Friday, 25 November 2022

छात्र जीवन (काल्पनिक कथा)

 मैं सामान्य आधुनिक कॉलेज में ना पढ़कर , एक पारंपरिक पद्धति से चलने वाले संस्कृत के महाविद्यालय में , आवासीय छात्रावास में रहकर पढ़ा हूं!

वहीं मैंने अपना छात्रकाल व्यतीत किया ।

मेरे हॉस्टल में सभी लोग संस्कृत पढ़ने वाले थे, लेकिन साथ साथ हिंदी तथा अंग्रेजी का भी ज्ञान रखते थे । कंप्यूटर वे अपनी रूचि के अनुसार सीखते थे।

तो दोस्तों! माहौल कुछ इस तरह था कि दो विद्यालय आमने-सामने थे , सड़क के उस पार पूर्व दिशा में संस्कृत महाविद्यालय डिग्री कॉलेज था जिसका नाम था - गंगाराम संस्कृत महाविद्यालय!

और सड़क के इस तरफ था श्री नारायण बाबा द्वारा खोला हुआ एक कक्षा 8 से लेकर 12वीं तक का प्राइवेट हॉस्टल सहित गुरुकुल !

अकेले नारायण बाबा उस अपने प्राइवेट गुरुकुल में रहकर वहां रहने वाले 60 छात्रों को पढ़ाते थे सुबह 4:00 बजे ही  वहां के बच्चे उठ जाते थे, तथा सबसे पहले उठकर संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण करते थे।

महान् पंडितराज जगन्नाथ महाकवि के द्वारा लिखी हुई गंगा जी की स्तुति - "गंगा लहरी"! जिसमें 51 श्लोक हैं, उसका पाठ महा के बच्चे बहुत ही मधुर स्वर में करते थे!

क्योंकि 51 श्लोक पढ़ने में बहुत देर लगती है , इसलिए शुरुआत के 10 श्लोक पढ़ने का नियम वहां पर था।

पंडितराज जगन्नाथ के विषय में बहुत दिलचस्प कथा है जो कि आप गूगल पर सर्च करें तो मिल जाएगी ।

उन्होंने एक ब्राह्मण होते हुए भी शाहजहां के दरबार में नाचने वाली एक खूबसूरत नर्तकी "लवंगी" से विवाह किया था!

एक मुसलमानी से विवाह करने के कारण बनारस के महान् पंडितों ने उनको अपने विद्वानों के समुदाय से बाहर निकाल दिया , तथा - तुम म्लेच्छ हो गए हो - ऐसा अपमानित किया।

क्योंकि पंडितराज जगन्नाथ के हृदय में शुद्धता थी तथा वे एक परम विद्वान् तथा गंगा जी के भक्त थे , इसलिए उन्होंने पत्नी सहित गंगा जी के किनारे बैठ कर अपने द्वारा रचित गंगा लहरी का पाठ करना शुरू किया।

ऐसी मान्यता है कि गंगा जी 51 सीढ़ी नीचे बह रही थी और एक एक श्लोक के पाठ पर एक एक सीढ़ी ऊपर आती जा रही थीं ,

जैसे ही 51 श्लोक पूरे हुए , पंडितराज जगन्नाथ और लवंगी दोनों उस गंगा जी में डूब गए , तथा उस जोड़ी को गंगा जी अपनी लहरों में ही बहा कर ले गई।

इस तरह पंडित राज ने अपना जीवन गंगा जी को समर्पित किया और लोगों के लिए अमर हो गए पंडितराज जगन्नाथ का वैदुष्य अप्रतिम है। उन्होंने रसगंगाधर नाम का ग्रंथ लिखा है, जो कि आज संस्कृत माध्यम से पारंपरिक रूप से साहित्य शास्त्र से आचार्य/ एम ए/ परास्नातक की कक्षाओं में पढ़ाया जाता है।

तो मैं बात कर रहा था अपने गुरुकुल में होने वाले सुबह की प्रार्थना की , जो कि सुबह 4:30 बजे होती थी, बच्चे नींद भरी आंखों से आते , हैंड पंप चला का पानी के छबके अपनी आंखों में मारते , तथा 5 मिनट के अंदर पाठ करना शुरू कर देते!!

पाठ करने के बाद भी सब गुरु जी द्वारा बुला लिए जाते तथा पाठ शुरू हो जाता

सबसे पहले गुरुजी सबसे बड़ी कक्षा के बच्चों को पढ़ाते अर्थात् कक्षा 12 के बच्चों को

तब तक दूसरी क्लासेज के बच्चे अपना अपना पाठ याद करते , तथा उन्हें अपनी कक्षा में क्या बोलना है उसकी तैयारी करते

पिछले दिन के पढ़ाए हुई पाठ के विषय में सोचते, विचारते  तथा प्रतिदिन किए जाने वाले पाठ की आवृत्ति करते।

नारायण बाबा मुख्य रूप से व्याकरण शास्त्र के धुरंधर विद्वान हैं, लेकिन साथ ही साथ दर्शनशास्त्र में उनकी महारत ऐसी है, मानो समूचे भारतवर्ष में शायद ही किसी की हो।

नारायण बाबा एक संत व्यक्ति हैं उन्होंने विवाह नहीं किया विद्या तथा शास्त्रों के लिए ही मेरा जीवन समर्पित है ऐसा उनके जीवन का उद्देश्य है !

गाय और ब्राह्मणों की सेवा, समाज का कल्याण , धर्म का उत्थान , देवताओं को हविष्य तथा पितरों को कव्य - इत्यादि इन सब महान् बिंदुओं पर ही श्री नारायण बाबा का संपूर्ण जीवन केंद्रित है।

वे लोग धन्य हैं, जो नारायण बाबा के श्री मुख से पढ़े हैं!

वे लोग धन्य हैं, जिन्होंने उनके परम तपस्वी जीवन को देखा है ।

और वे लोग महान् धन्य है ,, जिन्होंने उनके शास्त्र संबंधी वचनों को सुना है, तथा उसे अपने जीवन में धारण किया है!

सुबह पहले कक्षा 12 फिर 11 फिर 10 फिर 9 फिर 8 - इस तरह पांचों कक्षाएं सुबह 9:00 बजे तक समाप्त हो जाती थीं अधिक से अधिक ।

उसके बाद पूरा दिन फ्री !

जो चाहे वह पढ़ो, जो चाहे वह खेलो, इस तरह का जीवन!

सुबह के 4:00 से 9:00 तक ही सारी कक्षा समाप्त हो गई , अब तो पूरे दिन उसको अपने मन में रवां करना है पाठ को ।

कुछ अगर पूछना है तो अपने सीनियर छात्र से या गुरु जी से पूछ सकते हैं ! इसकी कोई मनाही नहीं!

गुरुकुल का काम भी समय-समय पर होता रहता है।

जैसे - बगीचे में फूल लगाना, सब्जी लाना, आटा पिसवा कर लाना, नंबर से खाना बनाना , साप्ताहिक नंबर के अनुसार झाड़ू लगाना इत्यादि !

और छात्रों के खुद के काम हैं , वे अलग !

जैसे - खुद के कपड़े धोना, स्नान, ध्यान, पूजा पाठ, इत्यादि!

तो अब मैं जो आगे कहानी कहने जा रहा हूं , वह सब इसी तरह की छात्रों की दिनचर्या को दिखाते हुए उनकी जीवन शैली को प्रदर्शित करेगी, तथा आपको आनंद के सागर में गोते लगाने को मजबूर कर देगी।

मेरा यह दावा है कि आप मेरी इस कहानी के माध्यम से निश्चित रूप से यह अनुभव करेंगे कि आप खुद गुरुकुल के छात्र हैं तथा उस जीवन को जी रहे हैं।

तो देखिए , और पढ़ते चाहिए मेरी यह कहानी!

अगले भाग से शुरू करूंगा -
घटना दर घटना !
सीन बाई सीन !
एक-एक पहलू को छूता हुआ!
हर किरदार को दिखाता हुआ!
और आप बनेंगे इसके - चश्मदीद/साक्षी!

तो अभी रात काफी हो गई है, मैं सोता हूं .......

और अगला भाग .......

जल्दी ही आप लोगों के सामने लाऊंगा!
•••••••••••••••
हिमांशु गौड़
११:१७ रात्रि
०५/१०/२०२२


नमस्कार!

जैसा कि आपने पिछले भाग में पढ़ा, यह मेरा संस्कृत महाविद्यालय के छात्रावास में पढ़ने का अनुभव शुरू होता है सन् 2003 से !

जब मैं कक्षा 8 पास करने के बाद नारायण बाबा के आश्रम में गया , वहां उस वक्त अधिक से अधिक 20 छात्र ही थे ।

मेरे पिताजी के दोस्त थे जिनका नाम था जगदीश पंडित जी । वह मेरे पिताजी के बचपन के दोस्त थे ।

उन्होंने ही सजेस्ट किया कि आप अपने बच्चे को अगर संस्कृत पढ़ाना चाहते हैं, तो नारायण बाबा के आश्रम में पढ़ाइए , क्योंकि वे बहुत विद्वान् आदमी हैं, तथा तपस्वी भी!

हम तीन भाई हैं !

मेरे बाबा जी एक शास्त्री थे , जो आजीवन हवन, यज्ञ, कर्मकांड और ज्योतिष के सहारे अपना जीवन चलाते रहे और अपने हमारे परिवार का भरण पोषण भी करते रहे।

बचपन में कॉपी किताब से लेकर समोसे रसगुल्ले लड्डू पेड़ा तक कोका कोला थम्सअप पेप्सी इत्यादि सभी कुछ

छोटी-मोटी चॉकलेट से लेकर बड़े से बड़ा आइटम तक

यहां तक कि उस वक्त चलने वाली कॉमिक्स जो बच्चों को बहुत पसंद आतीं थीं, वह भी हम अपने बाबा जी से पैसे मांग कर अपनी इच्छा पूर्ति करते थे ।

मेरे बाबा जी की पंडिताई आसपास के 8 गांवों में थी।

उनके सरल स्वभाव और सहज व्यक्तित्व को देखकर लोग उन्हें  देवता के समान पूज्य मानते थे, तथा उनका बहुत सम्मान करते थे ।

मेरे बाबा जी कर्मकांड के विशेषज्ञ थे तथा बहुत ही सज्जन तथा मीठी वाणी के मालिक थे ।

गुस्सा उन्हें कभी आता नहीं था ।

शास्त्रों में तथा धर्म के प्रति उनकी गहरी आस्था थी।

एक ब्राह्मण का जो जीवन होना चाहिए वही उनका एक जीवन था।  समाज के बीच अत्यंत सौहार्द तथा प्रेम के साथ रहते थे। मेरे पिताजी उनके इकलौते बेटे हैं।

मेरे पिताजी अकेले इकलौते ही हैं, ना उनकी कोई बहन है, ना कोई भाई ।

मतलब मेरा कोई चाचा ताऊ नहीं है , और ना ही मेरी कोई बुआ है।

हां , एक मेरे पापा जी की मुंह बोली बहन हैं, जो कि जाति से क्षत्रिय हैं , तथा हम ब्राह्मण!

फिर भी उनसे रिश्ता सगे जैसा ही हैं!

उनका गांव भी हमारे गांव से लगभग 10 किलोमीटर दूर है ।

बुआ जी एक आधुनिक इंग्लिश मीडियम स्कूल में लगभग आज 30 साल से पढ़ा रही हैं! तथा वहां की मोस्ट सीनियर टीचर हैं। उनका नाम है - विमला सिंह!

तथा उनके पति का नाम है- भानु प्रताप सिंह !

जो कि भगवान् सूर्य के बहुत बड़े भक्त हैं , तथा जिनका व्यक्तित्व बहुत चमकदार तथा आकर्षक है।

वह हमेशा राजनीति में उतरना भी चाहते थे , लेकिन कभी ऐसा मौका नहीं आया !

अपनी जवानी के समय वे बहुत साहसी थे । उन्होंने अपने प्रिय एक चहेते दोस्त, जो कि नेता थे , उनकी रैली में शामिल होकर अपनी मांगों का पत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री की जेब में रख दिया था, सबके सामने !

ऐसा उनका साहसी व्यक्तित्व था!

अभी वर्तमान में वह और बुआ जी नोएडा में रहते हैं!

उनके दो लड़के हैं ! दोनों इंजीनियर हैं! बड़े लड़के की शादी हो गई , तथा वह अपनी इंजीनियर पत्नी के साथ सिंगापुर में शिफ्ट हो गया । छोटा लड़का अभी बुआ- फूफा जी के साथ ही रहता है।

हम भी क्योंकि दिल्ली में रहते हैं , तो कभी-कभी रक्षाबंधन पर बुआ जी, पापा जी को राखी बांधने के लिए आ जाती हैं । पुरानी बातें होती हैं । एक दो घंटा साथ बिताते हैं , तथा फिर सब अपने अपने जीवन में बिजी हो जाते हैं ।

मेरा परिवार लगभग 7 साल पहले दिल्ली में आकर शिफ्ट हो गया। हम उत्तर प्रदेश के जिला गाजियाबाद के अंतर्गत एक छोटे से गांव के रहने वाले परिवार से हैं , जोकि गंगा जी से आठ 10 किलोमीटर दूर है । मतलब किनारे पर ही है।

तो मैं बात कर रहा था अपने बाबा जी की, जो कि एक शास्त्री थे । उन्होंने मेरे पिताजी से कहा था कि तुम्हारे तीन लड़के हैं, कम से कम एक लड़के को (मेरी तरफ इशारा करके) तो अपने धर्म शास्त्र तथा संस्कृत का ज्ञान जरूर कराना , ताकि यह देवताओं की पूजा करता रहे और तुम्हारे कुल का उद्धार करें !

पिताजी के मन में मेरे बाबा जी की बात हमेशा के लिए बैठ गई , और उन्होंने कक्षा आठ के बाद मुझे गुरुकुल में दाखिल करवा दिया !

और आज मैं यह सब जब सोचता हूं , तब मुझे लगता है कि यह सब विधि का विधान ही होता है । मैं बना ही संस्कृत के लिए हूं । आधुनिक लोग कभी भी मेरी प्रतिभा को नहीं पहचान सकते । आज जो कुछ मेरे अंदर ज्ञान है,  गुरुकुल में 10 साल पढ़ने के बाद , तब आज मुझे यह यकीन हो चला है कि मैं मैंने संस्कृत पढ़ने के लिए ही जन्म लिया था !

कक्षा 8 तक में आधुनिक विद्यालयों में पढ़ा, लेकिन वहां मेरी प्रतिभा को किसी ने नहीं पहचाना, अपितु वहां की परिस्थितियां ऐसी थी कि मुझे वहां एक मूर्ख छात्र समझते थे । क्योंकि उल्टी परिस्थितियों में आधुनिक इंटर कॉलेज चलते हैं । कक्षा आठवीं में ए-बी-सी-डी यह 4 विभाग थे। प्रत्येक विभाग में कम से कम 60-70 छात्र!

अब आप समझिए, एक अध्यापक एक ही बार में एक क्लास में 60-70 छात्रों को डील करता है , तो आप समझते हैं, क्या वह उनसे सबसे व्यक्तिगत संपर्क बना सकता है? कभी नहीं !

वह सब सरकारी मास्टर आते थे, और अपना काम निभा कर चले जाते थे । उनको कोई मतलब नहीं। कोई पढ़ें या ना पढ़ें!

उनको किसी के व्यक्तिगत प्रतिभा से कोई लेना-देना नहीं!

इसलिए उस जमाने के आधुनिक विद्यालय मुझे कभी भी पसंद नहीं आए।

लेकिन जब मैं नारायण बाबा के आश्रम में दाखिल हुआ,
तब मैंने देखा कि वास्तव में पढ़ाई क्या होती है! कैसे एक छात्र का ध्यान रखना होता है ! कैसे हर एक छात्र की प्रतिभा को पहचाना जाता है ! वहां ना सिर्फ गुरु जी ने अपितु मेरे सीनियर छात्रों ने भी मेरी हर एक प्रतिभा को पहचाना! पढ़ने की प्रति मेरी लगन को पहचाना!

और तो और, एक बार मैं एकांत में कुछ गाना गुनगुना रहा था, मेरे सहपाठी ने यह देखकर सीनियर से बताया कि यह बहुत अच्छा गाता है !

फिर क्या था, मेरे सीनियर्स तथा मेरे सहपाठी सभी किसी न किसी अवसर पर मुझे गाना गाने के लिए प्रोत्साहित करते थे ।

तथा इसी कारण से मैं आज भी अच्छा गाना गाता हूं ।

इससे पता चलता है कि आपके साथ की लोग यदि पॉजिटिव थिंकिंग वाले हैं , तो आप खुद ही निश्चित रूप से उन्नति करोगे और यदि आप नेगेटिव विचारधारा वाले व्यक्तियों के साथ रहोगे तो आपका जीवन बर्बाद हो जाएगा ।

खैर ! यह सब भूमिका बतानी इसलिए जरूरी थी तभी आप समझ पाएंगे कि किस तरह यह नारायण बाबा का आश्रम मेरे लिए एक उपयुक्त स्थान बन गया था ।

एक ऐसा बच्चा, जिसकी उम्र 12 साल थी, अपने घर परिवार को छोड़कर एक आश्रम में आकर रहने लगा।

नारायण बाबा बहुत वैरागी स्वभाव के महात्मा थे, मतलब अभी भी हैं , लेकिन मैं भूतकाल की घटना सुना रहा हूं तो इसलिए थे शब्द का प्रयोग कर दिया अचानक से।

अपने छात्रों को नारायण बाबा महात्माओं की घटनाएं सुनाते थे, वैराग्य पूर्ण तथा ज्ञान पूर्ण बातें बताते थे !

संस्कृत मीडियम से पढ़ने वाले छात्रों के जीवन अलग तरह के होते हैं, थोड़े से , बल्कि काफी अलग होते हैं ।

हमारा कोर्स भी अलग होता है।
उत्तर प्रदेश में हमारा बोर्ड है लखनऊ ।

जो कि माध्यमिक शिक्षा बोर्ड है।

और ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन मतलब शास्त्री और आचार्य करने के लिए हमारा विश्वविद्यालय संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय-

जिससे संबंधित सैकड़ों महाविद्यालय इस पूरे उत्तर प्रदेश में है

जिन्होंने ना जाने कितने लाखों विद्यार्थियों का उद्धार किया!

जैसा इसका नाम है, वैसा ही इसका काम है।

संपूर्ण आनंद की प्राप्ति जिससे हो , उसको ही कहते हैं संपूर्णानंद!

इसका अर्थ यह है कि हमने इस विश्वविद्यालय के अधीन पढ़ाई करके जो आनंद लिया है, वह अभूतपूर्व है !

बहुत सुंदर विश्वविद्यालय मैं कहूंगा इसे !

खैर !

तो यह कहानी शुरू होती है सन् 2003 से , जब मैं नारायण बाबा के आश्रम में प्रवेश लिया , जो कि मैं छोटा बच्चा था , जो कि अपने परिवार के प्रति भी मोह रखता है, लेकिन उसे न मोह का पता होता है,  ना ही किसी मानसिक संवेग को वह जान पाता है !

आप खुद समझ सकते हैं कि एक 12 साल का बच्चा कितनी समझ रखता होगा !

लेकिन नारायण बाबा जैसा अनुभवी तथा ज्ञानी व्यक्ति किसी को प्राप्त होना एक बहुत सौभाग्य की बात है!

क्योंकि होता क्या है, जब आप किसी कुएं के पास जाते हैं तो उतना ही पानी भर पाते हैं, लेकिन जो खुद एक मीठे पानी का समुद्र हो ,खुद एक गंगा जल के समान निर्मल और महानदी हो , उसके समीप जाकर आपको क्या आनंद मिलेगा , आप समझ सकते हैं !

वही हाल ज्ञानियों का भी है , आप किसी छोटे-मोटे ज्ञानी के पास जाएंगे, वह आपको आधी अधूरी बात बताएगा

लेकिन आप किसी महान् संत तपस्वी ज्ञानी परमात्मा की भक्ति में लगे रहने वाले व्यक्ति के पास जाएंगे तो उसके संगति से भी आपको एक अभूतपूर्व तपस्या की अनुभूति होगी

ऐसा ही कुछ श्री नारायण बाबा के आश्रम में रहने वाले बच्चों के साथ भी था गुरु जी की तपस्या को देख कर उसकी संगति में रहकर ही हमारा जीवन उनके जैसा ही तपस्वी होने लगा था

बच्चे कुछ भी अशास्त्रीय आचरण करते , तो तुरंत ही नारायण बाबा टोक देते थे , तथा सही शास्त्र का श्लोक सुना कर उसको सही आचरण करने के लिए कहते थे

अभी ऐसी बहुत सारी बातें हैं , जोकि आपको बहुत विचित्र लगेंगी , क्योंकि आधुनिक समाज को वह बातें पता भी नहीं है , कि शास्त्रों में यह बातें भी बताई गई हैं,  तो अगले भाग में मैं उन सब बातों की चर्चा करता हूं ,

बने रहिए... मेरे साथ !

और जीते रहिए, इस छात्र जीवन को ......

जो मेरे जीवन का एक बहुत खूबसूरत हिस्सा है

और बहुत ही रोमांचक जिसका किस्सा है

हर हर महादेव

अगला भाग तुरंत ही लिखने वाला हूं ........

इसी वक्त रात्रि में!

जबकि 10:44 हो रहे हैं..

और यह तारीख है 10 नवंबर 2022.....

अभी आप कहानी पढेंगे, और मैं तब तक अगला भाग लिख चुका होऊंगा...

हिमांशु गौड़


पिछले भाग में वचन दे दिया है , कि अभी लिखूंगा तो इसी वक्त रात को मैंने यह भाग लिखना शुरू कर दिया है,  जबकि कल मुझे सुबह ऑफिस में जाना है ।

लेकिन पहले वादा कर चुका हूं तो इस भाग को लिखकर ही सोऊंगा।

तो मैं बात कर रहा था उस गुरुकुल के छात्र जीवन की।

वह कुछ इस तरह का गुरुकुल था , कि नारायण बाबा के पास कुछ फंड नहीं था , जो कि वह इमारत बनवा पाते।

इसलिए जब सन् 1996 में उन्होंने उस आश्रम की शुरुआत की, तब वहां पर सिर्फ उनका एक कमरा ही था,  जिसमें साथ में ही रसोई जुड़ी हुई थी , बहुत ही साधारण तरीके से बना हुआ।

नारायण बाबा जिनको हम गुरु जी कहते हैं ।

गुरु जी पूर्व दिशा की ओर सड़क के पार बने हुए सरकारी गंगाराम संस्कृत महाविद्यालय में परमानेंट दर्शन विभाग के अध्यक्ष थे, और वे प्रतिदिन अपने उस कमरे से जोकि बिल्व पत्र के वृक्ष की छाया में था , उस कमरे में से निकल कर लगभग 50 मीटर की दूरी को पार कर सड़क पार बने उस विद्यालय में रोजाना नियमानुसार पढ़ाने जाते थे

तथा दोपहर को 3:00 या 4:00 बजे छुट्टी होने पर वापस अपने उसी कमरे में आकर भजन कीर्तन करते थे और सो जाते थे।

सुबह 4:00 बजे से नारायण बाबा उर्फ गुरुजी का धार्मिक जीवन शुरू हो जाता और रात के 11:00 बजे खत्म होता ।

इतना कठिन जीवन जीने के बाद उनको यह महान् पदवी हासिल हुई है।

उन्होंने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया है । उन्होंने श्री शंकर आश्रम जी महाराज से दीक्षा को हासिल किया।

असल में नारायण बाबा के जीवन की कहानी इस भाग में सुनाना जरूरी है , क्योंकि उसके बिना आप इस आश्रम के महत्व को नहीं समझ पाओगे।

नारायण बाबा का जन्म गंगा के उस पार एक बादलपुर नामक ग्राम में हुआ था ।

जैसा कि मैंने पिछले भाग में बताया कि मेरे पिताजी के मित्र जगदीश पंडित जी , जो कि बादलपुर के पास ही एक गांव हसनपुर है , उस के रहने वाले थे , वह बचपन में बादलपुर में ही रहते थे,  इसलिए वह उन नारायण बाबा से बहुत अच्छी तरह परिचित थे।

हुआ यूं कि नारायण बाबा की बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक क्षेत्र में बहुत रुचि थी ।

उनके माता-पिता एक किसान परिवार थे। पिताजी खेती करते थे तथा माताजी इन दिनों घर का ही काम करती थी।

निहायत ग्रामीण क्षेत्र था । गंगा जी का खादर इलाका था वह ! और भाषा भी पूरी तरह ग्रामीण!

शहरीपन की दूर-दूर तक झलक नहीं ।

पूरा जीवन बहुत सादा!

गरीबी बहुत थी उन दिनों ।

लोगों की हालत खराब थी।

नारायण बाबा की प्रारंभिक शिक्षा साधारण बच्चों की तरह अपने ग्राम के पास प्राइमरी स्कूल में हुई।

वे पढ़ने में बहुत तेज थे। क्योंकि मैं उनसे उनके बुढ़ापे के समय मिला, तब भी उन्हें अपने बचपन की किताबों के पाठ याद थे , तथा वह हमें सुनाया करते थे, कि जो आजकल कक्षा आठ में लगा है , वह पहले हमने कक्षा 4-5 में ही पढ़ लिया था !

खैर ! इस तरह उनका वह बचपन कुछ पढ़ने कुछ खेलने कूदने तथा हर परिस्थिति का ऑपरेशन करने में गुजरता था ।

उनके घर में गाय भैंस भी थीं। वह खाली समय में उन्हें चराने भी जाते थे। उनके एक बड़े भाई भी थे जिनका नाम था- नायक राम !

कुछ समय बाद जब नारायण बाबा 17 साल के हुए उनके बड़े भाई जो कि 25 साल के थे उनका विवाह 20 साल में ही हो चुका था तथा कुछ ही समय बाद दुर्दैव से नायकराम जी का देहांत हो गया , तथा उनकी पत्नी विधवा हो गईं!

उनकी पत्नी की आयु भी उस समय लगभग 20 साल ही थी, अतः यह घर में निर्णय लिया गया कि नारायण बाबा से ही इनकी शादी करा दी जाए।

नारायण बाबा का बचपन का नाम हरी लाल शर्मा था , तो यह निर्णय लिया गया , कि हरी लाल जी का विवाह करा दिया जाए । लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था।

विधाता को यह मंजूर नहीं था ।

जब विवाह के लिए मंत्र पढ़े जा रहे थे , और फेरों का समय उपस्थित हो गया , तो नारायण बाबा उर्फ हरी लाल शर्मा जी कहने लगे मैं जरा भी पेशाब करने जा रहा हूं ,

और फेरों से उठ कर पेशाब करने चले गए , और वहां से जंगलों में अपनी शादी छोड़कर भाग आए और गंगा जी को तैरकर पार किया।

उस रात के घनघोर अंधेरे में जंगलों में भाग गए।

लोग उनका इंतजार ही करते रह गए, और वह इस आधुनिक संसार को छोड़कर उसी संसार की तरफ बढ़ गए थे , जो एक धर्म के क्षेत्र की तरफ जाता है! एक अध्यात्म के क्षेत्र की तरफ जाता है ! एक महात्माओं के जीवन की तरफ जाता है ! जिसका उद्देश्य इस धरती के हजारों लोगों का कल्याण करना था ! जिसका उद्देश्य ज्ञान के प्रकाश की तरफ इस संसार को ले जाना था! उस परम ज्योति की तरफ , वे मानों अपने भाग्य से प्रेरित होकर ही बढे चले जा रहे थे।

ब्रह्म मुहूर्त की वेला में गंगा जी को पार करके वह एक तीर्थ स्थान पर पहुंचे, जहां उन्होंने देखा कि गंगा जी के किनारे एक कोई महात्मा जिसके चेहरे से अत्यंत तेज झलक रहा है, जो देखने मात्र से ही महान् तपस्वी मालूम पड़ रहा है! जिसमें कुछ अनोखी बात मालूम पड़ रही है! वो कुछ मंत्रों का जाप कर रहा है । आसपास पूछने पर पता चला कि पास में ही महात्मा का आश्रम भी है ।

वही थे - श्री शंकर आश्रम जी महाराज!

जिनके द्वारा स्थापित है एक दंडी आश्रम , जोकि भगीरथ घाट में स्थित है । भगीरथ घाट एक छोटे से गांव का नाम है जोकि गंगा किनारे हैं ।

उधर नारायण बाबा उर्फ हरी लाल शर्मा कि घर में अफरा-तफरी मची हुई थी , कि लड़का कहां भाग गया विवाह छोड़कर !

और उधर हरी लाल शर्मा का एक नया जन्म हो चुका था।

हरी लाल शर्मा जी उर्फ नारायण बाबा की जरा भी इच्छा नहीं थी कुछ पढ़ने लिखने की

यह तो सिर्फ एक महात्मा बनना चाहते थे।

उन्हें सिर्फ प्रभु से मिलना था ।

उन्हें इस संसार की ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं थी।

इसलिए उन्होंने यह अपनी इच्छा श्री शंकर आश्रम जी महाराज से जाहिर की।

लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था।

शंकर आश्रम जी महाराज इस दुनिया के बहुत बड़े विद्वान् थे ।

जिन्हें सभी शास्त्रों का ज्ञान था ।

समस्त वेद जिनके हृदय में उपस्थित थे ।

और समस्त उपनिषद् जिनकी आत्मा में उपस्थित थे।

पुराण उनकी वाणी में नाचते थे ।

भाष्य उनके हृदय में स्थित है ।

वैराग्य उनके जीवन का आभूषण था,
तपस्या उनका एकमात्र आचरण था ।

इस धरती के लोगों का उपकार करना ही उनके जीवन का उद्देश्य था।

वैराग्य उनका स्थिर स्वभाव था । प्रेम भाव उनमें जन्मजात था । उदारता उनके साथ ही जन्मी थी।

वह एक गोरे रंग के,  गंभीरता और  प्रसन्नता से युक्त चेहरे वाले एक महान् ज्ञानी पुरुष थे ।

उनके जीवन की तपस्या की पराकाष्ठा ऐसी थी , कि समूचे भारत में कोई भी उनके समक्ष खड़े होने की बात छोड़िए उनको दूर से ही प्रणाम करता था ।

तथा उनको अपना गुरु मानता था ।

ऐसी महान् लोकप्रियता को उनके जीवन में साक्षात् लोगों ने अनुभव किया था ।

ऐसे श्री शंकर आश्रम जी महाराज !

और उन्हीं से दीक्षा लेने अपने विधि के विधान से प्रेरित होकर पहुंच गए थे श्री नारायण बाबा ।

जिन्होंने इसी संस्कृत बोर्ड के माध्यम से प्रथमा, मध्यमा, शास्त्री, आचार्य इत्यादि परंपरागत रूप से पढ़ाई की

तथा समस्त शास्त्रों का ज्ञान श्री शंकर आश्रम जी महाराज से प्राप्त किया

तो इसी महाविद्यालय मैं पढ़कर और इसी में सरकारी पद पर वे नियुक्त हो गए

वहां स्थित सभी शास्त्रों के अलग-अलग आचार्यों में सबसे अधिक विद्वान् तथा पूजनीय श्री नारायण बाबा ही हैं।

2007 में वह रिटायर हो गए, तो उसके बाद भी 2 साल तक शास्त्र चूड़ामणि के पद पर वहां के लोगों ने उन्हें दोबारा से नियुक्ति दिलवाई ।

और इस तरह सन 2009 के बाद, वह कुल मिलाकर अपनी ही उस कुटिया में जो कि मेरे लिए आश्रम है उसमें रहने लगे , और वहां बच्चों को पढ़ाने लगे ।

अपने आश्रम खोलने का उनका विचार भी इसी मूल धारणा पर आधारित है कि जिस तरह मैंने बिना किसी पैसे के पढ़ाई की उसी तरह मैं भी सभी तरह के बच्चों को फ्री में विद्या का दान कर सकूं।

और शास्त्रों का धर्म का महत्व सबको बता सकूं ।

यही उनके जीवन का सबसे प्रमुख लक्ष्य है।

और उन्होंने अपने जीवन में इसको साबित भी किया है हजारों छात्रों को विद्या दान करके ! धर्म का दान करके! पुण्य के प्रति प्रेरित करके!

नारायण बाबा की दिनचर्या कुछ ऐसी है कि वह सुबह 4:00 बजे ही जाग जाते हैं,

उसके बाद अपना अध्ययन करते हैं । शास्त्रों का चिंतन और मनन करने लग जाते हैं सुबह से।

उसके बाद शौच आदि से निवृत्त होकर एक बार सबसे पहले नल पर ही स्नान करते हैं, और शुद्ध होकर फिर गंगा जी नहाने जाते हैं ।

गंगा जी पर नहाकर वहीं किनारे बैठ कर तीन-चार घंटे पूजा करते हैं ,और फिर लौट कर आते हैं ।

और आकर बच्चों को पाठ पढ़ाते हैं, तथा आश्रम के व्यवस्था संबंधी कार्यों को भी देखते हैं ।

उसके बाद दोपहर की पूजा करते हैं तथा फिर शाम को पढ़ाना शुरू , तथा बच्चों से पाठ सुनना इत्यादि ।

सन् 2007 में उनके आश्रम पर एक छोटी सी गौशाला भी बन गई , जो आज और भी बड़ी हो गई है , और उसमें लगभग 40 गाय हैं ।

गौशाला की कहानी अलग है जो मैं बाद में बताऊंगा।

लेकिन अभी मैंने यह बहुत ही संक्षेप में नारायण बाबा के जीवन के विषय में बताया ।

नारायण बाबा का आश्रम किस तरह का है, यही मैं आपको बताऊंगा।

नारायण बाबा का जो आश्रम है उसमें सबसे पहले सिर्फ एक ही कमरा था।

बाबा की तपस्या को देख कर एक अभिभावक जो कि अपने बच्चों को उस सरकारी विद्यालय में दाखिला दिलवाने के लिए आए थे, उन्होंने सोचा कि यह तपस्वी महात्मा रहते हैं उनके यहां यही मेरा बच्चा पढ़ लेगा तो वह और बच्चे उस बच्चे को लेकर नारायण बाबा के पास पहुंच गए कि महाराज आप अपने कमरे पर ही इस बच्चे को रख लो ! यह आपके बरामदे में ही सो जाएगा! तथा आपसे विद्या प्राप्त करेगा !

बाबा ने पहले तो मना किया कि हमारे पास जगह कहां है?

लेकिन जब वह नहीं माने तो बाबा राजी हो गए, फिर उसके बाद एक परिजन और आए उनके दो बच्चे थे। दोनों को उन्होंने नारायण बाबा को सौंप दिया तो नारायण बाबा ने एक कमरा और बनवा दिया।

इस तरह अभिभावक आते गए और कमरे बनते चले गए।

कुछ नारायण बाबा के पैसे से तथा कुछ दानदाताओं के पैसे से।

इस तरह आज वहां लगभग 10-15 कमरे हैं तथा एक बड़ा हॉल भी है , जोकि बुलंदशहर के एक डिप्टी साहब ने बनवाया है ।

उस बड़े हॉल को भागवत भवन का नाम दिया गया है।

आज की डेट में वहां पर बहुत सुविधाएं हैं ।

मतलब काफी हद तक सुविधाएं हैं।

लेकिन जब मैंने वहां प्रवेश लिया था , तो कुछ भी सुविधाएं ही थी । हमने वहां बहुत काम किया है, फिजिकली भी और व्यवस्था गत भी।

इससे ही हमें अपने जीवन में संघर्ष का मूल्य पता चला है।

तथा एक नई संस्था कैसे खड़ी की जाती है, इसका भी हमें आईडिया इससे मिलता है।

नारायण बाबा अपने आप में एक बहुत परिश्रमी व्यक्ति रहे हैं वह बहुत जीवट तथा उद्यमशील हैं।

सांसारिकता का उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं , लेकिन शास्त्रों के मामले में उनके जैसा कोई नहीं। स्वाभाविकता उनमें जन्मजात है , तथा सहजता उनका सबसे बड़ा आभूषण।

इतना ज्ञान होने पर भी उन्हें कुछ अभिमान नहीं।

वह खुद ही झाड़ू लगाने लग जाते हैं, खुद ही गाय का गोबर उठाने लग जाते हैं।

उनके कपड़ों पर कभी भी प्रेस होती नहीं । बे कभी साबुन तेल का इस्तेमाल नहीं करते । उन्होंने किसी भी प्रकार के श्रृंगार के सामान का आज तक इस्तेमाल नहीं किया । और ना ही वह अपने छात्रों को उसकी इजाजत देते ।

उन्होंने वेद शास्त्र के अनुसार जो जो नियम है उनका खुद भी पालन किया है, और जो उनके प्रिय शिष्य हैं उनसे ही पालन करवाया है ।

भगवान्  शिव में और गंगा जी में उनकी विशेष रूप से भक्ति है। सभी  देवताओं की पूजा करते हैं।

पितृकार्य में महान् सावधान रहने वाले, यज्ञ आदि विधियों में सबसे आगे,  तथा सभी प्रकार के शास्त्रों की व्याख्या करने वाले , अपने गुरु स्वामी श्री शंकर आश्रम जी महाराज के समान ही महान् वैदुष्य को धारण करने वाले यह इस तरह हमारे गुरुदेव श्री नारायण बाबा हैं ।


अगला भाग फिर कभी......

तब तक के लिए - हर हर महादेव !

शुभ रात्रि।

हिमांशु गौड़




Thursday, 24 November 2022

बुधेषु कविष्वपि खेदपूर्णा स्थितिरधुना

 एतद्धि महद्दौर्भाग्यं यदद्यत्वे संस्कृतं यच्च देवभाषेति, तत्रापि दैवप्राप्तपदत्वेन केचित् खला इव वर्तमाना:, कूटनीतिं चरन्त: परपक्षगुणोपेक्षका, आत्मीयानल्पगुणवतोऽपि स्वजनान् पुष्णन्त इव कदाचित् "सर्वशास्त्रतत्त्वज्ञा:" कदाचिद् "आधुनिककालिदासा:" कदाचिच्च "शास्त्रतपस्विन" इत्यादिपदवीभिस्स्वयमेवात्ममुखत आत्मात्मीयश्लाघनपरा दृश्यन्ते। परांश्च महाकवित्वलसितानपि प्रतिभासूर्यानपि महान्धकारमेघीभूयाच्छादयितुमहर्निशं प्रयतन्ते।


तेषां दृष्टिस्स्वचाटुकारिसम्पन्नेषु कविषु वैशिष्ट्यं पश्यति, तत्कृतकवितासु चैव (असार-अनुद्देश्य-निर्गभीर-नीरसासु गुणालङ्कारध्वन्यादिवर्जितास्वपि) "अहो मन्मित्रकृतकाव्यम्!" "अहो ह्यत्र शास्त्रनिष्पादनवैलक्षण्यम्!" "अहो हैतस्य सत्कवित्वम्!" अहोऽस्मज्जनकृतकाव्ये भावदर्शनप्रावण्यमित्यादिका स्वजनवर्धापनाय कूटनीतिच्छन्ना वाग्झरी प्रतिदिनं जर्झरीति। 


किन्तु ये तेषां समूहे न सन्तिष्ठन्ते, ये तानहर्निशं न नन्नमन्ति , ये सत्यत्वेन शास्त्रनिष्ठोल्लसिता, ये व्यर्थाडम्बरविडम्बनशून्या, ये काव्यवणिक्त्वशून्या, ये निश्छलोच्छलत्काव्यधारयैव वर्तमानास्


तांस्त उपेक्षन्ते, तान्नैवेक्षन्ते, तान्नैव गणयन्ति, न मन्यन्ते, तद्गुणान् गोपायितुमेव सततं यतन्ते, तत्काव्यानि दृष्ट्वापि , "नैवात्र किञ्चित्काव्यत्वमिति" "नायं स्वजनोऽतोऽस्य गुणकथने मूकीभवेमेति अन्तश्चिन्तयन्तस्तथैव च वर्तयन्तोऽपि, अकादम्यादिष्वपि एते स्वपक्षिपक्षानेव प्रसारयन्ति, दिवानिशं कृतचाटुवाक्यवल्लरीविटपवसन्तास्तेऽसन्त: क्षेत्रवाद-शिष्यवाद-स्वार्थवाद-धनवादादिकानेव गर्दभानिव वहन्तो वाहयन्तश्च जगति वसन्ति। 


धिगेतेषां समीक्षा, या स्वजनकृतकाव्येष्वेव काव्यशास्त्रीयसमस्तगुणगौरवान्पश्यति!


धिग्घैषां हृदयकमलानि, यान्यात्मीयानामेव काव्यानि दृष्ट्वा विकसन्ति!


धिक् समत्वहीनत्त्वं चैषां गुणज्ञानोद्गीर्णे! 


एते चात्मचाटुकारानेव संस्कृतकविसमवायेष्वामन्त्रयन्ति, तेषां ग्रन्थानेवाग्रीभूय प्रकाशयन्ति, तेषां कवितास्वेव सामाजिकाधुनिकशास्त्रलोकालोकभावना एतैर्दृश्यन्ते दर्श्यन्ते च!


धिक्तानैतान्! 


एतन्न केवलमधुना, 

परञ्चाम्बिकादत्तव्याससदृक्षो महान् कविरपि एवंविधैर्मत्सरग्रस्तैश्चिक्लेशितस्सन्नभाषत शिवराजविजयभूमिकायाम्- "ये तु पुरोभागिनो निगीर्यापि प्रबन्धममुं तुण्डमुण्डकण्डूयनै:, ताण्डवकरण्डीकृतभ्रूभङ्गैश्चास्मानास्माकांश्च हासयिष्यन्ति, तेऽप्यसङ्ख्यप्रणतिपात्राण्येवास्माकम्। ये तु जोषं जोषमालोक्यापि काव्यानि, समासाद्यापि च तोषम्, सरोषमुज्जृम्भिताभिर्जाठरज्वालाभिरेव तं जारयन्ति, जारयन्ति ते ग्रावणोऽपि लौहमपि विषमपि दाधीचास्थीन्यपि चेति विलक्षणकुक्षयस्ते न कस्य नमस्या:?"


इत्यस्मादपि पूर्वं चोक्तं हरिणा - बोद्धारो मत्सरग्रस्ता इति।


न केषाञ्चिदपि दूषणं मदन्तस्तात्पर्यम्! न कांश्चिदवहेलयितुम्मे यत्नो! नैव चात्मोपस्थितिप्रदर्शनं वा मेऽसौ वाक्कल्प:! 


किन्तु प्रसृतकाव्यजगद्गतिविधीनेव दर्शं दर्शं नात्मानं रोद्धुमशक्नुवमत इयम्मे वाग्ज्वाला ज्वालयिष्यत्येव तान्, य इत्थं वर्तमाना जीवन्ति। येऽस्माद्विपरीतास्ते त्वस्मन्नमस्यास्सर्वदैव।

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हिमांशुर्गौड:

११:१२ पूर्वाह्ण:

०७/०८/२०२२

दिवङ्गतेभ्यश्श्रीस्वरूपानन्दसरस्वतीमहाराजेभ्यश्श्रद्धाञ्जलि:

 

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द्वैताद्वैतपथैश्च साङ्ख्यशरणैर्नैयायिकैश्शाब्दिकैर्

देवप्रार्थनतत्परैश्शिवरतै: पौराणिकैरन्वहं

वेदोल्लासितमानसैरपि च यो मीमांसकैर्वन्दितस्

सोऽयं शङ्करतां गतश्शिवगृहं श्रीमत्स्वरूपाभिध:||१||


जीवेम क्व वयं भवद्विरहिता याम क्व दु:खाहता:

किं वा निश्श्वसिमोऽपि विश्वसिम उद्भ्रान्ता इव स्मोऽधुना

हा हा हन्त विहाय धर्मनगरीसम्राड्गतो भूतलात्

स्वामिश्रीकरपात्रदीक्षितगुरुश्श्रीमत्स्वरूपाभिध:||२||


चत्वारस्सकलेऽपि भारत इह भ्राजन्त उत्कर्षदा

आद्याच्छङ्करपादपूज्यपदकाच्चीर्णा सुखानाम्प्रथा

सोऽसौ पीठयुगे विराजितवपुर्धर्मश्रियोद्भ्राजितश्

शैवं लोकमगाद्विहाय पृथिवीं पूज्यस्स्वरूपो गुरु:||३||


विद्वान्सो बहवो निशादिनमहो येनात्र सम्पोषिता:

धूर्ता: म्लेच्छजनाश्च धर्मनगराद् दूरीकृता येन च

बुद्ध्यातङ्कभृतां विनश्य च भयं, धर्मश्च संस्थापितस्

सोऽयं वेदवतां वरो दिवमगात्स्वामी स्वरूपाभिध:||४||


धिग्धिग्धिग् वयमद्य स्वात्मपुरुषान्पूज्यांश्च विस्मृत्य हा

वित्तार्थं च पिशाचराजपदवीं यामो ह्यलज्जान्विता:

रे रे वेदपुराणधारिपुरुषा: देवार्चनासंरता:!

सोऽस्मद्धर्मगुरुर्गतो दिवमितस्तस्मै क्षणं दत्त व:||५||


वादान् कुत्सितमानसांश्च मलिनान् योऽध्वंसयद्वै द्विषां

श्रद्धाश्रीपरिशोभितान् स्वपुषा हास्येन योऽवर्धयत्

वीक्ष्यैनं सकलास्समाजफलका हृष्यन्ति धर्मप्रियास्

सोऽसौ देवपुरं प्रयात इति नश्शान्तिर्न चित्तेऽधुना||६||


देहो नाम पदं जनिश्च मरणं सर्वं ह्यसत्यं मृषा

वैराग्येण विलोकयन्ति सुजनास्तद्ब्रह्म साक्षादिव

किन्त्वस्मादृशलोकजालनिगडाबद्धास्तु दु:खाकुला

स्वामिश्रीगणभूषणश्शिवपुरं यातो विहायैहिकम्||७||


हा हा हा ध्वनिरद्य सर्वधरणीं व्यापृत्य चैवं नभस्

संश्रूयेत सुरैरपि स्वपुरि तैर्हस्तस्थपुष्पैरहो

मोदस्तत्र, भुवीह दु:खमिति संव्यग्रा: सुरा मानुषा

यातायातभृतो दिवि प्रभवताद्वैमानिकस् सत्पथ:||८||


शब्दार्थं परिपाठयन्द्विजगणान्वेदार्थमुद्बोधयन्

शास्त्रार्थं परिकारयन् बुधजने सत्यार्थमुत्पादयन्

शैवार्थं परिदर्शयन् जगति यो दिव्यार्थमुद्भासयन्

देवार्थं गतवान् दिवं गुरुरसौ श्रीमान्स्वरूपाभिध:||९||


पुण्यापुण्यविवेकशीलपुरुषैर्यो निश्चयार्थं चित:

सत्यासत्यसमुत्सुकैर्जनवरैर्यो वेदनार्थं श्रित:

ज्ञाताज्ञातबहुप्रकारकमलध्वंसाय यो ध्रीयते

सोऽसौ धर्मभृतां सतां सुखकरो ब्रह्मत्वपन्नोऽधुना||१०||


रज्जौ सर्प इति भ्रमाद्भवति यो बुद्धौ नृणां भावना

तद्वद्ब्रह्मणि लोकदर्शनमिति ज्ञायेत तत्त्वप्रियै:

इत्याकारकसत्यरूपपदकादर्शी प्रकर्षी गुणैर्

गीर्वाणालयमुच्चकासत इतो गत्वा स्वरूपो गुरु:||११||


श्रद्धां गाणपते कुरुध्वमधुना बुद्ध्यै स्वशुद्ध्यै जना:!

वृद्धिं तर्हि समश्नुत प्रतिपदं तत्पादपूजारता:!

इत्याद्यादिसुरेशदेशपदकप्रीतिश्रियाम्प्रेरकं

वन्दे घ्राणरसादिदोषरहितं स्वर्वासिनं सद्गुरुम्||१२||


"हेमन्त: प्रभवेच्छरद्विकसति प्रावृट् च संवर्षति

ग्रीष्मस्तापयति प्रियश्च नितरां बाभात्यहो शारद:

वासन्तं रमणं सुखं" - "नहि सखे! गृह्णाति मृत्युश्शिरष्

षड्भिर्नात्मविमुग्धिमेहि" - वदति स्म श्रीस्वरूपो गुरु:||१३||


लोको भीतिकरो गृहं क्व मम चेत्याच्छन्नचित्तो भवेत्

यात्रा क्वैतु समाप्तिमित्यथ जनस्सञ्चिन्त्य विष्णुं भजेत्

कौटिल्यं भयदं जगन्न सुखदं यानि क्व चिन्तान्वित:

आत्मान्वेषणतत्परो भव सदा - श्रीमत्स्वरूपोऽवदत्||१४||


"पुत्रस्स्त्री गृहमर्थमस्तु सुजना:! लेशं न नो वास्तवं

मृत्यौ नैव तृणं सहैति जगतश्चेत्येव सन्धार्यताम्

भेकस्सर्पमुखस्थितोऽसि रमसे संसारचक्रे कथं"

रात्रौ यो वदति स्म चिन्तनवशात् सोऽसौ स्वरूपो गुरु:||१५||

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हिमांशुर्गौड:

०९:५१ रात्रौ

११/०९/२०२२


https://archive.org/details/20220912_20220912_1019

शब्दब्रह्मगतं प्रणौमि सततं श्रीरामयत्नं गुरुम्

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काश्यां यस्य निशम्य शब्दपरकां नानार्थचिन्तावलीं

छात्राश्चैव यतो ह्यधीत्य मुदितास्सिद्धान्तमुक्तावलीं

विद्वत्सज्जनलोकनैर्भवति वा यस्येह दीपावली

तस्मै च प्रददामि देवनगरस्थायाद्य भावाञ्जलिम्||१||


यो वै शब्द इति प्रकाशितपथे छात्रान्नवान् वर्धयन्

ब्रह्मत्वं प्रतिपादयन् पदमुचां वाचाञ्च तत्त्वं वदन्

सोऽसौ नागपदैकचिन्तनरत: पातञ्जलं धारयन्

शैवं लोकमगात्सहस्रजनतां दिव्यार्थमुत्प्रेरयन्||२||


काश्यां देवनदीतटे घटपटाद्यर्थं समुद्बोधयन्

न्यायाश्लिष्टपदप्रचारणविधिं विद्यार्थिनश्शिक्षयन्

वेदास्यार्थमुपास्यतामिति जनानाजीवनञ्जीवयन्

शब्दब्रह्म गतश्श्रुतं गुरुवरश्श्रीरामयत्नस्सुधी:||३||


भाष्ये कैय्यटवाक्समुद्रसलिलं योऽगस्त्यवत् पीतवान्

शब्दानां महिमानमेव सततं चाजीवनं गीतवान्

मञ्जूषां शिरसा प्रधार्य सततं नागेशभट्टस्य यो

वैलक्षण्यमथाह शब्दजगतां जातस्स शब्दोऽधुना||४||


देहेऽप्यस्ति विभिन्नवाक्स्वरलयाबद्धा तरङ्गान्विता

नानाभावविलासबोधकरणी शुक्लाम्बरा कुत्रचित्

आकाशे तडिदुद्भवेत्क्षणभवा तद्वत्प्रकाशान्विता

हेत्थं योऽर्थमबोधयत् सुवचसां वाचि प्रलीनोऽधुना||५||


काशीयं मम सुप्रिया कथमहं त्यक्त्वा प्रयामि क्वचित् 

त्वां नाना न हि रोचते सुरपुरं मह्यं न सौख्यं धनं 

इत्याद्यैश्च पुराणशास्त्रगदितै: काशीरसाकाशितै-

रर्थैर्जीवनमुन्नयन् शिवमगाच्छ्रीरामयत्नो गुरु:||६||


काशीवासविभासजीवनवशादन्धं तमो वारयन्

पाणिन्यर्थसमेतसूत्रसरणीं छात्रेषु विस्तारयन्

अज्ञानादिमनोमलं च जडतामुत्पाटयन् कौशलैर्

योऽजीवज्जनताप्रियोऽप्रियहरश्श्रीरामयत्नस्स वै||७||


लब्ध्वा राष्ट्रपतिप्रभाविलसितं पद्मादिसम्भूषणं

हृत्वा द्वेषभवं विधर्मिवचसां यच्छाब्दिकं दूषणं

शब्दाम्रस्य सदाऽकरोदहरहश्चित्तेन यश्चूषणं

सोऽसौ शब्दभृताम्प्रमाणितगुरुश्श्रीरामयत्नो गत:||८||


दृष्ट्वा छात्रगणान्सुतानिव सदा स्नेहेन यो हृष्यति

पात्रं शास्त्रगुणस्य दिव्यनयनैर्यो दूरत: पश्यति

सारल्यादिसुरप्रवृत्तिघटकैर्दौ:ख्यं च यो नश्यति

तस्यालोक्य दिवप्रयाणमधुना भोज्यं न मे रोचते||९||


हे विद्वन् बहुधा शतैश्च शतधा त्वद्वेतृता संश्रुता

दौर्भाग्यं न कदापि भौतिकतया साक्षान्मयालोकित:

सम्बन्धो भवति प्रवेतृषु मुदा वाचां, न वै दैहिकं

तस्मात्त्वां परिदृष्टवान् शतपथैरित्येव सञ्चिन्तये||१०||


हे विद्वंस्तव शब्दकीर्तिमहिमा दूराज्जनैर्गीयते

श्रीमंस्ते पदपाठनप्रवणता पुण्यान्विता लक्ष्यते

बोद्ध्रीशाशुविबोधदा च शुभता गुण्यान्विता लोक्यते

याते त्वय्यथ शब्दराजि निशि हा निद्रा न मे नेत्रयो:||११||


किन्तु त्वामभिगायति त्रिभुवनं त्वां लोकते लोकराट्

किन्तु त्वामभिवेत्ति शब्दजगति प्रत्येकमुत्कण्ठया

किन्तु त्वाम्परिहृष्यमाणहृदयैर्गायन्ति मेघस्वरास्

त्वं यातोऽपि न यात इत्यहमहो तुष्यामि चित्तेऽधुना||१२||


कीदृग्भावगिरां प्रयामि मतिमन् पारं न विज्ञायते

यातानां च महात्मनां स्मृतिरतो मत्तो न निर्गच्छति

तस्माद्भावनिवेदनाय शतधा सोऽयं प्रकल्पारतस्

त्वत्कीर्तौ हि हिमांशुगौडपदभाक्सक्त: प्रयाते त्वयि||१३||


देहं नो गणयन्ति शाब्दिकवरास्सद्ब्रह्मजिज्ञासवस्

तस्मान्नष्ट इतीह भावपरता लेशा न तेषु क्वचित्

आत्मा सत्यमिति प्रभाविलसिताश्शैवेन सूद्भासितास्

तद्वच्च प्रचरन्ति रामयतना: काशीविभाकाशिता:||१४||


शास्त्रायार्पयतु स्वजीवनमिति प्रारीरचज्जीवनं

शास्त्रायैव समं धनं च तृणवत् त्यक्त्वा सुखैस्संवसेत्

शास्त्राधिष्ठितनिष्ठया शिवगुरो: प्रीतिं प्रविन्देन्मुदा

यो वक्ति स्म पुरारिशूलनगरीवासी स काशीवर:||१५||

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हिमांशुर्गौड:

०९:२७ रात्रौ

२०/०९/२०२२

Tuesday, 22 November 2022

केतुमालेश्वरं पूजयामो वयम्

हालेण्डदेशे शुभधर्मसंस्थां संस्थापनायेह कृतप्रयत्न: श्रीब्रह्मदेवस्य सुतश्शिवाढ्य: श्रीशङ्करोऽसौ द्विजधर्मगुण्य:||१|| || केतुमालेश्वरं पूजयामो वयम् || •••••••••••••••••••• ब्रह्मदेवस्य पुत्रो ह्यसौ शङ्करो भव्य-हॉलेण्डदेशे शिवश्रद्धया सत्यधर्मप्रचाराय सङ्कल्पवान् केतुमालेश्वरं मन्दिरं भावयेत्||१|| भगवान् शिव में श्रद्धा होने के कारण, तथा सत्य सनातन धर्म के प्रचार के लिए जिन्होंने संकल्प लिया है , ऐसे आचार्य शङ्कर उपाध्याय जी ने इस भव्य हॉलैंड देश में केतुमालेश्वर मंदिर की भावना की है। यो विदेशे स्वदेशे प्रदेशेष्वपि भक्तचित्तेषु सर्वत्र संवर्तते यत्कृपा यद्दया जीवनोद्धारिणी केतुमालेश्वरं शङ्करं तं भजे ||२|| चाहे विदेश हो, चाहे स्वदेश हो, चाहे कोई सा भी प्रदेश हो, हर जगह अपने भक्तों के हृदयों में जो रहते हैं, जिन की कृपा और जिनकी दया, इस जीवन का उद्धार करने वाली है, उन भगवान् केतुमालेश्वर शिव का मैं भजन करता हूं। श्रीगणेशेन गौर्य्या कुमारेण च नन्दिना वन्दिना शोभितो दृश्यते देव-रक्षो-मुनीशैर्नृभि: पन्नगैस् संस्तुतं केतुमालेश्वरं भावये||३|| श्री गणेश, गौरी , कार्तिकेय , नंदीश्वर, तथा वन्दना करते भक्त - इनसे जो शोभित दिखाई देते हैं ! देवता, राक्षस, ऋषि-मुनि, मनुष्य, नाग - ये सब जिनकी स्तुति करते हैं, ऐसे भगवान् केतुमालेश्वर की मैं भावना करता हूं। जानकी-जानकीशं वरं लक्ष्मणं तत्समक्षस्थितं मारुतिं पूजये जन्मनां ग्लानितो मां समुद्धारयेद् रामनामाक्षरं भीतिसंहारकम्||४|| सीता के सहित बैठे हुए श्रीरामचन्द्र, श्रेष्ठ लक्ष्मण और उनके ही सामने बैठे हुए हनुमान् जी की मैं पूजा करता हूं । राम ये जो दो अक्षर का नाम है, ये भय का नाश करने वाला है, तथा मेरी जन्मों-जन्मों की ग्लानि से मेरा उद्धार करे (जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाए)। कार्न-हार्नाख्यदेशे च गङ्गाजलै: पावनं तद् विधाय प्रियं मन्दिरं स्थापितं हिन्दुभक्ताय शोभायुतं यैरुपाध्यायवर्यान् नुमश्शङ्करान्||५|| हिन्दू भक्तों के लिए शोभायमान, प्रिय मन्दिर, जिसे गङ्गाजल से पवित्र करके कार्न-हार्न इस स्थान पर बनाया गया है, मैं उन मन्दिरस्थापक आचार्य शङ्कर उपाध्याय को भी नमन करता हूं। पञ्चदेवार्चना पुण्यदा सौख्यदा श्रद्धया लोक आचर्यते सर्वदा अत्र सर्वत्र धर्मप्रचाराय तत् केतुमालेश्वरं मन्दिरं स्थाप्यते||६|| गणेश, दुर्गा, विष्णु,शिव, सूर्य - इन पञ्च देवताओं की उपासना, पुण्य और सुख प्रदान करती है! इनकी पूजा हम सभी हमेशा श्रद्धापूर्वक करते हैं! इसी हमारे धर्म का, यहां, वहां, हर जगह प्रचार हो, इसलिए इस केतुमालेश्वर मंदिर की स्थापना की गई है। चन्द्रभालं धनुष्पाणिमुद्धारकं राधयालिङ्गितं वासुदेवं वरं भावये सिंहरूढां च दुर्गामहं केतुमालेश्वरं शङ्करस्थापितम्||७|| जिनके माथे पर चन्द्रमा है वे भगवान् शिव, धनुष् हाथ में धरने वाले, उद्धारक भगवान् राम, राधा के द्वारा आलिङ्गित श्रीकृष्ण, शेर पर सवारी करने वाली माता दुर्गा, और आचार्य शङ्कर द्वारा स्थापित केतुमालेश्वर शिव - इन सबकी मैं अपने मन में भावना करता हूं, नमन करता हूं। श्रीयन्त्रस्था तु या देवी सर्वलोकेश्वरी शुभा। भोगं मोक्षं प्रयच्छेन्मे माता त्रिपुरसुंदरी।।८|| श्रीयन्त्र में स्थित देवी, जो इस पूरे ब्रह्माण्ड की नायिका हैं, शुभ प्रदान करती हैं, ऐसी माता त्रिपुरसुन्दरी मुझे भोग और मोक्ष प्रदान करें। (जहां भोग है वहां मोक्ष नहीं, जहां मोक्ष है वहां भोग नहीं, किन्तु ऐसी प्रसिद्धि है, कि जो त्रिपुरसुन्दरी की उपासना करते हैं, उन्हें भोग और मोक्ष दोनों मिल जाते हैं, इसलिए कवि का यह उपर्युक्त वचन है)। अनन्तबोधचैतन्यप्रेरितेन हिमांशुना केतुमालेश्वरस्यैषा स्तुतिर्हृद्या कृता मुदा||९|| स्वामीश्री अनन्तबोधचैतन्य जी से प्रेरित होकर हिमांशुगौड़ ने भगवान् केतुमालेश्वर की हृदय को प्रिय लगने वाली स्तुति की आनन्दपूर्वक रचना की।

संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक

 ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्र...