कलौ विप्रास्तपोहीनाश्शापं दातुं न सक्षमाः।
अतो दुष्टाः प्रवर्धन्ते बिभ्यतीह न मानुषाः।।
- कलियुग में ब्राह्मण तप से हीन हैं, शाप दे नहीं सकते इसलिए दुष्ट लोग बढ़ रहे है, और लोग ब्राह्मण से डरते नहीं हैं ।।
अन्यथा दुर्वासा ऋषि ने सबको शाप दे दे कर तप की शक्ति का वर्चस्व दिखा दिया था ।।
Tuesday, 6 August 2019
कलौ विप्रा: ।। हिमांशु गौड़।। संस्कृत श्लोक।।
मत समझो।। हिन्दी कविता।। हिमांशु गौड।।
मत समझो स्वयं को जरा भी हीन
अगर खो गई है तुम्हारी कौपीन
छा रही है तुमपे आज निराशा
क्योंकि नहीं मिला है तुम्हें तान्त्रिक दुर्वासा
वह कभी नही गया था काशी
तालिमनगर वालो ने समझा था उसे अन्धविश्वासी
राहुल साङ्कृत्यायन बड़ा घुमक्कड़ रहता था
बाबा, शैव पुरुष होकर भी फक्कड़ रहता था
अचानक तालाब से निकलकर यक्ष तुम्हारी छाँह पकड़ सकता है
मत जाओ मसान में मुर्दा उठकर तुम्हारी बाँह पकड़ सकता है ।
सिंह,मकर से न डरोगे, न होगी मति विभ्रान्ता
अगर कानों में पहनोगे विष्णुक्रान्ता
बहुत छोटी करवा दी है तुमने अपनी चुटिया
जब से छोड़ी है बाबा की कुटिया
छात्र,बिना स्वाद की सब्जी को भी नमकीन बना सकता है,
छोड़ो मत अंगोछा, कोई भी फाड़कर कौपीन बना सकता है ।
कभी कभी अनेक शास्त्रों के उपाय सुझाते हुए
बाबा, कैयट का तात्पर्य बताते हैं दाढ़ी खुजाते हुए
दन्ती अकेले में बैठा हुआ बहुत जाप करता है
इसीलिए बड़े बड़े भाग्यमालिन्यों को साफ करता है ।
क्यों ना बने आदमी कूकर शूकर
जब आस्तिकता गई भी ना हो उसे छूकर
और पुण्यता गिर जाए चू चूकर ।।
सारी आपत्तियों पर तुम अभेद्य ताला गेर रहे हो,
अगर लौकिक व्यवहारों को छोड़, मजे में माला फेर रहे हो ।
क्योंकि सारी लौकिकता अत्यन्त दुःखो में गिराने वाली है,
संसार से तो शैवी निष्ठा ही तराने वाली है ।।
संस्कृत संवर्धन प्रतिष्ठान के अध्यक्ष के लिए दोहात्मक
बीमारी के कारण अवकाश स्वीकृति के सन्दर्भ में---
मौसम रोज बदल रहा, गर्मी की है मार ।
सर्दी-गर्मी से क्वचित्, हो जाता है बुखार ।।
ऑफिस में एसी चले, बाहर लू भरमार ।
खाँसी नजला हो गया, पीडित करे बुखार ।।
बुधवार की सुबह को, चले हाथ ना पैर।
कैसे करता जागकर, बागानों की सैर।।
ज्वर से भीतर जल रहा, तपता रहा शरीर ।
रुक-रुक कर सिर में मेरे, उठती रहती पीर।।
दूरभाष पर सूचना, यद्यपि दी फैलाय ।
कार्यालय ना गमन पर, कर्महीन कहलाय ।।
श्रीमन् तेज बुखार में, पी रहा हूँ घुट्टी ।
अतः तीन दिन तक मुझे, लेनी पड़ी है छुट्टी ।।
सोमवार की प्रात को, हो गया मैं तैयार ।
बेचैनी हड़कल तुरत, चढ आया बुखार ।।
आज मुहल्ले में मेरे, मर गया बुढ्ढा एक ।
सब हैं वहाँ जुटे हुए, अर्थी दी है टेक ।।
किन्तु इस ज्वर-हेतु ही, आना हुआ अशक्य ।
शरीर की रक्षा करो, कहते हैं चाणक्य ।।
यह विनती स्वीकार कर, दीजे छुट्टी आज ।
मन्ये, कल निश्चय करूँ, कार्यालय के काज ।।
निवेदक – हिमांशु गौड
दिनाङ्क – 07-05-2018
सिर पर मुंडासा ।। हिन्दी कविता।। हिमांशु गौड़।।
सिर पर मुँडासा, माथे पर त्रिपुण्ड लगाया है........
तुम्हारा ये अन्दाज मुझे बहुत भाया है........
सीताराम बाबा-आश्रम पर तो गये हो बहुत बार........
क्या तुमने टाटिया बाबा का भण्डारा खाया है.......
ज़रा भी मत करना दान दक्षिणा में शरम .......
अगर करते हो पाण्डित्य करम........
क्यों छुपाओगे भला तुम अपनी चुटिया........
क्या तुमने चुराई है किसी की लुटिया.......
अरे ये तो हमारे स्वाभिमान की पहचान है........
वेदाचार्यों की एक शान है.........
ये ब्राह्मण ही तो राष्ट्र की जान हैं..........
जनेऊ और चुटिया पर ही तो हमें अभिमान है........
गरज़ के बोलो मन्त्र, कि फूट जाएँ अधर्म के कान.......
चिल्ला चिल्ला कर कहो- जय हनुमान् जय हनुमान्........
आज तक तुमने वेदों का रहस्य जाना ही नही .......
अगर शिव को गुरु माना ही नहीं...........
चाहे धोती लाँघ की पहनो या पहनों कटिवस्त्र........
अँटी में लगा कर रखो, माउज़र नाम का शस्त्र.........
मैं तुमसे बाइक चलाने को मना नहीं करता, पर चलाओ यामहा........
ताकि सब कहें – अहा अहा अहा.....
केवल रासलीला ही नहीं, ताण्डव भी सुनाओ.......
राणा प्रताप की वीरता को जोर जोर से गाओ.........
बेलपत्थर का शर्बत तो बना लिया, इसमें गङ्गाजल भी मिलाओ....
बर्फ डालकर खूब इसे हिलाओ...
कल ना सही लेकिन आज ये बात मान लो ...
मूँड बन रहा है - विज़या छान लो ....
उससे शाम को तुम गङ्गा में तुम खूब तैरोगे........
शास्त्रार्थ में सबको नीचे गेरोगे...
जर्फरी तुर्फरी शब्द वेदों में हैं,इन्हें गुनों.........
