संसार है जलती आग सरीखा इसमें कैसा सुख ढूंढे
Wednesday, 27 September 2023
संसार है जलती आग सरीखा - हिन्दी काव्य
कविताएँ किन विषयों पर लिखीं जाएँ
|| कविताएं अमूल्य हैं, वे विस्तृतार्थपरक घटकों पर लिखीं जाएं तो बेहतर है||
मौनं सर्वत्र साधनम्
सहनं वै तप: प्रोक्तं, मौनं सर्वत्र साधनम्।
कुछ ऐसे भी लोग यहां पर - हिन्दी कविता हिमांशु गौड़
कुछ ऐसे भी लोग यहां पर
उसे छांव का पता ही क्या, हिन्दी कविता हिमांशु गौड़
उसे छांव का पता ही क्या, के जो धूप में चला नहीं,
|| बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि || संस्कृत कविता हिमांशु गौड़
|| बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि ||
अंबर भी शोक मनाता है! हिन्दी कविता हिमांशु गौड़
अंबर भी शोक मनाता है!
देव श्रीगणेश
फिल्म अग्निपथ के गीत "देवा श्रीगणेशा" का संस्कृत अनुवाद
वित्तेन हीना: पशुभिस्समाना:? संस्कृतकाव्यम् हिमांशुगौड़
वित्तेन हीना: पशुभिस्समाना:?
सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयम् - संस्कृतगीतम्
सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयं
स्वाभिमान - हिन्दी कविता
स्वाभिमान का सौदा कर के जिंदा नहीं रहा जाता है
अधिक देर तक जीवन में शर्मिंदा नहीं रहा जाता है
भूल सभी करते हैं और वो धुलती पश्चात्ताप से है
विजय-वरण के इच्छुक का संघर्ष तो अपने आप से है
धन से ही चलता है जीवन, तिनका तिनका धन से है
भाग्य,बुद्धि से मिलता धन, और एकनिष्ठ शुभ मन से है
लेकिन धन की खातिर भी अपमान नहीं सहा जाता है
स्वाभिमान का सौदा करके जिंदा नहीं रहा जाता है
नष्ट करो ब्रह्माण्ड समूचा, जल जाए दुनियां सारी
सौ सौ बार कटो खड्गों से, मिट जाने की हो तैयारी,
तभी एकछत्र पौरुष से पृथ्वी का भोग किया जाता है,
कायरता को अपनाकर के जीवित नहीं रहा जाता है,
शक्ति मात्र को सत्य मानकर जीवन को न्योछावर कर
बुद्धि तपस्या देवी श्रद्धा से पूरा जीवन भी जी कर
शक्तिवाद का मात्र आचरण राजासन दिलवाता है
मात्र भावना और दया से सन्तासन मिल पाता है
शक्तिवाद का खंडन, मण्डनमिश्र विप्र के जेता का
चतुष्पीठ के संस्थापक, शंकर का, युगप्रणेता का
क्षण भर में ही शक्तिहीन कर, मार्ग यह दिखलाता है
शक्तिहीन हो जीवन में फिर जीवित नहीं रहा जाता है।
स्वाभिमान का सौदा करके जीवित नहीं रहा जाता है।
प्राप्त को पर्याप्त मानो! हिन्दी कविता हिमांशु गौड़
प्राप्त को पर्याप्त मानो!
