Saturday, 27 June 2020

संस्कृत कविता - वर्षन्ति मेघा: - डॉ हिमांशु गौड़



वर्षन्ति मेघाश्च गृहाद्बहिर्मे
भावाम्बुदाश्चित्ततले तथैव
रात्रौ तृतीते प्रहरेऽधुनाहं
जागर्मि विद्वन्निति जीवनम्मे।।१।।

शीतानिलो मां स्पृशति क्वचिच्च
गताद्य विद्युत् तमसां च राज्ये
पुरे न जागर्ति जनोऽन्य एवं
यथाहमत्रारचयामि चिन्त्यम्।।२।।

मेघध्वनिश्चाम्बुनिपातशब्दो
विशत्यहो कर्णयुगे सुखङ्कृत्
मृद्गन्धिराप्नोत्यपि नासिकां मे
मध्ये क्वचिच्छ्वेततडित्सशब्दा।।३।।

कीटश्च कश्चित् सततं विरौति
गेहे पुरस्थे मशका न सन्ति
न वायुनाढ्यं गृहमेतदस्ति
लङ्कादिशामुख्यकपाटवत्वात्।।४।।

वृष्टिस्सुतीव्राप्यधुना पतेच्च
पार्श्वस्थकक्षे जनकोऽपि शेते
स वा कदाचिद्यदि जागृतस्स्यात्
शेतुं वदेन्मामिति मेऽस्ति शङ्का।।५।।

हे काव्यराजो झटिति ब्रुवन्तु
हे शब्दराजो मन उद्दिशन्तु
केयं गतिर्मां नयतीव यात्र
वृष्ट्यम्बुरावश्रवणैकलोके।।६।।

कोऽहं हिमांशुर्न न वेद्मि किञ्चित्
किं वा शिवांशुर्वचसा गृणानि?
अहोऽनुभूयैव सदात्मलोकं
ह्यस्मादृशा: सूक्ष्मतया वहन्ति।।७।।

उत्थाय मध्याह्नभवे च सूर्ये
पित्रिष्टलोकस्य चरामि चर्यां
अरे मदीयं हृदयस्थतत्त्वं
कोऽस्मीति यानि क्व च संवदेर्माम्।।८।।

भ्रान्तो न वै चेति विवेद्मि तथ्यं
किन्त्वाप्लक्ष्योपि न चाधुनास्मि
न स्वप्नलोको मन आवृणोति
न जागृतिर्मां विशतीव पूर्णा।।९।।
****

०३:३० रात्रौ,३१/०५/२०२०

श्री राघवाचार्य जी महाराज का संस्कृत श्लोकात्मक अभिनंदन : डॉ हिमांशु गौड़



।।श्रीमद्राघवाचार्याभिनन्दनम्।।
******
धर्मनिष्ठं वरिष्ठं सुशिष्टं मुनिं
क्लिष्टचर्यं शुभेष्टं विशिष्टं पुनः
चेष्टनाभ्यैषणाकृष्टकृष्णं द्विजं
राघवाचार्यमित्याह्वयं भावये।।१।।

धर्मकर्माब्धिरत्नप्रदं शोकहे
राममार्गे जनांश्चोदयन्तञ्च तं
गोखुरीं हो शिखां धारयन्तम्मुदा
राघवानन्दमग्नं हृदा चिन्तये।।२।।

लौकिकभ्रान्तिविध्वान्तविध्वंसकं
वैदिकार्थप्रभावैकवाक्संयुतं
दैवलीलागुणग्रन्थसत्पाठकं
राघवचार्यवर्यन्नुमश्शास्त्रिणम्।।३।।

रामपुर्यां वसन्तं वसन्तश्रियं
रामगुण्यानुवादैकगाथाप्रियं
शास्त्रतथ्यप्रकाशं सदा सद्धियं
राघवाचार्यपादारविन्दं भजे।।४।।

भावये राघवाख्यं सताम्मोदिनम्
अर्चये साधुवृन्दाकुलं बोधिनम्
कामये सङ्गतिं तस्य वाङ्मोदिन:
पालये राघवीभक्तिबीजं निजे।।५।।

गौड इत्याह्वयोहं हिमांशुश्च यश्-
श्रीलबाबागुरोराश्रमेऽधीतवान्
अद्य संश्रुत्य वाणीं भवत्सन्मुखात्
भावपद्यप्रसादो मयीहोदयत् ।।६।।
******
डॉ.हिमांशुगौड:
१०:४१ रात्रौ,०५/०६/२०२०, शुक्रवासरे,
गाजियाबादस्थगृहे।

चंद्रमा : कविता हिन्दी/संस्कृत : डॉ हिमांशु गौड़



चन्द्रमा
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जो है देता सुकूं चांदनी खूबसूरत
प्रभांशु के जैसा सुलगता नहीं है,
है शीतल सदा शीतरश्मि-प्रदाता ,
हिम-विखण्डों के जैसा पिघलता नहीं है
है हिमांशु वही जो बदलता नहीं है।।

वही है गुरु गौरवाढ्य प्रधी है
शिवांशु सुधांशु वही तो सुधी है
विमुग्धाएं , नक्षत्रिणी उसपे सारी
स्मरान्धाओं का एक वो कामधी है।।

दिनों के उजाले तो कर्मण्यता को
सिखाते , दिखाते हमें रास्तें हैं
मगर कल्पनाओं की रंगीन-जन्नत-
निशा-कौमुदी* ही मेरे वास्ते है।।
*शब़-ए-चांदनी

कहीं दूर जब-जब ये चंदा निकलता
हसीं ख्वाब सी दिलकशी को सजाए
तमन्नाओं के तब-तब गुलिस्तां महकते

