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Showing posts from July, 2020

शाब्दिकमणिश्रीब्रजभूषणौझाभ्य: पत्रम्

।। शाब्दिकमणिश्रीमद्ब्रजभूषणौझाभ्य: पत्रम् ।। ***** विद्वन्! हे पदशास्त्रतीव्रमतियुक्काशीपुरप्रीतिमन्! ओझाविप्रकुलप्रतिष्ठितजने! विद्वज्जनानन्दद! शिष्यव्यूहपदप्रसारणरत! श्रौताननास्यो भवान्! मन्ये पुण्यवशाल्लभन्त इव तल्लब्धं हि यच्छ्रीमता।।१।। श्रीमन्शास्त्रसुधानिमज्जितधियां हर्येकचिन्तावताम् संसारस्य हलाहलैर्न भवतान्मृत्योर्भयं कर्हिचित् तस्माद्योऽयमहं हिमांशुपदभाक्काव्येऽधुना सक्तिमान् किन्तु व्याकरणं भवत्सुमुखतस्संश्रोतुमीहे क्वचित्।।२।। क्वाहं किञ्च भणामि वाणि! वणिजां नेव व्यनज्मि व्रजिन्! यत्तु श्रीद्विजराजसूक्तिशरणं तन्नैमि नाहञ्च वा शास्त्रम्मद्धृदयस्य सन्दिशति यद्यच्चोद्यते शम्भुना तेनैवात्र गतीस्तनोमि शिववन्! शब्दप्रथासूत्रधृत्।।३।। लब्धं व्याकरणं हि येन, च गुरोश्श्रीरामयत्नाभिधात् (यद्वा श्रीपुरुषोत्तमाख्यविबुधाट्टीकादिभिस्संश्रितम्) नूनम्मोद इव प्रजायत उत प्रादुर्भवेन्नव्यता मच्छिष्योऽयमहो महेश्वरपथे शब्दात्मके धावति ओझाश्रीब्रजभूषणो गुरुहृदि प्रीतिश्च सञ्चिन्तनै:।।४।। अद्याऽहो भवतां प्रपाठितजना अध्यापयन्तो बुध! सम्मानं सुखमाप्नुवन्ति धनितां शब्दैकशास...

रुद्राष्टक संस्कृत हिन्दी भावार्थ सहित

                    नमामीशमीशान निर्वाणरूपं       विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।       निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं       चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम् ।। हे भगवन ईशान को मेरा प्रणाम ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं, जो कि महान ॐ के दाता हैं, जो सम्पूर्ण ब्रह्मांण में व्याप्त हैं, जो अपने आपको धारण किये हुए हैं। जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं, जिनका आकर आकाश के सामान हैं जिसे मापा नहीं जा सकता, उनकी मैं उपासना करता हूँ।     निराकारमोङ्करमूलं तुरीयं     गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।     करालं महाकालकालं कृपालं     गुणागारसंसारपारं नतोहम् ।। जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पूरे संसार के...

आधुनिक संस्कृत वालों के लिए कुछ तथ्य

२००३ में "नश्चापदान्तस्य झलि" की वृत्ति जब भी पाठ आवृत्ति करते समय सामने आती थी, तो एक लय (लहर) स्वयं बन जाती थी - नस्य मस्य चापदान्तस्य झल्यनुस्वार:। इसी तरह और भी अनेक सूत्र हैं , जिनके बहुत से छात्रों ने गाने ही बना रखे थे ।  एक विद्यार्थी था ।  उसकी यह आदत थी , कि वह बहुत ही उछल-उछल कर चलता था, कुलांचें भरते हुए।  और जब वह कक्षा 10 में था, तो समास और कारक पाठ्यक्रम में लगे हुए हैं । तो समास में एक सूत्र आता है , वह उसको गा-गाकर बोलता था - अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तैरल्पश: । "इको यणचि",  "झलां जश् झशि" जैसे सूत्रों के भी गाने बना रखे थे लोगों ने। एक नई ट्यून की खोज। तो मेरे ख्याल से शिक्षाशास्त्र में जो स्मरण करने की पद्धति बताई गई हैं , उसमें से एक यह भी बहुत अच्छी विधि हो सकती है - गा-गा कर याद करना।  इससे दीर्घकाल तक याद रहता है , क्योंकि उसके विषय में बालक कंफर्टेबल हो जाता है। खैर। "अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:" का मैंने पूरा लाभ उठाया। अभी भी मैं शब्दों के मध्य में जो अनुस्वारान्त शब्द होते हैं उनको इस सूत्र का ही उपयोग करके,...

।।। १३. आचार्यदीपकहरिदत्तशर्मणे पत्रम् ।।।

************ भो भो दीपक! कुत्र ते स्थितिरथोद्योगश्च को वर्तते यातानीति दिनानि दीर्घतमया नो वार्तया मोदितः त्वत्साकं न समैश्च हास्यपरकैःयात्रादिवृत्तान्तकृत् त्वं चैवं हरिदत्तदीपक इति ख्यातो ऽ धुना ज्ञायते ।।१।। आश्रित्य त्वां शतकमपि च प्रारचीत्यत्र मोदैः तस्यारम्भः कृतमपि मया शङ्कराक्ष्यब्दपूर्वम् कल्पा भूयः निजकविधिया यन्नरौरास्थलस्य चर्या दृष्टा नरवरनगर्यां पुरा नैकवर्षैः ।।२।। त्वद्भावीति प्रथितमनसा कल्पना या कृता ऽ पि तत्त्वच्चित्रं जगति पुरुष ख्यापनाया ऽ धुना ऽ हो काले काले स्फुरितनवभावैस्स्वभावासरो ऽ हं त्वद्गुण्यैर्मोदितबहुनृणां दृश्यमाकल्पयामि।।३।। यदि मुदितमनास्त्वं वर्तसे नैजगेहे   विविधपठनकार्येष्वत्र लग्नो ऽ सि वा ऽ द्य । धनकरणसुवृत्तिं प्राप्तुमाचेष्टयन् वा   मम सकलशुभाशौन्नत्यमार्गे त्वदीये ।।४।। शतकमिदमहं यत् त्वत्कृते चार्पयामि नवकवनवितानप्रार्थनायेत्यवेहि । तव बत यदनुक्तं केनचित्किञ्चिदूह्यम् तदिह निजमनीषाभिस्समाख्यापयामि ।।५।। द्विजेह संश्रणुष्व रे मदीयभावकाशिनीं स्थितिं ममात्र वा विभिन्नकार्यबद्धसारणीम् ...

'भावश्री:' पुस्तक का मुखपृष्ठ और विषय सूची : डॉ हिमांशु गौड़

 । इस पुस्तक में ८११ श्लोक हैं। लगभग १४ छंदों का प्रयोग है। इसमें निहित पत्रों में कोई आपसी हालचाल की पूछा-पाछी मात्र नहीं है, अपितु इसमें अनेक शास्त्रीय-चर्चा, सामाजिक स्थितियां , विडम्बनाएं , अनेक प्रकार की नीति, हृदय की, मन की अनेक प्रकार की स्थितियां, जीवन की अनेक प्रकार की घटनाएं,दशाएं, यज्ञायोजन, कई नगरों की स्थिति का वर्णन, प्रकृति सौंदर्य का वर्णन, मन की दशाओं का वर्णन, भोपाल परिसर संबंधी वार्ता, संस्कृतोन्नति, धर्म तत्व, कथा, हरिभक्ति, शिवसम्पत्, आचारसम्पन्नत्व, ग्राम, जीवजन्तु,नरवरवर्णन, देवप्रशंसा,विद्वत्प्रशंसा, कालप्राबल्य, वैराग्य, युवत्वविलास, कहीं-कहीं कर्मकांड की क्रियाएं , कहीं भूत प्रेतों की चर्चा,  कहीं समृद्धि का वर्णन, कहीं निर्धनता का दर्शन , कहीं शास्त्रीय स्पर्धा , कहीं योषिताओं का चित्रण, विचारों का प्राकट्य आदि निहित हैं।