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मन हो यदि उद्भ्रांत मानो, बहुत ही अशांत मानो
दौड़ते धन के लिए जो, प्राप्त को पर्याप्त मानो
थोड़ा सा जीवन-मधु यह, युवा-तन मुग्धा वधू यह,
ग्राम का आराम-गृह यह, इसी को संसार जानो
प्राप्त को पर्याप्त मानो
बन गये यद्यपि विजेता, विश्व के एकमात्र नेता
युग के या उद्भट प्रणेता, आंख मूंदोंगे तो सब कुछ
खो गया साम्राज्य मानो, प्राप्त को पर्याप्त मानो
मैं नहीं कहता कि भूखे मरो, तुम कर्तव्य छोड़ो
मैं नहीं कहता कि धन से, तुम कभी आनन सिकोड़ो
हाय माया में ना अपना जनम घुट घुट कर गुजारो
प्राप्त को पर्याप्त मानो
किंतु सब कुछ खेल सा है, लगता अब बेमेल सा है
सिसकती सी ज़िंदगी की, अवधि कुछ समाप्त जानो
प्राप्त को पर्याप्त मानो
काम जो कुछ हैं अधूरे, कर सके ना जिन्हें पूरे
उनका पश्चात्ताप कैसा, हृदय में सन्ताप कैसा
जितना भी तुम कर सके हो, उसे ही सत्यार्थ मानो
प्राप्त को पर्याप्त मानो
झूठी रिश्तेदारियों से, तुम भी कुछ दूरी बना लो
सर्दियों में चाहतों की ऊन का कंबल सिला लो
जो तुम्हें दे दिल उसे तुम, इश्के-घर दिलबर बना लो
हो अंधेरा चाहे जितना, आस का दीपक जला लो
जो तुम्हारे अपने रूठें, सौ दफ़ा उनको मना लो
बीत जाए ना उमर यह, जल्दी कोई फैसला लो
जिंदगी को कर दिया गमगीन इस बद्किस्मती ने
अब मिले मौके को ही खुशकिस्मती सरगम बना लो
देखो ना नासूर बन जाए है दिल का जख्म ये
इश्के-मोहब्बत का कोई, इसपे फिर मरहम लगा लो
इक गई तो ग़म ही क्या, आतीं बहारें फिर नई
फूल मुरझाए तो क्या, खिल जाती फिर कलियां नई
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हिमांशु गौड़
०९:२३ रात्रि
१४/०२/२०२३
||श्रीमहाराणाप्रतापाभिनन्दनम्|| संस्कृत काव्य, हिमांशु गौड़
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प्रतापतापनिष्प्रतापवैरिणो रणे समे,
विहीनजीवना अवारिमीनतां प्रपेदिरे
भयङ्करैश्च खड्गसम्प्रहारणैस्सहस्रशो
द्रुतं श्रुता इवाशुदेहहानिमेव भेजिरे||१||
क्व जीवताद्विलोकितो हि येन रुष्टवीरराट्
दहेद्रिपुं न कं प्रतापनेत्ररोषहव्यवाट्
हरेदसून् क्षणे क्षणे हि हुङ्कृतै: रिपोश्च यो
जयेत्पराक्रमस्स कोऽपि वीरशब्दमूर्तिमान्||२||
उपत्यकाभिरावृते मनोहरे शुभस्थले
शिवैकलिङ्गमन्दिरे स रुद्रसेकतत्पर:
नमश्शिवाय चेति यो जपन्नजस्रमद्भुतं
जघान गोघ्नजातिकान् जयेज्जयस्स मूर्तिमान्||३||
मरुत्पदप्रवाहवाहनश्च यश्च चेतको
हयाधिराट् प्रतापभक्तदेशभक्तिसक्तिमान्
चतुष्पदस्स कोऽप्यशेषकीर्तिवाड्रणेऽग्रग:
प्रतापवाहनो जयेत्स वीरवाहनो जयेत्||४||
अशेषभारतप्रजेत्रखर्वगर्वनाशनो
भुजङ्गमाक्षरीलिपिप्रपाठिपाठनाशन:
स्वदेशमानरक्षणकृतप्रणस्तृणाशनो
जयेज्जयप्रियस्मृतिस्सुरालयाप्तशासन:||५||
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हिमांशुर्गौड:
१०:३७ रात्रौ,
२३/०४/२०२२
वीता दिवसाः - संस्कृत कविता, हिमांशु गौड़
डॉ.महेशनारायणशास्त्रिणां - वीता दिवसा मुहुरहो!जातु न क्वचिदायान्ति - इत्येकां काव्यपङ्क्तिमुत्थाप्य मया स्वविचारैस्सद्यस्स्फुरितैषा काव्यबन्धना कृता। तत्पिबन्तु सहृदया रसमस्याः। अनुभवन्तु चात्र जीवनदृश्यम्।
वीता दिवसा मुहुरहो!जातु न क्वचिदायान्ति।
अन्तर्भित्तौ सदा सौख्यदा अद्येवैते विभान्ति
काचिन्नव्यतरङ्गमनोजा यदा वयं नवयूनि
पीतानीव यदा चास्माभिर्वामाधरजमधूनि
यदा वयं चैकान्ते माधवमासे सुमरमणीये
लताविटपकुञ्जे बहुकालं मुदा हृदा कमनीये
यदा वयं च तडागहरितनीरे लोष्ठांश्च क्षिपन्तो
त्वदागमनकालं पश्यन्त: कालं यापितवन्त:
यदा वयं जगतो बहुचिन्ताभ्य: परिमुक्ता आस्म:
यदा वयं वीरैरिव दर्शिततेजस्काश्चैवास्म:
यदा वयं सुहृदां निश्छलप्रेमपयांसि पिबन्तो
यदाश्रमेषु दृष्टा: भ्रामं भ्रामं पूज्यास्सन्त:
यदा कामिनीवीक्षणबाणैर्विद्धं नो मन आसीत्
यदा तया मेलनकाङ्क्षायां व्यपगतरात्रिश्चासीत्
यदा न चासीच्चित्ते काचिद्धनपदलिप्सास्माकं
यदा जगन्नवताम्परियातं ह्यनुभूयते स्माऽस्माभि:
यदा वयं चञ्चच्चन्द्रं तारागणगणनासक्ता:
पश्यन्तश्छदिसीह मुदा राज्ञश्च कथां शृण्वन्त:
शेमहे स्म ग्रामारामे षड्रतुकृतरसं श्रयन्तो
कुर्महे आयान्तु दिनानि पुनस्तानि नृत्यन्त:
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हिमांशुर्गौड:
०९:१७ रात्रौ
०९/०४/२०२३
असौ धूम्रो - संस्कृत काव्य
असौ धूम्रो व्याप्नोति सर्वतस्
त्वं चैकाकी रहसि अज्ञातदिव्यपन्थानं प्रविष्ट इव
स्वप्नायमानानि दिनानि सन्ति,
आम्! प्रविशास्मिंल्लोके
नेह पुनरायास्यसि भुवि, इहागत्य
वयं अदृश्या:
वागप्यत्र नोदेति, अव्यक्ता इव वर्तेमहि
कथेयं कथं कथयानि त्वां
एहि देहान्तं कृत्वात्मनो
काचिदाह्वयति वाक् त्वामदृश्या फुस्फुसायमाना
मन्ये, वदेद्यथा कश्चित्कर्णमात्रे
मौनमात्रा वयम्!
नेत्रैरेवावगन्तुं शक्ष्यसि नो
अपरिचिता वयम्! अस्मल्लोको दूरम्!
वयमिह नास्यामो नेष्याम इमं लोकम्
न वेत्थ यूयं नो रूपं
नामानि लुप्तानि, देहा यथेह तथैव तत्रापि दृक्ष्यन्ते
अथवा पुण्यपापाद्याक्रान्ता विचित्ररूपा वयम्
अथवा भावरूपिणो वयम्
न लक्षणानि लक्ष्याणि वा विद्यन्ते
कथं तद्गृणानि!
शास्त्रैरपि साक्षात्त्वेनादर्शितरूप: , गौणत्वैर्लक्ष्येत तत्पृथक्
कस्त्रायेत तत्र, त्वमेव स्वमनसोज्जनितशक्तिसाहस्रैर्धृतशतरूपो विभासि!
अहो सुरवागायिम्मे गोपयित्री,
न काङ्क्षामि लोकान् आत्मानं दर्शयितुमत इयं कल्पा
क्व यन्ति कुत इहायान्ति कथं जीवमानाश्शतमायानिबद्धास्
सर्वं खल्वाश्चर्यम्
अश्रूयमाणानि जगन्ति, एकाकिनी रहस्यमयी निशा,
क्वचिद्दृश्यादृश्यविभृतरूपशतोसि
हहहा हा हेमानि मद्वाग्रूपाणि
हहा हा हं कोहं अविज्ञातात्मा! चुपानीत्येव रोचे।
शशशश निर्यान्ति तुषारवायुक्लिन्नानि दिवसानि।
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हिमांशुर्गौडो
१०:०२ नैशे
१३/०४/२०२३
॥अशोक जी सिङ्घल भारतात्मा ॥ (संस्कृत-काव्यम्) हिमांशुगौड़
आतिथ्यसद्भावसुधाभिसक्तो
माहात्म्यलोकेषु सदैव सक्तो
सद्धर्मकार्ये हृदयेन रक्तो
हि-अशोकजीसिङ्घल भारतात्मा॥१॥
अङ्गं च बङ्गं ह्यथवा कलिङ्गं
मद्रश्च कार्णाटकमल्लयालम्
हिमाढ्यदेशो जलधिप्रदेशो
एकीकृतो येन नुमो ह्यशोकम्॥२॥
गङ्गातटं वा यमुनातटं वा
सरस्वतीतीर उतास्तु रम्य:
प्रयागराजेऽस्तु तथा त्रिवेणी
एकत्वनिष्ठोऽस्त्यथ भारतात्मा॥३॥
देशे विदेशे निजधर्मवक्ता
"सङ्घ"स्य शक्ते: परिवर्धको य:
हिन्दूद्धृतौ जीवनदानकर्ता
अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥४॥
अयोध्यया यत्प्रथितं यशश्च
श्रीरामसन्मन्दिरनिर्मितिश्च
हिन्दुत्ववादस्य यशस्तनोति
अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥५॥
प्राणप्रिया वै खलु मानवाश्च
धर्मप्रियास्सन्ति महात्मलोका:
प्राणप्रमोहं च विहाय रामा-
लयस्य कार्ये रतभारतात्मा॥६॥
जीवन्ति केचिद्धि धनार्जनाय
परे तु केचिद्यशसोऽर्जनाय
धर्मार्जनायापि परे प्रलग्ना:
रामार्जनायास्ति च भारतात्मा॥७॥
यत्संस्कृतेर्मूलमहो गरीयं
यज्जीवनं सौख्यमये युनक्ति
तद्भारतस्यान्तर्हितधर्मरूपं
प्रसारयेत् तत् खलु भारतात्मा॥८॥
वेदेषु सर्वं निहितं सदैव
त्रिकालसत्यं च सदैव वेदा:
तद्रक्षणाय प्रथितप्रयत्नो
अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥९॥
वेदाच्च शास्त्राणि समुद्भवन्ति
विज्ञानमूला श्रुतिरेव मुख्या
नारायणान्नि:श्वसितस्य रक्षा
तद्ब्राह्मणानां च सदैव धर्म:॥१०॥
तस्यैव कार्यस्य सुनिश्चयार्थं
विप्रप्रसादप्रतिवर्धनार्थं
सम्माननार्थं ननु वैदिकानां
समुद्भवेद् योऽखिलभारतात्मा॥११॥
सङ्कल्पवीरो भुवि कर्मनिष्ठो
जातोऽद्भुतो वेदनिधिर्वरिष्ठो
बुद्ध्या तथा योजनया गरिष्ठश्
शिष्टो ह्यशोकोऽखिलभारतात्मा॥१२॥
मोहान्धकारे निपतन्ति जीवा:
पापेषु कर्मस्वपि खिन्नचित्ता:
कथं विरामं लभतां च शान्तिं
रामे रमध्वं भवहं भजध्वम्॥१३॥
सन्मार्गमेवं परिसंश्रयध्वं
सर्वं हनूमत्प्रभवे कुरुध्वं
एधध्वमर्थे नहि रे ह्यनर्थे
स्पर्धध्वमध्वन्यथ रामनाम्न:॥१४॥
................प्रवर्तमानम्
संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक
ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्र...
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यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा ...