Wednesday, 27 September 2023

संसार है जलती आग सरीखा - हिन्दी काव्य

 संसार है जलती आग सरीखा इसमें कैसा सुख ढूंढे

इसके रस का परिणाम है तीखा इसमें क्या तृप्ति ढूंढे

धन,पद, युवती माया में भरमा जीव जो मरने वाले हैं
चौरासी लाख भंवरों में जो हैं फंसे न तरने वाले हैं

उनमें कैसी है कथा लिखनी, सब व्यर्थ मित्र संबंध यहां
पाप-पुण्य परिणत दुख-सुख के लिखते सभी निबंध यहां

कभी तुम्हीं हो पुण्यवान् स्वर्गों के बनते राजा हो
कभी कभी यौवन सुन्दर खिलते फूलों से ताज़ा हो

कभी पाप आक्रान्त वेश में कष्ट हो पाते नये नये
कभी पुण्य से भ्रष्ट हीन लोकों में भी तुम फिरे गये

कभी तुम्हीं हो चंद्रकांत रजनी में खूब चमकते हो
कभी तपस्या सूर्यकान्त सम्राट् दिवस के बनते हो

कभी कभी गणपति के भावों से होते हो ओत-प्रोत
कभी शैवधारा के गामी, वैष्णवजल के दिव्यस्रोत

कभी तुम्हीं नष्टधामा हो भटक रहे हो लोकों में
कभी स्वर्णभवनों में रमते उतर गये हो शोको से

कभी भीति के सागर की लहरों में बहते रहते हो
कल जानूंगा आत्मतत्व, खुद से ये कहते रहते हो

स्वप्नमात्र यह जगत् समूचा कल्पित है बस माया से
भरमाता है पर मनुष्य निज को, पा ऐहिक काया से

कर्मगति है गहन कठिन कहना किसका उद्धार हुआ
धन्य है केवल वही जिसे आत्मा से अपनी प्यार हुआ

द्वैत सभी अद्वैत मात्र हो जाते हैं ये निश्चित है
शैवादि धाराओं से ही ब्रह्म रूप अभिषिञ्चित है 

काल देश दिक् नाम रूप गुण धर्म प्रपंचित वपुष्! सुनो
इन सबसे विरहित कैवल्यप्रापि नैज को मात्र गुनों!
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हिमांशु गौड़
०८:१४ रात्रि
१२/०६/२०२३

कविताएँ किन विषयों पर लिखीं जाएँ

 || कविताएं अमूल्य हैं, वे विस्तृतार्थपरक घटकों पर लिखीं जाएं तो बेहतर है||

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हिंदी/ संस्कृत में कविताएं लिखता हूं - ऐसा जानकर कोई भी कह देता है - " मेरे विवाह पर मंगल श्लोक रचना करो, जिसमें मेरा, मेरे गांव का, माता-पिता, दुल्हन का भी नाम आ जाए।"

 कोई कहता है - "एक दोस्त का जन्मदिन है - उस पर एक लघुकविता लिखो!"

कोई किसी का अभिनंदन-पत्र लिखवाने चला आता है। 

बहुत सी संस्थाएं अपने कुछेक आयोजनों पर गीत लिखवातीं हैं। 

मैंने कोई आज तक इन सबसे भार का अनुभव नहीं किया।

 लेकिन मेरी इस सहज-प्रवृत्ति का लाभ उठाकर अब मेरे कुछ जानने वालों का स्वभाव ऐसा हो गया है, कि उन्हें हर बात पर ही संस्कृत श्लोक चाहिए!

 मतलब पेशाब करने भी जा रहे हैं तो उन्हें संस्कृत श्लोक चाहिए ! यार, हद होती है किसी भी चीज की!

 किसी भी व्यक्ति का फ्री में इस्तेमाल करना कहां तक उचित है?

 मैं यह नहीं कह रहा कि मुझे अपनी विद्या का कुछ लाभ चाहिए, वस्तुतः कविता तो अमूल्य है , लेकिन इसका अर्थ यह भी तो नहीं कि कवि के जीवन को ही बर्बाद कर दो !

हजारों लोग मेरे संपर्क में हैं, इस हिसाब से रोजाना २-३ फोन आ जाते हैं! आज फलाने का जन्मदिन! आज ढिमके का विवाह! इस चक्कर में न जाने कितने हजार श्लोक मैंने लिख डाले!

 बहुत से लोगों ने अपनी प्रेमिका को प्रणय-निवेदन करने के लिए मुझसे कविताएं लिखवाईं, जिनका तत्काल सुफल भी उन्हें प्राप्त हुआ।

कुछ महिलाओं ने भी अपने प्रेमी के लिए गीत लिखवाए!

चाहे स्वागत कार्यक्रम हो या विदाई समारोह चाहे जन्मदिन हुए मरण दिन हर विषय पर बिना किसी लाभ के अपने जीवन के अमूल्य समय को नष्ट करके अवनी दुनिया चिंतन की दुनिया को मोड़ करके जिस कविता का श्रेय भी मुझे नहीं मिलने वाला ऐसी भी कविताएं लिखकर मेरे दिनेश लोगों की कहीं गणना भी होने नहीं वाली

आज मनुष्य अपना जीवन का एक-एक क्षण अपनी भौतिक संपत्ति को एकत्रित करने में देता है!

