मैं सामान्य आधुनिक कॉलेज में ना पढ़कर , एक पारंपरिक पद्धति से चलने वाले संस्कृत के महाविद्यालय में , आवासीय छात्रावास में रहकर पढ़ा हूं!
वहीं मैंने अपना छात्रकाल व्यतीत किया ।
मेरे हॉस्टल में सभी लोग संस्कृत पढ़ने वाले थे, लेकिन साथ साथ हिंदी तथा अंग्रेजी का भी ज्ञान रखते थे । कंप्यूटर वे अपनी रूचि के अनुसार सीखते थे।
तो दोस्तों! माहौल कुछ इस तरह था कि दो विद्यालय आमने-सामने थे , सड़क के उस पार पूर्व दिशा में संस्कृत महाविद्यालय डिग्री कॉलेज था जिसका नाम था - गंगाराम संस्कृत महाविद्यालय!
और सड़क के इस तरफ था श्री नारायण बाबा द्वारा खोला हुआ एक कक्षा 8 से लेकर 12वीं तक का प्राइवेट हॉस्टल सहित गुरुकुल !
अकेले नारायण बाबा उस अपने प्राइवेट गुरुकुल में रहकर वहां रहने वाले 60 छात्रों को पढ़ाते थे सुबह 4:00 बजे ही वहां के बच्चे उठ जाते थे, तथा सबसे पहले उठकर संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण करते थे।
महान् पंडितराज जगन्नाथ महाकवि के द्वारा लिखी हुई गंगा जी की स्तुति - "गंगा लहरी"! जिसमें 51 श्लोक हैं, उसका पाठ महा के बच्चे बहुत ही मधुर स्वर में करते थे!
क्योंकि 51 श्लोक पढ़ने में बहुत देर लगती है , इसलिए शुरुआत के 10 श्लोक पढ़ने का नियम वहां पर था।
पंडितराज जगन्नाथ के विषय में बहुत दिलचस्प कथा है जो कि आप गूगल पर सर्च करें तो मिल जाएगी ।
उन्होंने एक ब्राह्मण होते हुए भी शाहजहां के दरबार में नाचने वाली एक खूबसूरत नर्तकी "लवंगी" से विवाह किया था!
एक मुसलमानी से विवाह करने के कारण बनारस के महान् पंडितों ने उनको अपने विद्वानों के समुदाय से बाहर निकाल दिया , तथा - तुम म्लेच्छ हो गए हो - ऐसा अपमानित किया।
क्योंकि पंडितराज जगन्नाथ के हृदय में शुद्धता थी तथा वे एक परम विद्वान् तथा गंगा जी के भक्त थे , इसलिए उन्होंने पत्नी सहित गंगा जी के किनारे बैठ कर अपने द्वारा रचित गंगा लहरी का पाठ करना शुरू किया।
ऐसी मान्यता है कि गंगा जी 51 सीढ़ी नीचे बह रही थी और एक एक श्लोक के पाठ पर एक एक सीढ़ी ऊपर आती जा रही थीं ,
जैसे ही 51 श्लोक पूरे हुए , पंडितराज जगन्नाथ और लवंगी दोनों उस गंगा जी में डूब गए , तथा उस जोड़ी को गंगा जी अपनी लहरों में ही बहा कर ले गई।
इस तरह पंडित राज ने अपना जीवन गंगा जी को समर्पित किया और लोगों के लिए अमर हो गए पंडितराज जगन्नाथ का वैदुष्य अप्रतिम है। उन्होंने रसगंगाधर नाम का ग्रंथ लिखा है, जो कि आज संस्कृत माध्यम से पारंपरिक रूप से साहित्य शास्त्र से आचार्य/ एम ए/ परास्नातक की कक्षाओं में पढ़ाया जाता है।
तो मैं बात कर रहा था अपने गुरुकुल में होने वाले सुबह की प्रार्थना की , जो कि सुबह 4:30 बजे होती थी, बच्चे नींद भरी आंखों से आते , हैंड पंप चला का पानी के छबके अपनी आंखों में मारते , तथा 5 मिनट के अंदर पाठ करना शुरू कर देते!!
पाठ करने के बाद भी सब गुरु जी द्वारा बुला लिए जाते तथा पाठ शुरू हो जाता
सबसे पहले गुरुजी सबसे बड़ी कक्षा के बच्चों को पढ़ाते अर्थात् कक्षा 12 के बच्चों को
तब तक दूसरी क्लासेज के बच्चे अपना अपना पाठ याद करते , तथा उन्हें अपनी कक्षा में क्या बोलना है उसकी तैयारी करते
पिछले दिन के पढ़ाए हुई पाठ के विषय में सोचते, विचारते तथा प्रतिदिन किए जाने वाले पाठ की आवृत्ति करते।
नारायण बाबा मुख्य रूप से व्याकरण शास्त्र के धुरंधर विद्वान हैं, लेकिन साथ ही साथ दर्शनशास्त्र में उनकी महारत ऐसी है, मानो समूचे भारतवर्ष में शायद ही किसी की हो।
नारायण बाबा एक संत व्यक्ति हैं उन्होंने विवाह नहीं किया विद्या तथा शास्त्रों के लिए ही मेरा जीवन समर्पित है ऐसा उनके जीवन का उद्देश्य है !
गाय और ब्राह्मणों की सेवा, समाज का कल्याण , धर्म का उत्थान , देवताओं को हविष्य तथा पितरों को कव्य - इत्यादि इन सब महान् बिंदुओं पर ही श्री नारायण बाबा का संपूर्ण जीवन केंद्रित है।
वे लोग धन्य हैं, जो नारायण बाबा के श्री मुख से पढ़े हैं!
वे लोग धन्य हैं, जिन्होंने उनके परम तपस्वी जीवन को देखा है ।
और वे लोग महान् धन्य है ,, जिन्होंने उनके शास्त्र संबंधी वचनों को सुना है, तथा उसे अपने जीवन में धारण किया है!
सुबह पहले कक्षा 12 फिर 11 फिर 10 फिर 9 फिर 8 - इस तरह पांचों कक्षाएं सुबह 9:00 बजे तक समाप्त हो जाती थीं अधिक से अधिक ।
उसके बाद पूरा दिन फ्री !
जो चाहे वह पढ़ो, जो चाहे वह खेलो, इस तरह का जीवन!
सुबह के 4:00 से 9:00 तक ही सारी कक्षा समाप्त हो गई , अब तो पूरे दिन उसको अपने मन में रवां करना है पाठ को ।
कुछ अगर पूछना है तो अपने सीनियर छात्र से या गुरु जी से पूछ सकते हैं ! इसकी कोई मनाही नहीं!
गुरुकुल का काम भी समय-समय पर होता रहता है।
जैसे - बगीचे में फूल लगाना, सब्जी लाना, आटा पिसवा कर लाना, नंबर से खाना बनाना , साप्ताहिक नंबर के अनुसार झाड़ू लगाना इत्यादि !
और छात्रों के खुद के काम हैं , वे अलग !
जैसे - खुद के कपड़े धोना, स्नान, ध्यान, पूजा पाठ, इत्यादि!
तो अब मैं जो आगे कहानी कहने जा रहा हूं , वह सब इसी तरह की छात्रों की दिनचर्या को दिखाते हुए उनकी जीवन शैली को प्रदर्शित करेगी, तथा आपको आनंद के सागर में गोते लगाने को मजबूर कर देगी।
मेरा यह दावा है कि आप मेरी इस कहानी के माध्यम से निश्चित रूप से यह अनुभव करेंगे कि आप खुद गुरुकुल के छात्र हैं तथा उस जीवन को जी रहे हैं।
तो देखिए , और पढ़ते चाहिए मेरी यह कहानी!
अगले भाग से शुरू करूंगा -
घटना दर घटना !
सीन बाई सीन !
एक-एक पहलू को छूता हुआ!
हर किरदार को दिखाता हुआ!
और आप बनेंगे इसके - चश्मदीद/साक्षी!
तो अभी रात काफी हो गई है, मैं सोता हूं .......
और अगला भाग .......
जल्दी ही आप लोगों के सामने लाऊंगा!
•••••••••••••••
हिमांशु गौड़
११:१७ रात्रि
०५/१०/२०२२
नमस्कार!
जैसा कि आपने पिछले भाग में पढ़ा, यह मेरा संस्कृत महाविद्यालय के छात्रावास में पढ़ने का अनुभव शुरू होता है सन् 2003 से !
जब मैं कक्षा 8 पास करने के बाद नारायण बाबा के आश्रम में गया , वहां उस वक्त अधिक से अधिक 20 छात्र ही थे ।
मेरे पिताजी के दोस्त थे जिनका नाम था जगदीश पंडित जी । वह मेरे पिताजी के बचपन के दोस्त थे ।
उन्होंने ही सजेस्ट किया कि आप अपने बच्चे को अगर संस्कृत पढ़ाना चाहते हैं, तो नारायण बाबा के आश्रम में पढ़ाइए , क्योंकि वे बहुत विद्वान् आदमी हैं, तथा तपस्वी भी!
हम तीन भाई हैं !
मेरे बाबा जी एक शास्त्री थे , जो आजीवन हवन, यज्ञ, कर्मकांड और ज्योतिष के सहारे अपना जीवन चलाते रहे और अपने हमारे परिवार का भरण पोषण भी करते रहे।
बचपन में कॉपी किताब से लेकर समोसे रसगुल्ले लड्डू पेड़ा तक कोका कोला थम्सअप पेप्सी इत्यादि सभी कुछ
छोटी-मोटी चॉकलेट से लेकर बड़े से बड़ा आइटम तक
यहां तक कि उस वक्त चलने वाली कॉमिक्स जो बच्चों को बहुत पसंद आतीं थीं, वह भी हम अपने बाबा जी से पैसे मांग कर अपनी इच्छा पूर्ति करते थे ।
मेरे बाबा जी की पंडिताई आसपास के 8 गांवों में थी।
उनके सरल स्वभाव और सहज व्यक्तित्व को देखकर लोग उन्हें देवता के समान पूज्य मानते थे, तथा उनका बहुत सम्मान करते थे ।
मेरे बाबा जी कर्मकांड के विशेषज्ञ थे तथा बहुत ही सज्जन तथा मीठी वाणी के मालिक थे ।
गुस्सा उन्हें कभी आता नहीं था ।
शास्त्रों में तथा धर्म के प्रति उनकी गहरी आस्था थी।
एक ब्राह्मण का जो जीवन होना चाहिए वही उनका एक जीवन था। समाज के बीच अत्यंत सौहार्द तथा प्रेम के साथ रहते थे। मेरे पिताजी उनके इकलौते बेटे हैं।
मेरे पिताजी अकेले इकलौते ही हैं, ना उनकी कोई बहन है, ना कोई भाई ।
मतलब मेरा कोई चाचा ताऊ नहीं है , और ना ही मेरी कोई बुआ है।
हां , एक मेरे पापा जी की मुंह बोली बहन हैं, जो कि जाति से क्षत्रिय हैं , तथा हम ब्राह्मण!
फिर भी उनसे रिश्ता सगे जैसा ही हैं!
उनका गांव भी हमारे गांव से लगभग 10 किलोमीटर दूर है ।
बुआ जी एक आधुनिक इंग्लिश मीडियम स्कूल में लगभग आज 30 साल से पढ़ा रही हैं! तथा वहां की मोस्ट सीनियर टीचर हैं। उनका नाम है - विमला सिंह!
तथा उनके पति का नाम है- भानु प्रताप सिंह !
जो कि भगवान् सूर्य के बहुत बड़े भक्त हैं , तथा जिनका व्यक्तित्व बहुत चमकदार तथा आकर्षक है।
वह हमेशा राजनीति में उतरना भी चाहते थे , लेकिन कभी ऐसा मौका नहीं आया !
अपनी जवानी के समय वे बहुत साहसी थे । उन्होंने अपने प्रिय एक चहेते दोस्त, जो कि नेता थे , उनकी रैली में शामिल होकर अपनी मांगों का पत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री की जेब में रख दिया था, सबके सामने !
ऐसा उनका साहसी व्यक्तित्व था!
अभी वर्तमान में वह और बुआ जी नोएडा में रहते हैं!
उनके दो लड़के हैं ! दोनों इंजीनियर हैं! बड़े लड़के की शादी हो गई , तथा वह अपनी इंजीनियर पत्नी के साथ सिंगापुर में शिफ्ट हो गया । छोटा लड़का अभी बुआ- फूफा जी के साथ ही रहता है।
हम भी क्योंकि दिल्ली में रहते हैं , तो कभी-कभी रक्षाबंधन पर बुआ जी, पापा जी को राखी बांधने के लिए आ जाती हैं । पुरानी बातें होती हैं । एक दो घंटा साथ बिताते हैं , तथा फिर सब अपने अपने जीवन में बिजी हो जाते हैं ।
मेरा परिवार लगभग 7 साल पहले दिल्ली में आकर शिफ्ट हो गया। हम उत्तर प्रदेश के जिला गाजियाबाद के अंतर्गत एक छोटे से गांव के रहने वाले परिवार से हैं , जोकि गंगा जी से आठ 10 किलोमीटर दूर है । मतलब किनारे पर ही है।
तो मैं बात कर रहा था अपने बाबा जी की, जो कि एक शास्त्री थे । उन्होंने मेरे पिताजी से कहा था कि तुम्हारे तीन लड़के हैं, कम से कम एक लड़के को (मेरी तरफ इशारा करके) तो अपने धर्म शास्त्र तथा संस्कृत का ज्ञान जरूर कराना , ताकि यह देवताओं की पूजा करता रहे और तुम्हारे कुल का उद्धार करें !
पिताजी के मन में मेरे बाबा जी की बात हमेशा के लिए बैठ गई , और उन्होंने कक्षा आठ के बाद मुझे गुरुकुल में दाखिल करवा दिया !
और आज मैं यह सब जब सोचता हूं , तब मुझे लगता है कि यह सब विधि का विधान ही होता है । मैं बना ही संस्कृत के लिए हूं । आधुनिक लोग कभी भी मेरी प्रतिभा को नहीं पहचान सकते । आज जो कुछ मेरे अंदर ज्ञान है, गुरुकुल में 10 साल पढ़ने के बाद , तब आज मुझे यह यकीन हो चला है कि मैं मैंने संस्कृत पढ़ने के लिए ही जन्म लिया था !
कक्षा 8 तक में आधुनिक विद्यालयों में पढ़ा, लेकिन वहां मेरी प्रतिभा को किसी ने नहीं पहचाना, अपितु वहां की परिस्थितियां ऐसी थी कि मुझे वहां एक मूर्ख छात्र समझते थे । क्योंकि उल्टी परिस्थितियों में आधुनिक इंटर कॉलेज चलते हैं । कक्षा आठवीं में ए-बी-सी-डी यह 4 विभाग थे। प्रत्येक विभाग में कम से कम 60-70 छात्र!
अब आप समझिए, एक अध्यापक एक ही बार में एक क्लास में 60-70 छात्रों को डील करता है , तो आप समझते हैं, क्या वह उनसे सबसे व्यक्तिगत संपर्क बना सकता है? कभी नहीं !
वह सब सरकारी मास्टर आते थे, और अपना काम निभा कर चले जाते थे । उनको कोई मतलब नहीं। कोई पढ़ें या ना पढ़ें!
उनको किसी के व्यक्तिगत प्रतिभा से कोई लेना-देना नहीं!
इसलिए उस जमाने के आधुनिक विद्यालय मुझे कभी भी पसंद नहीं आए।
लेकिन जब मैं नारायण बाबा के आश्रम में दाखिल हुआ,
तब मैंने देखा कि वास्तव में पढ़ाई क्या होती है! कैसे एक छात्र का ध्यान रखना होता है ! कैसे हर एक छात्र की प्रतिभा को पहचाना जाता है ! वहां ना सिर्फ गुरु जी ने अपितु मेरे सीनियर छात्रों ने भी मेरी हर एक प्रतिभा को पहचाना! पढ़ने की प्रति मेरी लगन को पहचाना!
और तो और, एक बार मैं एकांत में कुछ गाना गुनगुना रहा था, मेरे सहपाठी ने यह देखकर सीनियर से बताया कि यह बहुत अच्छा गाता है !
फिर क्या था, मेरे सीनियर्स तथा मेरे सहपाठी सभी किसी न किसी अवसर पर मुझे गाना गाने के लिए प्रोत्साहित करते थे ।
तथा इसी कारण से मैं आज भी अच्छा गाना गाता हूं ।
इससे पता चलता है कि आपके साथ की लोग यदि पॉजिटिव थिंकिंग वाले हैं , तो आप खुद ही निश्चित रूप से उन्नति करोगे और यदि आप नेगेटिव विचारधारा वाले व्यक्तियों के साथ रहोगे तो आपका जीवन बर्बाद हो जाएगा ।
खैर ! यह सब भूमिका बतानी इसलिए जरूरी थी तभी आप समझ पाएंगे कि किस तरह यह नारायण बाबा का आश्रम मेरे लिए एक उपयुक्त स्थान बन गया था ।
एक ऐसा बच्चा, जिसकी उम्र 12 साल थी, अपने घर परिवार को छोड़कर एक आश्रम में आकर रहने लगा।
नारायण बाबा बहुत वैरागी स्वभाव के महात्मा थे, मतलब अभी भी हैं , लेकिन मैं भूतकाल की घटना सुना रहा हूं तो इसलिए थे शब्द का प्रयोग कर दिया अचानक से।
अपने छात्रों को नारायण बाबा महात्माओं की घटनाएं सुनाते थे, वैराग्य पूर्ण तथा ज्ञान पूर्ण बातें बताते थे !
संस्कृत मीडियम से पढ़ने वाले छात्रों के जीवन अलग तरह के होते हैं, थोड़े से , बल्कि काफी अलग होते हैं ।
हमारा कोर्स भी अलग होता है।
उत्तर प्रदेश में हमारा बोर्ड है लखनऊ ।
जो कि माध्यमिक शिक्षा बोर्ड है।
और ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन मतलब शास्त्री और आचार्य करने के लिए हमारा विश्वविद्यालय संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय-
जिससे संबंधित सैकड़ों महाविद्यालय इस पूरे उत्तर प्रदेश में है
जिन्होंने ना जाने कितने लाखों विद्यार्थियों का उद्धार किया!
जैसा इसका नाम है, वैसा ही इसका काम है।
संपूर्ण आनंद की प्राप्ति जिससे हो , उसको ही कहते हैं संपूर्णानंद!
इसका अर्थ यह है कि हमने इस विश्वविद्यालय के अधीन पढ़ाई करके जो आनंद लिया है, वह अभूतपूर्व है !
बहुत सुंदर विश्वविद्यालय मैं कहूंगा इसे !
खैर !
तो यह कहानी शुरू होती है सन् 2003 से , जब मैं नारायण बाबा के आश्रम में प्रवेश लिया , जो कि मैं छोटा बच्चा था , जो कि अपने परिवार के प्रति भी मोह रखता है, लेकिन उसे न मोह का पता होता है, ना ही किसी मानसिक संवेग को वह जान पाता है !
आप खुद समझ सकते हैं कि एक 12 साल का बच्चा कितनी समझ रखता होगा !
लेकिन नारायण बाबा जैसा अनुभवी तथा ज्ञानी व्यक्ति किसी को प्राप्त होना एक बहुत सौभाग्य की बात है!
क्योंकि होता क्या है, जब आप किसी कुएं के पास जाते हैं तो उतना ही पानी भर पाते हैं, लेकिन जो खुद एक मीठे पानी का समुद्र हो ,खुद एक गंगा जल के समान निर्मल और महानदी हो , उसके समीप जाकर आपको क्या आनंद मिलेगा , आप समझ सकते हैं !
वही हाल ज्ञानियों का भी है , आप किसी छोटे-मोटे ज्ञानी के पास जाएंगे, वह आपको आधी अधूरी बात बताएगा
लेकिन आप किसी महान् संत तपस्वी ज्ञानी परमात्मा की भक्ति में लगे रहने वाले व्यक्ति के पास जाएंगे तो उसके संगति से भी आपको एक अभूतपूर्व तपस्या की अनुभूति होगी
ऐसा ही कुछ श्री नारायण बाबा के आश्रम में रहने वाले बच्चों के साथ भी था गुरु जी की तपस्या को देख कर उसकी संगति में रहकर ही हमारा जीवन उनके जैसा ही तपस्वी होने लगा था
बच्चे कुछ भी अशास्त्रीय आचरण करते , तो तुरंत ही नारायण बाबा टोक देते थे , तथा सही शास्त्र का श्लोक सुना कर उसको सही आचरण करने के लिए कहते थे
अभी ऐसी बहुत सारी बातें हैं , जोकि आपको बहुत विचित्र लगेंगी , क्योंकि आधुनिक समाज को वह बातें पता भी नहीं है , कि शास्त्रों में यह बातें भी बताई गई हैं, तो अगले भाग में मैं उन सब बातों की चर्चा करता हूं ,
बने रहिए... मेरे साथ !
और जीते रहिए, इस छात्र जीवन को ......
जो मेरे जीवन का एक बहुत खूबसूरत हिस्सा है
और बहुत ही रोमांचक जिसका किस्सा है
हर हर महादेव
अगला भाग तुरंत ही लिखने वाला हूं ........
इसी वक्त रात्रि में!
जबकि 10:44 हो रहे हैं..
और यह तारीख है 10 नवंबर 2022.....
अभी आप कहानी पढेंगे, और मैं तब तक अगला भाग लिख चुका होऊंगा...
हिमांशु गौड़
पिछले भाग में वचन दे दिया है , कि अभी लिखूंगा तो इसी वक्त रात को मैंने यह भाग लिखना शुरू कर दिया है, जबकि कल मुझे सुबह ऑफिस में जाना है ।
लेकिन पहले वादा कर चुका हूं तो इस भाग को लिखकर ही सोऊंगा।
तो मैं बात कर रहा था उस गुरुकुल के छात्र जीवन की।
वह कुछ इस तरह का गुरुकुल था , कि नारायण बाबा के पास कुछ फंड नहीं था , जो कि वह इमारत बनवा पाते।
इसलिए जब सन् 1996 में उन्होंने उस आश्रम की शुरुआत की, तब वहां पर सिर्फ उनका एक कमरा ही था, जिसमें साथ में ही रसोई जुड़ी हुई थी , बहुत ही साधारण तरीके से बना हुआ।
नारायण बाबा जिनको हम गुरु जी कहते हैं ।
गुरु जी पूर्व दिशा की ओर सड़क के पार बने हुए सरकारी गंगाराम संस्कृत महाविद्यालय में परमानेंट दर्शन विभाग के अध्यक्ष थे, और वे प्रतिदिन अपने उस कमरे से जोकि बिल्व पत्र के वृक्ष की छाया में था , उस कमरे में से निकल कर लगभग 50 मीटर की दूरी को पार कर सड़क पार बने उस विद्यालय में रोजाना नियमानुसार पढ़ाने जाते थे
तथा दोपहर को 3:00 या 4:00 बजे छुट्टी होने पर वापस अपने उसी कमरे में आकर भजन कीर्तन करते थे और सो जाते थे।
सुबह 4:00 बजे से नारायण बाबा उर्फ गुरुजी का धार्मिक जीवन शुरू हो जाता और रात के 11:00 बजे खत्म होता ।
इतना कठिन जीवन जीने के बाद उनको यह महान् पदवी हासिल हुई है।
उन्होंने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया है । उन्होंने श्री शंकर आश्रम जी महाराज से दीक्षा को हासिल किया।
असल में नारायण बाबा के जीवन की कहानी इस भाग में सुनाना जरूरी है , क्योंकि उसके बिना आप इस आश्रम के महत्व को नहीं समझ पाओगे।
नारायण बाबा का जन्म गंगा के उस पार एक बादलपुर नामक ग्राम में हुआ था ।
जैसा कि मैंने पिछले भाग में बताया कि मेरे पिताजी के मित्र जगदीश पंडित जी , जो कि बादलपुर के पास ही एक गांव हसनपुर है , उस के रहने वाले थे , वह बचपन में बादलपुर में ही रहते थे, इसलिए वह उन नारायण बाबा से बहुत अच्छी तरह परिचित थे।
हुआ यूं कि नारायण बाबा की बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक क्षेत्र में बहुत रुचि थी ।
उनके माता-पिता एक किसान परिवार थे। पिताजी खेती करते थे तथा माताजी इन दिनों घर का ही काम करती थी।
निहायत ग्रामीण क्षेत्र था । गंगा जी का खादर इलाका था वह ! और भाषा भी पूरी तरह ग्रामीण!
शहरीपन की दूर-दूर तक झलक नहीं ।
पूरा जीवन बहुत सादा!
गरीबी बहुत थी उन दिनों ।
लोगों की हालत खराब थी।
नारायण बाबा की प्रारंभिक शिक्षा साधारण बच्चों की तरह अपने ग्राम के पास प्राइमरी स्कूल में हुई।
वे पढ़ने में बहुत तेज थे। क्योंकि मैं उनसे उनके बुढ़ापे के समय मिला, तब भी उन्हें अपने बचपन की किताबों के पाठ याद थे , तथा वह हमें सुनाया करते थे, कि जो आजकल कक्षा आठ में लगा है , वह पहले हमने कक्षा 4-5 में ही पढ़ लिया था !
खैर ! इस तरह उनका वह बचपन कुछ पढ़ने कुछ खेलने कूदने तथा हर परिस्थिति का ऑपरेशन करने में गुजरता था ।
उनके घर में गाय भैंस भी थीं। वह खाली समय में उन्हें चराने भी जाते थे। उनके एक बड़े भाई भी थे जिनका नाम था- नायक राम !
कुछ समय बाद जब नारायण बाबा 17 साल के हुए उनके बड़े भाई जो कि 25 साल के थे उनका विवाह 20 साल में ही हो चुका था तथा कुछ ही समय बाद दुर्दैव से नायकराम जी का देहांत हो गया , तथा उनकी पत्नी विधवा हो गईं!
उनकी पत्नी की आयु भी उस समय लगभग 20 साल ही थी, अतः यह घर में निर्णय लिया गया कि नारायण बाबा से ही इनकी शादी करा दी जाए।
नारायण बाबा का बचपन का नाम हरी लाल शर्मा था , तो यह निर्णय लिया गया , कि हरी लाल जी का विवाह करा दिया जाए । लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था।
विधाता को यह मंजूर नहीं था ।
जब विवाह के लिए मंत्र पढ़े जा रहे थे , और फेरों का समय उपस्थित हो गया , तो नारायण बाबा उर्फ हरी लाल शर्मा जी कहने लगे मैं जरा भी पेशाब करने जा रहा हूं ,
और फेरों से उठ कर पेशाब करने चले गए , और वहां से जंगलों में अपनी शादी छोड़कर भाग आए और गंगा जी को तैरकर पार किया।
उस रात के घनघोर अंधेरे में जंगलों में भाग गए।
लोग उनका इंतजार ही करते रह गए, और वह इस आधुनिक संसार को छोड़कर उसी संसार की तरफ बढ़ गए थे , जो एक धर्म के क्षेत्र की तरफ जाता है! एक अध्यात्म के क्षेत्र की तरफ जाता है ! एक महात्माओं के जीवन की तरफ जाता है ! जिसका उद्देश्य इस धरती के हजारों लोगों का कल्याण करना था ! जिसका उद्देश्य ज्ञान के प्रकाश की तरफ इस संसार को ले जाना था! उस परम ज्योति की तरफ , वे मानों अपने भाग्य से प्रेरित होकर ही बढे चले जा रहे थे।
ब्रह्म मुहूर्त की वेला में गंगा जी को पार करके वह एक तीर्थ स्थान पर पहुंचे, जहां उन्होंने देखा कि गंगा जी के किनारे एक कोई महात्मा जिसके चेहरे से अत्यंत तेज झलक रहा है, जो देखने मात्र से ही महान् तपस्वी मालूम पड़ रहा है! जिसमें कुछ अनोखी बात मालूम पड़ रही है! वो कुछ मंत्रों का जाप कर रहा है । आसपास पूछने पर पता चला कि पास में ही महात्मा का आश्रम भी है ।
वही थे - श्री शंकर आश्रम जी महाराज!
जिनके द्वारा स्थापित है एक दंडी आश्रम , जोकि भगीरथ घाट में स्थित है । भगीरथ घाट एक छोटे से गांव का नाम है जोकि गंगा किनारे हैं ।
उधर नारायण बाबा उर्फ हरी लाल शर्मा कि घर में अफरा-तफरी मची हुई थी , कि लड़का कहां भाग गया विवाह छोड़कर !
और उधर हरी लाल शर्मा का एक नया जन्म हो चुका था।
हरी लाल शर्मा जी उर्फ नारायण बाबा की जरा भी इच्छा नहीं थी कुछ पढ़ने लिखने की
यह तो सिर्फ एक महात्मा बनना चाहते थे।
उन्हें सिर्फ प्रभु से मिलना था ।
उन्हें इस संसार की ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं थी।
इसलिए उन्होंने यह अपनी इच्छा श्री शंकर आश्रम जी महाराज से जाहिर की।
लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था।
शंकर आश्रम जी महाराज इस दुनिया के बहुत बड़े विद्वान् थे ।
जिन्हें सभी शास्त्रों का ज्ञान था ।
समस्त वेद जिनके हृदय में उपस्थित थे ।
और समस्त उपनिषद् जिनकी आत्मा में उपस्थित थे।
पुराण उनकी वाणी में नाचते थे ।
भाष्य उनके हृदय में स्थित है ।
वैराग्य उनके जीवन का आभूषण था,
तपस्या उनका एकमात्र आचरण था ।
इस धरती के लोगों का उपकार करना ही उनके जीवन का उद्देश्य था।
वैराग्य उनका स्थिर स्वभाव था । प्रेम भाव उनमें जन्मजात था । उदारता उनके साथ ही जन्मी थी।
वह एक गोरे रंग के, गंभीरता और प्रसन्नता से युक्त चेहरे वाले एक महान् ज्ञानी पुरुष थे ।
उनके जीवन की तपस्या की पराकाष्ठा ऐसी थी , कि समूचे भारत में कोई भी उनके समक्ष खड़े होने की बात छोड़िए उनको दूर से ही प्रणाम करता था ।
तथा उनको अपना गुरु मानता था ।
ऐसी महान् लोकप्रियता को उनके जीवन में साक्षात् लोगों ने अनुभव किया था ।
ऐसे श्री शंकर आश्रम जी महाराज !
और उन्हीं से दीक्षा लेने अपने विधि के विधान से प्रेरित होकर पहुंच गए थे श्री नारायण बाबा ।
जिन्होंने इसी संस्कृत बोर्ड के माध्यम से प्रथमा, मध्यमा, शास्त्री, आचार्य इत्यादि परंपरागत रूप से पढ़ाई की
तथा समस्त शास्त्रों का ज्ञान श्री शंकर आश्रम जी महाराज से प्राप्त किया
तो इसी महाविद्यालय मैं पढ़कर और इसी में सरकारी पद पर वे नियुक्त हो गए
वहां स्थित सभी शास्त्रों के अलग-अलग आचार्यों में सबसे अधिक विद्वान् तथा पूजनीय श्री नारायण बाबा ही हैं।
2007 में वह रिटायर हो गए, तो उसके बाद भी 2 साल तक शास्त्र चूड़ामणि के पद पर वहां के लोगों ने उन्हें दोबारा से नियुक्ति दिलवाई ।
और इस तरह सन 2009 के बाद, वह कुल मिलाकर अपनी ही उस कुटिया में जो कि मेरे लिए आश्रम है उसमें रहने लगे , और वहां बच्चों को पढ़ाने लगे ।
अपने आश्रम खोलने का उनका विचार भी इसी मूल धारणा पर आधारित है कि जिस तरह मैंने बिना किसी पैसे के पढ़ाई की उसी तरह मैं भी सभी तरह के बच्चों को फ्री में विद्या का दान कर सकूं।
और शास्त्रों का धर्म का महत्व सबको बता सकूं ।
यही उनके जीवन का सबसे प्रमुख लक्ष्य है।
और उन्होंने अपने जीवन में इसको साबित भी किया है हजारों छात्रों को विद्या दान करके ! धर्म का दान करके! पुण्य के प्रति प्रेरित करके!
नारायण बाबा की दिनचर्या कुछ ऐसी है कि वह सुबह 4:00 बजे ही जाग जाते हैं,
उसके बाद अपना अध्ययन करते हैं । शास्त्रों का चिंतन और मनन करने लग जाते हैं सुबह से।
उसके बाद शौच आदि से निवृत्त होकर एक बार सबसे पहले नल पर ही स्नान करते हैं, और शुद्ध होकर फिर गंगा जी नहाने जाते हैं ।
गंगा जी पर नहाकर वहीं किनारे बैठ कर तीन-चार घंटे पूजा करते हैं ,और फिर लौट कर आते हैं ।
और आकर बच्चों को पाठ पढ़ाते हैं, तथा आश्रम के व्यवस्था संबंधी कार्यों को भी देखते हैं ।
उसके बाद दोपहर की पूजा करते हैं तथा फिर शाम को पढ़ाना शुरू , तथा बच्चों से पाठ सुनना इत्यादि ।
सन् 2007 में उनके आश्रम पर एक छोटी सी गौशाला भी बन गई , जो आज और भी बड़ी हो गई है , और उसमें लगभग 40 गाय हैं ।
गौशाला की कहानी अलग है जो मैं बाद में बताऊंगा।
लेकिन अभी मैंने यह बहुत ही संक्षेप में नारायण बाबा के जीवन के विषय में बताया ।
नारायण बाबा का आश्रम किस तरह का है, यही मैं आपको बताऊंगा।
नारायण बाबा का जो आश्रम है उसमें सबसे पहले सिर्फ एक ही कमरा था।
बाबा की तपस्या को देख कर एक अभिभावक जो कि अपने बच्चों को उस सरकारी विद्यालय में दाखिला दिलवाने के लिए आए थे, उन्होंने सोचा कि यह तपस्वी महात्मा रहते हैं उनके यहां यही मेरा बच्चा पढ़ लेगा तो वह और बच्चे उस बच्चे को लेकर नारायण बाबा के पास पहुंच गए कि महाराज आप अपने कमरे पर ही इस बच्चे को रख लो ! यह आपके बरामदे में ही सो जाएगा! तथा आपसे विद्या प्राप्त करेगा !
बाबा ने पहले तो मना किया कि हमारे पास जगह कहां है?
लेकिन जब वह नहीं माने तो बाबा राजी हो गए, फिर उसके बाद एक परिजन और आए उनके दो बच्चे थे। दोनों को उन्होंने नारायण बाबा को सौंप दिया तो नारायण बाबा ने एक कमरा और बनवा दिया।
इस तरह अभिभावक आते गए और कमरे बनते चले गए।
कुछ नारायण बाबा के पैसे से तथा कुछ दानदाताओं के पैसे से।
इस तरह आज वहां लगभग 10-15 कमरे हैं तथा एक बड़ा हॉल भी है , जोकि बुलंदशहर के एक डिप्टी साहब ने बनवाया है ।
उस बड़े हॉल को भागवत भवन का नाम दिया गया है।
आज की डेट में वहां पर बहुत सुविधाएं हैं ।
मतलब काफी हद तक सुविधाएं हैं।
लेकिन जब मैंने वहां प्रवेश लिया था , तो कुछ भी सुविधाएं ही थी । हमने वहां बहुत काम किया है, फिजिकली भी और व्यवस्था गत भी।
इससे ही हमें अपने जीवन में संघर्ष का मूल्य पता चला है।
तथा एक नई संस्था कैसे खड़ी की जाती है, इसका भी हमें आईडिया इससे मिलता है।
नारायण बाबा अपने आप में एक बहुत परिश्रमी व्यक्ति रहे हैं वह बहुत जीवट तथा उद्यमशील हैं।
सांसारिकता का उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं , लेकिन शास्त्रों के मामले में उनके जैसा कोई नहीं। स्वाभाविकता उनमें जन्मजात है , तथा सहजता उनका सबसे बड़ा आभूषण।
इतना ज्ञान होने पर भी उन्हें कुछ अभिमान नहीं।
वह खुद ही झाड़ू लगाने लग जाते हैं, खुद ही गाय का गोबर उठाने लग जाते हैं।
उनके कपड़ों पर कभी भी प्रेस होती नहीं । बे कभी साबुन तेल का इस्तेमाल नहीं करते । उन्होंने किसी भी प्रकार के श्रृंगार के सामान का आज तक इस्तेमाल नहीं किया । और ना ही वह अपने छात्रों को उसकी इजाजत देते ।
उन्होंने वेद शास्त्र के अनुसार जो जो नियम है उनका खुद भी पालन किया है, और जो उनके प्रिय शिष्य हैं उनसे ही पालन करवाया है ।
भगवान् शिव में और गंगा जी में उनकी विशेष रूप से भक्ति है। सभी देवताओं की पूजा करते हैं।
पितृकार्य में महान् सावधान रहने वाले, यज्ञ आदि विधियों में सबसे आगे, तथा सभी प्रकार के शास्त्रों की व्याख्या करने वाले , अपने गुरु स्वामी श्री शंकर आश्रम जी महाराज के समान ही महान् वैदुष्य को धारण करने वाले यह इस तरह हमारे गुरुदेव श्री नारायण बाबा हैं ।
अगला भाग फिर कभी......
तब तक के लिए - हर हर महादेव !
शुभ रात्रि।
हिमांशु गौड़