अब नरवरी हरहरी सरसरी भी सुनों......
बातों-बातों में ही हज़ारो शास्त्र सुनो, यदि मिल जाएँ गुरु पचौरी.........
उनके साथ कॉलोनी जाओ,तुम्हें भी मिलेंगी कचौरी..........
पैसों की बात ही मत करो,फ्री में ही सारे ग्रन्थ पढाएँगें...........
सिर्फ बाबा के शब्द ही संसार में तुम्हारा सम्मान बढाएँगे......
अजी, लङ्गड़ी-पुरुषों का स्थान है नरवर........
बहुत हुआ, शाब्दिकों! हर हर ।।
लेखनसमयो दिनाङ्कश्च – 1.30 अपराह्णे , 27-05-2018
गाज़ियाबादस्थे स्वगृहे ।।
१०८ कलशों में।। हिन्दी कविता।। हिमांशु गौड
108 कलशो में जल भरवा दो,
इन सब जजमानों का मुंडन करवा दो ।
दिल्ली मैं नहीं मिल रही तो कोई बात नहीं,
वेणीराम गौड़ जी से रुद्री मंगवा लो
अग्नि के लिए माचिस नहीं
अपितु अरणी मंगवा लो ।
क्या तुमको पंचभू-संस्कार आता है,
बताओ यज्ञ-पात्रों में क्या क्या होता है?
जो-जो जजमान हैं उनसे प्रायश्चित करवाओ,
उनके गंजे सिर पर सतिये धरवाओ ।
जनेऊ किस किस ने पहना है
कुर्ता उतार कर दिखाए ,
जिसको तर्पण करना नहीं आता ,
उसको पंडित जी करना सिखाएं ,
स्वाहाकार किस मुद्रा में छोड़ना है ,
मंत्र को कैसे आहुति से जोड़ना है ,
समिधाओं को कैसे तोड़ना है,
नारियल कैसे फोड़ना है ,
ये सब यज्ञ के अंग हैं ,
वेदी बनाने में प्रयुक्त बहुत से रंग हैं ,
सर्वतोभद्र की चौकी सजाओ ,
यज्ञ शुरू होने से पहले शंख बजाओ,
यज्ञशाला में वर्जित है सिले हुए वस्त्र,
कूष्मांड बलि के लिए चाहिए कोई शस्त्र,
यज्ञाचार्य बुलाने को नई कार मंगाओ नहीं कोई खटारा,
उपद्रवियों के नियन्त्रण हेतु बुलवा लो नरवर से कटारा,
अगर अच्छे भोजन और दक्षिणा की व्यवस्था ना हो तो यज्ञ करवाओ ही मत,
जीवन में ब्राह्मणकष्ट रूपी पाप भरवाओ ही मत,
क्योंकि यज्ञ सर्वस्व ब्राह्मण पर ही आश्रित है
मंत्र,देवता,परंपरा सब विद्वान् पर ही संश्रित हैं,
इस कलयुग में बड़ा ही मुश्किल है ,
असली यज्ञ-धर्म को निभाना ,
विद्वान तो हैं छुपे हुए ,
ढोंगियों का है जमाना ।।
हर हर महादेव ।।
यज्ञ पुरुष भगवान की जय ।।
वर्षर्तौ चायपानम् ।। संस्कृत श्लोक।। हिमांशु गौड
वर्षतौ चायपानं स्याच्चेदार्द्रकसंयुतम् ।
साफल्यं मोद्यवर्चस्वं श्रीयतेsश्वत्थपार्श्वगै:।।
हितोपदेश
हितोपदेश-
मनुष्य संसार में जैसे वह अजर और अमर है ऐसा सोचकर विद्या और धन का अर्जन करें लेकिन जैसे मौत ने बाल पकड़ रखे हैं ऐसा सोच कर धर्म का पालन करें ।।
तुम कैय्यट हो ।। हिमांशु गौड़
साहित्यशास्त्र के लोगों के ,
लिए कवे! तुम मम्मट हो
वैदिक लोगों के लिए सदा
निश्चय ही तुम उव्वट हो
शब्द शास्त्र की सभा जहां
होती हो सिंह दहाड़ों से ,
नागेश नहीं , ना भट्टोजी ,
तुम कैयट कैयट कैयट हो !!!
ऐसा कैसे कह सकते आप।। हिन्दी कविता।। हिमांशु गौड।।
यजमानों को बहका करके
यदि झूठे ग्रह बता कर के
किंचित् भी ना कर के जाप
हमको तो नहीं लगता है पाप
ऐसा कैसे कह सकते आप।।१।।
संध्या वंदन से हीन रहे
रोली चंदन से हीन रहे
सज्जन लोगों के मन को सदा
वाणी से करते विदीर्ण रहे
इतना सब कुछ करने पर भी
भगवान हमें कर देगा माफ
ऐसा कैसे कह सकते आप।।२।।
होटल का भोजन करके भी
नित गमन अगम्या करके भी
हम तो हैं बिल्कुल शुद्ध साफ
ऐसा कैसे कह सकते आप।।३।।
शास्त्रीय मार्ग को छोड़ चुके
जीवन को बिल्कुल मोड़ चुके
आधुनिकता में रहकर जो
हर एक नियम को तोड़ चुके
इतना सब कुछ हो कर के भी
मेरा जीवन है पाक साफ
ऐसा कैसे कह सकते आप।।४।।
ना विष्णु मंत्र ना रुद्र मंत्र
ना गायत्री का जाप किया
लौकिकता में ही रमे रहे
नीचे जीवन का ग्राफ किया
आधे बाबा आधे बाबू
ये कैसे हो तुम हाफ हाफ।।५।।
चूषण अचोष्य का करते हो
भोजन अभक्ष्य का करते हो
ना मर्म शास्त्र का जाना है
फिर खुद को पंडित माना है
ऋषियों का ना लगे शाप
ऐसा कैसे कह सकते आप।।६।।
(सन् 2013 में बनाई गई कविता है जो सबसे पहले बाबागुरुजी को सुनाई थी उसके बाद 2013 की 5 -6 कविताएं और भी हैं)
सोच सोच कर।। हिन्दी कविता।। हिमांशु गौड़।।
कहना पड़ता है सब कुछ,
खुलकर कहना मुश्किल है,
हंसना रोना मुश्किल है,
सांसों की इस माला का ,
कोई नहीं विश्वास,
फिर भी,
जीना मरना मुश्किल है।।१।।
ऐसे वैसे कैसे कैसे
लोगों से भरी हुई है राहें
भरे हुए बाजार
भरे हुए चौराहे
आना जाना मुश्किल है ।।२।।
मिलते हैं हर कदम पर
खुशियों से जलने वाले
हंसना गाना मुश्किल है
दिल बहलाना मुश्किल है ।।३।।
अपनी-अपनी सब कहते
बात सुनाना मुश्किल है ।
रोकर सुन लेते हैं बातें
हंसकर फिर सब में फैलाते
ऐसे आलम में लोगों को
दर्द बताना मुश्किल है
हाल सुनाना मुश्किल है।।४।।
टेढ़ी दुनिया में सीधी
चाल चलाना मुश्किल है
झूठे लोगों में सच की
दाल गलाना मुश्किल है।।५।।
बालों को नुकसान
आजकल शैंपू से
गंजी होती दुनियां में,
बाल बचाना मुश्किल है
तेल लगाना मुश्किल है।।६।।
अपराह्णे ३:१०।।
गाजियाबादे।।
ननकू : हिमांशु गौड: आख्यान
बाबा गुरु जी जिस तरह से उसे पढ़ाते थे वह उसी तरह से कंठस्थ कर के उन्हें सुना देता था ।
इस तरह से वह उस संपूर्ण विद्या नगरी का होनहार शाब्दिक था बाबागुरुजी का उससे बड़ा प्रेम था ।
यद्यपि वह बहुत ही चंचल था वह नए-नए कौतुक करता था लेकिन फिर भी अपनी अत्यंत तीव्र बुद्धि के कारण वह व्याकरण के आचार्य काशी में प्रख्यात और अधुना नरवर के व्याकरण पढ़ाने वाले श्री ज्ञानेंद्र आचार्य का भी अत्यंत प्रिय होने के साथ-साथ पढ़ने वाला शिष्य था ।
ज्ञानेंद्र आचार्य उसके विषय में सदा यह कहते थे कि ननकू तो बना बनाया ही विद्वान है ।
इसको तो बस अपने संस्कारों का उदय मात्र करना है ।
इस तरह से मनुष्य अपने पूर्व पुण्यों के आधार पर इस जन्म में तीक्ष्ण बुद्धि को प्राप्त करता है और उससे ही वह शास्त्रों का वैभव प्राप्त कर सकता है लेकिन यह सब पुण्य पर ही आधारित है ।
कोई कोई तीव्र बुद्धि का होते हुए भी विद्वान् नहीं बन पाता लेकिन कोई साधारण बुद्धि का होकर भी विद्वत्ता के चमत्कारों को इस संसार में दिखाता है ,
और अपनी सरस्वती के अनुसार नाम कमाता है धन कमाता है , यश कमाता है, बड़ों का आशीर्वाद पाता है और ईश्वर के गुण गाता है।
नरवर की पुण्य धरा पर एक से एक प्रतिभाशाली छात्र आकर व्याकरण शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करते और गंगाजल पीकर अपनी बुद्धि को निर्मल करते थे लेकिन साथ ही साथ एक ऐसा भी कारण था जो छात्र की उन्नति में बाधक था उसका नाम था- अनुष्ठान ।
अनुष्ठानों में लगा रहने के कारण बहुत सारे प्रतिभाशाली छात्र भी अपने जीवन से बेजार और बेकार हो गए ।
वे खुद अपनी विद्या को नष्ट कर बैठे और अपने जीवन में कष्ट भर बैठे।
अपने गरीब घर की मजबूरियों के चलते ब्राह्मणों के बच्चे ना चाहते हुए भी जजमानों के घर जा कर , पंडिताई करने को विवश होते हैं और बेचारे इसी चक्कर में अपने शास्त्रों का ज्ञान भूल जाते हैं , और वह फिर सही समय पर अपना कैरियर नहीं बना पाते।
जिससे उनका जीवन बड़ा ही कष्टमय हो जाता है दूसरी तरफ आर्य समाजी लोग जिनमें अधिकतर गैर ब्राह्मण जाति के ही होते हैं उन लोगों को मात्र कभी-कभी यज्ञ ही करना होता है वह भी आर्य समाज के प्रचार के लिए आते हैं ।
वे पढ़ने की उम्र में भयंकर पढ़ाई करते हैं, जिससे वह स्नातक स्तर तक अच्छी पढ़ाई करके जल्दी से सरकारी नौकरी को प्राप्त कर लेते हैं ।
ब्राह्मणवादी परंपरा में चलने वाले ब्राह्मणों! अभी भी संभल जाओ ।
वरना पूरी जिंदगी सामग्री छोड़ने से अच्छा है शास्त्री तक बढ़िया करके पढ़ाई करना एवं प्रोफेसर आदि की पद तक पहुंचना एवं व्याकरणशास्त्र की गहराई को छूना एवं नागेश जी के मर्म को जानना और संस्कृत के क्षेत्र में अपना योगदान देना ।
जय जय श्री राधे ।
जय श्री श्याम ।।
।। मौनं मे रोचते।। संस्कृत कविता ।। हिमांशु गौड़।।
प्रायो हि मौनं बहु रोचते मे दिनानि तान्येव निदर्शकानि ।
यदाsप्यहं वा विपिनेsवसं श्रीभृच्छ्रौतकातृप्तमना: सदर्थिन् ।।
तुम भी इस गाथा में।। हिन्दी कविता।। हिमांशु गौड।।
तुम भी इस गाथा में
अपना नाम लिखा लो
अंधेरे के प्रेतों से
अपनी ताल मिला लो
रात कोे जंगलों में घूमा करो
मंत्रों से अपने गले के ताबीजों को चूमा करो
स्वामी अभयानंद तुम्हें
प्रेतों का पता बता सकते हैं
तुम्हारी कई जिज्ञासा मिटा सकते हैं
और वह जो पागल बुड्ढा
गंगा जी पर नाचता है
उसके पागलपन पर मत जाना
और उससे बहुत सारे रहस्य अपनाना
वह दुनिया की दृष्टि में बहुत पागल है
लेकिन जादू की दुनिया का
बहुत बड़ा आमिल है
अपने दिल और दिमाग में ,
दिल की ही सुनना
प्रोफेसरी और पुजारीगिरी में,
पुजारीगिरी को ही चुनना ।।
प्रोफेसरी में कोट पेंट है ,
और अयोग्यों के लिए व्याख्यान हैं
पुजारीगिरी में देवताओं का पूजन
और शास्त्रों का सम्मान है
आधुनिक कोई भी हो व्यवसाय
कितनी भी ज्यादा हो आय
धार्मिकता का है अपना आनंद
खैर जो चाहो वह चुनो,
अपनी अपनी पसंद
यह मेरी कच्ची झोपड़ी
वह तुम्हारा पक्का मकान है
तुम्हारी नेताओं से
मेरी महात्माओं से जान पहचान है
तुम तंत्र की ऐसी शक्तियों को
क्यों नहीं अर्जित कर लेते
जो एक क्षण में कुछ भी कर सकें
समंदर में रेत और
रेत में समंदर भर सकें
कल वह बाबा मुझसे बोला-
तपते हुए सहरा का रेत हो गया हूं
रातों को घूमने वाला प्रेत हो गया हूं ।