 घर,गाड़ी,पैसा,मकान,प्रॉपर्टी ! क्योंकि इनके द्वारा ही समाज में सम्मान है! महान् शब्दों की गठरी बांध कर सैकड़ों कविताएं लिख कर भी कौन पूछने वाला है अगर भौतिक संपत्ति नहीं!

 फिर भी मैंने आज तक कोई एतराज ना किया!

 सबके लिए खुले दिल से तैयार रहा!

 जैसे सूर्य की रोशनी अपनी रोशनी बिना भेदभाव के बांटता है, फूल अपनी खुशबू, चांद अपनी चांदनी, और नदियां अपना पानी- सबके लिए बिना किसी भेदभाव के बांटते हैं-  इसी तरह से मैंने भी इस कविता को बिना किसी भेदभाव के सबको बांटा !

किंतु मामला तब बिगड़ जाता है, जब व्यक्ति को हर बात पर ही कविता चाहिए !

मेरे एक मित्र हैं , अनुष्ठान कार्य, पूजा-पाठ करते हैं !

दूसरे आचार्यों की अध्यक्षता में अनुष्ठान करने जाते हैं! अब जिस किसी भी आचार्य की अध्यक्षता में अनुष्ठान करने जाते हैं,  उसी के लिए श्लोक बनवाने लगे जाते हैं!

 उन्होंने मुझसे अब तक ५-६ आचार्यों के विषय में श्लोक बनवा चुके, ऐसी झूठी प्रशंसा करना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगता!

 मैं अपने सभी लोगों को बता देना चाहता हूं, कि कवि होना अलग चीज है, मैं कोई भांड नहीं हूं , जो स्वार्थ/पैसे के लिए हर किसी की प्रशंसा कर दूंगा!

और हालात तब ज्यादा खराब हो जाते हैं जब जिन पर खुद कुछ भी अक्षर ज्ञान नहीं! कविता तो छोड़िए, सामान्य शास्त्र का भी ज्ञान नहीं वह हमारी कविता का यूज़ करके अपना निजी स्वार्थ सिद्ध करते हैं !

अब मेरे एक जानने वाले हैं, उनके कोई पंडित हैं, जो विदेशों में बड़े स्तर का पांडित्य कर्म करते हैं!

 उनको कुछ अपने मनोनुकूल विवाह/ नामकरण इत्यादि के संबंध में संस्कृत छंदों में बंधे हुए श्लोक चाहिएं!

 इसलिए उन्होंने अपने उस साथी से संपर्क किया जो कि भगवान की कृपा से परमानेंट प्रोफेसर भी हैं, लेकिन ज्ञान इतना भी नहीं कि 2 संस्कृत की पंक्तियां भी लिख सकें!

 उन्होंने मुझे फोन किया, मैंने मन में सोचा कि इनका तो कभी फोन आता नहीं आज कैसे?

 २-४ शब्दों में मेरे कुशल-क्षेम की बात करने के बाद (मैं सोच रहा था कि कब अपनी पांइट की बात पर आते हैं) तभी उन्होंने बताया कि ऐसे-ऐसे बात है !

अब उनको सीमित समय में ही १५-२० श्लोक चाहिएं, वो भी अर्थ सहित !

मेरे लिए यह कुछ भी एक बड़ी चीज नहीं,

 लेकिन मुख्य बात यह है कि दूसरा व्यक्ति किसी कार्य में व्यस्त है या नहीं! उसका खुद का भी कुछ काम है या नहीं! - ऐसा सोचे बिना, सिर्फ अपने ही मतलब की बात करना कहां तक उचित है?

जबकि इन कामों में बहुत सोचना भी पड़ता है , और बहुत समय नष्ट होता है! प्रतिभा तो अलग रही! ज्ञान अलग रहा !

लेकिन इसका हमें कोई आर्थिक लाभ नहीं!

 जबकि अर्थ प्रधान युग है!

 मनुष्य को एक कप चाय भी ₹10 खर्च करने के बाद मिलती है !

जहां महाराज भोज के जमाने में १-१ श्लोक पर लाखों रुपए कवियों को मिलते थे , आज लाखों श्लोक लिखने के बाद भी एक रुपया हासिल नहीं है!

 खैर, अगर कोई अच्छे विषय पर कविता लिखने के लिए कहे, तो अच्छी बात है !

अरे भाई , हम मनुष्य हैं! मिट्टी के बने हुए!
 एक क्षण का भरोसा नहीं! आज हैं, कल नहीं!

 मिट्टी के मनुष्य के विषय में इधर मैं श्लोक लिखकर हटा , और उधर वह तुरंत ही मर गया-  तो उसका क्या फायदा ?

इसीलिए मैं अधिकतर देवताओं,शास्त्रों के ही संबंध में कविताएं लिखना पसंद करता हूं !

