राय बच्चन की आत्मा को आनन्दित नहीं करता होगा? अवश्य करता होगा! आप क्या समझते हैं , जब आप रश्मिरथी पढ़ते हैं , जब आशुतोष राणा, मनोज वाजपेई , जैसे दिग्गज कलाकार अपनी वाणी में आनंदित होकर , और जनता को आनंदित करते हुए, रश्मिरथी पढ़ते हैं, तो क्या रामधारी सिंह दिनकर जी, प्रसन्न नहीं होते होंगे? बेशक वे किसी भी योनि में हों! बेशक वे किसी भी संसार में हो! असल में यह एकात्मता का सूत्र है!
आदमी के पुतले बनाए जाते हैं। देवताओं की मूर्तियां बनाई जाती हैं । उनको देखकर के लोग उनके बारे में विचार करते हैं । सोचते हैं । देखिए ऐसा व्यक्तित्व था इनका ! एक क्षण के लिए वे हमारे ही पास आ जाते हैं, माने उस व्यक्ति के ही पास हम उस पुतले को देखकर पहुंच जाते हैं, जिसका वह पुतला है!
क्यों बार-बार भगवान् गणेश, भगवान् शिव , भगवती दुर्गा की मूर्ति पूजा करने के लिए कहा जाता है ? क्योंकि आप जिसके पास बैठोगे, आप वही हो जाओगे ! आप उसके ही संसार में चले जाओगे! आप उसकी आदत डालोगे!
मूर्ति पूजा एक अत्यंत महान् विज्ञान है। जो मूर्ख लोग सिर्फ निराकार-निराकार गाते रहते हैं, वे झूठ बोलते हैं! आपकी आत्मा निराकार है ! लेकिन जब इसने यह साकार शरीर धारण किया, तभी आप निराकार शब्द बोलने में सक्षम हुए, तभी आप उसको सोचने में सक्षम हुए । शरीर के छूटने के बाद हमें भी निराकार ही हो जाना है, लेकिन यह सब एक क्रम है ! बहुत से समाजों में मूर्ति पूजा से नफरत करना सिखाया जाता है! ऐसे द्वेष करने वाले लोग सिर्फ अपना ही नुकसान करते हैं ! असल में मूर्ति पूजा से एक भावना उत्पन्न होती है । इस बात को सिर्फ वही व्यक्ति समझ सकता है , जो प्रतिदिन देवताओं की पूजा करता है । जो नास्तिक है उसे चाह कर भी समझाया नहीं जा सकता । जैसे किसी जन्मांध व्यक्ति को हरा,पीला,लाल इत्यादि रंग समझाया नहीं जा सकता , क्योंकि वह जन्म से अंधा है और उसने कुछ भी रंग देखा ही नहीं तो आप उसे कैसे समझा पाएंगे बिल्कुल यही स्थिति एक ऐसे व्यक्ति की है जिसे बचपन से ही मूर्ति पूजा से नफरत करना सिखा दिया जब उसने उसका स्वाद चखा ही नहीं तो वह कैसे समझ पाएगा अब हम आंख वाले हैं हम समझ सकते हैं कि कंधा व्यक्ति किस किस चीज से वंचित रह गया हम समझ सकते हैं कि उसने यह नीला आकाश नहीं देखा उसने हरे भरे वन उपवन नहीं देखे उसने उसने यह रंग बिरंगे फूल नहीं देखे हम समझ सकते हैं कि वह कितना भारी वंचित रह गया उसी तरह जो भगवान गणेश शिव दुर्गा सूर्य इत्यादि की उपासना करने वाला व्यक्ति है मूर्ति पूजा करने वाला व्यक्ति है वह समझ सकता है कि एक निराकार गाने वाला व्यक्ति कितना वंचित रह गया मैं कोई निराकार ब्रह्म उपासक का विरोधी नहीं है क्योंकि वह परम लक्ष्य है क्योंकि वेदांत शास्त्री की तरफ इशारा करते हैं क्योंकि सभी मूर्ख अंत में अमूर्त ही हो जाते हैं क्योंकि सभी दृश्यों का विलोम होना ही है चौकी सभी भावों की शांति ही सभी विचारों की शांति ही एक ओंकार है , एक ओंकार है- यह कहना भी शब्द मात्र है , जबकि अनिर्वचनीय वह आनंद स्वरूप परब्रह्म है । लेकिन उसके लिए पात्रता चाहिए होती है । उसके लिए शुरुआती तौर पर हमें देवताओं की उपासना करनी चाहिए। जिस तरह से पशुओं से ऊंची क्वालिटी के मनुष्य होते हैं, मनुष्य से ऊंची क्वालिटी के देवता होते हैं। तो इसलिए हमें देवताओं की उपासना से अपनी आत्मा का स्तर इतना ऊंचा कर लेना चाहिए कि हम वेदांत शास्त्र का विचार करने में सक्षम हो सकें । हम आत्मा के बारे में सोचने में सक्षम हो पाएं!
ख़ैर, विषय दूसरा हो गया। मुख्य विषय पर आता हूं।
यद्यपि यह बाहरी पूजा स्थूल प्रतीत होती है, किंतु यह हमारी सूक्ष्म आत्मा से संबंधित होती है, यह हमारे उन तारों से कनेक्ट करती है, जो मन और इंद्रियों से परे के लोकों में संबंध स्थापित करते हैं। अक्षर,शब्द वह भी पद्य में बंधे हुए , और भी बारीक चीज हैं !
ध्वनि, संगीत यह सब बारीक चीजें हैं। यदि कोई शब्द के साथ एक आत्मा वाला हो जाता है , तो वह भी ब्रह्म हो जाता है , ऐसा अनेक शास्त्रों में कहा गया है - शब्दब्रह्मणि निष्णात: परब्रह्मणि गच्छति। , इयं हि मोक्षमाणानां इत्यादि।
शास्त्रों में कहा गया है कि सत्काव्य लिखने वाले लोग शब्द ब्रह्म में आसक्त होने के कारण अक्षय लोकों को ही प्राप्त करते हैं, या फिर यदि सांसारिक वासना होती है तो संसार में भी अच्छे कुलों में जन्म लेते हैं!
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हिमांशु गौड़
०७:०० सुबह
२३/११/२०२१
उदयपुर।
((४))
|| वयं सञ्चरेम ||
(भुजङ्गप्रयातच्छन्द:))
वयं शक्तिभद्रं सदा पूजयाम:
वयं शेषनागं हृदा भावयाम:
ह वृन्दावने यामुने चापि तीरे
भ्रमन्तोऽच्युतं सर्वदं लोकयाम:
वयं विष्णवो विष्णुकाङ्क्षाप्लुताश्च
वयं जिष्णवो जिष्णुहोमैर्भवाम:
वयं रम्यवार्तारतास्सत्यमित्रैर्
वयं मोदयाम: प्रकृत्याश्च चित्रै:
वयं कृष्ण कृष्णेति नेत्रैर्वदामो
वयं कृष्ण कृष्णेति सर्वत्र यामो
वयं कृष्णकान्तैकवाचो भवामो
वयं हार्दभावैश्श्रियं कर्षयामो
वयं ब्रह्मलोकस्य वार्तारताश्च
वयं गाणपत्ये गुणं चोद्गिरामो
वयं शम्भुनाथत्रिशूलानि धृत्वा
विधर्मान्धकारं द्रुतं ध्वंसयामो
वयं राममर्यादया शोभमाना
वयं रामनामप्रिया: वर्धमाना
वयं रामगाथालसन्मोदमाना
वयं रामनामास्ति सत्यं वदाम:
वयं वारुणीमिष्टिकां निर्वपामो
वयं कारुणीं दृष्टिकां दर्शयामो
वयं चारुणीवाच्युतं कामयामो
वयं चारुणाभार्घ्यदा: जीवयाम:
वयं गोकुले दुह्यमानास्स्म गोश्च
वयं द्विट्कुलं दह्यमानास्स्म वीर्यै:
वयं सत्कुलं तोषयामस्स्वकार्यै:
वयं दीनहीनान्सदैवोद्धराम:
वयं विद्वदर्चासमग्रा भवामो
वयं काव्यकारेषु मोदं वहामो
वयं गौरवं संस्कृतेर्धारयामो
वयं गो रवैस्सर्वदा हर्षयाम:
((५))
स्वस्वरे रमतां, किं स्याद् व्यर्थं धावनरोदनै:!
यद्भावि तद्भवत्येव, तस्मच्चिन्तां दहेद्द्रुतम्।
चिन्तनैरेव साध्यन्ते कार्याणि स्वीयपौरुषैस्
तस्मात्सर्वप्रयत्नैश्च श्रमश्चिन्तनपूर्वक:
गर्दभैर्नैव लभ्येत क्वचिद्राजसुखं श्रमै:
अहर्निशं शयानोऽपि सिंहस्सम्राट्समुच्यते
आलस्येन न शोभन्ते जीवनानीह देहिनां
सुधीयुक्तश्रम: पश्चाद्भाग्यं कर्मकृतं फलेत्
क्व पूजा क्व यमो ध्यानं क्व शान्ति: क्व च निश्चिति:
जीवनं हाश्रुधाराभिस्स्नापयेत्प्राणिनस्त्विह
कैश्चिद्रामास्सुलभ्यन्ते भाग्यैरकृतसुश्रमै:
केचिन्निशासु कामाग्नौ दहन्तीह सतां वरा:
कामिनीनां महादौष्ट्यं सर्वत्रैव विलोक्यते
अपात्राय ह्ययोग्याय व्रजन्त्येता: न सज्जनम्
क्व मन्त्रान् प्रजपेद्वापि विहाय लौकिकीं क्रियाम्
शिश्नोदरकृतैर्बाधैर्वध्यन्ते जन्तवस्सदा
सारल्यं चैव सौजन्यं यदिदं शब्दकद्वयम्
श्रुतावेव, मनुष्येषु कुत्रापि न विलोक्यते
भगवानस्ति नास्तीति विवदन्तीह तार्किका:
सतो दु:खाग्निसन्दग्धान् दृष्ट्वा सन्दिहतान्मन:
कामनानां महाज्वाला: मन्मथस्य च नर्तनम्
दर्शं दर्शं हहा हाहा हा हा रोदिति मे मन:
सिकतासूत चाम्ब्वाशा मरौ चापां जनिर्भवेत्
किन्तु स्मराहतानां हा को भिषक्का भिषक्करी
अरे जीवेत जीवेत म्रियेध्वं न कदाचन
न जाने कामिनीप्राप्तिर्दैवाच्छौवस्तिकी फलेत्
स्वभावादेव जायन्ते गम्भीराश्चञ्चला जना:
नाग्निश्शैत्यं समायाति कृतैर्यत्नैश्शतैरपि
साधवश्चैव धूर्ताश्च जन्मतो मानुषास्समे
औपाधिकं क्वचिच्चैतल्लोक्यते सङ्गकारणात्
कस्मिञ्जन्मनि को वेत्ति केन पुण्येन कर्मणा
प्रभोर्दृष्टिर्गुरोर्हृष्टिर्भीत्यब्धेस्तारणप्रदा
जीवनं किमिदं मित्र! केवलं दु:खबन्धनम्
हरिपादविरक्तानां, जगत्सक्तो हि शोचति
हरौ लग्नं मनो यस्य न शोचति न काङ्क्षति
ब्रह्मात्मीभूय लोकेऽस्मिन्विचरेन्मुक्तवच्च स:
किन्तु व्यर्थाधुना वार्ता प्रतीयेत विरागजा
कामाग्निदग्धलोकेऽस्मिंल्लेशं ब्रह्म क्व दृश्यते
स्मराख्योऽसौ महाशत्रुर्मोहे मां पातयेदहो
शम्भ्वर्चनां विहायाहं कामिनीनां विचारकृत्
शिव त्वं मे मनस्येवं भ्राजतां राजतां मुदा
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि
फलश्रुतिश्श्रुता नित्यं लब्धं नैव फलं च तत्
कस्मै दोषं प्रयच्छामो दैवाय वा निजाय वा
शापाश्शाम्यन्तु घोराणीत्येतैराशीर्वचस्सरै:
दीयन्तां मेऽपि शर्माणि मर्म्मणां रक्षणानि च
प्रकृतिं सिंहवद्भूतां त्यक्ष्यामि न मृतेऽप्यहम्
नश्यत्प्राणेषु खादन्ति तृणानि न मृगाधिपा:
किं वच्मो किं च तूष्णीं वा भूत्वाऽथ शेमहे वयम्
कर्तव्यं किं न कर्तव्यं मनो द्वैधं प्रयाति न:
व्यर्थानि चैव काव्यानि वाणी नैव फलप्रदा
भाति भाग्यविहीनानामितराणां न तत्तथा
काञ्चिच्चोच्चकुचीं दृष्ट्वा दिवसत्रयनिद्रया
विरतोऽस्मि, मनश्चैव रमते नैव कुत्रचित्
सा चायोग्यजनं यात्वा रमते कुलटाऽधुना
अहो भाग्यस्य वैचित्र्यं तुदन्तीह शिवार्चका:
अन्तो वर्तेत कौटिल्यं मधुवाक्च नृणां पुर:
नाहं नाहं न नो नाहं नाहं वर्ते तथेदृश:
यदन्तस्तच्च जिह्वायां यज्जिह्वायां प्रवर्तते
तदेव कर्मणीत्येवं विचरन्ति हिमांशव:
क्व नाम क्व च जात्यादीन्गणयेम वयं बुधा:!
वयं के स्मो वयं के स्मो वयं के स्मो न विद्महे
आत्मरूपं समास्थाय विचरेमानिला वयम्
यद्वाऽव्यक्तस्वरूपाश्च किं रूपं तन्न विद्महे
पण्डितानां च शास्त्रेषु जायेतैव महद्भयम्
कलौ चास्मिन् क्व सेवन्तां श्रौताद्यं ह दिवानिशम्
लोककार्यसमासक्ते शैवकार्यविवर्जिते
विशन्त्येव भयान्येवं यथाऽधातौ रुजो मुहु:
विद्वन् द्वेषं जहि ह्येनं त्वय्येषो नैव शोभते
दोषलेशश्शते दु:खे पातयेत्सत्यमार्गिणम्
हिमांशो: कौमुदीं दृष्ट्वा घटीमात्रशतीमिव
ये न हृष्यन्ति नृत्यन्ति ते नूनं पामरा जना:
द्वेषलेशोऽपि दाहाग्नौ पातयेत्काव्यरागिणम्
सत्याद्विचालयेत्तस्मात् कवीशा द्वेषवर्जिता:
कविर्दण्डी कविर्दण्डी कविर्दण्डीति या पुरा
उवाच शारदा देवी काश्मीरस्था, नमामि ताम्
कथं तर्हि वयं देवि! कालिदासे प्रजल्पिते
शुक्लाम्बरा तदोवाच - कालिदासस्सरस्वती
इदानीमपि काव्येषु सत्सु नू रञ्जकेष्वपि
हिमांशुश्चाह तां देवीं कश्चाद्यत्वे कविर्वद
काश्मीरदेशवासा सा विहस्याह सरस्वती
...........???
(सा यदाह श्रुतं नैव, मौनीभूतैरिवाक्षरै:)
इति तूष्णीं समालोक्य हिमांशुश्चिन्तितोऽभवत्
अर्चको वक्ति तत्कर्णे श्रूयते नाद्य तद्वच:
म्लेच्छाक्रान्तं च विभ्रान्तं सद्धर्मरोदनाकुलम्
काश्मीरं भूतलस्वर्गो हाऽऽततायिविलुण्ठितम्
कश्मीरपण्डितान्हत्वा हत्वा हिन्दून्भृशं च ते
स्त्रीभिर्बलाद्रमन्तेऽद्य काश्मीरं रोदितीव हा
इत्येतांश्च दुराचारान्दर्शं दर्शं सरस्वती
केवलं केषुचिन्निर्भीकविकाव्येषु वर्षति
प्रतिमास्वरता चाद्य साक्षान्न श्रूयते जनै:
रावस्स जायते कस्मिंश्चिज्जने वाऽथ विज्जने
- हिमांशुर्गौड:
१०:५३ रात्रौ,
०९/१०/२०२१
उदयपुरे।
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