Saturday, 25 July 2020

शाब्दिकमणिश्रीब्रजभूषणौझाभ्य: पत्रम्

।। शाब्दिकमणिश्रीमद्ब्रजभूषणौझाभ्य: पत्रम् ।।
*****
विद्वन्! हे पदशास्त्रतीव्रमतियुक्काशीपुरप्रीतिमन्!
ओझाविप्रकुलप्रतिष्ठितजने! विद्वज्जनानन्दद!
शिष्यव्यूहपदप्रसारणरत! श्रौताननास्यो भवान्!
मन्ये पुण्यवशाल्लभन्त इव तल्लब्धं हि यच्छ्रीमता।।१।।

श्रीमन्शास्त्रसुधानिमज्जितधियां हर्येकचिन्तावताम्
संसारस्य हलाहलैर्न भवतान्मृत्योर्भयं कर्हिचित्
तस्माद्योऽयमहं हिमांशुपदभाक्काव्येऽधुना सक्तिमान्
किन्तु व्याकरणं भवत्सुमुखतस्संश्रोतुमीहे क्वचित्।।२।।

क्वाहं किञ्च भणामि वाणि! वणिजां नेव व्यनज्मि व्रजिन्!
यत्तु श्रीद्विजराजसूक्तिशरणं तन्नैमि नाहञ्च वा
शास्त्रम्मद्धृदयस्य सन्दिशति यद्यच्चोद्यते शम्भुना
तेनैवात्र गतीस्तनोमि शिववन्! शब्दप्रथासूत्रधृत्।।३।।

लब्धं व्याकरणं हि येन, च गुरोश्श्रीरामयत्नाभिधात्
(यद्वा श्रीपुरुषोत्तमाख्यविबुधाट्टीकादिभिस्संश्रितम्)
नूनम्मोद इव प्रजायत उत प्रादुर्भवेन्नव्यता
मच्छिष्योऽयमहो महेश्वरपथे शब्दात्मके धावति
ओझाश्रीब्रजभूषणो गुरुहृदि प्रीतिश्च सञ्चिन्तनै:।।४।।

अद्याऽहो भवतां प्रपाठितजना अध्यापयन्तो बुध!
सम्मानं सुखमाप्नुवन्ति धनितां शब्दैकशास्त्राश्रयै:
एवं ग्रन्थगतिं विलोक्य भवतां गुण्यप्रभावं मुहु:
के न स्युर्जयघोषणाभिनिरता: हे शब्दराण्! मां वदेत्।।५।।

भोपालेपि मया भवान्ह मतिमन्!शोधार्थमालोकित:
प्राथम्येन तदा स्वरार्थपरकं पौष्पं च भट्टोजिकं
कुर्यादित्यहमेव देशित इति स्मृत्वाद्य सल्लेखने
तस्माच्चात्र यते, यतो विरचिता प्रस्तावना मामकी।।६।।

दृष्ट्वा स्थूलवपुश्च सूक्ष्ममतिकं श्रुत्वा च शाब्दीं गिरां
पीत्वा नागसमुक्तिमत्र भवता क्वाचित्करूपैरहं
यद्यप्यस्मि रतोऽधुना कविमुदि, श्रीयेत शब्दो मया
किन्तूद्यन्तमहो प्रकर्षमथ ते, सक्तोऽस्मि पातञ्जले।।७।।

केचिद्वा कथयन्तु वक्ति हिमराड्व्यर्थं हि पत्रार्चनम्
केचिद्वा मतिभिश्श्रयन्तु मनुजा केयं समुद्योगिता
किन्त्वद्य प्रवदामि तान् मम मनो दिश्याच्च यद्धाार्दिकं
तथ्यं संस्मरणं तथान्यघटकं कुर्वे स्वपत्रे हि तत्।।८।।

ओझा नाम जनस्य चास्य विदितं यच्छाब्दिकानां गणे
तद्वच्छ्रीब्रजभूषणं पदपरं के नैव जानन्ति तं
किन्तु स्यात्सरलं बुधत्वसरणं नैतन्मया मन्यते
सारल्यं च ततो भवेद्यदि जने देवायते स द्रुतम्।।९।।

न स्वार्थैर्न च हेतुभिस्त्वहमिह प्रारब्धवांस्तद्यशस्
सूर्यो यो गगने भ्रमेदनुदिनं तस्य प्रशंसास्तु का?
स्वीयैरेव सुकर्मघर्मपदकैरुद्भासिताकाशितं
जानन्ति प्रतिभापरं न न हि के लोके, वदेयुर्बुधा:?१०?