प्रकृति संबंधी, मनुष्य की चेतना, भावनात्मकता, सामाजिक परिस्थितियां- इत्यादि संबंधों में कविताएं एक बहुत लंबे समय तक चलने वाली हैं!

 एक बात और - तपस्वी और महात्माओं के लिए भी! मैं उनके जीवन को संस्कृत में बांधना अवश्य पसंद करता हूं!

 उसका कारण है , कि उनसे प्रेरित होकर अन्य लोग भी अपने जीवन को इन महान् कार्यों के लिए समर्पित कर सकें ! तपस्या के लिए समर्पित कर सकें।

 अगर मैंने कोई आज तक व्यक्तिपरक काव्य लिखा है, तो वह निश्चित ही कोई अत्यंत विशिष्ट विद्वान्, तपस्वी, महात्मा, देशभक्त, देशभक्त, या वीर रहा होगा!

 धन के लोभ में मैंने आज तक कोई काव्य किसी के लिए नहीं लिखा!

और कभी ऐसा करना भी नहीं चाहता!

 इसलिए जो झूठी प्रशंसा करवाने वाले लोग हैं, वे कृपया दूर ही रहें।

 सब के विषय में मेरे एक से विचार नहीं! जो चीज मुझे पसंद नहीं वह मैं कभी कर नहीं सकता!
*********
हिमांशु गौड़

मौनं सर्वत्र साधनम्

  सहनं वै तप: प्रोक्तं, मौनं सर्वत्र साधनम्।

जायते स सुखी नूनं पालयेद्यस्तथा व्रतम्
 सहनेन तपस्याग्निर्वर्धते ब्राह्मणस्य तु।
क्रोधेन चैव शापेन सर्वं नश्यति तत्क्षणात्।
 क्षमया भूर्महत्येषा क्षमयेशो महान् हरि:!
क्षमया जीवनं पुंसां क्षमया लोकसंस्थिति:!
 क्रोधेन क्षणभूतेन नश्यन्ति श्रीलसम्पद:!
क्षमयैव महान् भूत्वा मोदते वीर्यवान् भुवि।
 काव्यान्यद्य स्वतन्त्राणि बाल:! भान्तीव मे नहि।
कवयस्स्वार्थसंसिद्ध्यै लिखन्तीह यथा तथा।
शतं यद्घटिकामात्रे लिखन्ति कवयश्च ते,
नाधुना लोकिता: लोके, ये जातास्ते दिवङ्गता:
 केचित्स्वकार्यकुशला केचित्परहितावहा:
लोकेस्मिन्नैककार्येषु चेन्द्रियार्थेषु तत्परा:
 केचिद्धनाय जीवन्ति केचिद्भोगाय केवलं,
जीवेद्यश्चात्मलब्ध्यै तज्जीवनं धन्यतां व्रजेत्
मधुवाक्यप्रदानेन सर्वे तृप्यन्ति मानवा:
तस्मान्मधुरता देया सर्वं मधुमयं भवेत्


कुछ ऐसे भी लोग यहां पर - हिन्दी कविता हिमांशु गौड़

 कुछ ऐसे भी लोग यहां पर

********
बाहर से जितने सुलझे हैं,
अंदर से उतने उलझे हैं 
कुछ ऐसे भी लोग यहां पर!

बाहर से तो सरल परन्तु
दिल में भरा गरल है किंतु

कहते रहते हैं दिन भर जो 
तुभ्यं सर्वशुभानि सन्तु
 
इनका बस जो चले करा दें
अन्त्येष्टि की क्रिया यहीं पर,
कहते रहते हैं मुंह पर तो
तुम हो दोस्त, हमारे बंधु!

बाहर से जो गाय से भोले 
भीतर महा विषैले जंतु
छली घात करने वाले हैं
नरपिशाच ये क्रूर घुमंतू

तुड़वाते हैं प्रेम का रिश्ता
बंधवाते नफ़रत का तन्तु

अच्छी बातों में बाधा बन
करते हैं किन्तु व परन्तु

सर्वेभ्योऽपि विषं प्रदद्यात्
मह्यं सुधां प्रदेहि किन्तु!
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हिमांशु गौड़
१०:२३ रात्रि
०७/०१/२०२२

उसे छांव का पता ही क्या, हिन्दी कविता हिमांशु गौड़

 उसे छांव का पता ही क्या, के जो धूप में चला नहीं,

उसे बारिशों की ना कद्र है, के तपन में जो जला नहीं 

है उम्मीद पे ही कायनात टिकी तू क्यों मचल रहा,
है कोई भी ऐसा ग़म नहीं, जो कि वक्त से मिटा नहीं

ये जुनूने आफ़ताब है, इसे क्या कोई मिटाएगा,
सौ काली रातें भले ही हों, सुबहे-उज़ाला झुका नहीं,

जो अंधेरों में रहा नहीं, उसे रोशनी की न कद्र है,
क्या प्यास को जानेगा वो, सहरा में जो जिआ नहीं

बनते हैं सब ही देवता, अमरित पिए जीते हैं जो,
क्या शिव को पहचाना कि जिसने, विष कभी पिआ नहीं!