।। चल नरवरम् ।। हिन्दी कविता।। हिमांशु गौड़।।
आवाज देती कौमुदी ,
उच्चै: पुकारत शेखरम्
मंजूषा तेरी है रखी
पढ़नी भी है बाकी बची
मत रह गृहं, मत रह गृहम्
चल नरवरं चल नरवरम् ।।१।।
यत् पुण्यदं गंगाजलम्
च्छायास्वपि प्रेतभ्रमम्
श्रीकारिचर्यासौख्यदम्
कहते सभी तत्काल त्वम्
चल नरवरं चल नरवरम् ।।२।।
शिवमन्दिरे घण्टाद्वयम्
वेदस्य चोच्चोच्चारणम्
मन्त्रैस्तथापद्वारणम्
बाबागुरोर्वै यष्टिकम्
आवाहयन्ति द्रुतं द्रुतम्
आ नरवरम् आ नरवरम्।।३।।
यद्ब्रह्मसूत्रमहर्निशं
संचिन्त्यते शिवदं शिवं
श्रीकौण्डभट्टनिबन्धनं
उत्साहयन्ति जनं जनं
चल नरवरं चल नरवरम्।।४।।
मल्लादिखेलनरंजनं
तरणं तथोच्चनिकूर्दनं
शिवसेचनं हरिपूजनं
सम्बोधयन्ति मुहुर्द्विजं
चल नरवरं चल नरवरम्।।५।।
- जून 2012
।। आश्रम के बच्चे ।। हिन्दी कविता ।। हिमांशु गौड़
तब तुम कितना पढ़ते थे ,
बात-बात पर बच्चों से
रोजाना ही लड़ते थे ।
मेरी धोती मेरी लुटिया,
कर्मा ने ही चुराई है ,
लौटा दो मुझको
इस में तुम्हारी भलाई है ।
कर्मा गुस्सा होकर बोला
झूठा दोष लगाते हो,
मेरे पात्र चुरा कर के
मुझ पर ही रौब जमाते हो ।
दोनों में हो चली लड़ाई
सीनातानी हो निकली ,
एक दूसरे की चुटिया की,
खींचातानी हो निकली ।
तब तक आश्रम के स्वामी जी ,
आ गए उनके पास ,
बोले तुमने कर डाला है
इस आश्रम का नाश ।
चुटिया धारी गुस्सा होकर
बोला स्वामी सुनो जरा ,
मेरे गुस्से का कारण भी
अपने मन में गुनों जरा ।
ये जो कर्मा खड़ा सामने ,
घूंसे लात चलाता है ,
सब बच्चों के कपड़े बर्तन
ये ही रोज चुराता है ।
स्वामीजी बोले कर्मा से
तुम भी बात बताओ ,
दोनों अपना चलकर के
बक्सा चेक कराओ ।
धोती लुटिया नहीं मिली
तब खुश हो गया कर्मा ,
लेकिन पुस्तक एक मिली
जिस पर नाम लिखा था धर्मा ।
इसका मतलब धर्मा की
पुस्तक उसने चुराई थी ,
धर्मा भी था खड़ा सामने
जिसकी कर्मा से लड़ाई थी ।
लेकिन कर्मा अपने पक्ष में
बोला एक बात ,
एक बार धर्मा ने मुझ में
मारी थी लात ।
लेकिन मैंने कहा नहीं कुछ
मन में ही यह सोचा ,
डालूंगा इसके जिम्मे
मैं भी कोई लोचा ।
इसीलिए मैंने छत पर से
चुराई है रघुवंश,
धर्मा मुझको ऐसा लगता
जैसे मामा कंस ।।
धर्मा गुस्से में पागल हो
कर्मा पर ही झपट पड़ा ,
कर्मा भी प्रतिरोध रूप में
गुत्थमगुत्था लिपट पड़ा ।।
लेकिन धर्मा तगड़ा था
उसने आम बहुत थे चूसे ,
कर्मा ने भी लगा दिए
चार पांच फिर घूंसे ।।
तब तक स्वामी जी गुस्सा हो
बेंत उठाकर लाए ,
लड़ते हुए दोनों बच्चों में
दो दो बेंत लगाए ।।
बोले मैं तुम दोनों को
अभी भगा सकता हूं ,
बदतमीजी का इसी समय
मजा चखा सकता हूं ।।
तब जाकर कर्मा धर्मा को
आया थोड़ा होश ,
ठंडा पड़ चुका था उनका
लड़ाई का भी जोश ।।
तब स्वामी जी नरम हुए कुछ
और सोच कर बोले ,
प्रेम भाव से रहो सभी
छोड़ो सभी चिचोले ।।
चोरा चोरी छीना झपटी
बंद करो हुड़दंग ,
पढ़ो लिखो विद्वान बनो
और बनो दबंग।।
(नाम काल्पनिक है)
गुरु का लंगड़ : हिन्दी कविता, हिमांशु गौड
विजया छानें नित्य प्रति,
त्रिपुंड्र लगाकर रहते हैं ,
गंगाजल पीते हैं जमके ,
हर-हर करके रहते हैं,
उच्च-क्वालिटी बात करें ये,
बातें नहीं बतंगड़ हैं
हर हर महादेव कर देते ,
ये ही तो गुरु का लंगड़ है।।1।।
आचार्यों सी शैली इनकी ,
जैसे आचार्य दिवाकर की,
महाभाष्य के सूत्र खोल दें,
मानों रश्मि सुधाकर की,
परपक्षी को ना उठने दें,
ऐसे धींग-धिमंगड़ हैं
हर हर महादेव कर देते हैं ,
ये ही तो गुरु का लंगड़ है।।2।।
दूध पिएं , सोएं जमकर ,
कुश्ती-व्यायाम, भी करते हैं ,
गंगा तैेरें, दुर्गापाठी ,
शैवाचार भी करते हैं ,
दैहिक हार्दिक शक्ति इनमें ,
पूरे मल्ल मलंगड़ हैं
हर हर महादेव कर देते हैं,
ये ही तो गुरु का लंगड़ है ।।3।।
भूत प्रेत का वास यहां पर
विचरण करते रात्रि में
दीख जाएं ये कभी कभी
तब भी ना डरते रात्रि में
भूतों की क्या चले यहां तो,
खुद ही भूत-भुतंगड़ हैं
हर हर महादेव कर देते हैं,
ये ही तो गुरु का लंगड़ है ।।4।।
तिमि मत्स्य को सुना किसी ने
और सुना तिमिंगल को
तिमिंगिलों के गिल को सुनते
देखा जंगल मंगल को
वेदादिक से करते मंगल
मानों मूर्त सुमंगल हैं
हर हर महादेव कर देते हैैं
ये ही तो गुरु का लंगड़ है ।।5।।
चंदन की खुशबू से जिनका
सदा महकता है माथा
लोगों को सुनवातें हैं जो
राम चरित मानस गाथा
भागे जिससे बहुत तरह की
क्लेश-ताप की भी बाधा
यमनगरी की बात बताते
यममुत् और यमंगड़ हैं
हर हर महादेव कर देते,
ये ही तो गुरु का लंगड़ है।।6।।
(2013 में लिखा गया)
पुण्य-प्रसून-गन्ध : हिमांशु गौड
पुण्यप्रसूनगन्धैर्हि श्रीयन्तेsत्र शरीरिभि:।
धर्मश्रीप्रदशक्तीनां नदीनां सौख्यदर्शनम् ।।
हिमांशु गौड़ का संस्कृत गद्य काव्य
सोपि कश्चिदाकर्ष्टा नव्यप्रभातानामुड्डीयानिल उच्छलदपोभृदशेषहर्षवीक्ष्यक्षिकस्साक्षितां वरुणस्य ययौ नवनीलोल्लासिभासिस्वर्णरज्जुसज्जिनिमज्जिताम्ब्वम्बुधरकारिणश्शिवसक्तशाक्तामोदचोदोप्सूच्छलत्पपात्पपिप्रियपापतुत्प्रीत: पचौरिप्रशान्तनिलयमभ्यगाच्च।।
दीपदान का महत्व : हिमांशु गौड
कार्तिक में हरिसक्त हो करे दीप का दान
करे दीप का दान, हरि की कथा सुनावे,
श्रद्धा से फल फूल चढ़ा, पूजा करवावे।।
अश्वमेध का काम क्या , तीर्थों में क्यों जाय
सब तीर्थों का फल यहीं , दीपदान से पाय
इस धरती पर है नहीं , पाप कोई अवशिष्ट
दीपदान से जो नहीं , हो सकता हो नष्ट।।
अंधकार से पूर्ण हो जो मंदिर एकांत ,
दीपदान उसमें करो, होओ मत विभ्रान्त।।
विष्णुधाम में जो कोई करता दीपक दान,
गरुडध्वज के लोक को, जावे चढ़ा विमान।।
भीड़ भड़क्के में नहीं होती कोई तपस्या ,
शोर शराबे से सदा , बढ़ती बहुत समस्या ।।
पुण्य-नदी या मंदिरों में, करो प्रदीप प्रदान।।
एक दिन : हिन्दी कविता : हिमांशु गौड
एक दिन मेरे भी बहुत से चेले होंगे
चारों और खुशियों के मेले होंगे
ऐसा सोचकर वह ,
शास्त्रों को पढ़ता रहा
प्रतिदिन विद्वत्ता की
ऊंचाइयों पर चढता रहा
शुक्ल यजुर्वेद को उसने
कंठस्थ कर लिया था
नागेश के ग्रंथों को
हृदयस्थ कर लिया था
दान नहीं लूंगा, अतः
पंडिताई से बचता था
स्वयं के लिए पूजा करना ही,
उसे जंचता था
मोटी सी चुटिया उसके
वैदुष्य की पहचान थी
एकांत में कुटिया, उसके
वैराग्य का प्रतिमान थी
उसके मंत्र बड़े ही तेजस्वी थे
एक एक वाक्य बड़े ओजस्वी थे
लेकिन सबके लिए वह मंत्रों का प्रयोग
करता नहीं था
दान दक्षिणा के लिए
कभी मरता नहीं था
बहुत वर्ष उसनेे गंगाजल पीकर बिता डाले
विनियोग छोड़ते छोड़ते हाथ गला डाले
वह वैदिक विधियों की व्याख्या,
बड़ी विचित्र करता था ,
पुराणों की कथा
बड़ी सचित्र करता था ..
दर्शनशास्त्र उस पर ही खत्म ,
और उससे ही शुरू था
नवयुवक होते हुए भी
वह सबका गुरु था
घमंडी विद्वान उससे बहुत जलते थे
शास्त्रार्थ में हराने को मचलते थे
जबकि वह बिल्कुल आचार विहीन थे
सिर्फ वाणी मात्र से ही शास्त्रप्रवीण थे
धर्मशास्त्र को आचरण में नहीं उतारते थे
बस नागेश की पंक्तियां ही सब पर मारते थे
और किसी भी शास्त्र का उनको नहीं था ज्ञान ,
थोड़े से व्याकरण से ही भरा था अभिमान
लेकिन उनका इस बार,
दिव्यन्धर से पड़ा था उनका पाला ,
गंगा जी के घाट पर जो,
फेर रहा था माला
व्याख्यानों की परंपरा का
रूप बदल डाला था
दिव्यन्धर ने उन सबका
हृद्रूप बदल डाला था
अभिमानों के पुतले वे,
हो गए बहुत चमत्कृत
नरवर की उस पुण्य धरा को,
करके गए नमस्कृत
तपस्वी लोग अक्सर
रहते ही हैं अकेले ,
लंगड़ जमा ही देते हैं आखिर,
बाबा के चेले।।
पंचगृहाणि क्रीत्त्वा - संस्कृत श्लोक : हिमांशु गौड
क्रीत्वा पंचगृहाणि यश्च नगरे सम्पत्तिभिश्शोभते
धृत्वा कोटिशतं च रूप्यकमहो नैकेषु कोशेष्वपि।
वाणिज्यं हि विदेशमार्गशरणं यो वायुयानैरपि
कुर्यात्सोsत्र जनो समस्तमनुजैस्सम्मान्यते लौकिकै:।।
आश्वत्थी छाया - हिमांशु गौड, संस्कृत कविता
आश्वत्थीं चैव शैवीं च च्छायामिच्छामि, शौकरीं
हरिमूर्तिं प्रणम्य,श्रीवारिस्नानसमिच्छुक:।।
नरवर-मंगलम् - हिमांशु गौड
यत्सौरभं सुमनसामनुभूयते वा बाबागुरोस्सकलमेव हि तत्प्रभावात्।।1।।
यूयन्धनेषु परिसक्ततया विनिन्द्याः।
लोभैकपातितधियोऽपि च शास्त्रपाठै-
र्नैवङ्कदापि सुगतिम्परिलब्धुमर्हाः।।2।।
मापद्विनश्यथ न रे पदमानसक्ताः।
वाक्ष्वेव वस्सकलशास्त्रगलज्जलानि
कर्मस्वहो न दधथ स्मरपाशबद्धाः।।3।।
क्काञ्चिद्दयां न तनुतेत्यपि निर्धनेषु।
त्वत्संयमादिगतयःक्व गताःन जाने
म्लेच्छैरिव प्रचरथाऽद्य विनश्य पुण्यम्।।4।।
वीर्यस्य संयमपरो भजते हरञ्च।
वाचञ्यमो निजपथे सरति श्रितार्थ
श्शैवम्भरस्स लभते सुफलं जगत्याम्।।5।।
वाक्संयमेन च विना प्रवदन्ति सर्वम्।
आचारहीनपुरुषाश्च वदन्ति धर्मं
काऽसौ द्रुतम्प्रचरति श्रुतिशास्त्रहानिः।।6।।
कैसी सर्दी ? हिन्दी कविता - हिमांशु गौड
अलाव नहीं चौराहों पर फिर कैसी सर्दी
दिल में कोई लगाव नहीं है , कैसी सर्दी
उपन्यास पढ़ते पढ़ते जब चाय ना मिले
नोचो अपने बाल कहो फिर कैसी सर्दी।
मीठी मीठी धूप ना मिले खेतों में जब
फ्लैटों में रहते लोगों की कैसी सर्दी
कंबल ओढ़े शास्त्रों का जो पाठ पढ़ाएं
शास्त्री जी को शोभित करती ऐसी सर्दी।।
पीपल के पेड़ों के नीचे कहीं नहीं अब
बतियाते लोगों के जमघट, कैसी सर्दी
स्वच्छ हंसी और हृदय खो गए
हम सबसे अब दूर हो गए
चेहरे पर मल ली लोगों ने
कृत्रिमता की देखो हर्दी
हर मौसम की गई महक
फिर कैसी सर्दी.....