है कैसी महक , रूप कैसा है तेरा
अरे चंद्रमा! मोह फैला है तेरा
ये संसार तो यूं ही चलता रहा है
मगर तू युगों से चमकता रहा है।

ह हिल्लोलसक्तासु नव्यां रतिं त्वं
तनोषीश ! रम्ये तडागस्य तीरे
रतेषूच्चकाट्टालिकाषु प्रभूणां
रतिश्रान्तिहन्! रागीनीश! प्रणौमि।।

क्वचिच्चोच्चकुच्यो भवन्तं विलोक्य
स्मरन्त्यस्स्मरासक्तचित्तास्स्वकान्तान्
कपाटाग्रवक्षोदृढाश्लेषदक्षान्
स्ववक्षोग्रजातान्मुहुर्मर्दयन्ति।।

महाकवि कालिदास के बारे में दो शब्द : डॉ हिमांशु गौड़


कालिदास संस्कृत और संस्कृति के महान् पोषक और प्रचारक, कवियों में अग्रगण्य हैं।

उनकी रचनाओं में कौनसा शास्त्र परिलक्षित नहीं है?

 कितनी सरसता और सरलता से वे उन तत्वों को, बातों को समझा देते हैं, जो वेदान्त  के कठिन व्याख्यानों से भी कदाचित् सामान्य मनुष्य की समझ में नहीं आती।

इस संदर्भ में मुझे उनके कुछ श्लोक याद आ रहे हैं, जैसे , मनुष्य की वास्तव में सहजता क्या है , और असहज (विकृत) स्थिति क्या है ?

इसके विषय में देखिए - "मरणं प्रकृतिर्हि शरीरिणां, विकृतिर्जीवनमुच्यते बुधै:।"

मुनिस्वभावविषयकोपमा - "शैत्यं हि यत्सा प्रकृतिर्जलस्य"

मतलब यहां प्रसंग है कि यद्यपि मुनिवर ने क्रोध की अग्नि के वशीभूत होकर के शाप दे दिया,  लेकिन वह कुछ देर बाद ही जल के समान शीतल हो गए!
 क्यों ?

क्योंकि जिस प्रकार , अग्नि के संयोग से जल में गर्मी तो हो जाती है, किंतु थोड़ी देर बाद वह अपने स्वाभाविक रूप में आ जाता है ,और ठंडा हो जाता है ,

इसी प्रकार ऋषि-मुनियों का स्वभाविक स्वरूप तो शीतलता ही है , मतलब कितनी अच्छी उपमा दी है ! जल से ऋषिवर की उपमा।

और यहां वैयाकरण लोग शब्दशास्त्र के भी खेल करते हैं । वे कहते हैं कि "शैत्यं हि यत् तत् प्रकृतिर्जलस्य " यह यह क्यों नहीं होगा? क्योंकि यत् का योग जिस तरह शैत्य शब्द से है , उसी प्रकार तत् का भी उससे ही करना चाहिए, तब यहां कौण्डभट्टशास्त्रीय वचनानुसारितया तत् का विशेषणत्व प्रकृति से करना साधु होता है ।

इसी तरह
"ग्रीवाभङ्गाभिरामं" में स्वभावोक्ति देखिए।

मतलब किस किसको गिनता फिरूं।
बहुत तथ्य हैं।
हजारों हैं।

  जीवन के सूत्रों को इतने सरल अंदाज में अपने काव्य द्वारा समझा देते हैं , जो हजारों अनुभवों के बाद प्राप्त होते हैं ।

प्रकृति के प्रत्येक स्वरूप और सुंदरता को इतने नजदीक से देखने वाले, कालिदास जी सबके पूज्य है।

मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेन्द्र दास जी महाराज का अभिनन्दन : संस्कृत श्लोकात्मक (हिन्दी सहित) : डॉ हिमांशु गौड़



|||  श्रीमन्मलूकपीठाधिपाभिनन्दनम् |||
       *********
          [[[ मलूकपीठाधीश्वर श्रीराजेन्द्रदासजीमहाराज का अभिनन्दन  ]]]
  ************
सद्भावामृतसिक्तचित्तमतिमत्सौहार्दपूर्णङ्गुरुं
कारुण्याब्धिनिमज्जितैकहृदयं सारल्यसञ्जीवनं
नानाशास्त्रविदीप्तियुक्तवपुषा चादर्शसन्दर्शिनम्
श्रीमत्कृष्णपदारविन्दरसिकं वन्दे मलूकाधिपम्।।१।।

सद्भाव रूपी अमृत से सींचे हुए चित्त वाले , अत्यंत बुद्धिमान् , सौहार्द से पूर्ण जो गुरु हैं , करुणा रूपी समुद्र में डूबा हुआ है ह्रदय जिनका , ऐसे सरलता पूर्ण जीवन वाले, अनेक शास्त्रों के प्रकाश से चमक रहा है स्वरूप जिनका ऐसे , आदर्श को दिखाने वाले,  भगवान कृष्ण के  चरणकमलों के रसिक, मलूक पीठाधीश्वर जी को मैं प्रणाम करता हूं।।१।।

वृन्दारण्यसुवासवासितमनश्श्रीराधिकाराधकं
श्रीमद्दिव्यनिवासलोकहृदयप्रीतीष्टशिष्टम्मुनिं
गोविन्दार्चनवन्दनाभिनिरतप्रेमाब्धिमग्नञ्यतिं
विद्यालासविलासमोदमतिकेष्टार्थाच्युतम्भावये।।२।।