नहीं लफ्ज़ कोई उस हकीकत को बयां करता जिसे,
कहते सभी जज़्बात हैं, ज़ाहिर कभी हुआ नहीं!

मैं कि हूं ये पुरवाई हवा यादों को जिंदा रखती जो,
आंधी से वक्त की फैलता, ऐसा मैं कोई धुंआ नहीं!
******
हिमांशु गौड़ 

|| बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि || संस्कृत कविता हिमांशु गौड़

 || बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि ||

********
यत्र स्मृतिर्वेदविदां गुरूणां
श्रीविष्ण्वाश्रमाणां च तपांसि यत्र
सहस्रविद्वद्बटुकैर्वृतं यद्
बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि||१||

यजुष्प्रियाभ्यासरतोदराग्निर्
जाज्वल्यते पाठगतश्रमाच्च
ततस्स खादेच्छतशष्कुलीर्वै
यत्र, त्यजामो न बिहारघट्टम्||२||

यत्रैकतो नारवरी विभाति
श्रीकार्णवासी नगरी प्रतीच्यां
शब्दप्रियाणां श्रुतिसंहितानां
बिहारघट्टं नहि सन्त्यजामि||३||

श्रीश्यामबाबागुरुदर्शनानि
श्रीमत्प्रबोधाश्रमदेशनानि
गाङ्गानि वारीण्यपि संल्लभेरन्
यत्र त्यजामो न बिहारघट्टम्||४||

यत: प्रयामो ह्यपि रामघट्टं
यतो नमामोऽप्यथ वृद्धिकेशीं
भूतेश्वरं चैव यतो व्रजामो
बिहारघट्टं नहि सन्त्यजाम:||५||

यत्रास्ति मेऽवस्थिविनीतवर्यो
गुरुर्वशिष्ठोस्ति दिवाकरश्च
भातीह भङ्गस्य वनस्पतिश्री:
शिवार्पणाय स्वमुखार्पणाय||६||

घण्टास्वनो यत्र च भोजनाय
स्वरोऽत्र गुञ्जेद्द्विज! हर्षणाय
पठेम गङ्गालहरीं प्रभाते 
श्रयेम तस्माच्च बिहारघट्टम्||७||
******
हिमांशुर्गौड:
०८:२५ रात्रौ
२८/०२/२०२३

अंबर भी शोक मनाता है! हिन्दी कविता हिमांशु गौड़

 अंबर भी शोक मनाता है!

******
लेकिन अंबर में प्राण कहां,
 है भावगंध को घ्राण कहां, 
इस विरह, वियोगी जीवन को,
भावुक मन ना सह पाता है, 
हो भरी भीड़ इस दुनियां में,
पर किसी से न कह पाता है

पत्थर हो जाते हैं वो दिल, 
जीते जी वो मर जाता है, 
जिसका जिससे जो बिछड़ गया,
 फिर कहां वह मिल पाता है। 
मानव, पशु पक्षी भी अपनों 
की याद में रोते रहते हैं,

तारे जब टूटे हैं नभ से, 
ना हमें दीख वह पाता है, 
बारिश कर करके याद उन्हें, 
अंबर भी शोक मनाता है।

 बच्चन जी की इस कविता का
 उद्देश्य अलग है, पर दिल से 
जो उठा भाव का वेग अभी,
वो कौन रोक फिर पाता है,

मैं फिर कहता हूं सच मानो,
हर अपने बिछड़े की खातिर,
मानव की तो है बात ही क्या
अंबर भी शोक मनाता है!
******
हिमांशु गौड़
०५:१३ शाम
१७/०३/२०२३

देव श्रीगणेश

 फिल्म अग्निपथ के गीत "देवा श्रीगणेशा" का संस्कृत अनुवाद

*****
ज्वालास्स्फुरन्तीव अक्ष्णोश्च यस्या-
ऽपि हृदये ते नाम प्रभो!
किं चिन्तनं तस्य आरम्भता का,
तथा कास्तु परिणामता

भूमि-रम्बर-सुतारास्
तं नमन्तीव सर्वे,

भीतिरस्माद् बिभेति
यस्य रक्षां गणेश!
कुर्यादाशीस्तव!

हे देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश ||१||

तव भक्तेर्हि वरदानतां
योऽर्जयेत्, सोऽस्ति धनवान् जन:
तस्य नौका तटं याति नो,
देव! त्वत्तोऽनभिज्ञोऽस्ति यो!

मूषकस्तेऽस्ति रे वाहनं
सर्वलोकस्त्वया रक्ष्यते
पापवात: प्रचण्डो यदि
क्वचिज्ज्योतिर्न ते ह्रीयते

स्वस्य भाग्यस्य सोऽसौ 
धाता स्वयमेव जात:
विस्मृत्याखिलविश्वं 
येन केनापि गीतं 
नाम दिव्यं तव

हे देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश ||२||

त्वद्धूलेस्तिलकमाचरन्
देव! यस्त्वज्जनो जीवतात्
नामृताय स्पृहावान् स यो
भीतिहीनो विषं सम्पिबेत्

विघ्नराट्! ते महिम्नस्तले
कालयानस्य चक्रं चलेत्
प्रतिशोधस्य स्फुल्लिङ्गनै:
रावणस्यापि लङ्का दहेत्

शत्रुसेनासहस्रं
जीयते त्वत्समर्चारतेन
पर्वतीभूयते तत्कणोऽपि, 
श्लोकितं यत्र गीतं त्वदीयं
नाम पुण्यं शुभम्

हे देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश!
देव! श्रीगणेश ||३||
***
हिमांशुर्गौड:
१:२० मध्याह्ने
०७/०७/२१

वित्तेन हीना: पशुभिस्समाना:? संस्कृतकाव्यम् हिमांशुगौड़

 वित्तेन हीना: पशुभिस्समाना:?


[ कियानपि विद्वान्स्यात् स धनवशगीभूय धनिनां दिवानिशं सेवारतो जायते,  क्वचित्तु परिस्थितिजालशतबद्धतया जीवनस्य मूलभूतसुखेभ्योऽपि वञ्चितस्स कथं जीवति, तदत्र वर्णितम्। एते तात्कालिकरूपेणोदितविचारास्सन्ति, अन्यकालेऽस्मात्पृथगपि विचारकल्प उदेतुं शक्नोति। ]
***********
कण्ठे समस्तं भवताच्च शास्त्रं
श्रुतिर्वसेद्वाचि सदा प्रगल्भा
कामं न किञ्चिल्लभते युवत्त्वे
धनेन हीना: पशुभिस्समाना:

आज्ञां धनाढ्यस्य शिरोरुहा स्यात्
तत्कार्यमग्नो‌ऽस्तु सदैव विद्वान्
वृत्तिं ददातीति प्रभुर्मदीयो
विद्यायुतास्तद्वशगा भवन्ति

परस्परं चापि विवादयन्ति
बुधान् स्वदासानिव वर्तयन्तस्
तेऽपीह चाटूक्तिवचांसि होक्त्वा
वित्तेशपादौ मुहुरालिहन्ति

ह्यतो धनस्यैव विभा समन्तात्

मन्त्री भवेत् कोटिधनैस्सुयुक्त:
तद्दासतां याति समस्तराज्यं
तदिङ्गितेनैव वहेच्च वायु:
किं कौलपत्यं किमु बौद्धिकत्वम्!

आदेशतो यस्य समस्तशिक्षा
चलेद् व्यवस्था नयताऽपि वश्या
मूर्खस्स हस्ताक्षरशून्यवान् सन्
ऐश्वर्यमग्नो भुवि दृश्यतेऽहो!

प्रवक्तृतां वाञ्छति यश्च मादृक्
समं वय: कष्टमुखे निपात्य
ऊढ्वा च शास्त्राण्यपि दुष्कराणि
क्व वित्तलेश: क्व च भोगलेश:

आङ्ग्लैर्लसन्तं रमयन्ति नार्य:
श्रीसंस्कृतज्ञं पितृवच्चरन्ति
सम्मानता, नैव च कामदृष्टि:
पठेत्क एवं खलु देवभाषाम्?

ईर्ष्यामहाद्वेषरता बुधाश्च
परस्परं दोषसमीक्षकाश्च
परस्य गुण्यं न वदन्ति तस्माद्
रतिर्हि कस्याऽस्त्विह देववाचि?

न वित्तलेशो न च कामलेशो
न सम्पदां पश्यतु हाऽऽननानि
दिवानिशं वह्निरिवोत्तपेद्यस् 
स शास्त्रकाव्यादिपथव्रतस्स्यात्
*****
हिमांशुर्गौड:
११:२६ मध्याह्न 
०७/०५/२०२३

सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयम् - संस्कृतगीतम्

 सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयं

**********
सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयं

स्वभक्त-मनोकामनापूरिणीयं
सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयं

स्मृता संस्तुता वैदिकैर्ज्ञाननिष्ठै:
सदा वन्दिता लौकिकै: कर्मनिष्ठै:
बिभर्त्त्यर्थदानि स्वरूपाणि सेयं
सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयं

क्वचित् पुत्रदानं ददातीप्सितं सा
क्वचित् कञ्चनं यच्छति प्रीतियुक्तान्
क्वचित् प्रेमिकान् प्रापयेद् बान्धवांश्च
न किं किं करोति प्रसन्ना सदेयं

सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयं
सहारनपुरे भाति शाकम्भरीयं

पुराणेषु ते सत्कथा सच्चरित्रं
समुद्गुम्फितं देवि प्रीतं सुचित्रं
कृपां मे कुरु स्वागतस्ते गृहेऽहं
शरण्यं प्रपाहि सुतं चाश्रुनेत्रं

मदीये हृदि भाति शाकम्भरीयं
मदीये हृदि भाति शाकम्भरीयं

इदं लड्डुकं नारिकेलं गृहाण
सुमानां सुगन्धं सुमालं गृहाण
हरिच्छाटिकां देवि दत्तां गृहाण
प्रसन्ना ऽ स्मदीयं कुटुम्बं प्रपाहि