हिन्दी कविता , हिमांशु गौड, गांवों में फिर रंग सजा दो
गांवों में फिर रंग सजा दो
लोगों को सम्मान सिखा दो
धरती की आभा का इक
संपत्ति-प्रतिमान दिखा दो
गंगा जी की लहरों में
भक्ति और विज्ञान दिखा दो
नृत्य शास्त्र की परंपरा का
खुश होकर उद्यान दिखा दो
किस किसको सोचोगे अब
सबको ही नव तान सुना दो
पुण्यसंपदा प्राप्त करो
वैष्णव लोकों का दृश्य दिखा दो
गणपति के मंदिर में जा
दूर्वा का श्रंगार चढ़ा दो
बिल्वपत्र विजया से शोभित
शिव जी को संभार चढ़ा दो
लौकिक और अलौकिक गतियां
शास्त्रों के अनुसार बना लो
डामर और पुत्तलिका तंत्रों
को शक्तिआधार बना लो
स्वरशास्त्रों की व्याख्याओं से
गंधर्वो के तार सजा दो
सरस्वती के मंत्रों से
आत्म तत्व झंकार बना लो
श्रवण धनिष्ठा नक्षत्रों के दिन
अनुष्ठान प्रारंभ करा दो
नानारूपधरी यक्षी से
चित्पक्षी साक्षात् करा दो
गुंजा सफेद का यंत्र बनाकर
डाकिनियों को पास बुला लो
.....
तन्त्र जगत् : हिमांशु गौड

☠☠☠☠तन्त्र-जगत् ☠☠☠☠
----------मैं उन जंगलों में आगे बढ़ा जा रहा था!!
मुझे ताबीज बनानें के लिए जिस पौधे की तलाश थी, वह उन्हीं जंगलों में मिल सकता था !
खैर , काफी मशक्कत के बाद भी वह पौधा मुझे नहीं मिला। अगले दिन उसे ढूंढने का विचार बनाकर मैं अपने घर की तरफ लौटने लगा।
लेकिन तभी मुझे लगा कि मेरे पीछे कोई चल रहा है !!
मैंने एक बार पीछे मुड़कर देखा लेकिन कोई नहीं था मुझे लगा शायद मेरा भ्रम है !!
फिर मैं सामान्य गति से चलने लगा लेकिन मैं महसूस कर रहा था कि कोई अदृश्य शक्ति है , कि जो मेरे आस-पास है!!
जो दिन रात तंत्र शक्तियों के पहरे में रहते हैं, वो आसानी से इन ताकतों को पहचान जाते हैं !!
वह बार-बार अपनी छाया दिखा कर मुझे डराना चाहता था!!
वह ...जो उस शाम के हल्के उजाले में मुझे साफ साफ महसूस हो रहा था... वह शख्स,मेरे पीछे घूमते ही धुवें में तब्दील हो गया !!!
मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह किस तांत्रिक की भेजी हुई शक्ति है ??या यह कोई प्रेतात्मा है जो मेरे पीछे लगी हुई है! क्योंकि पिछले कई दिनों से कुछ परछाइयां मेरा पीछा कर रही थी कभी सपने में तो कभी अपने होने का हल्का सा एहसास दिला कर!
खैर!!
मैं उन खाली पड़े और पुराने रास्तों और कई खंडहरों के बीच में से गुजरता हुआ अपने घर आ गया।
शाम हो चुकी थी !
एक तरफ मस्जिद की अजान की आवाज और दूसरी तरफ मंदिर में से घंटे बजने की आवाज आ रही थी !!
अब अंधेरा फैल चुका था !पंछी अपने बसेरों की तरफ लौट रहे थे !
मैंने सबसे पहले एक चाय पी !फिर कुछ सोचने लगा , तब तक हमारे घर में भी शाम की पूजा का दीपक, कर्मानन्द ने प्रज्वलित कर दिया था।मुझे लगा मुझे भी अपने बचाव के लिए कुछ पूजा करनी चाहिए ।
मैंने स्नान किया और अपने पूजा स्थल पर जाकर सन्ध्यावन्दन के बाद कुछ विशेष मंत्रों का भी जाप किया। थोड़ी मन को शांति मिली जिस कस्बे में मैं रहता था , उसमें बिजली रात को 10 से पहले नहीं आती थी और कभी कभी पूरी रात भी नहीं आती थी।
यह एक जाड़े की ही शाम थी!
थोड़ी देर बाद चौटाला मेरे पास आया।
उसने दरवाजे पर आवाज दी- भाईसाब!
मैं बोला - अंदर आ जाओ !
वह अंदर आकर मेरे सामने एक कुर्सी पर बैठ गया।
चौटाला- क्या हुआ भाईसाब , आज दिखाई नहीं दिए ?आज कहां गए थे?
मैं चुप ही था !
मेरी गंभीर मुख-मुद्रा देख कर चौटाला समझ चुका था कि आज फिर किसी प्रेतात्मा से भाईसाब का सामना हुआ है!