वृंदावन की महक से सुगंधित है मन जिनका ऐसे श्री राधा की आराधना करने वाले , दिव्य है लोक निवास जिनका ऐसे स्वरूप वाले (श्री हरि) से युक्त हृदय वाले, और प्रेम पूर्ण , इष्ट के प्रति अत्यंत शिष्ट जो मुनि हैं,
 गोविंद की अर्चना और वंदन में सदा लगे रहने वाले ,
प्रेम रूपी सागर में डूबे रहने वाले , जो सन्यासी हैं,  विद्या के आनंद-विलास से और प्रसन्नता से युक्त बुद्धि वाले, इष्ट ही है ईस्ट अर्थ जिनका ऐसे मलूक पीठाधीश्वर जी कि हम वंदना करते हैं।।२।।

हे सम्मानविनन्दितैकमतियुग्घे दिव्यलोकङ्गमिन्!
श्रीशार्चाविधिमन्त्रणादिविधिकश्चेभ्यैस्समाजैर्नुत!
विद्वद्वृन्दमहाप्रसन्नहृदये-शाशाभिशास्तश्शमिन्!
कृष्णापूरितपद्धतिं गुरुवरञ्चेडे मलूकाधिपम्।।३।।

आप सम्मान को प्रेम करने वाले हैं। पुण्य के कारण दिव्यलोक को प्राप्त करने की शील वाले हैं। भगवान लक्ष्मीपति की अर्चना की विधि , उनके मंत्र आदि विधियों को धारण करने वाले हैं।आप धनवान् एवं सभ्य समाज के द्वारा भी नमस्कृत हैं।  आप सदा ही विद्वानों के समूहों से महान् प्रसन्न होते हैं।  और भगवान की आशाओं से अभिशासित हैं । आप इंद्रियों का शमन करने वाले हैं । आप की संपूर्ण पद्धति कृष्ण भगवान की भक्ति से ही भरी हुई है । इस तरह मलूक पीठाधीश्वर गुरुवर को हम प्रणाम करते हैं।।३।।

हे हे साधुमहात्मनाम्प्रियतर!प्रीतीष्टदार्चासृत!
नानावेदपुराणशास्त्रकथनानन्दान्वितार्थिन्व्रजिन्!
नैकालोकविचिन्तनाब्गतमहातत्त्वाब्धिमग्नप्रभो!
नूनन्नाकतलस्थदेवजनताहर्षो मलूको भवान्।।४।।

साधु और महात्मा आपसे बहुत प्रेम मानते हैं। प्रीति से मनोवांछित फल देने वाले भगवान् की पूजा का ही रास्ता आपका है । अनेक वेद पुराण शास्त्र की कथाओं के आनंदों से युक्त रहते हैं और उनके तात्पर्य को प्राप्त करते हैं । हे प्रभो, अनेक प्रकाशमय चिंतन रूपी जलवान् आप महान् तत्व के समुद्र में डूब जाते हैं।।४।।

कृष्णाकीर्तिकरङ्क्रतुक्रियमहो होतारमीडे हरिं
खाप्पृथ्वीमरुदग्निसारकथनं खात्पारमुद्गामिनम्
गङ्गागोगणनाथगीर्गुरुगतङ्गोविन्दगीताङ्गिनम्
घण्टाकर्णघटोत्कचादिकथनाख्यातारमुद्भावये ।।५।।

भगवान कृष्ण और यमुना नदी की कीर्ति फैलाने वाले गाने वाले यज्ञ करने वाले यज्ञ में आहुति छोड़ने वाले भगवान हरि की भक्ति के कारण हरि स्वरूप वाले पंचमहाभूतों का सार कहने वाले , आसमान के पार भी अपने चिंतन की धाराओं से पहुंच जाने वाले ,
गंगा, गाय ,गणेश जी ,सरस्वती, और गुरु भगवान् की महत्ता जानने वाले , और भगवान कृष्ण के द्वारा गाई हुई गीता के प्रधान तत्व को धारण करने वाले , भगवान् शिव के घंटाकर्ण नामक गण, और भीम के घटोत्कच नामक पुत्र की कथा को भी विशिष्ट रूप से व्याख्यापित करने वाले आपको , मैं नमस्कार करता हूं।।५।।

*****
०१:२१ अपराह्णे, २७/०६/२०२०, गाजियाबादस्थगृहे।





पुण्यश्रीपरिमण्डितोऽतिविमलस्साहित्यवारान्निधि:
विद्याश्रीधृतपण्डितोखिलविदाम्पूज्यत्वमाशुर्गतो
धर्मश्रीश्रितभक्तियज्ञशरणश्श्रौतक्रियाप्रीतिभाग्
वन्द्योहोद्य मलूकपीठसरणो राजेन्द्रदासो गुरु:।।६।।

पुण्य रूपी श्री से शोभा संपन्न , अति विमल हृदय वाले, साहित्य के समुद्र विद्या रूपी शोभा को धारण करने वाले महान पंडित,  समस्त विद्वानों के पूज्य पद को तत्काल प्राप्त करते हैं । धर्म की श्री को धारण करने वाली जो भक्ति है , उस भक्ति के ही यज्ञों की शरण वाले , और वैदिक क्रियाओं से प्रेम मानने वाले , श्री मलूक पीठ को शोभित करने वाले, राजेंद्र दास जी महाराज अत्यंत वंदनीय है।।६।।

दृष्ट्वा ते भवहारिरूपमधुना नूनं हि धन्यायिता
श्रुत्वा विष्णुगुणानुवादकथनं कर्णौ विशुद्धिङ्गतौ
पीत्वा माधवमाधुरीमिव भवद्दृष्ट्या वयं हे गुरो
नाकं नामृतमन्यदेव भगवन्मन्यामहेऽस्मादृते।।७।।

और बात तो छोड़िए , आपका तो दर्शन भी करना भवबंधन से मुक्त करा देता है ! और आज आपका दर्शन करके मैं बहुत ही धन्य हो गया! आपके मुंह से जब मैंने विष्णु भगवान् के गुणों का अनुवाद रूपी कथन सुना, तो मेरे दोनों कान बहुत पवित्र हो गए, । हे गुरु जी ! हमने आपकी दृष्टि मात्र से ही , माधव की माधुरी पी ली है! इतना सब होने के बाद मैं तो किसी अन्य स्वर्ग और अमृत को मानता हूं नहीं।।७।।

हे शम्भुप्रियकीर्तन! श्रुतिमतान्धर्मध्वनैर्ध्मायित
हे विद्वत्कवितानुरागिशिववन्हे हेमरूपाच्युत!
हे सद्धाम! विधेर्विधानवशतश्चायात्य भूमण्डले
भ्राजन्तेत्र भवादृश: क्वचिदहो विष्णुप्रभामण्डिता:।।८।।

भगवान् शिव के कीर्तन आपके बहुत प्रिय हैं । वेदपाठियों के धर्मयुक्त स्वर को सुनकर आप भी स्वरायित हो जाते हैं। विद्वानों की कविताओं में अनुराग रखने वाले , कल्याण स्वरूप आप , स्वर्ण जैसे सौंदर्य वाले हैं । आप चूंकि भगवान कृष्ण की पूजा करते हैं , तो इसलिए अच्युत स्वरूप हैं। सज्जनों के शरण! विधि के विधान के वशीभूत होकर के कभी-कभी, कहीं ,जब आप जैसे लोग, इस संसार में आते हैं तो विष्णु भगवान् की प्रभाओं से मण्डित दिखाई पड़ते हैं।।८।।

त्वञ्जानासि कथं हि सत्सु चरणं गेयं विधेयञ्च किं
त्वम्भूयो भुवि भावुका इव रसं कृष्णात्मकं सम्पिबन्
भ्राम्येश्श्रोतृजनांश्च दिव्यकवितापीयूषमापाययन्
त्वन्नूनन्नयवर्त्मवर्तितवपुश्शोशुभ्यसे हे गुरो।।९।।

आप जानते हैं कि किस तरह से महात्माओं के बीच व्यवहार करना चाहिए, आचरण करना चाहिए, क्या गाने योग्य है , और क्या विधान करने योग्य है , आप भावुक रसिकों की तरह कृष्णरस को पीते हुए और सभी श्रोताओं को कृष्ण भगवान् की दिव्य कविताओं के अमृत का पान कराते हुए, सचमुच सत्य नीति के रास्ते पर स्थित स्वरूप वाले, बार-बार शोभायमान हो रहे हैं।।९।।

धृत्वा चापि मलूकपीठशरणं कृत्वा महासत्क्रतुं
ऊढ्वा ग्रन्थशतप्रदत्तकथनीकर्तव्यतानिश्चयं
सोढ्वा लौकिकवञ्चनामपि गुरो! नैवाच्युतं सन्त्यजे-
दित्येतत्परिशिक्षयन्द्विजगणान्संशोभसे वै भृशम्।।१०।।

आपने मलूक पीठ की शरण को धारण करके , महान् भक्ति रूपी यज्ञ करके ,धर्म ग्रंथों के सैकड़ों कथन रूपी कर्तव्यों के निश्चयों को ढ़ोते हुए,  "संसार की ठगी को सहन करते हुए भी भगवान की भक्ति नहीं छोड़नी चाहिए" - ऐसा आप सिखाते हैं , इस प्रकार आप बहुत ही शोभित हो रहे हैं।।१०।।

संश्रित्यैकहरीशवाक्यनयतां सङ्गीय गीतङ्क्वचित्
सन्दायात्मगुणांस्तथात्मति वा शिष्येषु सम्मोदसे
संस्कृत्यैव गिरां विचार्य परितश्शास्त्रीयतथ्यावधिं
मञ्चस्थो हरिराट्शुभाशयसृतो संश्रूयसे श्रोतृभि:।।११।।

एकमात्र भगवान् शिव और विष्णु के जो शास्त्रों में वचन हैं , या हरिहर संबंधी जो वाक्य की नीति है , उसको ही अच्छी तरह से अपनाकर, और उन्हीं भगवान शिव और विष्णु के गीतों को , कहीं गाकर आप आनंदित होते हैं । कभी अपने शिष्यों में और सज्जनों प्रेमियों (आत्मवान्) में , अपने गुणों को अपने निवेशित कर देते हैं , और अपनी वाणी को शास्त्रों के तथ्य , अवधि या मर्यादा का विचार करके और वाणी को शुद्ध करके ही बोलते हैं । जब आप मंच पर स्थित होते हैं , तो भगवान् विष्णु के शुभ आशय का अनुसरण करते हुए श्रोताओं द्वारा सुने जाते हैं।।११।।
******
रचयिता - डॉ हिमांशु गौड़ (संस्कृत कवि)
०८:४५ रात्रौ,२७/०६/२०२० गाजियाबादस्थगृहे।



Sunday, 21 June 2020

हिमांशु गौड़ के संस्कृत काव्य यहां से पढ़ें

रसिक जनों हेतु ये संस्कृत काव्य-ग्रन्थ उपलब्ध हैं-

१- भावश्री: (संस्कृत)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2021/08/blog-post_78.html

Archive -

https://archive.org/details/Bhavshri

२- वन्द्यश्री: (संस्कृत)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2021/08/blog-post_95.html

Archive

https://archive.org/details/vandyashri

३- काव्यश्री: (संस्कृत)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2021/08/blog-post_49.html

Archive

https://archive.org/details/kavyashri

४- श्रीगणेशशतकम् (संस्कृत, हिन्दी)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2021/08/blog-post_28.html

५- सूर्यशतकम् (संस्कृत-हिन्दी)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2023/04/blog-post_36.html

६- पितृशतकम् (संस्कृत, हिन्दी)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2021/09/b.html

७- श्रीबाबागुरुशतकम् (संस्कृत, हिन्दी)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2021/09/blog-post.html

Archive

https://archive.org/details/shri-babaguru-shatkam-1-1

८- कल्पनाकारशतकम् (संस्कृत)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2021/08/blog-post_6.html

९- नरवरभूमि: (संस्कृत)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2021/09/blog-post_25.html

१०- यज्ञसम्राट्शतकम् (संस्कृत-हिन्दी)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2023/12/blog-post_9.html

Archive

https://archive.org/details/8_20230516_202305

११- समर्थश्रीशतकम् (हिन्दीभावार्थसहितम्)

https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2023/12/blog-post.html

Archive

https://archive.org/details/1_20220908_20220908_0914

१२. चल चायपाने (कविता)
 https://acharyahimanshugaur.blogspot.com/2020/03/httpsyoutu.html

१३. कलिकामकेलि


Thursday, 18 June 2020

संस्कृत काव्य नरवरगाथा का सामान्य परिचय : डॉ हिमांशु गौड़


नरवरगाथा मेरे द्वारा रचित एक संस्कृत का काव्य है इसमें पांच कांड हैं - छात्रकौतुककाण्ड,  प्रकृतिकाण्ड, भूतकाण्ड, वैदुष्यकाण्ड और वर्चस्व काण्ड।

इसके छात्रकौतुककाण्ड में नरवर में रहने वाले छात्रों के कौतुकों का वर्णन किया गया है । उनकी दिनचर्या उनके अलग-अलग स्वभाव उनके शास्त्र संबंधी आचरण और निपुणता ।

छात्रों की कुछ विशेषताएं एवं अपने-अपने अलग-अलग विषयों , कलाओं में पारंगतता को इस कांड में संस्कृत श्लोकों में पिरोया गया है ।

इसी प्रकार प्रकृतिकाण्ड में नरवर नामक नगरी की प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन है ।

 गंगा जी की लहरें , वहां के देवताओं के मंदिर, भगवान् शिव की उपासना एवं पशु-पक्षियों संबंधी गतिविधियां, छात्रों और पशु पक्षियों का संबंध , छात्र और गंगाजी का संबंध, छात्र और भगवान् शिव का संबंध , प्रकृति सौंदर्य और वैशिष्ट्य - इस प्रकृतिकाण्ड में दिखाएं हैं ।

अब आते हैं भूतकाण्ड पर।

 भूतकाण्ड, एक ऐसा काण्ड, जो आपको भयानक भूत-प्रेतों की दुनिया में ले जाएगा ।

कुछ ऐसे भयंकर प्रेत, जो नरवर की हवाओं में स्थित हैं।

 कुछ ऐसी आत्माएं जो मर कर भी अपने स्थान को नहीं छोड़तीं।

श्मशान घाट पर,  गंगा जी के किनारे स्थित जंगल में , रात को घूमने वाले प्रेत और अंधकारमय-भवन के आसपास रहने वाले क्षेत्र में भूतों की गतिविधियां,

 भूतों द्वारा रहने वाले लोगों के मस्तिष्क पर प्रभाव,
 भूतों की स्वयं की गतिविधियां एवं उनका अनुभव कराना!

 रात के अंधेरे में भूतों के साम्राज्य का वर्णन !

मनुष्य कैसे भूत बनता है - इसका वर्णन!

 इस प्रकार भूतों के वर्णन से भरा हुआ, यह भूतकाण्ड है।

 यद्यपि यह तो बात है ही है कि नरवर में भूतों का अपना एक अलग वर्चस्व है , लेकिन इसमें मैंने अपनी कल्पनाशीलता जोड़ते हुए इस कांड की रचना की है ।

इसी तरह यह भूतकाण्ड, सत्य और असत्य, दोनों प्रकार की घटनाओं से बना हुआ है।

 वैदुष्यकाण्ड के बारे में अगर हम चर्चा करें , तो असली काण्ड तो यही है, नरवर गाथा का।

पहले समय में, भारत का कौन सा ऐसा हिस्सा था जो नरवर नगरी की विद्वत्ता को  नहीं जानता था ? (आजकल भी वैसे नए छात्रों या कुछ संस्कृतज्ञों को छोड़कर , प्रायः प्रौढ विद्वान् जानते ही हैं ,नरवर नगरी के बारे में)।

 काशी के विद्वान् भी आचार्य जी महाराज (श्री विजय प्रकाश शर्मा जी) के समक्ष शास्त्र सुनाने हेतु प्रस्तुत होते थे ।

श्री जीवन दत्त जी महाराज के द्वारा किया जाने वाला विद्वानों का आदर और विद्वानों का संरक्षण-संवर्धन एवं छात्रों का लालन-पालन एवं ब्राह्मणों को शास्त्र संबंधी निपुणता प्रदान करना , इस नगरी की विद्वत्ता में चार चांद लगा देता है ।

 यही वह नगरी है, जहां पूरे भारतवर्ष को -

 "धर्म की जय हो , अधर्म का नाश हो , प्राणियों में सद्भावना हो , विश्व का कल्याण हो"

 यह नारा देने वाले स्वामी धर्म सम्राट करपात्री जी महाराज ने भी अध्ययन किया है !

यही वह स्थली है जहां पर विष्णु आश्रम जी महाराज,  जोकि भारतवर्ष के गिने-चुने उच्च स्तरीय संत-विद्वानों में एक हैं , यही रहे ।

इस प्रकार आज भी , श्री बाबा गुरु जी , श्री ज्ञानेंद्र पाठक गुरु जी, आचार्य श्री दिवाकर गुरुजी -
 - जैसे विद्वान् आज भी इस नगरी की शोभा बढ़ा रहे हैं और ज्ञान का प्रसार कर रहे हैं ।

पुराने विद्वानों में तो प्रभा थी ही अपनी विशिष्ट , लेकिन आज भी उसका रुतबा कम नहीं है । इसलिए नरवर की विद्वत्ता और वैशिष्ट्य का वर्णन करने वाला यह काव्य वैदुष्यष्यकाण्ड है ।

अब आते हैं आखिरी और पांचवें वर्चस्व कांड पर ।

वर्चस्व कांड में वहां के छात्रों और म्लेच्छोंं के बीच होने वाला कभी-कभी संघर्ष ।

कभी-कभी छात्रों के स्वाभिमानपरक युद्ध का वर्णन, कभी शास्त्रों की अग्नि से दुष्ट-पक्षवान् व्यक्ति को जलाने का वर्णन, एवं यहां के रहने वाले विद्वानों का किस दृष्टि से वर्चस्व है - इसी बात का इस काण्ड में वर्णन है !

अभी मैंने इसे बनाना ,इस कांड को लिखना , थोड़ा सा ही शुरू किया है। थोड़ा सा ही लिखा है ।
लेकिन छात्रकौतुककाण्ड में और प्रकृति कांड एवं भूत कांड में बहुत से श्लोक हो चुके हैं ।

यद्यपि इस नरवरगाथा की शुरुआत मैंने सन् 2014 में ही कर दी थी , लेकिन बीच-बीच में अन्य कार्यों में लग जाने के कारण एवं अन्य काव्यों को लिखने के कारण इसका चिंतन छूट गया । 

अब दोबारा इसके चिंतन को करने का उपक्रम होगा और जल्द ही यह पुस्तक आप लोगों के सामने होगी।

इस प्रकार यह नरवरगाथा समाप्ति को प्राप्त करेगी।

 मेरा यह मानना है , कि आप सब लोग इस नरवरगाथा को अवश्य पढ़ें । मैं इसे हिंदी अनुवाद सहित छपवाऊंगा,  ताकि जो संस्कृत न जानने वाले लोग हैं , वे भी इसे पढ़ सकें।  संस्कृतज्ञों के लिए तो विशेष रूप से है ही ।
व्याख्यान को अधिक ना खींचते हुए -
हर हर महादेव।
****

डॉ हिमांशु गौड़
१०:२७ रात्रि,१८/०६/२०२०

Wednesday, 17 June 2020

संस्कृत व्याकरण महाभाष्य पस्पशाह्निक : हिमांशु गौड़


नरवर से जब घर आता था : कविता: डॉ हिमांशु गौड़



नरवर से जब घर आता था
******
कुछ प्रसाद चिनौरी लेकर,
गंगा जी की मिट्टी लेकर
दस रूपए की कट्टी लेकर,
जल उसमें भी भर लाता था
नरवर से जब घर आता था।।१।।

भाष्य, कौमुदी, अष्टाध्यायी,
रघुवंश, रुद्राष्टाध्यायी,
शिवराजविजय , प्रतापविजय,
इन सब को बक्से में रखकर
बस छुट्टी को मन में रखकर
इक उमंग को भर लाता था
जब नरवर से घर आता था।।२।।

कुर्ता और पाजामा पहने
एक हाथ में लिए अटैची
मोटी चुटिया सिर पर धारे
बिल्कुल ना मैं शर्माता था
नरवर से जब घर जाता था ।।३।।

निमंत्रणों में मिली दक्षिणा
तांबे की लुटिया और कंबल
मन-तुष्टि के होते संबल
बालकपन की उपलब्धि को
थैले में ही धर लाता था
नरवर से जब घर आता था ।।४।।

भंडारों की कथा सुनाकर
वेद-मंत्र को सुना-सुनाकर
घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर
सब जन को हर्षाता था
नरवर से जब घर आता था।।५।।

मन में नवरस हर्ष घोलकर
जाड़े की तो धता बोलकर
हर-हर गंगे बोल-बोलकर
गङ्गा में रोज नहाता था
जब नरवरवासि कहाता था।।६।।

अंगोछे से सिर को ढांपे
तपते रस्ते मैंने नापे
बढ़ते पैर कभी ना कांपे
सांझ ढले पहुंचा निज द्वारे
चाय कड़क तब बनवाता था
नरवर से जब घर आता था।।७।।

'चौराहे' पर पहुंच, रोककर
'बुलंदशहर' की बस, में बैठा,
'बुलंदशहर' से फिर 'स्याना'
'स्याना' से तांगे में आता था
'नरवर' से जब घर आता था।।८।।

बालक मोह पड़त भारी है,
भूल गया सब तैयारी है
पांच दिनों की छुट्टी को मैं,
दस-दस दिन की कर जाता था
घर से जब नरवर जाता था।।९।।

दीपावली दस वर्ष न छोड़ी,
जन्मभूमि से राह न मोड़ी,
होली के रंगों को मन में,
सजा-सजा कर भर लाता था,
नरवर से जब घर जाता था।।१०।।

हुआ छात्रकाल अब पूरा,
सपना सा बीता जो सारा
अब अतीत की यादों से ही,
भरा हुआ मन, रहे अधूरा।।११।।

आज मची है आपा-धापी,
पैसे की है भागम-भागी
चिन्ताओं से भरा चित्त है,
कौन आज किसका सुमित्र है।।१२।।

लेकिन जीवन यही है मेरा,
नयी शाम है, नया सवेरा
छाएगा फिर घना अंधेरा,
क्या है तेरा क्या है मेरा।।१३।।

दुनिया नाम इसी का है जो,
आनी जानी माया है
पकड़ो नानाविध यत्नों से,
फिर भी छूटती काया है।।१४।।

यही पढ़ा है यही लिखा है
हरिनाम ही सच्चा है,
भारत की इस पुण्य धरा पर
गाता बच्चा-बच्चा है।।१५।।

मोहजाल हैं रिश्ते-नाते
फिर भी इन्हें निभाना है,
ज्यों पानी में कमल बसे
त्यों जग में वास बनाना है।।१६।।
****
©हिमांशु गौड़
०२:४० अपराह्न,१६/०६/२०२०,भौम, गाजियाबाद।

भारतीय संस्कृति के विषय में श्लोक : डॉ हिमांशु गौड़


।।अस्मत्संस्कृति:।।
***
धृताऽस्मत्पूर्वजैस्सभ्यै: पालिता पोषिता बुधै:।
देवत्वं जनयेल्लोके भारती संस्कृतिस्सदा।।१।।

सुसंस्कारान्वितो भूत्वा शोभते मोदते यया।
संस्कृतिर्भारतीया सा धारणीया सदा समै:।।२।।

सद्वृत्तं दिव्यभूतीनां दुर्वृत्तं च दुरात्मनाम्।
ज्ञायते तायते सौख्यं यया सा संस्कृतिर्हि मे।।३।।

गुरूणां चापि सम्मानं लघूभ्यस्स्नेहसिञ्चनम्।
शिष्टाचारस्समैस्साकं बोधयेत्संस्कृतिस्सदा।।४।।

प्राणं चापि त्यजेत्प्राज्ञो धर्मं नैव च कर्हिचित् ।
धर्मसर्वस्वरूपा सा संस्कृतिर्भारती मम।।५।।

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं क्रत्वादय: क्रिया:।
प्रणप्राणपणाग्रत्वं सर्वं संस्कृत्यधिष्ठितम्।।६।।

वेदशास्त्रपुराणानि स्मृत्यारण्यकसङ्ग्रह:।
उपनिषद्भिस्समालक्ष्या भारतीया सुसंस्कृति:।।७।।

यद्यच्चर्यं सदाचर्यं ब्रह्मचर्यं शुभं तप:।
तत्तत्सर्वं महत्तत्त्वं संस्कृतिश्रीसुशोभितम्।।८।।

सन्मानुषत्वशिक्षा वा लोकालोकफलं तथा।
यच्छत्याचरणादेव भारती संस्कृतिस्सदा।।९।।

संस्कृत्यर्थास्समे चार्था: किं वदानीह चाधिकम्।
म्लेच्छधर्मविहेयत्वं संस्कृतावेव संश्रितम्।।१०।।

गोब्राह्मणसुरक्षा च राक्षसानां निकृन्तनम्।
धर्मस्थापनमेवापि संस्कृतिर्मे सुशिक्षयेत्।‌।११।।

असूंश्चापि वसूंश्चापि त्यजेदात्मप्रणं नहि।
नेशं वा विस्मरेदित्याश्रयेत्सा संस्कृतिर्मम।।१२।।

सौम्यसात्विकशीलत्वं सत्याहिंसापरिग्रहा:।
लभन्ताञ्चोदयेदेषा संस्कृतिस्सास्ति मे शुभा।।१३।।

नावसादं व्रजेत्प्राज्ञो नात्महत्यां चरेत्क्वचित्।
उत्साही चोद्यमी भूयाद्वदेन्मे संस्कृतिस्सदा।।१४।।

दयाधर्मोपकारांश्च त्यागरागोचितज्ञता:।
शिक्षयेत्संस्कृतिश्रीका: वेदशास्त्रादयो मम।।१५।।
***
डॉ हिमांशुगौड:
०१:४१ अपराह्णे,१७/०६/२०२० 
गाजियाबादस्थगृहे।

Monday, 15 June 2020

हिंदी शायरी : डॉ हिमांशु गौड़



आंसुओ को मत दिखाना ये जरूरी है बहुत
जबरदस्ती मुस्कुराना ये जरूरी है बहुत
खुदकुशी से तुम खुशी से मरो लेकिन आजकल
ना हाले दिल अपना सुनाना ये जरूरी है बहुत।।

ख़ुद की अन्तर्वेदना से , सब यहां संतप्त हैं
जी रहे हैं सब मगर , मानो हुए अभिशप्त हैं
पास होते हुए भी , कैसी ये दूरी हो गई
बोलना दुश्वार है,चुप्पी जरूरी हो गई

आज हम इक दूसरे से यूं अलग है दोस्तों
असलियत अपनत्व से कुछ दूर यूं हैं दोस्तों
जैसे हों परवाज़ वाले परिंदों को कैदघर
डरे हम आपस में ही इक दूसरे से इस क़दर

मौत से इस खौफ में जीते सभी हैं जा रहे
ज़हर ग़म-बेचैेनियों का रोज़ पीते जा रहे
ये अकेलापन हमें जानें कहां ले जाएगा
दौर ये इंसानियत को एक दिन मरवाएगा

हंसते चेहरों की हकीकत क्या है, हम हैं जानते
झूठे रुतबों की फजीहत हम सदा पहचानते
आदमी अब आदमी से डर रहा है मर रहा
जाने खुद ही ना कभी , क्या कर रहा, क्यों कर रहा

आओ इस माहौल को बदलें , कहीं ना देर हो
रोशनी रुक जाए ना , देखो ना अब अन्धेर हो
हम ही भर सकते अभी भी बढ़ती जो ये खाइयां
घेर ना लें बढ़ रही जो गमज़दा तन्हाइयां।

नकलियत ढोते हुए ये हम कहां हैं आ गये
सहजता और सरलता से दूर कितने हो गये
अब जरूरी हो गया खामोशियों को तोड़ना
दर्दे राहों को सुकूं के रास्तों पर मोड़ना।।

अब अगर हम मौन हो एकांत में ही रोएंगे
दस्तख़त दरियादिली के भी जहां से खोएंगे
यही ऐसा वक्त है कि अब बदलना है हमें
पत्थरों सी शख्सियत को मोम करना है हमें ।।
****
हिमांशु गौड़ 
१०:२५ रात्रि, १४/०६/२०२० गाजियाबाद।

Monday, 8 June 2020

दैनिक अखबार तेजस् में संस्कृत कवि डॉ हिमांशु गौड़ का लेख



गाजियाबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार तेजस में 08 जून 2020 दिनांक को संस्कृत कवि डॉ.हिमांशु गौड़ का लेख प्रकाशित किया गया यह लेख "प्रदोषकाल में  शिव का पूजन का महत्व" इस विषय में था।


इसी प्रकार 7 जून 2020 को भी डॉ हिमांशु गौड़ का दुर्गासप्तशती के संबंध में एक ज्ञानपूर्ण लेख गाजियाबाद से प्रकाशित होने वाले तेजस् नामक समाचार पत्र के 'आध्यात्मिक' नामक पृष्ठ पर छपा था।


Wednesday, 3 June 2020

।। दुष्टवञ्चकैर्हता हस्तिनी ।। संस्कृत श्लोक।। हिमांशु गौड़


*****
का भावना मम भवेन्न विनिश्चिनोमि
दु:खप्रकाशवचसा न गतीस्तनोमि
किं मानवत्त्वमिति नापि धियाऽद्य मन्वे
ताङ्गर्भिणीञ्च गजिनीन्निहतां विलोक्य।।१।।

विश्वस्तचित्तगजिनी क्षुधयार्त्तचित्ता
गर्भस्थशैशवविचिन्तितमानसा या
साऽरण्यखाद्यमविलभ्य पुरं समेता
सारल्ययुग्गजवरी मरणं प्रयाता ।।३।।

विस्फोटकान्तरभवं फलमेतदर्थं
दुष्टा ददत्यथ, गजी न विलोक्यमाना
शुण्डे निधाय स्वमुखे स्वदनं यतेत
अस्फोटदाननमतो महती च पीडा।।४।।

नूनङ्क्षुधा न परिपश्यति किं ह्यनर्थं
ये पाशवा न विविदन्ति च कूटनीतिं
किन्त्वद्य मानव इतीह पदाख्यजाति:
पापाब्धिमग्नहृदयेव विभाति मह्यम्।।५।।

या चेह हस्तिपदकास्ति विलुप्तजातिस्-
तल्लोपकारण इवाग्रसरो मनुष्य:
वृक्षान्नदीरथ पशूंश्च विनश्य हैते
कामुन्नतिं प्रतिवजन्ति न कोऽपि वेत्ति।।६।।

विज्ञान-नाम-नरका: स्युरिवोन्नता: किम्?
मांसादना असुहरा प्रतियात पुष्टिम्?
पश्वैकनिर्दयमना इह मानवाख्यश्?
चेन्, नास्म्यहं नरगणे , पशुरेव वर्य:।।७।।

स्वस्याङ्गुलिर्यदि भवेत्त्रुटितोऽपि भिन्ना
चीत्कारपूर्वकमसौ परिरोदितीव
यश्चाजकुक्कुटगलञ्च निकृन्तयन्सञ्
जिह्वासुर: क्षणमसौ न दयान्दधाति।।८।।

नो केवलङ्गजगणस्य चरन्तु चर्चाम्-
प्राणप्रियत्त्वमथ सर्वजने जगत्याम्
मृत्युं न काङ्क्षति, द्विजा! लघुकीटकोऽपि
यो हन्ति तं स नरकेषु शतेषु याति।।९।।

चेद्वा भ्रमन्ति शतमानवताभिवादा
नास्त्येकतोऽपि पशुरक्षणधर्मवादो
म्लेच्छैर्निहन्यत इयं त्वबला सुजातिस्
तत्त्राणकारणपथे न नृपाश्चरन्ति।।१०।।

विक्रीय मांसमपि कोटिसहस्रमूल्यं
वैदेशिकेभ्य इत, एति गवादिनां यल्
लक्षाधिकं पशुनिकृन्तनमन्वहं मे
सद्भारते कथमहं सुखतो भवानि।।११।।

यन्निर्बलाक्षमपशूद्धननं नरत्वं,
किं वा भवेदित उताप्यधमत्वमेव?
सद्धर्मपुस्तकशतै: परिभाष्यते यत्
तज्जीवरक्षणमहो सुजनाश्चरध्वम्।।१२।।

****
डॉ.हिमांशुगौड:
०९:१६ पूर्वाह्णे,०४/०६/२०२०
गाजियाबादस्थगृहे।

संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक

 ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्र...