सहारनपुरे भासि शाकम्भरि त्वं
सहारनपुरे भासि शाकम्भरि त्वं

मदीये हृदि भासि शाकम्भरि त्वं
मदीये हृदि भासि शाकम्भरि त्वं


स्वाभिमान - हिन्दी कविता

 स्वाभिमान का सौदा कर के जिंदा नहीं रहा जाता है 

अधिक देर तक जीवन में शर्मिंदा नहीं रहा जाता है 


भूल सभी करते हैं और वो धुलती पश्चात्ताप से है

विजय-वरण के इच्छुक का संघर्ष तो अपने आप से है


धन से ही चलता है जीवन, तिनका तिनका धन से है

भाग्य,बुद्धि से मिलता धन, और एकनिष्ठ शुभ मन से है


लेकिन धन की खातिर भी अपमान नहीं सहा जाता है 

स्वाभिमान का सौदा करके जिंदा नहीं रहा जाता है


नष्ट करो ब्रह्माण्ड समूचा, जल जाए दुनियां सारी

सौ सौ बार कटो खड्गों से, मिट जाने की हो तैयारी,


तभी एकछत्र पौरुष से पृथ्वी का भोग किया जाता है,

कायरता को अपनाकर के जीवित नहीं रहा जाता है,


शक्ति मात्र को सत्य मानकर जीवन को न्योछावर कर

बुद्धि तपस्या देवी श्रद्धा से पूरा जीवन भी जी कर


शक्तिवाद का मात्र आचरण राजासन दिलवाता है

मात्र भावना और दया से सन्तासन मिल पाता है


शक्तिवाद का खंडन, मण्डनमिश्र विप्र के जेता का

चतुष्पीठ के संस्थापक, शंकर का, युगप्रणेता का


क्षण भर में ही शक्तिहीन कर, मार्ग यह दिखलाता है

शक्तिहीन हो जीवन में फिर जीवित नहीं रहा जाता है।


स्वाभिमान का सौदा करके जीवित नहीं रहा जाता है।


प्राप्त को पर्याप्त मानो! हिन्दी कविता हिमांशु गौड़

 प्राप्त को पर्याप्त मानो!

*********

मन हो यदि उद्भ्रांत मानो, बहुत ही अशांत मानो

दौड़ते धन के लिए जो, प्राप्त को पर्याप्त मानो


थोड़ा सा जीवन-मधु यह, युवा-तन मुग्धा वधू यह,

ग्राम का आराम-गृह यह, इसी को संसार जानो

प्राप्त को पर्याप्त मानो


बन गये यद्यपि विजेता, विश्व के एकमात्र नेता 

युग के या उद्भट प्रणेता, आंख मूंदोंगे तो सब कुछ

खो गया साम्राज्य मानो, प्राप्त को पर्याप्त मानो


मैं नहीं कहता कि भूखे मरो, तुम कर्तव्य छोड़ो

मैं नहीं कहता कि धन से, तुम कभी आनन सिकोड़ो

हाय माया में ना अपना जनम घुट घुट कर गुजारो

प्राप्त को पर्याप्त मानो 


किंतु सब कुछ खेल सा है, लगता अब बेमेल सा है

सिसकती सी ज़िंदगी की, अवधि कुछ समाप्त जानो

प्राप्त को पर्याप्त मानो


काम जो कुछ हैं अधूरे, कर सके ना जिन्हें पूरे

उनका पश्चात्ताप कैसा, हृदय में सन्ताप कैसा 

जितना भी तुम कर सके हो, उसे ही सत्यार्थ मानो

प्राप्त को पर्याप्त मानो 


झूठी रिश्तेदारियों से, तुम भी कुछ दूरी बना लो

सर्दियों में चाहतों की ऊन का कंबल सिला लो


जो तुम्हें दे दिल उसे तुम, इश्के-घर दिलबर बना लो

हो अंधेरा चाहे जितना, आस का दीपक जला लो


जो तुम्हारे अपने रूठें, सौ दफ़ा उनको मना लो

बीत जाए ना उमर यह, जल्दी कोई फैसला लो


जिंदगी को कर दिया गमगीन इस बद्किस्मती ने

अब मिले मौके को ही खुशकिस्मती सरगम बना लो


देखो ना नासूर बन जाए है दिल का जख्म ये

इश्के-मोहब्बत का कोई, इसपे फिर मरहम लगा लो 


इक गई तो ग़म ही क्या, आतीं बहारें फिर नई

फूल मुरझाए तो क्या, खिल जाती फिर कलियां नई

****

हिमांशु गौड़

०९:२३ रात्रि

१४/०२/२०२३


||श्रीमहाराणाप्रतापाभिनन्दनम्|| संस्कृत काव्य, हिमांशु गौड़


*********

प्रतापतापनिष्प्रतापवैरिणो रणे समे,

विहीनजीवना अवारिमीनतां प्रपेदिरे

भयङ्करैश्च खड्गसम्प्रहारणैस्सहस्रशो

द्रुतं श्रुता इवाशुदेहहानिमेव भेजिरे||१||


क्व जीवताद्विलोकितो हि येन रुष्टवीरराट्

दहेद्रिपुं न कं प्रतापनेत्ररोषहव्यवाट्

हरेदसून् क्षणे क्षणे हि हुङ्कृतै: रिपोश्च यो

जयेत्पराक्रमस्स कोऽपि वीरशब्दमूर्तिमान्||२||


उपत्यकाभिरावृते मनोहरे शुभस्थले

शिवैकलिङ्गमन्दिरे स रुद्रसेकतत्पर:

नमश्शिवाय चेति यो जपन्नजस्रमद्भुतं

जघान गोघ्नजातिकान् जयेज्जयस्स मूर्तिमान्||३||


मरुत्पदप्रवाहवाहनश्च यश्च चेतको

हयाधिराट् प्रतापभक्तदेशभक्तिसक्तिमान्

चतुष्पदस्स कोऽप्यशेषकीर्तिवाड्रणेऽग्रग:

प्रतापवाहनो जयेत्स वीरवाहनो जयेत्||४||


अशेषभारतप्रजेत्रखर्वगर्वनाशनो

भुजङ्गमाक्षरीलिपिप्रपाठिपाठनाशन:

स्वदेशमानरक्षणकृतप्रणस्तृणाशनो

जयेज्जयप्रियस्मृतिस्सुरालयाप्तशासन:||५||

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हिमांशुर्गौड:

१०:३७ रात्रौ,

२३/०४/२०२२


वीता दिवसाः - संस्कृत कविता, हिमांशु गौड़

डॉ.महेशनारायणशास्त्रिणां - वीता दिवसा मुहुरहो!जातु न क्वचिदायान्ति - इत्येकां काव्यपङ्क्तिमुत्थाप्य मया स्वविचारैस्सद्यस्स्फुरितैषा काव्यबन्धना कृता। तत्पिबन्तु सहृदया रसमस्याः। अनुभवन्तु चात्र जीवनदृश्यम्।

 

वीता दिवसा मुहुरहो!जातु न क्वचिदायान्ति।

अन्तर्भित्तौ सदा सौख्यदा अद्येवैते विभान्ति


काचिन्नव्यतरङ्गमनोजा यदा वयं नवयूनि

पीतानीव यदा चास्माभिर्वामाधरजमधूनि


यदा वयं चैकान्ते माधवमासे सुमरमणीये

लताविटपकुञ्जे बहुकालं मुदा हृदा कमनीये


यदा वयं च तडागहरितनीरे लोष्ठांश्च क्षिपन्तो

त्वदागमनकालं पश्यन्त: कालं यापितवन्त:


यदा वयं जगतो बहुचिन्ताभ्य: परिमुक्ता आस्म:

यदा वयं वीरैरिव दर्शिततेजस्काश्चैवास्म:


यदा वयं सुहृदां निश्छलप्रेमपयांसि पिबन्तो

यदाश्रमेषु दृष्टा: भ्रामं भ्रामं पूज्यास्सन्त:


यदा कामिनीवीक्षणबाणैर्विद्धं नो मन आसीत्

यदा तया मेलनकाङ्क्षायां व्यपगतरात्रिश्चासीत्


यदा न चासीच्चित्ते काचिद्धनपदलिप्सास्माकं

यदा जगन्नवताम्परियातं ह्यनुभूयते स्माऽस्माभि:


यदा वयं चञ्चच्चन्द्रं तारागणगणनासक्ता:

पश्यन्तश्छदिसीह मुदा राज्ञश्च कथां शृण्वन्त:


शेमहे स्म ग्रामारामे षड्रतुकृतरसं श्रयन्तो

कुर्महे आयान्तु दिनानि पुनस्तानि नृत्यन्त:

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हिमांशुर्गौड:

०९:१७ रात्रौ

०९/०४/२०२३


असौ धूम्रो - संस्कृत काव्य

 असौ धूम्रो व्याप्नोति सर्वतस्

त्वं चैकाकी रहसि अज्ञातदिव्यपन्थानं प्रविष्ट इव


स्वप्नायमानानि दिनानि सन्ति, 

आम्! प्रविशास्मिंल्लोके

नेह पुनरायास्यसि भुवि, इहागत्य


वयं अदृश्या:

वागप्यत्र नोदेति, अव्यक्ता इव वर्तेमहि

कथेयं कथं कथयानि त्वां

एहि देहान्तं कृत्वात्मनो

काचिदाह्वयति वाक् त्वामदृश्या फुस्फुसायमाना

मन्ये, वदेद्यथा कश्चित्कर्णमात्रे


मौनमात्रा वयम्!

 नेत्रैरेवावगन्तुं शक्ष्यसि नो

अपरिचिता वयम्! अस्मल्लोको दूरम्!

