संसार है जलती आग सरीखा इसमें कैसा सुख ढूंढे इसके रस का परिणाम है तीखा इसमें क्या तृप्ति ढूंढे धन,पद, युवती माया में भरमा जीव जो मरने वाले हैं चौरासी लाख भंवरों में जो हैं फंसे न तरने वाले हैं उनमें कैसी है कथा लिखनी, सब व्यर्थ मित्र संबंध यहां पाप-पुण्य परिणत दुख-सुख के लिखते सभी निबंध यहां कभी तुम्हीं हो पुण्यवान् स्वर्गों के बनते राजा हो कभी कभी यौवन सुन्दर खिलते फूलों से ताज़ा हो कभी पाप आक्रान्त वेश में कष्ट हो पाते नये नये कभी पुण्य से भ्रष्ट हीन लोकों में भी तुम फिरे गये कभी तुम्हीं हो चंद्रकांत रजनी में खूब चमकते हो कभी तपस्या सूर्यकान्त सम्राट् दिवस के बनते हो कभी कभी गणपति के भावों से होते हो ओत-प्रोत कभी शैवधारा के गामी, वैष्णवजल के दिव्यस्रोत कभी तुम्हीं नष्टधामा हो भटक रहे हो लोकों में कभी स्वर्णभवनों में रमते उतर गये हो शोको से कभी भीति के सागर की लहरों में बहते रहते हो कल जानूंगा आत्मतत्व, खुद से ये कहते रहते हो स्वप्नमात्र यह जगत् समूचा कल्पित है बस माया से भरमाता है पर मनुष्य निज को, पा ऐहिक काया से कर्मगति है गहन कठिन कहना किसका उद्धार हुआ धन्य है केवल वही जिसे आत...