काश्यां यद्यपि विश्वनाथनगरे कास्तु प्रतिष्ठा विदां
शास्त्रं शैवपथं विहाय वदत श्रीयेत मानञ्च कै:
सारल्यैरभिवर्तनैरपि जनस्सारस्वताराधनै:
विद्वद्राजसभासु याति झटिति प्रोच्चं पदं सद्यश:।।११।।

एवं वात्र मया भवत्स्तवपरं स्वीयं सुचिन्तापरं
मद्दृष्टिर्भवताञ्चरित्रमनने सन्दर्शिता शोभना
यो वै पुष्पलतासुगन्धिभवनं संसज्जयेन्मानसं
लेखैस्सोऽत्र नमेत् सुपण्डितमिमं ह्योझाभिधं शाब्दिकम्।।१२।।
****
हिमांशुर्गौडो
लेखनकालो दिनाङ्कश्च - १२:१५ रात्रौ,२६/०७/२०२०,
गाजियाबादस्थगृहे।

Tuesday, 21 July 2020

रुद्राष्टक संस्कृत हिन्दी भावार्थ सहित


            

       नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
      विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
      निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
      चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम् ।।

हे भगवन ईशान को मेरा प्रणाम ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं, जो कि महान ॐ के दाता हैं, जो सम्पूर्ण ब्रह्मांण में व्याप्त हैं, जो अपने आपको धारण किये हुए हैं। जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं, जिनका आकर आकाश के सामान हैं जिसे मापा नहीं जा सकता, उनकी मैं उपासना करता हूँ।

    निराकारमोङ्करमूलं तुरीयं
    गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।
    करालं महाकालकालं कृपालं
    गुणागारसंसारपारं नतोहम् ।।

जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पूरे संसार के परे हैं, उनके सामने मैं नत मस्तक हूँ।

      तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं
      मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ।
      स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा
      लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ।।

जो कि बर्फ के समान शील हैं, जिनका मुख सुंदर हैं, जो गौर रंग के हैं, जो गहन चिंतन में हैं, जो सभी प्राणियों के मन में हैं, जिनका वैभव अपार है, जिनकी देह सुंदर है, जिनके मस्तक पर तेज है जिनकी जटाओं में लहलहारती गंगा है, जिनके चमकते हुए मस्तक पर चाँद है, और जिनके कंठ पर सर्प का वास है।

      चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं
      प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
      मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
     प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ।।

जिनके कानों में बालियाँ हैं, जिनकी सुन्दर भौंहे और बड़ी-बड़ी आँखे हैं, जिनके चेहरे पर सुख का भाव है, जिनके कंठ में विष का वास है, जो दयालु हैं, जिनके वस्त्र शेर की खाल है, जिनके गले में मुंड की माला है, ऐसे प्रिय शंकर पूरे संसार के नाथ हैं, उनको मैं पूजता हूँ।

      प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
      अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
      त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं
      भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम् ।।

जो भयंकर हैं, जो परिपक्व साहसी हैं, जो श्रेष्ठ हैं अखंड हैं जो अजन्मे हैं जो सहस्त्र सूर्य के सामान प्रकाशवान हैं, जिनके पास त्रिशूल है, जिनका कोई मूल नहीं है, जिनमें किसी भी मूल का नाश करने की शक्ति है, ऐसे त्रिशूल धारी माँ भगवती के पति जो प्रेम से जीते जा सकते हैं उन्हें मैं वन्दन करता हूँ।

      कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी
      सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
      चिदानन्दसंदोह मोहापहारी
      प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।

जो काल के बंधे नहीं हैं, जो कल्याणकारी हैं, जो विनाशक भी हैं, जो हमेशा आशीर्वाद देते हैं और धर्म का साथ देते हैं, जो अधर्मी का नाश करते हैं, जो चित्त का आनंद हैं, जो जूनून हैं, जो मुझसे खुश रहे ऐसे भगवान जो कामदेव नाशी हैं, उन्हें मेरा प्रणाम।

      न यावद् उमानाथपादारविन्दं
     भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
     न तावत्सुखं शान्तिसन्तापनाशं
      प्रसीदं प्रभो सर्वभूताधिवासम् ।।

जो यथावत नहीं हैं, ऐसे उमा पति के चरणों में कमल वन्दन करता है, ऐसे भगवान को पूरे लोक के नर नारी पूजते हैं, जो सुख हैं, शांति हैं, जो सारे दु:खों का नाश करते हैं, जो सभी जगह वास करते हैं |

      न जानामि योगं जपं नैव पूजां
      नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ।
      जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं
      प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ।।

मैं कुछ नहीं जानता, ना योग , ना ध्यान है, देव के सामने मेरा मस्तक झुकता है, सभी संसारिक कष्टों, दुःख दर्द से मेरी रक्षा करे. मेरी बुढ़ापे के कष्टों से से रक्षा करें, मैं सदा ऐसे शिव शम्भु को प्रणाम करता हूँ।

             
हर हर महादेव 

Thursday, 16 July 2020

आधुनिक संस्कृत वालों के लिए कुछ तथ्य

२००३ में "नश्चापदान्तस्य झलि" की वृत्ति जब भी पाठ आवृत्ति करते समय सामने आती थी, तो एक लय (लहर) स्वयं बन जाती थी - नस्य मस्य चापदान्तस्य झल्यनुस्वार:।

इसी तरह और भी अनेक सूत्र हैं , जिनके बहुत से छात्रों ने गाने ही बना रखे थे ।
 एक विद्यार्थी था ।
 उसकी यह आदत थी , कि वह बहुत ही उछल-उछल कर चलता था, कुलांचें भरते हुए।

 और जब वह कक्षा 10 में था, तो समास और कारक पाठ्यक्रम में लगे हुए हैं ।
तो समास में एक सूत्र आता है , वह उसको गा-गाकर बोलता था - अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तैरल्पश: ।

"इको यणचि",  "झलां जश् झशि" जैसे सूत्रों के भी गाने बना रखे थे लोगों ने। एक नई ट्यून की खोज।

तो मेरे ख्याल से शिक्षाशास्त्र में जो स्मरण करने की पद्धति बताई गई हैं , उसमें से एक यह भी बहुत अच्छी विधि हो सकती है - गा-गा कर याद करना।
 इससे दीर्घकाल तक याद रहता है , क्योंकि उसके विषय में बालक कंफर्टेबल हो जाता है।

खैर।

"अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:" का मैंने पूरा लाभ उठाया। अभी भी मैं शब्दों के मध्य में जो अनुस्वारान्त शब्द होते हैं उनको इस सूत्र का ही उपयोग करके, विशेषत: काम चलाता हूं - अस्तङ्गच्छति, पुष्पञ्चिनोतीत्यादिषु।

और णिनि प्रत्यय का मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूं,  जो मेरे बहुत काम आया है ।

 साथ ही साथ २२ उपसर्गों (विशेष रुप से प्र,परि,वि, उत्, ) का भी धन्यवाद अदा करता हूं ।

जीवन में एक-दो बार , अच् प्रत्यय का प्रयोग मैंने भ्रांति से अघटित स्थान पर भी किया था, लेकिन बाद में गुर्विङ्गितों से सुधार दिया।

मेरे ख्याल से कृदन्त प्रकरण ने संस्कृत बोलने वालों की जितनी सहायता की है , जितना संस्कृत को सरल कर दिया है , वह सराहनीय है ।

लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष या नुकसान कह लीजिए, यह भी हुआ, कि इस कारण से अब आदमी सारे लकारों को याद करना ही भूल गया।

 सारे लकारों की प्रक्रिया ही भूल गया ।

अब वैयाकरणों  को भी लकारों की वह प्रक्रिया ठीक से याद रहती नहीं , क्योंकि जब भूतकाल में क्त प्रत्यय का प्रयोग कर देते हैं , तो लङ् लुङ् तो खत्म हो ही गये।

और फिर तव्यतव्यत् अनीयर् का ही हर जगह प्रयोग करने के कारण विधिलिङ्लकार को भी लोगों ने खत्म सा ही कर रखा है ।

बहुत कम ही जगह बहुत गिनी चुनी धातुओं का ही विधिलिङ् , लोग प्रयोग करते हैं , अन्यथा
तव्यतव्यत् अनीयर् का प्रयोग करके - मया गन्तव्यम्, तेन भोक्तव्यम्, भवद्भि: वर्धनीयम् ,

इत्यादि का प्रयोग करके निकल लेते हैं जिससे वह विधिलिङ्लकार की विशिष्ट धातुओं के प्रयोग से वंचित रह जाते हैं। अब भू , वर्ध, कृ , गम् , खाद् , क्रीड , चल , इन सामान्य धातुओं , जिनमें विशेष प्रत्यय प्रयोग की आवश्यकता होती नहीं , उनको ही रट्टा मार कर और "भयंकर संस्कृत बोलने वाले" कहलाते हैं ।

वैसे मैं यह नहीं कह रहा कि हर जगह विधिलिङ् लकार या भूतकाल में लङ् या लुङ् का ही प्रयोग होना चाहिए।

यह सब वस्तुतः औचित्य,परिस्थिति और साहित्य के अनुसार होता है । किस जगह कृदन्त प्रत्यय का प्रयोग करना है और किस जगह तिङन्त का,  इस बात का विवेक, यदि वक्ता या लेखक अपने भाषा या लेखन में कर लें, तो भाषा बड़ी रोचक हो जाती है। और अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहती है ।

 वैसे कवि लोग ऐसे भी प्रयोग करते हैं कि कहीं-कहीं तिङन्तों की ही भरमार, और कहीं कृदन्तो की भरमार!

 लेकिन वह चीज अलग है , वह कवि भाषा में रोचकता उत्पन्न करने के लिए कभी सर्दी ही सर्दी , कभी गर्मी ही गर्मी, और कभी बरसात ही बरसात की तरह प्रयोग करते हैं।  वह कवि के विचार वैशिष्ट्य को दर्शाती है , वह कवि के कौशल को दर्शाती है ।

लेकिन यह बात आधुनिक संस्कृतज्ञों हेतु है कि हम किसी भी चीज के यदि सिर्फ एक ही अङ्ग का प्रयोग करें , दूसरे अङ्ग को बिल्कुल ही छोड़ दें , या किंचित् मात्र ग्रहण करें, तो फिर वह उसके स्वरूप के साथ न्याय नहीं है।

मुझे लगता है , सामान्य जो लोग हैं , उनको संस्कृत के प्रति उत्सुक करने के लिए तो यह सब ठीक है , किंतु जो संस्कृत के मूल, पारंपारिक विद्यार्थी हैं , उनको इतने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए ।

अपितु धातुओं की सूत्रों के द्वारा जो प्रक्रिया है , उसका ज्ञान कर उसको दिमाग में बैठा कर , यदि संस्कृत का लेखन या वाचन करें,  तो वास्तव में संस्कृत के मूल स्वरूप को पकड़े रहेंगे , अन्यथा पल्लवग्राही ज्ञान में अटकना ज्यादा उचित नहीं।

भ्वादि में क्रादि नियम, सेट्-अनिट्त्व को ठीक से मस्तिष्क में बिठाना।
(जब हमने शुरुआती दौर (२००५-६, उत्तरप्रथम) में तिङन्त पढ़ना शुरू किया , तो "अच एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि" सूत्र को प्रायः भूल जाते थे। लेकिन फिर गुरुदिष्टावधान से एकचित्तता आई)

अदादि की प्रक्रियाओं को समझना।
(असलियत बताऊं, तो मैंने अदादि, जुहोत्यादि, तनादि, स्वादि को कभी ठीक से पढ़ा ही नहीं , या तो वाचम्-वाची की है, या दो-चार बार नजर ही घुमाई है , सिर्फ सिद्धान्तकौमुदी में।

क्योंकि पूरा साल सिर्फ भ्वादि पढ़ने में ही निकल गया।
 उसका एक-एक शब्द हमारे इस तरह याद है ,जैसे पानी किसी भी बात को हजारों वर्षों तक याद रखता है । इसीलिए हम संकल्प करते समय हाथ में जल लेते हैं , क्योंकि जल हमारे संकल्प को याद रखेगा हमेशा ! और अगर हम संकल्प से हटें, तो वे वरुण देव कुपित हो सकते हैं)

लेकिन एक प्रकरण की भी प्रक्रिया को ठीक से यदि पढ़ लिया जाए,
 तो अन्य प्रकरण समझने में आसानी होती है।
इसलिए जुहोत्यादि दिवादि में तो विशेष जगड्वाल नहीं।

 चुरादि के णिच् का मन में बिठाना बड़ा
 जरूरी है।

वैसे सिद्धान्तकौमुदी का एक भी अक्षर ऐसा छूटा नहीं , जो हमने गुरु मुख से ना पढ़ा हो (चाहे सामान्य निर्देश द्वारा हो)

 सन्, क्यच् , काम्यच्, क्यङ् , क्यष् , णिच्-णिङ्, यङ्, यङ्लुक् और इनके ही अन्तर्गत कहीं होने और कहीं न होने वाले ईत्व का ध्यान रखना। कहीं अभ्यास, द्वित्व, गुणावादेश (बोभवीति,बोभोति (यङ्लुक्)) । सिर्फ यक् में बोभूयते। सन् में बुभूषति। णिच् भावयति।
इसी तरह नामधातु जो कि न जाने कितने काम बनाती है।

 उसका अभ्यास हो जाए तो कहना ही क्या ! लेकिन सूत्रों की प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति का ध्यान रखना जरूरी है। सूत्रबाध, (पूर्वत्रासिद्धम्), यह बड़ा मुख्य है पूरे ही व्याकरण शास्त्र में इस के ज्ञान के बिना बड़े-बड़े शास्त्री भी कभी-कभी धोखा खा जाते हैं।

 सूत्रों के अर्थ का ठीक-ठीक ज्ञान होना और प्रयोग करने से पहले उसे घटा लेना वैयाकरण को निर्भ्रान्त और वीर बनाते हैं।
 अन्यथा कभी-कभी नवोदित (अपटु) काव्यकारों के समस्त,सन्धियुत,या कहीं कहीं णिनि,अच्,क्यप् आदि संबंधी भ्रान्ति को पकड़ कर (सभ्य)शाब्दिक लोग एकांत में, और क्वचित् (धृष्टशाब्दिक) सभा में , बहुत हंसते हैं।

स्त्री प्रत्यय जहां जाते हैं वहां ङीप् , ङीष् , ङीन् का विचार,  टाप् , डाप् , चाप्  का विचार तैयार रखना, किसी भी संस्कृत भाषी के लिए बड़ा जरूरी है , अन्यथा अध्ययन अध्यापन या भाषा प्रयोग में लोग, मात खा जाते हैं।

और सबसे जरूरी चीज तो कारक है !
प्रातिपदिक से लेकर अधिकरण तक, सबका यदि विचार दिमाग में ना हो, तो आधुनिक कवियों से तो विशेष रूप से बहुत भयंकर चूकें हो सकती हैं!
और कवियों से ही क्यों , कोई भी संस्कृत प्रयोग करने वाला हो , किसी से भी चूकें (त्रुटियां, (शब्दपतन)) हो सकती हैं ।
इसलिए पास बैठे वैयाकरण को चाहिए , कि उसके कान में उसका सही प्रयोग बता दे , और कारक का स्वरूप उसे समझा दे । तभी उसके शास्त्र पढ़ने की सफलता है , अन्यथा अशुद्ध संस्कृत का फैलाव, शाब्दिक लोगों की बड़ी विफलता है।

अतः यह शब्दशास्त्र सभी शास्त्रों का नाना है
 इससे बचना आलसियों का मात्र बहाना है
संकल्प करो , अब व्याकरण पढ़ना और पढ़ाना है
और भारतवर्ष के विद्यार्थियों का आगे बढ़ाना है ।।
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हिमांशु गौड़
१२:०३ मध्याह्ने। १६/०७/२०२० गाजियाबाद।

Tuesday, 7 July 2020

।।। १३. आचार्यदीपकहरिदत्तशर्मणे पत्रम् ।।।


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भो भो दीपक! कुत्र ते स्थितिरथोद्योगश्च को वर्तते
यातानीति दिनानि दीर्घतमया नो वार्तया मोदितः
त्वत्साकं न समैश्च हास्यपरकैःयात्रादिवृत्तान्तकृत्
त्वं चैवं हरिदत्तदीपक इति ख्यातोधुना ज्ञायते ।।१।।

आश्रित्य त्वां शतकमपि च प्रारचीत्यत्र मोदैः
तस्यारम्भः कृतमपि मया शङ्कराक्ष्यब्दपूर्वम्
कल्पा भूयः निजकविधिया यन्नरौरास्थलस्य
चर्या दृष्टा नरवरनगर्यां पुरा नैकवर्षैः ।।२।।

त्वद्भावीति प्रथितमनसा कल्पना या कृतापि
तत्त्वच्चित्रं जगति पुरुष ख्यापनायाधुनाहो
काले काले स्फुरितनवभावैस्स्वभावासरोहं
त्वद्गुण्यैर्मोदितबहुनृणां दृश्यमाकल्पयामि।।३।।

यदि मुदितमनास्त्वं वर्तसे नैजगेहे
 विविधपठनकार्येष्वत्र लग्नोसि वाद्य ।
धनकरणसुवृत्तिं प्राप्तुमाचेष्टयन् वा
 मम सकलशुभाशौन्नत्यमार्गे त्वदीये ।।४।।

शतकमिदमहं यत् त्वत्कृते चार्पयामि नवकवनवितानप्रार्थनायेत्यवेहि ।
तव बत यदनुक्तं केनचित्किञ्चिदूह्यम्
तदिह निजमनीषाभिस्समाख्यापयामि ।।५।।

द्विजेह संश्रणुष्व रे मदीयभावकाशिनीं
स्थितिं ममात्र वा विभिन्नकार्यबद्धसारणीम् ।
कुवृत्तिपाशबद्धमानुषः कदापि सौख्यदां
गतिं न वाऽऽप्नुतेनुभावयामि चात्र सर्वतः।।६।।

अहं गाजियाबादपुर्यां वसामि प्रभातेप्यतश्चैव दिल्लीं प्रयामि ।
न सूर्योदयं नैव सूर्यास्तकालं स्वकार्यालये कार्यकृद् द्रष्टुमर्हः।।७।।

न चास्मादृशां जीवनं चैवमस्ति
सदा शान्तिसौख्यं प्रधानं मतं यत् ।
अतस्सन्त्यजामीति चित्ते विचार्य
मुधात्राप्यहानि द्विजाऽऽयापयामि ।।८।।

प्रदुष्टोत्र वायुः नृणां वा मनांसि न कस्यापि कोपीह वर्तेत मित्रम्
कुदिल्लीप्रदेशो न मे रोचते वै यदा धावतां वीक्ष्य लब्धुं च वित्तम् ।।९।।
यदि त्वं नरौरापुरं नैव यासि न बाबागुरोः दर्शनं वा करोसि ।
तदा चित्तशान्तिं कथं प्राप्नुयाः रे द्विजातो प्रयाहि द्रुतं तत्र भक्त्या ।।१०।।
होलिकोत्सव एवायं चागतो वार्षिकोप्यहो ।
नानारङ्गैः निजं चित्तं दीपकारञ्जयेः पुनः ।।११।।

होलिकाग्नौ च ते क्लेशाः मम नानाविधास्तथा ।
नृसिंहपूजया नष्टाः भवेयुश्चेति कामये ।।१२।।

अस्मिन् महाजनौघेहो क्व मिलन्ति मिथो जनाः।
सन्तो वापि द्विजाश्चापि पुण्यैरेव हि तद्भवेत् ।।१३।।
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प्रेषकः – हिमांशुगौडः
दिनाङ्कः समयश्च – २८-०२-२०१८ , ९.३० रात्रौ,
गाजियाबादस्थे स्वगृहे, चायपानानन्तरं लिखितम् ।।

Wednesday, 1 July 2020

'भावश्री:' पुस्तक का मुखपृष्ठ और विषय सूची : डॉ हिमांशु गौड़


 । इस पुस्तक में ८११ श्लोक हैं। लगभग १४ छंदों का प्रयोग है। इसमें निहित पत्रों में कोई आपसी हालचाल की पूछा-पाछी मात्र नहीं है,
अपितु इसमें अनेक शास्त्रीय-चर्चा, सामाजिक स्थितियां , विडम्बनाएं , अनेक प्रकार की नीति, हृदय की, मन की अनेक प्रकार की स्थितियां, जीवन की अनेक प्रकार की घटनाएं,दशाएं, यज्ञायोजन, कई नगरों की स्थिति का वर्णन, प्रकृति सौंदर्य का वर्णन, मन की दशाओं का वर्णन, भोपाल परिसर संबंधी वार्ता, संस्कृतोन्नति, धर्म तत्व, कथा, हरिभक्ति, शिवसम्पत्, आचारसम्पन्नत्व, ग्राम, जीवजन्तु,नरवरवर्णन, देवप्रशंसा,विद्वत्प्रशंसा, कालप्राबल्य, वैराग्य, युवत्वविलास, कहीं-कहीं कर्मकांड की क्रियाएं , कहीं भूत प्रेतों की चर्चा,  कहीं समृद्धि का वर्णन, कहीं निर्धनता का दर्शन , कहीं शास्त्रीय स्पर्धा , कहीं योषिताओं का चित्रण, विचारों का प्राकट्य आदि निहित हैं।


संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक

 ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्र...