वयमिह नास्यामो नेष्याम इमं लोकम्

न वेत्थ यूयं नो रूपं

नामानि लुप्तानि, देहा यथेह तथैव तत्रापि दृक्ष्यन्ते

अथवा पुण्यपापाद्याक्रान्ता विचित्ररूपा वयम्

अथवा भावरूपिणो वयम्

न लक्षणानि लक्ष्याणि वा विद्यन्ते

कथं तद्गृणानि!

शास्त्रैरपि साक्षात्त्वेनादर्शितरूप: , गौणत्वैर्लक्ष्येत तत्पृथक्


कस्त्रायेत तत्र, त्वमेव स्वमनसोज्जनितशक्तिसाहस्रैर्धृतशतरूपो विभासि!

अहो सुरवागायिम्मे गोपयित्री,

न काङ्क्षामि लोकान् आत्मानं दर्शयितुमत इयं कल्पा


क्व यन्ति कुत इहायान्ति कथं जीवमानाश्शतमायानिबद्धास्

सर्वं खल्वाश्चर्यम्

अश्रूयमाणानि जगन्ति, एकाकिनी रहस्यमयी निशा,

क्वचिद्दृश्यादृश्यविभृतरूपशतोसि

हहहा हा हेमानि मद्वाग्रूपाणि

हहा हा हं कोहं अविज्ञातात्मा! चुपानीत्येव रोचे।

शशशश निर्यान्ति तुषारवायुक्लिन्नानि दिवसानि।

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हिमांशुर्गौडो

१०:०२ नैशे 

१३/०४/२०२३


॥अशोक जी सिङ्घल भारतात्मा ॥ (संस्कृत-काव्यम्) हिमांशुगौड़

आतिथ्यसद्भावसुधाभिसक्तो

माहात्म्यलोकेषु सदैव सक्तो

सद्धर्मकार्ये हृदयेन रक्तो

हि-अशोकजीसिङ्घल भारतात्मा॥१॥


अङ्गं च बङ्गं ह्यथवा कलिङ्गं

मद्रश्च कार्णाटकमल्लयालम्

हिमाढ्यदेशो जलधिप्रदेशो

एकीकृतो येन नुमो ह्यशोकम्॥२॥


गङ्गातटं वा यमुनातटं वा

सरस्वतीतीर उतास्तु रम्य:

प्रयागराजेऽस्तु तथा त्रिवेणी

एकत्वनिष्ठोऽस्त्यथ भारतात्मा॥३॥


देशे विदेशे निजधर्मवक्ता

"सङ्घ"स्य शक्ते: परिवर्धको य:

हिन्दूद्धृतौ जीवनदानकर्ता

अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥४॥


अयोध्यया यत्प्रथितं यशश्च

श्रीरामसन्मन्दिरनिर्मितिश्च

हिन्दुत्ववादस्य यशस्तनोति

अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥५॥


प्राणप्रिया वै खलु मानवाश्च

धर्मप्रियास्सन्ति महात्मलोका:

प्राणप्रमोहं च विहाय रामा-

लयस्य कार्ये रतभारतात्मा॥६॥


जीवन्ति केचिद्धि धनार्जनाय

परे तु केचिद्यशसोऽर्जनाय

धर्मार्जनायापि परे प्रलग्ना:

रामार्जनायास्ति च भारतात्मा॥७॥


यत्संस्कृतेर्मूलमहो गरीयं

यज्जीवनं सौख्यमये युनक्ति

तद्भारतस्यान्तर्हितधर्मरूपं

प्रसारयेत् तत् खलु भारतात्मा॥८॥


वेदेषु सर्वं निहितं सदैव

त्रिकालसत्यं च सदैव वेदा:

तद्रक्षणाय प्रथितप्रयत्नो

अशोकजीसिङ्घलभारतात्मा॥९॥


वेदाच्च शास्त्राणि समुद्भवन्ति

विज्ञानमूला श्रुतिरेव मुख्या

नारायणान्नि:श्वसितस्य रक्षा

तद्ब्राह्मणानां च सदैव धर्म:॥१०॥


तस्यैव कार्यस्य सुनिश्चयार्थं

विप्रप्रसादप्रतिवर्धनार्थं

सम्माननार्थं ननु वैदिकानां

समुद्भवेद् योऽखिलभारतात्मा॥११॥


सङ्कल्पवीरो भुवि कर्मनिष्ठो

जातोऽद्भुतो वेदनिधिर्वरिष्ठो

बुद्ध्या तथा योजनया गरिष्ठश्

शिष्टो ह्यशोकोऽखिलभारतात्मा॥१२॥


मोहान्धकारे निपतन्ति जीवा:

पापेषु कर्मस्वपि खिन्नचित्ता:

कथं विरामं लभतां च शान्तिं

रामे रमध्वं भवहं भजध्वम्॥१३॥


सन्मार्गमेवं परिसंश्रयध्वं

सर्वं हनूमत्प्रभवे कुरुध्वं

एधध्वमर्थे नहि रे ह्यनर्थे

स्पर्धध्वमध्वन्यथ रामनाम्न:॥१४॥



................प्रवर्तमानम्


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