तब तक कर्मानन्द उसके लिए चाय ला चुका था ।
धीरे-धीरे चाय पीते हुए चौटाला बोला- भाईसाब, मैं जानता हूं कि आज फिर किसी प्रेतात्मा से आपका सामना हुआ है !
मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा- शायद ये काले मंदिर का पुजारी है जो मेरे पीछे पड़ा हुआ है और रोज नए प्रेतों को भेजता रहता है मुझ पर हमले के लिए ।
चौटाला- भाईसाब ! आप ठीक कह रहे हैं! वह कुछ ऐसा ही तांत्रिक है ! वो आपसे इसलिए जलता है क्योंकि आपकी पंडिताई इस गांव में बहुत चल रही है।
वह आपकी जजमानी काटना चाहता है , इसीलिए आप पर आए दिन तंत्र प्रयोग करता रहता है!!
- लेकिन तुम तो जानते हो चोटाला ! मेरे पास भी ऐसी मंत्रों के अस्त्र है कि वह काले मंदिर का पुजारी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता......
.....कर्मानन्द!! जो कि कुछ दूर खड़ा हमारी बातें सुन रहा था पूजा के स्थान पर रखी हुई कौवे के पंख की राख लेकर आ गया था!
मैंने उससे पूछा - इसमें बिल्ली के नाखून की राख भी मिलायी है या नहीं?
करमानंद बोला- हां, और उसके साथ ही मुर्दे की खोपड़ी का चूर्ण भी मिला लिया है!!
ठीक है , फिर आज रात ही हम प्रक्रिया शुरू करते हैं ! आखिर पता तो चले, वह आत्मा कौन है? किसकी भेजी हुई है? और हम से क्या चाहती है!!
चोटाला किसी अनजाने तूफान की आशंका से मन ही मन घबरा गया था,
लेकिन मैंने उसको खूंटी से उतार कर एक लाल रंग का अभिमन्त्रित कपड़ा दिया कहा - इसे अपने गले में बांधे रख!! तू भी मेरे साथ ही चलेगा !
हवन के लिए लकड़ी और बाजार से कुछ सामान भी तुझे ही इकट्ठा करना है!!
चोटाला यद्यपि कुछ डरपोक स्वभाव का था लेकिन मेरे आश्वासन से उसे कुछ ढांढ़स बंधा!
☠☠☠☠☠☠☠☠☠☠☠☠☠-----------+++++-------------हवन शुरू हो चुका था!
चारों और घना जंगल !
सांय सांय करती हवा!
और घोर अंधकार के बीच हवन से निकलती हुई अग्नि की लपटों से एक विचित्र सी आकृति बन रही थी !
मैंने अपने और चौटाला के चारों ओर एक सुरक्षा चक्र की भांति घेरा खींचा और उसके अंदर बैठ गए !
चौटाला यद्यपि मन ही मन कुछ डरा हुआ था ,
लेकिन बाहर से वह ऐसा ही दिखाने का प्रयत्न कर रहा था जैसे वह बिल्कुल निर्भीक हो !
अभी एक माला ही हवन हुआ था कि आसमान में बिजली चमक उठी!
दूर कहीं बैठे हुए सियार हू हू करके रोने लगे !
ऐसी काली रात में भी कई पक्षी अजीब तरह की आवाज में चिल्लानें लगे !!
और तभी !!
ऐसा लगा जैसे कोई जानवर भयंकर हुंकार देता हुआ हमारी ओर दौड़ा हुआ आ रहा हो!
चौटाला !!
जो कि पहले से ही काफी डरा हुआ था वह अचानक भागने को तैयार हुआ, लेकिन मैंने सख्ती से उसका हाथ पकड़ लिया !!
यद्यपि मैं उसे पहले ही समझा चुका था कि इस सुरक्षा चक्र के अंदर कोई भीबुरी ताकत प्रवेश नहीं कर सकती !
लेकिन वह मूर्ख !!
मैं आहुति छोड़े जा रहा था!
कुछ सिर्फ महसूस होने वाले साए , इधर उधर सरगोशियां करने लगे !
सांय-सांय करती हुई एक-एक हवा जैसे उनकी शै पर नाच रही थी!
जैसे आसमान को उस ताकत ने अपनी मुट्ठी में कर लिया था!!
लेकिन देखिए मंत्रों की शक्ति , कि सुरक्षा घेरे के अंदर आने की किसी की हिम्मत नहीं थी!
यद्यपि उस वक्त वातावरण बहुत डरावना हो चुका था, लेकिन मुझे पूर्ण-विश्वास था , कि हमारा कुछ भी बुरा नहीं हो सकता !!
और फिर मानों जैसी हजारों सांप एक साथ फुंकारे हों ,
जैसे कई औरतें डरावनी आवाज में चीख-चीख कर रो रही हों ,
जैसे साक्षात् मनहूसियत ही वातावरण पर हावी हो गई हो !!
इस तरह की भयावह स्थिति के चलते,
अचानक वह डायन खौफ़जदा कर देने वाले अंदाज में आसमान तक फैले हुए धुंए के साथ,
हवन कुंड के सामने ही प्रकट हो गई........
चौटाला के मुंह से एक भयंकर चीख निकली और वह बेहोश हो गया...........................................
☠☠☠☠
इतनी नाजुक तांत्रिक क्रिया!
उसके बाद भी बड़ी मुश्किल से यह अदृश्य ताकत प्रकट होती हैं , लेकिन एक गलती की वजह से हमारे प्राण संकट में पड़ चुके थे!!
भूत प्रेतों के सामने डर जाना ही मौत के मुंह में जाने के बराबर होता है !!
बहुत बड़ी चूक हो चुकी थी, जो मैं चोटाला जैसे डरपोक आदमी को अपने साथ ले आया था !
लेकिन यह वक्त अपनी भूल पर पछताने का नहीं , बल्कि सामने खड़ी डायन से टकराने का है ।
मैंने शिव के अमोघ कवच का जाप करते हुए अपने थैले में से जल्दी से एक लाख शिव मंत्रों से अभिमंत्रित त्रिशूल निकाल लिया और उसको उस डायन की तरफ दे मारा !!
अगले ही क्षण जैसे सब कुछ थम गया हो!!
वह डायन गायब हो चुकी थी !
सारी तंत्रक्रिया व्यर्थ हो गई थी , सिर्फ इस चौटाला के कारण !
बीच मंत्रों के जाप में , जबकि मैंने उसे पहले ही बता दिया था, कि कोई भी शक्ति प्रकट हो तो डरना नहीं !!
ऐसी हालत में भी उसने अपना बैलेंस खो दिया, और सब खेल !
खैर!
सहसा आया हुआ खतरा टल चुका था।
ऐसी अंधेरी रात में उस बेहोश चौटाला और मेरे सिवा वहां दूर-दूर तक कोई नहीं था ।
मैंने अपना फोन निकाला और कर्मानंद को फोन लगाया ।
कर्मानंद तुरंत बाइक लेकर के वहां पहुंच गया ।
बेहोश चौटाला को बीच में बैठाया और हम वहां से निकले ।
चौटाला को मैंने कमरे में बेड पर लेटा दिया।
" इसको डिस्टर्ब करना अभी उचित नहीं होगा" - मैंने कर्मानंद की तरफ देखा ।
कर्मानंद को मैंने शॉर्टकट में सब बता ही दिया था ।
कर्मानंद अपने कमरे में गया, और मैं भी अपने छोटे वाले कमरे में जाकर सो गया।
रात बीत चुकी थी !
सुबह हो चुकी थी !
चिड़ियों के चहचहाने की आवाजें आ रही थीं।
सूरज का उजाला मेरे घर के आंगन में आ चुका था।
मैं उठा और घड़े में से पानी निकाल कर दो घूंट पानी पिया ।
मैंने देखा कर्मानंद आंगन में झाड़ू लगा रहा है।
मैंने कमरे में से बाहर आते हुए कर्मानंद से पूछा - "चौटाला को होश आया या नहीं"
"अभी तो वे अपने कमरे में ही हैं। मैंने भी देखा नहीं है!"
तब मैं चौटाला के कमरे में गया।
उसे झिंझोड़ा - "चौटाला! चौटाला!"
लेकिन उस पर कुछ फर्क नहीं पड़ा ।
मैंने कर्मानंद से एक गिलास पानी मंगवाया, और उसमें से कुछ छींटे चौटाला के ऊपर मारे।
इस बार वह थोड़ा कुनमुनाया ।
ऐसा लगा जैसे वह बहुत गहरी नींद में सो कर उठा है ।
उसकी आंखें लाल हो रही थी।
चेहरा पीला पड़ गया था।
डरी-डरी आंखों से उसने चारो तरफ देखा!
शायद वह अभी भी रात वाले डर से निकल नहीं पाया था ।
मैंने उसे सांत्वना दी - " चौटाला! घबराने की कोई बात नहीं!" "तुम सुरक्षित अपने घर पर हो!"
"कमाल करते हो यार तुम भी !"
जब तुमसे पहले ही बता दिया था सारा मामला तुमने खराब करवा दिया। खैर अब चिंता करने की कोई बात नहीं । "
मैं उससे बात कर ही रहा था, तब तक कर्मानंद अदरक की चाय बना कर ले आया था।
मैंने कप चौटाला के हाथ में कप दिया और कहा - " निश्चिंत होकर चाय पियो!"
" चौटाला! सब्र करो!" डरो मत!
"मेरे होते हुए तुम पूर्णतः सुरक्षित हो।
कोई भी आत्मा, कोई भी डायन तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।"
चोटाला की सांस में सांस आई- "भाईसाब मुझे क्षमा करें , उस भयंकर आकृति को देखकर मेरी बिल्कुल सांस ही रुक गई थी! मुझे पता भी नहीं चला कि कब मेरी चीख निकली और कम में बेहोश हुआ !"
"मुझे लगता है मुझे अभी आपके पास और रहना होगा! इस तंत्र की जगत् में मुझे और निपुण होना होगा!
" चौटाला सब्र कर! ये तंत्र शक्तियां!, ये मंत्र सिद्धियां!, बड़े धैर्य की चीजें होती हैं ! लोग जिंदगी गुजार देते हैं, इन्हें प्राप्त करने में !"
"कौन सी अदृश्य ताकत कब नुकसान पहुंचा दें , या का फायदा पहुंचा दें , यह कोई नहीं जानता। जो होता है अच्छे के लिए ही होता है ।
"खैर यह तो अच्छा हुआ, कि रात मैं त्रिशूल भी अपने साथ ही लेता गया था , और उसकी अमोघ शक्ति के आगे डायन भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकी, साथ ही कर्मानंद की भी हमें दाद देनी होगी । यह भी बाइक लेकर तुरंत ही पहुंच गया था ।
कर्मानंद को यह सुनकर बड़ा अच्छा लगा!
वह बोला - "गुरुदेव आपके लिए तो मैं आधी रात भी हाजिर हूं !"
"हां तो भई ! आधी रात को तो तुम हाजिर हो ही गए थे!"
फिर मैंने गंभीर होकर कहा -
"लेकिन कर्मानंद!अब तुम्हें भी बड़ा चौकन्ना होना पड़ेगा! इस घर के चारों ओर अभिमंत्रित कील गाड़ दो! किसी भी बाहरी व्यक्ति को हमारे घर के अंदर होने वाली पूजा के विषय में जरा भी भनक नहीं लगनी चाहिए।"
"हम आज से ही ग्रह शांति का पाठ करेंगे, और उस काले मंदिर के पुजारी को जवाब देंगे । चिंता मत करो। सब भला होगा।"
चौटाला अब काफी संयत हो चुका था।
तभी दरवाजे की सांकल बजी!!
"पंडित जी! चिट्ठी!
वह डाकिया था।
"आओ भई रामप्रसाद! अंदर आ जाओ!"
डाकिया- "पंडित जी! मैं फिर कभी आऊंगा आप चिट्ठी ले लीजिए! मुझे कहीं और भी जाना है।"
इस मोबाइल के जमाने में भी किसको पड़ी है चिट्ठी लिखने की!
ऐसा मन में सोचते हुए मैंने चाय का कप मेज पर रखा, और बाहर आया - "कहां से है चिट्ठी?"
"दिल्ली से कोई बृजमोहन गुप्ता हैं" - डाकिया चिट्ठी के पीछे लिखे हुए एड्रेस को देखता हुआ बोला।
मैंने उसके हाथ से चिट्ठी ली, और उसे पढ़ने लगा। उसे खोल कर पढ़ने लगा जैसे-जैसे उसे पढ़ता जा रहा था मेरे चेहरे पर विचित्र प्रकार के भाव आ रहे थे!
होठों से बरबस ही निकल पड़ा - "ओह! इसका मतलब..."
.............
......................
.…........................ जारी है!!
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संस्कृत क्षेत्र में AI की दस्तक
ए.आई. की दस्तक •••••••• (विशेष - किसी भी विषय के हजारों पक्ष-विपक्ष होते हैं, अतः इस लेख के भी अनेक पक्ष हो सकतें हैं। यह लेख विचारक का द्र...
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यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु: हंसा महीमण्डलमण्डनाय हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।। हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा ...